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Channel: अध्ययन -कक्ष –लघुकथा
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अपने अपने क्षितिज

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हिन्दी में लघुकथा की केन्द्रीयता उसके प्रसार के साथ कथ्य की बुनावट में लक्षित हो रही है। अनुभव को दृष्टि के साथ कलात्मक स्थापत्य देने के प्रयास भी हो रहे हैं। भले ही मुद्रा स्फीति की तरह लघुकथाओं का अनियंत्रित प्रकाशन धड़ल्ले से हो रहा है। अपने-अपने क्षितिज लघुकथा संकलन इस मायने में विशिष्ट है कि लघुकथा के धरातल के साथ उसकी बुनावट पर विशेष ध्यान रखकर चयन किया गया है। संपादकों ने भूमिका में ही इनमें से नये रचनाकारों के विशिष्ट पक्ष के मंडल के साथ उन शिथिलताओं पर बेबाकी से लिखा है, जो बेहतर लघुकथाओं के सृजन की दृष्टि से पाथेय है, यही नहीं नये लघुकथाकारों के पार्श्व में उन हस्ताक्षरों को भी रखा गया है, जिनके पास सृजन के चालक पक्ष के साथ नयी रचनाभूमि को लघुकथा में समेटने की आकुलता है।

हिन्दी लघुकथाओं की ज़मीन पारंपरिक विषयों से जितनी पकी है उतनी ही नए विषयों को तलाशने में उसके भूगोल का अभिवर्धन कर रही है। सुचिंतित लघुकथाकार लघुकथा के व्याकरण में सिमटे नहीं हैं, बल्कि उसका अतिक्रमण भी कर रहे हैं और साहित्य की अन्य विधाओं के संक्रमण से उसके स्थापत्य को कथ्य से रिला-मिला कर लघुकथा की क्षमता का परिचय दे रहे हैं। यह भी कि लघुकथा की सैद्धांतिकी के साथ सामाजिक विमर्श भी उसकी वैचारिकी को अनुभूति में रुपांतरित कर रहा है। अपने परिवार समाज तक सिमटी लघुकथा अब प्रवासी, विदेशी ज़मीन पर उगे अनुभव संसार को भी समेट रही है। उसमें अर्थ का ग्लोबल बाज़ार भी झांक रहा है, विस्थापन की पीड़ा भी और परिवार की दरकती ज़मीनें भी। यह संग्रह घर की अंतर्दशाओं से निकलकर देश-विदेश और भूमंडलीकरण से उपजी मनोदशाओं, सामाजिक सांस्कृतिक बदलावों को भी समेटता है। अलबत्ता अन्य देशों की लघुकथाओं के प्रभाव और तज्जनित परिवर्तनों की छाया इनमें दृष्टिगत नहीं होती।

घर-परिवार से जुड़ी लघुकथाओं में ममत्व और विस्थापन, युवा-वृद्ध तकरारें, दांपत्य के सुख-दुख, पारिवारिक दायित्वों के बोझ का कसैलापन, करियर और पारिवारिक छिटकाव, लड़का-लड़की का फर्क, पारिवारिक अर्थशास्त्र में उलझी संतान कामना, पीहर ससुराल के बीच स्त्री, पारिवारिक रिश्तों का स्नेहिल अंतर्ग्रंथन, बच्चों की समझ और अभिभावकों की शंकाएँ, दहेज की विद्रूपताएँ, लिव इन के रिश्ते जैसे अनेक पार्श्व उभर कर आए हैं। अंतरा करवड़े की ‘ममता’ ; अपराजिता अनामिका श्रीवास्तव की ‘पगफेरे’ ; अशोक जैन की ‘ज़िंदा मैं’ ; अशोक भाटिया की ‘यक्षप्रश्न’ ; ओमप्रकाश क्षत्रिय की ‘षड़यंत्र’ ; कपिल शास्त्री की ‘सेफ्टी वॉल्व’ ; कमल चोपड़ा की ‘वैल्यू’ और ‘प्लान’ ; कांता रॉय की ‘परिवार’ ; ज्योत्सना सिंह की ‘दंश’ ; दीपक मशाल की ‘बड़प्पन’ ; नीरज सुधांशु की ‘अपेक्षा’ ; बलराम अग्रवाल की ‘गुलाब’ ; रतन राठौड़ की ‘निदान’ ; रेणुका चितकारा की ‘तूफान’ ; विभा रश्मि की ‘पड़ोसी धर्म’ ; डॉ. श्याम सखा श्याम की ‘मूछें मुस्कुरा उठीं’ ; डॉ. शील कौशिक की ‘वार्तालाप’; डॉ. संध्या तिवारी की कठिना पारिवारिक जीवन के उलझे-सुलझे व्यवहारों को कथ्यपरक बनाती हैं।

सामजिक जीवन की विसंगतियों को अपना वैचारिक संस्पर्श देती लघुकथाओं में जातिवाद, अंधविश्वासों और रूढ़ियों से विद्रोह, धार्मिक कट्टरताओं पर तंज, दंगों और सांप्रदायिक विद्वेशों की सामाजिक मनोभूमि, बच्चियों के साथ कुत्सित हरकतें, गरीबी का अर्थशास्त्र और सामाजिक स्तरभेद की विषमता, पॉश कॉलोनियों के उजाड़ रिश्ते, उच्च और निम्न वर्ग के संघर्ष, किन्नरों की व्यथा, अभावों की सिसकन, दंगों का जातीय मनोविग्यान, स्टेटस के रोग जैसे कई कोणों से रचनाकारों ने समाजशास्त्र को यथार्थ रंगत दी है, कहीं विद्रोह और अतिक्रमण से बदलाव को हवा दी है। अरुण कुमार गुप्ता की लघुकथा ‘दर्शन’ ; कपिल शास्त्री की ‘चार रुपये की खुशी’ ; कुसुम जोशी की ‘बेआवाज़’ ; चंद्रेश कुमार छतलानी की ‘दूध’ ; नयना आरती कानिटकर की ‘सिलसिला’ ; बलराम अग्रवाल की ‘अपने-अपने मुहाने’ ; मधुदीप की ‘हथियार’ ; मीना पांडेय की ‘गैर ज़रूरी प्रश्न’ ; मोहित शर्मा की ‘किन्नर मां’ ; योगराज प्रभाकर की ‘पहचान’ और ‘अपने-अपने सावन’ ; रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘जहरीली हवा’ ; विभा रश्मि की ‘फ़र्क’ ; श्याम सुंदर अग्रवाल की ‘गिरे हुये लोग’ उस समाजशास्त्र को बुनती हैं जिसके सिरे इन लघुकथाओं का यथार्थ बने हैं।

नारी विमर्श आमतौर पर साहित्य की हर विधा में केन्द्रीय बना है। पुरुषवादी वर्चस्व को चुनौती देती इन लघुकथाओं में केवल विरोध नहीं, साहचर्य का सांस्कृतिक भूगोल भी है, नारी के सहकार के साथ उसकी कमज़ोर आंकी जाती शक्ति की विद्रोही ताकत भी है। गृहिणी के घरेलू काम की अस्मिता केवल त्याग में न रंगकर विवेक और अधिकार का रास्ता तलाशती है। कहीं-कहीं पति या पिता का पिघला मन नारी के प्रति उदात्त सहकार को संजोता है पर कभी ‘चंगुल’ की माँ पति को दरकिनार कर मातृत्व के तेज को तथाकथित सामाजिक बदनामी पर नये प्रकाश में उजाला देती है। कहीं ‘मैं हूं न तेरे साथ’ का नारी सहकार, कहीं कौमार्य परीक्षण से नारी की पवित्रता का अंकन करने वाली पुरुष मनोवृत्ति को नारी की लात का आक्रोश, कहीं वात्सल्य की धारा, कहीं नारी की बेबसी, कहीं पत्थर इंसान के बीच औरत का दर्द, ‘फैसला’ में औरत की निर्णायक शक्ति जैसे कई रूप पुरुषवादी वर्चस्व को चुनौती देते हुये अपनी अस्मिता को बुलंद करते हैं। ‘वंशवृक्ष’; ‘बेनाम रिश्ता’ ; ‘गाय’ ; ‘बेड़ियाँ’ ; ‘जागरण’ ; ‘मुठ्ठी भर धूप’ ऐसी ही लघुकथाएँ हैं।

यों इन लघुकथाओं में राजनीति के परिदृश्यों पर तीखे व्यंग्य भी हैं, पर्यावरण की चिंताएँ भी हैं, बेरोज़गार युवाओं में करियर की दरकार और भविष्य की चिंताएँ भी हैं, प्रशासनिक लालफीताशाही के कंटीले इंतज़ार भी हैं, भ्रष्टाचार के कागज़ी कारनामे भी हैं, अस्पतालों के धोखे भी हैं, पुलिसिया दलाली के गोरखधंधे भी हैं, दफ्तरिया बॉस का सौंदर्य -पिपासु चरित्र हैं। पर इन सभी पार्श्वों में कहीं भी ठेठ गंवई किसानी चित्र नहीं है जो कपास के फूल की तरह उजला है और अभावों में आत्महत्या तक मजबूर। ग़रीबी के परिदृश्य  कुछ कसकीले परिदृश्यों  का वृत्त माँगते हैं। अधिकतर लघुकथाएँ मध्यम वर्ग में सिमटी हैं। चरित्रों का मनोविग्यान वृत्तों की आंतरिकता के साथ गहराई माँगता है। वर्णन या संवाद शैली नई शैलियों के साथ कदम नहीं मिला पाती। प्रयोग शीलता का नवोन्मेष वृत्तियों से लेकर वाक्यों और शब्दनाद के साथ प्रतीकों , बिंबों या नरेशन में सांकेतिकता की माँग करता है। अभी राजनीति और भ्रष्टता के वे आंतरिक अध्याय उसके अंतर्जाल की गहरी बुनावट माँगते हैं। फिर भी बॉडी लेंग्वेज, विजुअल, क्रियात्मक गतिशीलता, संवादी संचार, नेपथ्य की बुनावट, लेखक की उपदेशपरकता से मुक्त कथा-संघटना, लेखकीय प्रवेश पर अंकुश जैसी विशिष्टताओं के साथ लघुकथा की बुनावट में अन्य विधाओं के संक्रमण को लक्षित किया जा सकता है।

इस संग्रह के कतिपय विशिष्ट रचनाकारों के प्रतिदर्श बना कर लघुकथा के इस संग्रह की बात करना ज़रूरी है, जो लेखकों को अपने-अपने क्षितिज को और व्यापक और उनकी संघटना को कसावट लाते हैं। सुकेश साहनी की ‘वायरस’  फिल्मी प्रभावों के पारिवारिक संक्रमण को विवश सहजता तक ले जाती है। उनकी संघटना में प्रत्येक इकाई अपने अर्थ की प्रयोजकता में सिद्ध होती है। कमल चोपड़ा कथावृत्त के साथ संदेश को एकमेक कर देते हैं। नीरज सुधांशु ‘सौदा’ में विमुद्रीकरण की पगडंडी दिखाती है नए कथा-तल के साथ। बलराम अग्रवाल संकरीली पगडंडियों से टकराते हुए मानवीय क्षितिज को संवेदी बनाते हैं। अशोक भाटिया ‘पार्टी लाईन’ में राजनैतिक मूल्यों पर संवादी चुस्ती के साथ गहरा व्यंग्य कर देते हैं। अशोक जैन परिदृश्यों की संवादी और विजुअल भाषा में विवश पात्र के भीतर अस्मिता की दमक भर देते हैं। मधुदीप समांतर रूप से विरोधी रंगों की योजना कर मल्टी और मजदूर बस्ती के टकराव को हुंकार में बदल देते हैं। योगराज प्रभाकर ‘नींव के पत्थरों’ की अनुगूँज को युवा पीढ़ी की सृजनात्मकता में तलाशते हैं। रामेश्वर काम्बो ‘हिमांशु’ ‘दूसरा सरोवर ‘ में बिना लाऊड हुए सांकेतिक मार कर जाते हैं। सुभाष नीरव ‘बर्फी’ में चरित्र का रेशा-रेशा बिखेर देते हैं संवादी शिल्प की संरचना और संदर्भानुसार घटना चक्र की संरचना से। निश्चय ही ये जितने विषयगत नएपन के क्षितिज हैं, उतने ही लघुकथा की शिल्पगत बुनावट और कसावट के भी। इसमें दो राय नहीं कि नये लघुकथाकार संजीदा ढंग से अब तकनीक और जीवन, देश-विदेश के अनुभव और नयी कथा-भूमियों की तलाश कर रहे हैं। पर ये प्रतिदर्श नये कथाकारों के लिए मार्गदर्शी हैं। भले ही ये उन मार्गों की अनदेखी करें, पर नवोन्मेषी नज़रिये का मार्ग चुनने की अनुभविता तो ले ही सकते हैं। संपादक डॉ. जितेन्द्र जीतू का समीक्षक रूप भी इस पुस्तक का बेबाकीभरा अध्याय है, जो नयी पीढ़ी में लघुकथा के संदेश एवं बुनावट के व्याकरण को दिशा देता है।

-०-पने-अपने क्षितिज;संपादक- डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’ व डॉ. नीरज सुधांशु.प्रकाशक- वनिका पब्लिकेशन्स, दिल्ली,वर्ष- 2017,मूल्य-500 रुपये

-०-बी.एल. आच्छा,36, क्लीमेंस रोड, सरवना स्टोर्स के पीछे,पुरुषवाकम, चेन्नई(तमिलनाडू)-600007

मोः 09425083335


देह व्यापार पर केंद्रित लघुकथाएँ

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करीब बाइस साल पहल की बात है, वीरगंज से काठमांडू की पैदल यात्रा के दौरान किसी गाँव से गुज़रते हुए एक भारतीय युवक को नेपाली दूल्हे की वेशभूषा में देखा था। नेपाली दुलहन की आँखें रोते-रोते लाल हो रही थीं, वह बार-बार माँ के गले लगकर रो पड़ती थी। बिल्कुल अपने यहाँ के वधू की विदाई के समय का-सा दृश्य था।

‘‘जो कुछ मेरी धन-सम्पत्ति है, यही है, तुम्हें सौंप रही हूँ।”  ’ लड़के का पिता नेपाली भाषा में बार-बार यही शब्द दोहरा रहा था। उसे और कुछ सूझ ही नहीं रहा था।

‘‘चिन्ता न करें, अब आपकी लड़की मेरी धर्मपत्नी है।”  युवक टूटी-फूटी नेपाली में कह रहा था। उसके चेहरे पर इस प्रकार के भाव थे मानो लड़की के माँ-बाप का दुख उससे देखा न जा रहा हो।

अपने देश से दूर इस रूप में किसी देशवासी के मिलने पर जिज्ञासावश मैंने उस से इस शादी के बारे में पूछा था। वह मेरी ओर देखकर बेशर्मी से हँसने लगा था। शायद उसने मुझे भी अपने जैसा समझ लिया था। नकली दूल्हा बने उस युवक की हँसी का राज बहुत बाद में मेरी समझ में आया था।

वह फिर अपने चेहरे पर दुख और पीड़ा के भाव लाकर लड़की के माँ-बाप के पास पहुँच गया था, ‘‘दुखी मत होइए, आपकी लड़की मुझे प्राणों से प्यारी रहेगी।”  ’

मैं उसका नीच अभिनय देखकर दंग रह गया था।

इस एक घटना से अनुमान लगाया जा सकता है कि वेश्यावृत्ति के इस विश्वव्यापी तंत्र से जुड़े लोग किस तरह बिना पूँजी का व्यापार करते हैं, लड़कियों की मजबूरी का फायदा उठाते हैं। नकली शादी, फिल्मों का प्रलोभन, प्रेम का झांसा या नौकरी का वादा करके इन्हें कोठों और होटलों में बिठा देते हैं। देह व्यापार से जुड़े तमाम अच्छे-बुरे पहलुओं की पड़ताल करती कुछ लघुकथाएँ प्रस्तुत हैं।

भारतीय समाज के लिए अभिशाप बन चुका दहेज दानव अपना शिकंजा कसता ही जा रहा है। दहेज न दे सकने के कारण न जाने कितनी युवतियों का विवाह नहंी हो पाता। ऐसे में यदि युवक बिना दहेज लिए शादी करने के लिए सामने आता है तो माँ-बाप को जैसे भगवान मिल जाता है। बाद में पता चलता है कि लड़की की प्रत्येक रात का सौदा तो पहले ही पक्का हो गया था। (धंधा: अशोक लव)

देह व्यापार के लिए विवश नसीरन की सादगी और भोलेपन पर परसादी का दिल आ जाता है। वह कहता है,  ‘‘नसीरन, इस चकले की जिंदगी से तो तू दुखी होगी, बोल तू मेरी बीवी बनेगी?’’ नसीरन सिसक उठती है, ‘‘मुझे बीवी बनाकर तू क्या करेगा? मैं पहले ही इस चकले के मालिक की बीवी हूँ…वह भी मुझे बीवी बनाने की कहकर ही लाया था।”  ’ (बीवी का दर्द: बालासुंदरम् गिरि)

‘‘क्या तुम शादीशुदा हो?’’

‘‘हाँ!’’

‘‘फिर यह धंधा क्यों करती हो?’’

‘‘क्योंकि जब मेरी शादी हुई थी तो मैं दहेज नहीं लाई थी।”  ’ (स्याह हाशिए: ब्रजेश्वर मदान)

आर्थिक संकटसे जूझते परिवार के बेरोज़गार युवक को जब लाख कोशिशों के बावजूद काम नहीं मिलता तो घर की लड़की को कमाने के लिए मजबूर होना पडता है-आधी रात को वह दबे पाँव घर में घुसता है ताकि माँ के रोज-रोज के सवाल ‘‘क्यों बेटा, कुछ मिला रे?’’ का सामना न करना पड़े। वह बिछौने की तरफ दो डग ही बढ़ता है कि माँ कहती है, उधर खीर-पूड़ी रखी है, तू भी पेट भर खा ले।”  ’ वह चौंक जाता है, खीर-पूड़ी कहाँ से आई? घूमकर देखता है, आज माँ अकेली सोई हुई है। उसके कुछ बोलन से पहले ही माँ कहती है, ‘‘तेरी बहन आज से कमाने लगी है रे।”  ’ (रोजी रोटी: विक्रम सोनी) इस राह पर निकल पडी स्त्री की विवशता को शराफत अली खान  ने सशक्त तरीके से व्यक्त किया है-बेरोजगाार युवक की भूख आक्रोश में बदल जाती है। वह कुछ करने के इरादे से एक अंधेरी वीरान-सी पुलिया पर बैठ जाता है। आधी रात के बाद वहाँ से गुजरती स्त्री को दबोच लेता है, ‘‘अपनी इज्जत बचाना चाहती हो तो रुपए मेरे हवाले कर दो।”  ’ स्त्री तड़प उठती है, ‘‘मुझे इज्जत की परवाह नहीं, रुपए मैं नहीं दे सकती, क्योंकि मैं इज्जत बेचकर ही ये रुपए लाई हूँ।”  ’ इस श्रेणी में अन्य लघुकथाएँ हैंनौकरी की तलाश: लक्ष्मण बिहारी माथुर, कनस्तर: संजीदा, आटा और जिस्म: सतीश राठी, बजट: हुमायूँ निसार फैजाबादी।

किसी पुरुष को किसी वेश्या के पास जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। वह अपनी इच्छा से वेश्या के पास जाता है (घर लौटते कदम: डॉ. सतीशराज पुष्करणा) यदि पुरुष चाहे तो इस व्यवसाय को सीमित करने में काफी सहयोग दे सकता है परन्तु विभिन्न सर्वेक्षण बताते हैं कि समाज के तथाकथित सफेदपोश ही देह -व्यापार के निवारण में सबसे बड़े बाधक होते हैं, यही नहीं गरीब घरों की मासूम युवतियों को आर्थिक मदद के बहाने वेश्यावृत्ति की राह पर डाल देत हैं (अनुकंपा: ज्योति रामाणी, निशाना: निर्मला सिंह, कटे हुए मोहरे: रतीलाल शाहीन, इंसाफ: आनन्द बिल्थरे, संबंध: श्याम बेबस)

देह-व्यापार के संदर्भ में पति-पत्नी संबंधों के बदलते रूप की सशक्त अभिव्यक्ति पति (मोहन राजेश) में हुई है-शैलमा कुछ देर तक एकाग्र-सी एजिला को नए ग्राहक के केबिन की ओर जाते देखती रहती है। फिर दूसरी लड़की की ओर मुखातिब होकर कहती है, ‘‘पम्मी! क्या हो गया है आजकल एलिजा को, बहुत जल्दी थक जाती है। अभी तो यह तीसरा….इधर इसकी डिमाण्ड बढ़ रही है और अभी से यह हाल।”  ’

‘‘बात यह नहीं शैलमा, एलिजा थकी नहीं, टूटती जा रही है। अभी-अभी जो गया था न इससे पहले, जानती हो, वह कौन था?’’ पम्मी फुसफुसाकर राज की बात कहती  है, ‘‘एलिजा का पति! जब यह उसके साथ रहती थी तब इधर-उधर की छोकरियों के चक्कर में इस मारपीट कर घर से निकाल दिया। अब दस-बीस का जुगाड़ बैठाकर हर दूसरे-तीसरे दिन यहाँ आ जाता है। कुत्ता!’’

पुरुष जब स्वार्थ सिद्धि हेतु स्त्री का इस्तेमाल करता है तो उसे पता ही नहीं होता कि उसने स्त्री को देह-व्यापार के प्रवेश द्वार के सामने ला खड़ा किया है-

‘‘तुम थोड़ा रिक्वेस्ट करो न सेठ से लड़कियों की बात लोग मान लेते हैं।”  ’

‘‘नहीं।”  ’

‘‘हाँ…यार! जरा समझो, मजबूरी।”  ’

‘‘अच्छा ठीक है।”  ’

‘‘चलें?’’

‘‘चलो!’’ (मजबूरी: राजेश झरपुरे)

पुरुष कभी-कभी अपने कैरियर के लिए पत्नी का इस्तेमाल करता है-शेखर बाबू की पत्नी रात को कुछ ज्यादा ही देर से लौटती है। उसके लड़खड़ाते पाँव देखकर वे तिलमिला जाते हैं, ‘‘तो अब तुम यहाँ तक पहुँच गई हो?’’ पत्नी उनकी तिलमिलाहट को वक्र दृष्टि से देखती है, ‘‘तुमने अपने कैरियर में ऊपर चढ़ने के लिए मुझे सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया और अब, जब मैं अपने कैरियर के लिए ,खुद अपने को इस्तेमाल कर रही हूँ तो…।”  ’ (सीढ़ीः युगल)

कई बार पत्नी पति के शक के कारण प्रताड़ित होकर वेश्या बनने पर मजबूर हो जाती है (लौटते हुए: रामेश्वर काम्बोजहिमांशु)इस तरह के शक्की पति के प्रति सोबती का आक्रोश फूट पड़ता है, ‘‘चुप भी कर हिजड़े…रात भर बीड़ी के पत्ते मोड़े हैं और तू तन बेचना होता तो मुझे खसम ही क्यों करती?’’

इस श्रेणी में अन्य लघुकथाएँ हैं-रोजीः महेश दर्पण, शिकंजा: लक्ष्मी नारायण वशिष्ठ, समझौता: यशवंत कोठारी, उसके पापा: जैब अख्तर, रेगिस्तान: सुकेश साहनी, प्रमोशन: रमेश गौतम आदि।

वेश्याओं के प्रति संवेदनापूर्ण व्यवहार, उनके सामाजिक स्वीकार की कोशिश, उनके प्रति एक मानवीय दृष्टि, सम्मानपूर्ण नागरिक अधिकार और उनके लिए रोजी-रोटी का विकल्प तैयार करना आदि किसी भी सरकार की जिम्मेदारी होते हैं जिन्हें पूरा करने के लिए पुलिस, प्रशासन और नेताओं का सहयोग अपेक्षित होता है। वेश्याओं का सारी उमर का तजुरबा (योगेन्द्र कुमार) यही कहता है कि पुलिस द्वारा उनका शोषण ही किया जाता रहा है-

‘‘अरी चाची, काय की जान छूटी…इहाँ तो रोजाना मुश्किल से आठ-दस गिराहक निबटावें हैं हम.वहाँ तो दिन-रात मुश्टंडों ने छोड़ा ही नहीं मेरी तो देई अभी तक सीधी नहीं हुई है….’’

‘‘क्या कोई नया दरोगा आया है थाने में?’’

‘‘क्या बताऊँ चाची…जी…आवे था मरा खुद को दरोगा ही बताता हुआ आवै था…’’

‘‘अरी क्या बताऊँ.. मेरी तो सारी उमर का तजुरबा है, जब-जब कोई नया दरोगा आवै है ना….तब तब हम गरीबों पर मार पड़े है…।”  ’

उतार लो (पारस दासोत) हमारे नेताओं की कथनी और करनी के अंतर को रेखांकित करती है-रेस्ट हाउस में नेता जी लड़की को बुलवाते हैं शरीर की भूख मिटाने के बाद वे कहते हैं-

‘‘साड़ी तो पहन लो।”  ’

‘‘नहीं! यह साड़ी मेरी नहीं….तुम्हारी है।”  ’ कुर्सी पर पड़ी साड़ी की तरफ देखते हुए वह बोली।

‘‘मेरी!’’

‘‘हाँ ,तुम्हारी! अभी कुछ दिन पहले ही तो तुमने चुनाव के समय बाँटी थी।”  ’

अक्सर बेसहारा लड़कियों को नारी निकतन भेज दिया जाता है जो खुद भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं (शुरूआत: मधुकान्त)

इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएँ हैं-सभी का सच: बीर राजा, चरित्र समानता: सुरेन्द्र सुकुमार, रपट, ट्रांसफर: यशवंत कोठारी, दुश्मन: पवन शर्मा।

शहर की कुछ बिंदास लड़कियाँ महज शौक के लिए किसी पुरुष से शारीरिक संबंध स्थापित कर लेती हैं। पुरुष संबंध के बदले उसे कुछ देता है। लड़की को एहसास होता है कि उसके पास ऐसी चीज है जिसे भुनाया जा सकता है। अपनी देह के बल पर खूब कमाई करने के सपने एक दिन चकनाचूर हो जाते हैं (किस्त दर किस्त: वीरेन्द्र जैन) कुछ लड़कियाँ स्कूल में ही लड़कों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर लेती हैं, फिर उसे आनन्द और विलास का साधन बना लेती हैं और इसे छोड़ना नहीं चाहतीं। संभ्रांत परिवारों से होने के कारण इन पर किसी को शक भी नहीं होता। ऐसी ही लड़की जब चार-पाँच लोगों से लॉज में मिलने का समय तय करती है तो स्कूल के ‘सर’ हैरान रह जाते हैं (नुकसान: अशोक गुजराती) कई जातियों में देह-व्यापार का धंधा पीढ़ियों से चला आ रहा होता है। ऐसे परिवारों में यदि कोई लड़की धंधे से भागकर किसी स्कूल मास्टर के संग शादी कर घर बसा लेेती है तो आवारा लड़की’ (विष्णु स्वरूपपंकज) कहलाती है।

देह व्यापार के विश्वव्यापी तंत्र में वेश्याओं का वही स्थान है जो कारखानों में किसी मज़दूर का। वह उस पूरे तंत्र का मुख्य भाग होते हुए भी भरपूर शोषण का शिकार होती है। मध्य प्रदेश में पत्थर तोड़ने वाली कई औरतों को आर्थिक कारणों से देह व्यापार अपनाना पड़ता है। ऐसी ही किसी रेजा (मज़दूरिन) को नवाब हॉस्टल में ले आता है। यहाँ भी उसे ठगा जाता है, कई लड़के अपनी शारीरिक भूख शांत करते हैं। हमारे समाज में शेखर जैसे ‘नपुंसकों’ की कमी नहीं है जो औरत के इस शोषण के खिलाफ इसलिए आवाज नहीं उठाते कि कहीं उन्हें नामर्द न समझ लिया जाए (नपुंसक: सुकेश साहनी)

कौशेलेन्द्र सिंह घुरैया की लघुकथा उसकी मर्जी पढ़ते हुए मंटो की कहानी सौ कैण्डल पावर का बल्ब की याद आती है। दलाल लोग अपने चंगुल में फंसी औरत को तब तक नहीं छोड़ते जब तक उसके शरीर में जान रहती है-खूब सारा धन लेकर वह वेश्या के पास जाता है। एकान्त होते ही उससे कहता है, ‘‘आज मैं सोचकर आया हूँ कि तुम वही करो जो तुम चाहती हो।”  ’ वह अविश्वास से उसकी ओर देखती है, उसे अपनी बात पर अडिग देख वह पलंग पर करवट लेकर बेसुध सो जाती है। लघुकथा की अंतिम पंक्ति वेश्या पर हो रहे अत्याचार, जिसमें उसे सोना भी नसीब नहीं होता, को बहुत मार्मिक ढंग से पेश करती है। माँ (रत्नेश कुमार) में वेश्या ग्राहक से रुपए न लेकर ‘अमूल स्प्रे’ का डिब्बा माँगती है। यहाँ लेखक संकेत करता है कि स्त्री को बच्चे के पालन-पोषण के लिए देह-व्यापार के धंधे में उतरना पड़ा।

वेश्या को एक ऐसा सेफ्टी वाल्व भी कहा जाता है जो समाज को दूषित होने से रोके रहता है। कुछ का मानना है कि समाज को स्वच्छ रखने के लिए वेश्याओं की उतनी ही ज़रूरत है जितनी कि किसी शहर में गटर की। देश-विदेश के साहित्यकारों ने वेश्याओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। समाज के लिए गटर का रोल प्ले करने वाली इन वेश्याओं के चरित्र,संस्कार को उजागर करती अनेक लघुकथाएँ लिखी गई हैं-

उसने अपने अधो-वस्त्र निकाल दिए तथा ग्राहक से मुस्कराकर बोली, ‘‘एक मिनट ठहरो।”  ’ और सामने की दीवार पर उपदेशी मुद्रा में विराजमान भगवान के चेहरे पर कपड़ा डाल दिया (संस्कार: सतीश दूबे)

एक शर्मिला-सा लोंडा झिझकते हुए कोठे वाली के करीब आकर बोला, ‘‘क्या आप स्टूडेन्ट कन्सेशन देती हैं?’’

कोठे वाली उस स्टूडेन्ट को बड़ी ममता भरी आँखों से देखकर मुस्कराने लगी और उसके मुँह से बेइख्तियार निकल गया, ‘‘हाँ बेटे, क्यों नहीं?’’

 (ताल: जोगेन्द्र पाल)

वह हर दिन और हर रात खुशी से बिका करती थी, जिंदगी जीने के लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं था। एक दिन उसकी कोठी पर किसी का खून हो गया, उसकी आँखों के सामने। कातिलों ने उससे कहा कि वे जैसा कहेंगे वैसा ही बयान देना होगा। वेश्या ने कहा कि जैसा देखा है वैसा कहेगी। कातिलों ने बहुत प्रलोभन दिए, पर वह नहीं मानी। कातिल झल्ला गए, ‘‘स्साली…एक रंडी होकर इस तरह बातें करती है। पाँच रुपए में बिकने वाली तू करेक्टर दिखाती है। तेरा भी कोई करेक्टर है!’’

‘‘जनाब, यही तो मेरा करेक्टर है, वो तो मेरा प्रोफेशन है।”  ’

(करेक्टर: पृथ्वीनाथ पाण्डेय)

धोखे से कोठे पर पहुँच गए पाक साफ लड़के को मिरासी भद्दी गालियाँ देते हुए ठेलने लगते हैं, ‘‘अरे ऐसा पाक साफ था तो यहाँ दूध पीने आया था क्या?’’ उसकी दुर्दशा देखकर वेश्या कहती है, ‘‘छोड़ दो हरामियों,मारोगे इसे?’’ लड़की उससे कहती है, ‘‘आप इस जगह क्यों आए, भाईसाहब?’’ वह अपराधी-सा चुप खड़ा रहता है। वह जगन को कहती है, ‘‘इनके लिए यहीं कुर्सी डाल दो और नीचे से एक ठंडा ले आओ?’’(बुरी औरत: बलवीर त्यागी)

‘‘आज चला जा बाबू! मैं तेरे हाथ जोड़ती हूँ,….मजबूर मत कर, आज मैंने अपने लड़के के लिए होई माँ का व्रत रखा है….इसलिए पाक-साफ रहूँगी।”  ’

(जवाब: गुड्डू गोविन्द)

अभी दोनों के बीच व्यापारिक समझौता चल ही रहा होता है कि एक कर्मठ पुलिस कांस्टेबल आ धमकता है। लड़का वेश्या को अपनी बहन बताकर कांस्टेबल से जान छुड़ा लेता है, फिर वेश्या से पूछता है, ‘‘अब बोल, कितने लेगी?’’ वह युवक की ओर घृणा से देखती है और जमीन पर थूककर कहती है, ‘‘निर्लज्ज, पानी में डूब मर कहीं जाकर….अपनी बहन के साथ कुकर्म करेगा….’’ और वह आगे बढ़ जाती है (रिश्ते: कृष्ण शंकर भटनागर)

-उस इलाके की तवायफ टेªन में किसी बेटिकट युवक के लिए फाइन और किराया भर देती है। (थप्पड़: मार्टिन जॉन अजनबी)

‘‘ये रामायण कोठे पे कहाँ से आ गई?’’

‘‘क्यूँ…कहाँ से क्या मतलब! खरीद के लाई हूँ, बाबू!….हरेक मंगल कू पढ़ती हूँ….तुम नई पढ़ते रामायन?’’

‘‘मैं….मैं तो पढ़ताई हूँ खैर…।”  ’

‘‘तो फिर….रमायन देख के ऐसे क्यूँ चौंके बाबू? जे धरम-करम की बात क्या तुम्हारेई नाम लिखी है ऊपर वाले ने!’’ (कोठा संवाद: महेश दर्पण)

वेश्याओं के ‘सामाजिक स्वीकार’ के लिए ईमानदार कोशिश होनी चाहिए। इसके लिए पुरुष को ही प्रयास करने होंगे क्योंकि वेश्या के पास जाना न जाना उसकी अपनी मर्जी पर निर्भर करता है। बेबस, लाचार युवतियों को इस धंधे में अधिकतर पुरुष ही डालते हैं। वेश्या भी नये जीवन की शुरूआत (कमलेश भारतीय) करना चाहती है। आवश्यकता है उसके प्रति एक मानवीय दृष्टि की….

वह दरवाजे पर थाप देता है, दरवाजा पाँच मिनट बाद खुलता है। वह अटैची लिए भीतर घुसता है…तभी एक खूबसूरत लड़का उसकी बगल से होता हुआ बड़ी तेजी से बाहर निकल जाता है। सारी स्थिति को नजर अंदाज करते हुए वह पत्नी के सामने अटैची खोलते हुए कहता है,  ‘‘देखो सुधा, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ! यह जापानी साड़ी,यह नेल पालिश है…चांदी का हार….रिस्ट वाच…अब हमारे पास किसी चीज की कमी नहीं रही।”  ’

‘‘हाँ, कोई कमी नहीं रही।”  ’

‘‘फिर…फिर यह लड़का क्यों आया था?’’

वह फफक पड़ती है, ‘‘घर तो हमारे लिए है….उसके लिए तो….मैं तुम्हारे लिए बीवी हूँ, मगर उसके लिए तो वही न जिसके लिए कभी तुम खुद उसे लेकर आए थे…वह ग्राहक है ग्राहक…!’’

‘‘क्या जबरदस्ती?’’

‘‘ हाँ।”  ’

‘‘तो?’’

‘‘अच्छा हो कि हम यह शहर छोड़ दें और किसी दूसरी जगह जा बसें, जहाँ घर घर रह सके।”  ’ (घर: पृथ्वी राज अरोड़ा)

बीमार माँ की एकमात्र आकांक्षा को देखते हुए बेटा एक लड़की को माँ की देख-रेख के लिए घर ले आता है। माँ को लगता है कि यही उसकी होने वाली बहू है। माँ अच्छी  होने लगती है। तभी एक दिन पड़ोसी से उसे पता चलता है कि लड़की वेश्या है। राज खुलते ही वेश्या तेजी से कमरे के बाहर जाने लगती है। माँ झट उसका आँचल पकड़ते हुए कहती है, ‘‘बहू, तुम इस घर से बाहर नहीं जा सकतीं….एक वेश्या मेरे घर की बहू बन सकती है लेकिन इस घर की बहू वेश्या बनकर बाजार में नहीं जा सकती।”  ’ (बहू: रमाशंकर चंचल)

वेश्याओं के प्रति समाज का इसी प्रकार का संवेदनापूर्ण व्यवहार एवं साफ-सुथरी दृष्टि अपेक्षित है।

 

 

 

 

 

 

सुकेश साहनी की लघुकथाओं में समकालीन संकट

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आधुनिक हिन्दी लघुकथा के समकालीन लेखन को राष्ट्रीय स्तर पर जिन लेखकों ने अपनी रचनाधर्मिता से न केवल पहचान कराई, बल्कि उसे स्थापित भी किया, उनमें बरेली के सुप्रतिष्ठित लेखक सुकेशसाहनी भी एक हैं। लघुकथा-लेखन के आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हुए श्री साहनी ने जिस त्वरा से लेखन आरम्भ किया, वह न केवल अविराम जारी है अपितु अपने अब तक के लेखन-काल में उन्होंने कई पुस्तकें लघुकथा-संसार को दी हैं। कहानी, कविता, बालकथा, लघुकथा सहित अनेक विधाओं में सृजनरत श्री साहनी ने सर्वाधिक ख्याति लघुकथा में प्राप्त की और इस विधा में उनकी ‘डरे हुए लोग’ और ‘ठण्डी रज़ाई’ प्रमुख है। इन पुस्तकों का पंजाबी तथा ‘डरे हुए लोग’ का गुजराती,मराठी,अंग्रेजी.और उर्दू  में भी अनुवाद हुआ। अनुवाद के क्षेत्र में एक और महत्त्वपूर्ण कार्य उनका है-‘ खलील जिब्रान की लघुकथाएँ। उन्होंने अनेक लघुकथा-पुस्तकों का संपादन-कार्य भी किया, जिनमें’आयोजन’,’स्त्री-पुरुष सम्बंधों की लघुकथाएँ’,’महानगर की लघुकथाएँ’ ‘देह व्यापार की लघुकथाएँ,’वह पवित्र नगर’ आदि। सम्प्रति श्री साहनी भू-गर्भ जल विभाग में सीनियर हाइड्रोलॉजिस्ट के पद पर कार्यरत रहते हुए लघुकथा-लेखन में सक्रिय हैं तथा लघुकथा आन्दोलन सम्बंधी गतिविधियों में सक्रिय हिस्सा लेते रहते हैं।

हिन्दी लघुकथा के समकालीन लेखन अर्थात आठवें दशक के उत्तरार्द्व एव नौंवे दशक के पूर्वाद्ध में कथ्य की विविधता, भाषा में संकुल-सौष्ठव, शिल्प-प्रयोग गत वैविध्य मिलते हैं। लेखक पूरी संवेदनशीलता के साथ रिश्ते की बुनावट एवं व्यवस्था की बनावट की विसंगतियों तथा जनजीवन के जटिल प्रसंगों को चित्रित करते नजर आते हैं। इस दौर के लघुकथा लेखन में वस्तु-यथार्थ के दिग्दर्शन में विश्वसनीयता झलकती है। सुकेश साहनी की लघुकथाएँ इस काल की तमाम प्रवृतियों को आत्मसात करती हुई जिन स्वरूपों के साथ पाठकों के समक्ष उपस्थापित होती हैं, उनमें पाठकों को अपने जीवन के विविध रंगों की ही छटा दिखलाई पड़ती है और जिनसे दोनों का तादात्म्य सहज स्थिर हो जाता है। सुकेश साहनी की ‘ठंडी रजाई’ , ‘ ऑक्सीजन’,’ खरबूजा’,’ बिरादरी’,’ आईना’,’ चश्मा’,’ दीमक’,’ विजेता’, तथा’ मायाजाल’ जैसी लघुकथाएँ उदाहरणार्थ सामने रखी जा सकती हैं। इन लघुकथाओं में बहुआयामी जीवन के दीर्घकालिक विस्तार को उसके विविध रंगों में पूरी विश्वसनीयता के साथ समुपस्थित किया गया हैं, कहना चाहिए कि सुकेश साहनी ने जीवन के विविध आसंगों को चित्रित-विश्लेषित करने में जिन मनोवैज्ञानिक पड़ताल के सहारे उस वस्तु-सत्य को उदघाटित किया है, उसका सौन्दर्य प्रभावित करता है। सुकेश साहनी की लघुकथाओं में अन्य कलात्मक पक्षों के साथ रचनाओं का शीर्षक भी ध्यानाकर्षित करता है, क्योंकि वे शीर्षक महज शीर्षक न होकर अपनी प्रतीकात्मक अर्थव्यंजना के सहारे पूरी रचना का प्राण हो जाता है। सटीक एवं पूर्ण व्याप्ति प्रक्षेपणात्मक शीर्षक होने की वजह से इन लघुकथाओं के आस्वादन में सरसता की अभिवृद्धि ही होती है। श्री सुकेश साहनी की जिन लघुकथाओं की चर्चा यहाँ की गई हैं, उसके आलोक में इन रचनाओं के निर्मित्त की गई स्थापनाओं का विनियोग देखा-परखा जा सकता है।

‘ग्रहण’ बाल-मनोविज्ञान से संदर्भित लघुकथा है। एक बच्चा पढ़ाई के वक्त आज लगने वाले सूर्यग्रहण की चर्चा कर उसके बारे में विस्तार से जानने की इच्छा अपने पिता से व्यक्त करना चाहता है, किन्तु उसका पिता उसकी पूरी बात सुने बिना ही लगातार उसे निर्देशित  करता  है कि वह चुपचाप पढ़े अन्यथा पिट जाएगा। यहाँ बाल-सुलभ जिज्ञासा पर पिता के कठोर अनुशासन का ग्रहण लगना उसकी मानसिकता को कुंठित करता है। इसी मनोभाव का प्रस्तुत लघुकथा सही चित्रांकन करती है। सूर्यग्रहण से बच्चे की मानसिकता पर कुंठा के ग्रहण की लाक्षणिकता से उत्पन्न कथ्य-विस्तार रचना को अत्यन्त प्रभावोत्पादक बना देता है और इसी कारण प्रस्तुत लघुकथा का शीर्षक भी अपनी प्रासंगिकता रेखांकित कर जाता है। इसी मनोभूमि की एक दूसरी लघुकथा है ‘विजेता’ , जिसमें अपने हिस्से के जीवन को जी चुके एक बूढ़े की कथा है। बूढ़े के कई पुत्र हैं, जो बुढ़ापे में उसे सम्मानपूर्ण तरीके से जीने में सहारा देने से किनारा कर जाते हैं। अन्ततः वह अकेला रहने लगता हैं, उसकी दोनों आँखें खराब है। एक आँख पूरी तरह खराब जबकि दूसरी आँख में थोड़ी ही रोशनी शेष है। उस थोड़ी-सी बची हुई रोशनी के भी छिन जाने पर वह किस प्रकार रहेगा, यह सोच-सोचकर वह  परेशान रहता है। पड़ोस के एक बच्चे से उसकी दोस्ती होती है और उससे खेल-खेल में ही अपनी खराब आँखों से भी घर में रह लेने का पूर्वाभ्यास कर लेता हैं। अपनी इस जीत पर वह मुग्ध हो उठता है, जबकि खेल में वह अपने बाल-दोस्त से पराजित हो जाता है। पराजय में भी विजेता का अनुभव होने सम्बंधी यह एक मनोवैज्ञानिक  लघुकथा है, जिसके माध्यम से बुढ़ापे के सहारे की तलाश में मिली सफलता की जीत की स्थिति बनती है। बूढ़े का बाल-दोस्त जब अंत में उससे कहता है-’बाबा तुम मुझे नहीं पकड़ पाए…तुम हार गए…तुम हार गए.’ तो ‘बूढ़े की धनी सफेद दाढ़ी के बीच होठों पर आत्मविश्वास ही उस बूढ़े को सबसे बड़ी जीत है, जिसके लिए हार कर भी वह ‘विजेता’ का अनुभव करता है। समाज में ऐसे असंख्य बूढ़े होंगे, जिनकी भावनाएँ लघुकथा के इस बूढ़े में आत्मसात हो उठती हैं। सशक्त प्रस्तुति (ट्रीटमेंट) एवं भाषा की चारू बुनावट (टेक्सचर) से यह लघुकथा अत्यन्त जीवंत हो गई है।

हर ईमानदार लेखक अपने समय एवं परिवेश से अवश्य प्रभाव ग्रहण करता है। घोटाला दर घोटाला के जिस विद्रूप समय से आज हमारा देश गुजर रहा है, उसके संक्रमण से भला किसी लेखक की रचनाधर्मिता कैसी अछूती रह सकती है? ऐसे में सुकेश साहनी द्वारा भ्रष्टाचार को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाया जाना स्वाभाविक ही है। ‘दीमक’ ऐसी ही एक लघुकथा है, जिसमें प्रतीकात्मक तल्ख़ी के साथ कार्यालयीन भ्रष्टाचार को उजागर किया गया है। सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार जो ऊपर से नीचे की ओर प्रवहमान है, की प्रसरण प्रविधि, को प्रस्तुत लघुकथा बारीकी से उकेरती है और जो एक प्रकार से समकालीन जीवन के यथार्थ को ही अपने में समेटती है। लाक्षणिक भाषा के द्वारा दो दृश्य-बंधों के माध्यम से कथा की बुनावट की गई है-एक में साहब को चपरासी से वार्ता, जबकि दूसरे में उनकी छोटे साहब से वार्ता। ‘दीमक’ यहाँ भ्रष्टाचार के संक्रमण का प्रतीक है, जो फाइल-फाइल होते हुए पूरे कार्यालय और फिर एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय में फैलते हुए पूरी व्यवस्था को अपने गिरफ्त में लेने को तत्पर है। प्रस्तुत में व्याप्त भ्रष्टाचार को उद्घाटित किया है। श्री साहनी की एक अन्य लघुकथा ‘खरबूजा’ में भी कार्यालयीन भ्रष्टाचार को ही एक नमूना पेश किया गया है, जो ऊपर से तो सतही दिख पड़ता है, किन्तु उसकी जड़ें गहरे फैली हुई हैं। अधिकारियों द्वारा अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए किस प्रकार कार्यालयीन वस्तुओं की मरम्मत के नाम पर वित्तीय हेराफेरी की जाती है और इस हेराफेरी की जड़ें ऊपर से नीचे की तह तक फैली हुई होती है, इसे ‘खरबूजा’ शीर्षक लघुकथा खूबसूरती से पेश करती है।

हमारा वर्तमान समाज जिस अवमूल्यन एवं विघटन के दौर से गुजर रहा है, उसमें जिस-जिस तरीके से सफलता प्राप्त कर लेना ही ध्येय मात्र रह गया है। किन्तु ऐसी सफलता कितनी खोखली होती है, इसे लेखक ने ‘आईना’ शीर्षक लघुकथा में चित्रित किया है। सफलता के शीर्ष पर पहुँच कर भी जीवन का कोई हिस्सा इतना कमजोर होता है कि आत्म-परीक्षण के समय वह सांघातिक हो जाता है। मनुष्य अपनी कथित सफलता का कितना ही जश्न क्यों न मनाए, जीवन की वह कमजोरी ‘आईना’ बनकर आंतरिक पीड़ा पहुँचाती रहती है। इसी स्थिति को ‘आईना के माध्यम से उद्घाटित किया गया है। अपनी मनुष्यता को खोकर प्राप्त की गई आर्थिक सफलता को ही एक पृथक् कोण से’ बिरादरी’ शीर्षक लघुकथा में रेखांकित किया गया है। अर्थ-सम्पन्न व्यक्ति का वर्ग-चरित्र भिन्न होता है, जो तमाम रिश्तों से तटस्थ अपनी सम्पन्नता के घेरे में ही संतृप्त होता है-इस तथ्य को प्रस्तुत लघुकथा बहुत खूबसूरती से चित्रित करती है। बाबू जो कभी सीताराम का घनिष्ठ मित्र था, अब अर्थ-सम्पन्न व्यक्ति है और किसी निर्धन से मिलना अपनी हेठी समझता हैं। वह उसकी उपेक्षा करता है, लेकिन जब उसे पता चलता है कि अब सीताराम भी अर्थ-सम्पन्नता को प्राप्त हो चुका है, तो उससे वह अपनी रागात्माकता जाहिर करता है। कथित सफलता अथवा रिश्ते के इस छद्म को बारीकी से उकेरते हुए लेखक ने इस लघुकथा में वर्ग-चरित्र के दोहरेपन का पर्दाफाश किया है।

निरन्तर हादसे दर हादसों से शिकस्त किसी व्यक्ति को अपने गहन नैराश्य के क्षण में जब किसी से हार्दिकता या अपनेपन का भाव मिलता है, तो वह उसके जीने…आगे बढ़ने के लिए किस प्रकार ‘आक्सीजन’ का काम करता है, इसे लेखन ने अपनी कथा ‘आक्सीजन’ में चित्रित किया है। जीवन में उदासी के अनेक ऐसे क्षण आते हैं, जब आगे बढ़ने के तमाम रास्ते बंद-से जान पड़ते लगते हैं, तब किसी की स्नेहिल संगति नए सिरे से जीने की ऊर्जा देती है। प्रस्तुत लघुकथा में ऐसी ही स्थिति का रेखांकन हार्दिकता से किया गया है। इस रचना में शीर्षक प्रतीकात्मक होकर लघुकथा के कथ्य को विस्तार देता है। मानवीय संवेदना का ही विस्तार लेखक की एक दूसरी लघुकथा में ‘ठंडी रजाई’ में भी मिलता है। ऊपर से इस लघुकथा में सेक्स मनोविज्ञान का भ्रम होता है, क्योंकि एक पड़ोसी महिला शरदकाल की आप्तस्थिति में कथा-नायक की पत्नी से जब रजाई माँगने आती है तो रजाई देने से उसे इसलिए सख्त आपत्ति होती है कि उसमें संभोग्य देह की गंध होती है, जिसे किसी को देकर गंध का साझा नहीं किया जा सकता, लेकिन इस लघुकथा के मूल में लेखक ने मानवीय संवेदना को ही स्थापित करना चाहा है। उस सर्द रात में कथा-नायक एवं उसकी पत्नी को नींद नहीं आती। दोनों यथार्थ ठंड की अपेक्षा मनः कल्पित ठंड से अधिक परेशान होते हैं और उससे उन्हें राहत तब मिलती है, जब उसकी पत्नी पड़ोसी को रजाई दे आती है। इस प्रकार, पड़ोसी को रजाई के देने में मानवीय संवेदना का पहलु ही अधिक उजागर होता है, जबकि सेक्स मनोविज्ञान का वाह्य-प्रभाव भ्रम ही सिद्ध होता है। प्रस्तुत लघुकथा में वस्तु-सत्य एवं उसकी संरचना को जिस कौशल एवं सावधानी से रचनात्मक-विकास दिया गया है, वह प्रभावित तो करता ही है, लेखक की सकारात्मक सूझ को भी संकेतित करता है। मानवीय संवेदना की व्याख्या में हिन्दी की श्रेष्ठ लघुकथाओं में ‘ठंडी रजाई’ अग्र पांक्तेय सिद्ध होगी।

टी.वी. द्वारा परोसे जा रहे विज्ञापन किस प्रकार मासूम बच्चों को अपनी मायाजालिक गिरफ्त में जकड़ लेते हैं, जिसकी वजह से अभिभावकों की परेशानी भी बढ़ जाती है, इसे लेखक ने ‘मायाजाल’ शीर्षक लघुकथा में चित्रित किया हैं। कोमल बच्चे विज्ञापनों की लुभावनी दुनिया को सच मान उस मायाजाल का आनन्द तो प्राप्त करना चाहते हैं, पर यथार्थ की समझ स्वयं में पैदा नहीं कर पाते। यह पूरे बचपन पर ग्रह की तरह छाता जा रहा है और उसे अंदर खोखला बना रहा है। इसी विडम्बना को लेखक ‘मायाजाल’ में रेखांकित कर उसकी ओर से समाज को सजग करना चाहता है। श्री साहनी की एक लघुकथा है ‘चश्मा’ जिसमें देश को स्वाधीनता का स्वाद दिखाने वाले एक स्वतंत्रता-सेनानी की कथा है। उस वयोवृद्ध स्वतंत्रता-सेनानी ने पराधीन भारत को अपने साहब एवं शौर्य से मुक्ति तो दिलाई, पर स्वतंत्र भारत में वह अपनों के ही स्वार्थ-पाश में बँधता चला गया। उसका अपना ही पुत्र उसकी खराब आँख के बावजूद अपने लिए महज शौक की खातिर मंहगे क्रोमेटिक चश्मे की खरीद करता है और ऐसा उसने अपने ही पिता के स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण सरकार प्रदत्त निःशुल्क सुविधा के एवज में किया। पुत्र द्वारा अपने स्वतंत्रता सेनानी पिता की धोर उपेक्षा का परिणाम है प्रस्तुत लघुकथा, जिसमें पूरी मार्मिकता से स्थितियों का विश्लेषण करते हुए एक स्वतंत्रता सेनानी पिता की व्यथा-कथा को उद्घाटित किया गया है।

समकालीन हिन्दी लघुकथा-लेखन से जुड़कर सुकेश साहनी की रचनाधार्मिता अपने समय, सच एवं परिवेश से सीधा साक्षात्कार करती है तथा समस्त विसंगतियों एवं दलित-पीड़ित मानसिकता से लोहा लेती हुई एक ऐसे मार्ग का संधान करती है, जहाँ मानवोत्थान एवं मानवीय संवेदना की भावना होती है। वास्तव में उनकी सृजनधर्मिता आज की अराजक भीड़ में खोए एक ऐसे आदमी की तलाश है, जो सहज, स्निग्घ, ॠजु एवं छद्ममुक्त हो जाने की कोशिश में हर बार रीतता रहा है और क्षरित होकर भी नव सर्जन की आशा में आस्था का सूत्र कभी छोड़ना नहीं चाहता। अपने बहुआयामी रचना-संसार में सुकेश साहनी बारी-बारी सभी दिशाओं की परतों को खोलता है, विश्लेषित करता है और सार की वस्तु को न पाकर आगे बढ़ जाता है…उसे हर कहीं तलाश होती है मनुष्य की गरिमा को अपनी सम्पूर्णता में प्रतिष्ठित करने वाली उस लुकाठी की, जो नाना झंझावातों में भी प्रज्ववलित हो मनुष्यता का मार्ग प्रशस्त करती रहती है। उनको प्रायः सभी लघुकथाओं में इसी लुकाठी की ऊष्मा होती है, जिसकी आँच पाठक भी महसूस करते है और अपने को उनकी रचनाओं में विलीन पाते हैं। सुकेश साहनी की रचनाधार्मिता की कदाचित यही शक्ति उसे अपने समकालीनों से अलग करती है। उनकी शक्ति रचना की शक्ति है, जो मनुष्य को उसके छद्म में नहीं, मनुष्यता में मापती-सँवारती है।

डॉ. शिवनारायण- (संपादक-नई धारा) इंदिरा नगर, पटना-800001

लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता

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लघुकथा की इतिहास–यात्रा पर विचार करने पर इसके दो व्यापक काल–खंड बनते हैं : प्राक्–स्वातंत्र्य–काल तथा स्वातंत्र्योत्तर–काल। लघुकथा का अस्तित्व–प्राक्–स्वातंत्र्य–काल में भी मिलता है, जिसका निर्देशन त्र्यअनेक आलोचकों ने किया भी है, किंतु जिस शिल्पनिकष पर हम लघुकथा को स्वतंत्र साहित्य–विधा के रूप में स्वीकार करतें हैं, उसका विकसित अस्तित्व स्वातंत्र्योत्तर–काल में ही मिलता है। यह भी सत्य है कि लघुकथा का तब कोई लक्षण–निकष और आलोचना–शास्त्र न तो संस्कृत में उपलब्ध है, न ही अंग्रेजी में। साहित्य–विधा के रूप में इसका स्वतंत्र अस्तित्व अब केवल हिन्दी में है। यही कारण है कि लधुकथा का शास्त्रीय आधार–मान हिन्दी की अपनी जमीन पर ही निर्मित हुआ है, अथवा हो रहा है।

लघुकथा के अपरिष्कृत मूल के इतिहास पर विचार किया जाए तो इसका प्रारम्भिक अस्तित्व ऋग्वेद की उन लघुकथाओं में देखा जा सकता है, जिन्हें हम यम–यमी, पुरुरवा–उर्वशी तथा सरमा–परिगण–संवाद कहते हैं, और जिनका उपस्थापन लाक्षणिक कथ्य स्थापन के लिए हुआ है। गुणाढ्य की वृहत्कथा भारतीय कथा और लघुकथाओं का का आदिग्रंथ है, जो अपनी विशालता, रोचकता और संप्रेषणीयता में आज भी विश्व का प्राचीनतम और महत्तम ग्रंथ है। इस एक आदिग्रंथ से ही रूपांतरण–क्रम में अनेक कथाग्रंथ आए, जैसे बुधस्वामीकृत बृहत्कथाश्लोक–संग्रह, क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथा–मंजरी और सोमदेवकृत कथादिरत्नाकर। फिर पंचतंत्र और हितोपदेश का महत्त्व है। जातक–कथा भी अपनी शृंखला तथा विशिष्टता में उल्लेखनीय इतिहास रखती है। भारतीय वाङ्मय का यह ‘कथामूल’ अनेक रूपों और विधाओं में संस्कारित–शिल्पित हुआ हैं

विदेशी भाषा–संदर्भ में विचार करने पर ईसप–नीतिकथा की विश्वजनीज लोकप्रियता सिद्ध हुई है। ‘जादूगरों की कथाएँ’ भी लोकसिद्ध हुई। बृहत्कथा, पंचतंत्र, ईसपनीतिकथा और जादूगरों की कथाएँ जैसी रचनाएँ ईस्वीपूर्व पाँचवी से सातवी शताब्दी के मध्य की हैं। इन्हें हम विश्व का आदि कथास्रोत कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।

हिन्दी में कहानी–साहित्य का विकास बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में हुआ है, जबकि पश्चिम में इस साहित्य–विधा का अस्तित्व उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में। पश्चिम में कहानी–साहित्य के प्रथम शिल्पित प्रवर्तन के लिए जो स्थापना उपस्थित की गई है, उसके अनुसार चार देशों के लेखक–समूह को महत्व दिया गया है। जर्मनी के ई0टी0डब्ल्यू हॉफमैन, इंगलैंड के वाशिंगटन इर्विंग, रूस के एलेक्जेंडर पुश्किन और निकोलाई गोगोल,फ़्रांस के प्रॉस्पर मेरिमी एवं बाल्जाक, जिन्होंने 1814 ई0 से 1834 ई0 तक जो कहानियाँ लिखीं और उनमें प्रयोग किए , उनसे कहानी का आधुनिक ‘आरंभ’ होता है। इसी काल–सीमा में पो,मोपासाँ और ओ0 हेनरी के नाम आते हैं।

हिंदी में प्रथम कहानी दुलाईवाली मानी जाती है, जिसका प्रकाशन 1907 में ‘सरस्वती’ में हुआ था। प्रेमचंद भी ‘सोज़ेवतन’ कृति के साथ इसी वर्ष आए। 1911 ई0 में जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘ग्राम’ का प्रकाशन ‘इंदु’ में हुआ था।

इसी वर्ष चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘सुखमय जीवन’ का प्रकाशन हुआ। धीरे–धीरे शताधिक कहानीकार आए। सहस्राधिक कहानी–संग्रह छपे कहानी से छोटी कहानी का विकास हुआ। फिर नई कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी और अकहानी का विकास–रूप मिलता है। अंत में ‘लघुकथा’ का अस्तित्व होता है।

‘लघुकथा’ की विधागत शास्त्रीयता के विश्लेषण–क्रम में यह संक्षिप्त रेखा–रूप उपस्थित करना आवश्यक इसलिए भी था कि ‘लघुकथा’ को स्वतंत्र साहित्य विधा के रूप में विवेचित किया जा सके। उपन्यास के विविध रूप हैं, किंतु कहानीका विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है। कहानी और उपन्यास दोनों स्वतंत्र साहित्य–विधाएँ हैं। उपन्यास को संक्षिप्त कर कहानी का स्वरूपण नहीं हो सकता। जो उपन्यास संक्षिप्त होकर कहानी भी बन जाए, वह मूलत: उपन्यास था ही नहीं। इसी तरह जो कहानी फैलकर उपन्यास बन जाए, वह मूलत : कहानी थी ही नहीं। यही कारण है कि दोनों साहित्य–रूपों को एक ही विधा में व्यवस्थित नहीं किया जा सकता। इस भूमिका का निष्कर्ष इतना–भर है कि लघुकथा एक स्वतंत्र साहित्य–विधा है। कहानी, लंबी कहानी, छोटी कहानी, नई कहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी, अकहानी इत्यादि विभिन्न नामों से प्रतिज्ञात कहानियाँ समवेत–रूप से साहित्य की कहानी–विधा में ही व्यवस्थाप्य हैं। इनमें विधांतर नहीं है। परंतु ‘लघुकथा’ को कहानी–विधा में व्यवस्थित–स्थापित करने में कठिनाई होगी। लघुकथा कहानी का विकासचरण नहीं, वरन् स्वतंत्र संचरण है। कहानी और लघुकथा में कथा, कथ्य, भाषा, शैली, प्रतीक, संवाद इत्यादि अनेक निकष–आधार पर भिन्नताएँ हैं।

लघुकथा को न तो कहानी में तब्दील किया जा सकता है, न ही कहानी को लघुकथा में रूपांतरित किया जा सकता है। दोनों के रंग–रूप, गंध–स्वाद एवं भाव–प्रभाव में केवल अंतर ही नहीं, स्वतंत्र अस्तित्वशीलता भी है।

तात्पर्य यह है कि लघुकथा साहित्य की स्वतंत्र विधा है। अत: इसकी रचनाधर्मिता, रचना प्रक्रिया आस्वादन–प्रक्रिया एवं मूल्यांकन में कहानी के एतद्विषयक शास्त्र या लक्षण–निकष के काम नहीं चलेगा। सोना परखने के पत्थर पर हीरा नहीं परखा जा सकता। उसके लिए निकष का अनुसंधान करना पड़ेगा। मूल पहले बनता है, मूल्यांकन परवर्ती क्रिया है। इसीलिए मूल्यांकन–मान भी बाद में बनता है। आज हिंदी–साहित्यत्येतिहास के अंतर्गत ‘लघुकथा’ स्वतंत्र साहित्य–विधा के रूप में अस्तित्व में है, पर इसका मूल्यांकन–शास्त्र, लक्षणग्रंथ, आस्वादन–धर्म, रचना–प्रक्रिया इत्यादि अनुवर्ती शास्त्र अनुपलब्ध हैं तो किसी विशेष चिंता की बात नहीं है, क्योंकि पाठक, विचारक और स्वयं लघुकथाकार अपने साथ :उत्पन्न उद्गार तथा द्वंद्वशील विचारों के माध्यम से इसका लक्षणशास्त्र तथा निकष–प्रस्तर निर्मित कर लेंगे।

प्रबंध–शीर्षक : लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता में जो स्थापना–प्रतिपत्तियाँ हैं, वे इस श्वेतपत्र के घोषणा–सूत्र हैं। अपनी अनौपचारिक विनय के साथ मैं यह पहले ही कह देना अपना कर्तव्य और दायित्व समझता हूँ कि यहाँ जो कुछ कहा जा रहा हैं, वह न तो सर्वांगीण है, न ही अंतिम। लघुकथा साहित्य की एक स्वतंत्र कथाविधा है और इसके स्वतंत्र समीक्षण–शास्त्र निर्मित होने चाहिए। बस, अपनी स्थापना में मैंने ये ही दो बातें उपस्थापित की हैं। साथ ही, में यह भी कह दूँ कि अपनी ओर से ये दोनों शब्द–सूत्रों का उद्घोषणा ही इस आलोचना–पत्र का इत्यलम् भी है। शेष पर विचार हमारे पाठक, समालोचक और लघुकथाकार करेंगे। फिर वाद और विवाद के चिंतन–परिसर में तत्व–बोध तो होगा ही। फिर भी, क्योंकि ये दोनों स्थापनाएँ मैंने आपके समक्ष निवेदित की हैं तो इस पर अपने कुछ विचार और चिंतन भी रखना चाहूँगा। सबसे पहले मैं लघुकथा में ‘कथा’ शब्द का व्याख्यान करना चाहूँगा और यहाँ भी अपनी इस स्थापना को आपके सामने रखना चाहूँगा कि साहित्य की सभी विधाओं का मूल है ‘कथा’। यहाँ कथा पर विचार इसलिए भी है कि ‘कथा’ का सीमा–निर्धारण करने वाले आलोचकों ने कथाक्षेत्र का परिसीमन करते हुए कहा है कि कथा–विधा में चार साहित्य–रूप आते हैं : कहानी, उपन्यास, एकांकी और नाटक। इस स्थापना से आलोचक ऊपर–नीचे, दाएँ–बाएँ, वंकिम–तिर्यक् और कहीं जाना पसंद नहीं करते। वे लघुकथा की कहानी–विधा में अंतभु‍र्क्त कर निश्चिंत हो जाते हैं। अधिक प्रसन्न होने पर वे इतना जरूर कहते हैं कि लघुकथा कहानी का आधुनिकतम रूप और विकास है। बस, और कुछ नहीं। यह स्थापना ही भ्रांतियुक्त है कि ‘लघुकथा’ कहानी–विधा के भीतर व्यवस्थाप्य है। जैसा कि मैंने निवेदन किया कि लघुकथा साहित्य की स्वतंत्र विधा है। ‘कथा’ शब्द–प्रयोग के कारण जो भ्रांतियाँ हुई हैं, उनके निराकरण के लिए ही ‘कथा’ शब्द पर पुनराख्यान अनिवार्य बना है।

मैंने एक स्थापना यह उपस्थित की कि साहित्य की सभी विधाओं के मूल में कथा है। कहानी, उपन्यास, एकांकी और नाटक को स्पष्ट रूप से कथा की संज्ञा दी गई। जीवनी और आत्मकथा, संस्मरण तथा यात्रा–वृत्तांत भी कथा या कथाधारित हुए बिना विधासिद्ध नहीं हो सकते। प्रगीत, खण्डकाव्य और महाकाव्य में सर्वथा कथाधार होता है। रिपोतार्ज और ललित निबंध, साहित्येतिहास एवं साहित्यालोचन सभी कथाधारित साहित्य–विधाएँ हैं। इसी प्रकार साहित्य की शेष सभी विधाएँ (संख्या में 35) कथामूलीय और कथाधारित हैं। यहाँ प्रत्येक साहित्य–विधा के साथ ‘कथा–तत्व’ की अपरिहार्य एवं अनंशनीय आधार–शिला–शीलता के विश्लेषण का अवकाश नहीं है, इसलिए केवल विचारसूत्र रखा गया। यहाँ समर्थन में यह विचार भी असमीचीन नहीं होगा कि प्रत्येक ‘शब्द’ भूमिखंड और कथा–प्रांगण है। इसीलिए आधुनिक भाषा विज्ञानी और साहित्यशास्त्री ने ‘शब्द–भूगोल’ और ‘शब्द–कथा’ पर अनेक गंभीर ग्रंथ लिखे हैं। अर्थ की तरंग की महत्ता के बावजूद शब्द प्राथमिक और अनिवार्य है। कथा की भूमिका शब्द की तरह है। राजशेखर शब्दार्थ–चिंतन–प्रसंग में जिस अर्थसंप्रेषणीय को ‘सुविचारित मुग्ध’ और ‘अविचारित रमणीय’ कहते हैं, वे शब्द से ऊपर उठते चले गए हैं, परन्तु उनकी विदुषी पत्नी अवंतिसुंदरी कहती हैं कि यह सच है कि शब्द से ऊपर उठ जाता है, परन्तु वहाँ फिर अर्थ के मस्तक पर उस शब्द का मुकुट बैठ जाता है, तभी वह अर्थ संवेद्य और सनातन सिद्ध हो सकता है। शब्द आरम्भ और अंत दोनों ही है। वही अथेति है। बीच में अर्थ की तरंग शब्द और शब्दशक्ति से अनुशासित और शोभनीय बनती है। अर्थवत् ‘कथ्य’ शब्दवत् कथा से ही उत्पन्न होता है।

लघुकथा में यह ‘शब्दार्थ’–तत्व, जिसे हम यहाँ ‘कथाकथ्य’ कहना अधिक समीचन और सार्थक समझते हैं, जिस अर्धनारीश्वर–भाव से विद्यमान होता है, वह अन्यत्र कठिनतर है।

कहानी में कथा और कथ्य साफ–साफ दीखते हैं, शब्द और अर्थ की तरह भूमिखंड और इतिहास के कालबोध की तरह, पर लघुकथा में संपूर्ण कथा ही कथ्य बन जाती है अथवा संपूर्ण कथ्य ही कथरूप ले लेता है। ऐसी अविभाज्यता, परस्पराश्रयण, अर्धनारीश्वरता तथा संधि–समस्त–पद–अर्थ–शय्या–शीलता अन्यत्र दुर्लभ है।

गुलाब, रजनीगंधा व कमल में लताएँ और फूल अलग–अलग दिखते हैं। कुछ ऐसी लता, पौधे या वृक्ष हैं, जो अपने वनस्पतित्व में ही पुष्प और पुष्पत्व में ही वनस्पति हैं। गुलमुहर के वृक्ष में अलग से फल नहीं लगते। वह पूरा–का–पूरा वृक्ष ही फूल बन जाता है। हरियाली अचानक लाली में बदल जाती है। फूल ही पेड़ ओर पेड़ ही फूल बन जाता है। दोनों का पृथक्करण नहीं हो सकता। दोनों का अद्वैत अस्तित्व उसका विरल और विलक्षण सौंदर्य बन जाता है। लघुकथा साहित्य की ऐसी विधा है, जहाँ प्रत्येक शब्द अक्षर बन जाता है और संपूर्ण लघुकथा एक शब्द। उच्छिलोंध मशरूम की तरह। लघुकथा में लक्ष्यैकचक्षुष्कता होती है। एक ओर किसी एक ही विन्दु पर त्राटकीय संकेंद्रण होता है। कहानी के लिए जो शास्त्रीय संविधान उपस्थित किया गया, वहाँ ‘सिंगुलैरिटी ऑव क्रायसिस’ कहा गया है। उसे ही लघुकथा के आलोचना–शास्त्र में हम ‘लक्ष्यैकचक्षुष्कता’ कहना चाहेंगे। परीक्षा के क्षण अर्जुन को अब वृक्ष नहीं दिख रहा। उसे अब पक्षी भी नहीं दिख रहा। उसे तो प्रत्यंचित बाणाग्र के समक्ष पक्षी का नेत्र–बिन्दु ही दिख रहा है। पक्षी का तन और वृक्ष का फैलाव है सब कुछ, पर इस संघान–साधना में सब कुछ अदृश्य हो गया है। लघुकथा में उत्तप्त क्षण–विशेष का एकतान ताप दीपशिखा की तरह है। अंधकार के पट्ट पर भास्वर एकाक्षर की तरह यह दीप–शिखा कहीं से खंडनीय नहीं होती। तात्पर्य यह कि लघुकथा में कहीं से कुछ भी पृथक्भाव से महत्वपूर्ण नहीं होता। सभी तत्व और भाव, कथा और कथ्य, शिल्प और सौष्ठव, स्थापत्य और उपस्थापत्य, भाषा और शैली, पद और शय्या एकात्मक अद्वैत हो जाते हैं। यह तने हुए रस्से पर बाजीगर की तरह बिना किसी सहारे के चलने जैसा है। जरा–सी चूक हुई कि गिरे।

लघुकथा में एटम का जो स्फोट–तत्व सन्निहित और सन्निविष्ट होता है, वह अपनी पठन–यात्रा के अंत में विस्फोट करता है। यह विस्फोट बिल्कुल वर्टिकल होता है। एक निर्दिष्ट और रिमोट–कंट्रोल्ड ऊँचाई पर जाकर धमाका होता है। फिर सब कुछ शांत। यह ग्राफ नहीं बन सकता।

अपने असरदार अंदाज के लिए लघुकथा को अलकेमी की वाष्पीकरण–प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसी प्रक्रिया के कारण होमियोपैथी की एक छोटी–सी गोली में लाख का पावर भर दिया जाता है। इस गोली में बेहिसाब असर होता है। लघुकथा के क्षणबोध की लघिमा में काल को बोध की तरह महिमा चमत्कृत हो सकती है। स्वप्नदर्शन की तरह काल या तो ठहर जाता है, या पिकासो की पेंटिंग की तरह आयामों में पिघल जाता है। पर वहाँ हर हालत में रहता है, क्षण ही। क्षण अपने उबलते तापमान में वाष्प बनकर आकाश भी घेर सकता है, पर अभी तो वह क्षण ही है।

लघुकथा को मैंने ‘प्रथमदर्शन–प्रेम’ या ‘फर्स्ट साइट लव’ के रूप में देखा है। प्यार साहचर्य का उत्तर–परिणम है। साहचर्य की दीर्घता या गुरुता का लघुकथा में कहीं कोई अवकाश नहीं। यहाँ तो देखा और प्यार!! इसीलिए लघुकथा को सुंदरी ही नहीं त्रिपुरसुंदरी होना होगा। इसमें शृंगारण और सम्मोहन का ऐसा सुशिल्पन होना चाहिए कि जिसे देखते ही दिल दे बैठें। देखते ही जो अपनी हो जाए या अपना बना ले। फिर गंधर्व–विवाह। लघुकथा एक गंधर्व–विवाह है। यह कहानी की तरह प्रकल्पित प्रेमविवाह भी नहीं है, न हो उपन्यास की तरह ऐरेंज्ड मैरेज। यहाँ तो सब कुछ शीघ्रता में होता है। हाँ आधार–भूत तत्व में सम्मोहन आसक्ति होनी चाहिए। मूल में क्षण का वही उत्तप्त ताप है। बुद्ध ने इस क्षणबोध को पहचाना था। उन्होंने कहा था–’सब्बं खनिकं’ (सर्व क्षणिकम्)। लघुकथा क्षण में अनंत का शिल्पित संस्थापन है। यही काल का ध्यानयोग है। एक में अनेक। यही एक का अनेक में आवंटन है। अनेक में एक।

यही काल का द्रवीकरण और संघनन–सिद्धान्त है।

बीसवीं शताब्दी के नवें दशक के अंतिम चरण तक आते–आते ‘लघुकथा’ ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली है। कथा विधा के अंतर्गत लघुकथा का अस्तित्व स्वावलंबी और सर्वस्व लोकप्रिय होने लगा है। लघुकथा के संग्रह और संकलन प्रकाशित होने लगे हैं। इस विधा पर परिचर्चाएँ आयोजित हुई हैं और पत्र–पत्रिकाओं में इसके समीक्षण के अनेक लक्षण उपलब्ध एकत्र होने लगे हैं। फिर भी, यह सत्य है कि हिंदी–में लघुकथा का आलोचना नियम अभी तक सुनिश्चित नहीं हुआ। कथा के उपलब्ध समीक्षा–शास्त्र से लघुकथा का मूल्यांकन नहीं हो सकता।

‘लघुकथा’ के संग्रह–संकलन भी हिन्दी में कम नहीं हैं। कुछ पत्रिकाओं ने साहस कर लघुकथा–विशेषांक अवश्य निकाले हैं सामान्य पत्रिका तथा कथा–पत्रिकाओं के बीच–बीच में लघुकथाएँ व्यवस्थित की जाती रही हैं। इस प्रकार किसी पृष्ठ के छूटे हुए हिस्से पर पूर्ति–परक–क्षेपक–रूप में लघुकथा को छापने की परम्परा रही है। कथा–दौड़ का यह सातवाँ लघुकथा–रूप–पीछे–पीछे चला हुआ, उपेक्षित रहकर भी कालांतर में अब शेष कथाविधाओं के समानांतर चलने लगा है, कई–कई बार कहीं–कहीं तो अरबी घोड़ी (ताजी घोड़ी) पर सवार यह लघुकथारूप आगे निकल गया है।

‘गम्भीर घाव’ करनेवाला यह ‘नावक का तीर’ अब ध्यानाकर्षण करने लगा है। कथा–साहित्य का यह वामनावतार अब तीनों लोक नापने को चुनौतियाँ देने लगा है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरणों में यह हिंदीसाहित्येतिहास की मूल्यांकनीय उपलब्धि है।

‘लघुकथा’ छोटी कहानी (शॉर्ट स्टोरी) नहीं है। यह चुटकुला और लतीफा भी नहीं है। यह दिल्लगी और हसी–मजाक भी नहीं, न ही ठठ्ठ और ठिठोरी है। यह अवांतर–कथा, दृष्टांत–कथा या उपदेश–कथा भी नहीं है। यह कोई कहावती मुहावरा या मुहावरेदार कहावत भी नहीं है। यह कोई प्रसंगकथा अथवा एनैक्डोट्स भी नहीं। न तो यह नल–दमयंती,उर्वशी–पुरूरवा–परंपरा की प्राचीन लघुकथा–व्यवस्थित विधा है, न ही पंचतंत्र की ‘अभिमंजूषित’ शृंखला–कथा (एम्बॉक्स्ड स्टोरीज) यह परीकथा और परिकथा भी नहीं है। न तो यह ईसप् नीतिकथा–परम्परा में है, न ही किसी हितोपदेश परम्परा में। इसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व और सत्ता है, व्यक्तित्व और महत्ता है। ऊपर जिन साहित्य–रूपों को सामने रखकर उन्हें नकार दिया गया है, उसका औचित्य–प्रसंग इतना है कि अकसर इन विधाओं और साहित्यरूपों से वर्तमान ‘लघुकथा’ को उपमित किया जाता है। अथवा यह कहा जाता है कि ‘लघुकथा’ का वर्तमान व्यक्तित्व इन्हीं इतिहास–नीधियों में गुजर–भटक कर बना है। बाहर से देखने में थोड़ी देर के लिए यह बात सत्य या सत्यांशवत् प्रतीत भी होने लगती है, पर बात ऐसी है नहीं।

‘लघुकथा’ की काया बड़ी छोटी होती है। यह एक स्वीकृत बात है। इसी कारण ‘लघुकथा’ को उपरिविवेचित साहित्य–परम्पराओं का आधुनिक संस्करण, उनका रूपांतर, उनसे उपजात, उनका मिश्रण अथवा उस परम्परा में उनका सांप्रतिक स्वरूप मान लिया जाता है। सारी गड़बड़ी काया–साम्य के कारण है। काया का संबंध देश–काल–नियंत्रित स्थापत्य–संविधान से है। यह बहिर्व्यवस्था है। साहित्य के अंतर्गत विधात्मक स्थान की स्वीकृति के लिए यह पहली शर्त है कि यह प्राणप्रतिष्ठित है या नहीं।

यह अपने पैर पर चलनेवाला स्वावलंबी स्वरूप है अथवा दृष्टांत–कथादि की तरह परोपजीवी अमरलतावत् सावधिक सरस प्राण। इसीलिए जब लघुकथा की आत्मा और उसके ‘कर्त्ता स्वतंत्र:’ आचरण पर विचार करते हैं तो स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि चुटकुला, लतीफा,हितोपदेश, अवांतर–कथादि की तरह वर्तमान ‘लघुकथा’ परोपजीवी, पराश्रित और यंत्रसंचालित नहीं, वरन् एक स्वतंत्र और स्वावलंबी साहित्य–विधा है। किसी सूक्तिसुभाषित को संपुष्टि में उपस्थापित दृष्टांत–कथा या हितोपदेश–कथा चाबी–दी–गई गुडि़या की तरह है, जो उसी समय तक चलती–नाचती है, जब तक चाबी की वृत्त–आवृत्तियों का प्रभाव रहता है। दीपक है, तभी दर्पण उसे प्रतिबिंवित–प्रतिसारित करेगा। दीपक ही नही तो दर्पण व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। दृष्टांत या हितोपदेश की कथा सूक्ति–सुभाषित से आश्रित है। कथाकोविद गुणाढ्य की कथापरम्परा अथवा लोककथा–परम्परा में जिस तरह पिंजरे में पड़े तोते के प्राण कहीं और होते हैं। दूर कहीं कोई रिमोट कंट्रोल्ड चीज दबाई गई और तोते के प्राण उड़ गए। या जैसे कठपुतली की डोर नचानेवाले के हाथों होती है। यही कारण है कि ये साहित्य–रूप स्वतंत्र विधा–स्वरूप ग्रहण नहीं कर सके।

‘लघुकथा’ में प्रमुख और प्रभावकारी तेवर के साथ एक परोक्ष एवं शिल्पित संदेश होता है। यह संदेश उपदेश–कथन या दृष्टांत–कथा की तरह प्रत्यक्ष और दिगंबर नहीं होता। फिर भी पैनापन, चुटीलापन, सुईचुभन,जोरदार असर तो कुछ इस तरह होता है कि शल्यचिकित्सा के पहले सूई देकर एक–दो तीन गिनते–गिनते मरीज बेहोश हो जाए जैसे। या कि टूटती हुई साँस के मरीज को कोरामिन का इंजेक्शन दिया जाए और वह उठ बैठे, बातें करने लग जाए। यह ‘देखन में छोटन लगै’ अवश्य है, पर असर घाव ‘करे गंभीर’ इसका अंजाम बनता है।

आज जिस युग में हम जी रहे हैं, उसे समय की ह्रस्वता, बीमार शीघ्रता, द्विधाचित्रता और व्यवस्तता का युग कहा जाता है। हर चीज छोटी होती चली गई है। अब लालकिला, कुतुबमीनार और ताजमहल का जमाना नहीं रहा अब तो छोटे–छोटे प्लेट्स का युग है। अचकन–पचकन और लहँगा–साड़ी की जगह मुख्तसर शर्टपैंट और स्कर्ट–शर्ट ने ले ली है। बड़े–बड़े रेडियो की जगह पॉकेट ट्रांजिस्टर ने ले ली है। चुनावदार जड़ाऊ जूते–जूतियों की जगह हवाई चप्पल का प्रचलन हो चला है। जमीन की हदबंदी, दौलतकी हदबंदी, बच्चों पर पाबंदी सब जगह संक्षिप्तता आ गई। ड्वार्फ़ पेड़ और पौधे लगाए जाते हैं। सब कुछ छोटा–छोटा और जल्दी–जल्दी होना चाहिए। विडंबना और विरोधाभाव यह भी है कि शक्ति का संकेंद्रण होता चला गया । कुछ की मुट्ठियों में ही तमाम दुनिया की ताकत सिमटती चली गई। दहशत दस्तकें देने लगी है। किसी के पास समय नहीं रहा कि महाकाव्य, महाकाव्यात्मक उपन्यास या पौराणिक विशालवाङ्मय में अवगाहन कर सके। एक जीवन केवल व्याकरण पढ़ने में व्यतीत करने का दर्शन अब समाप्त हो गया है। लोकांतर और पुनर्जन्म की आस्था को भी भौतिकतावादी एवं अर्थ–नियंत्रित जीवनदर्शन के कारण गहरा आघात लगा है। जो कुछ है, बस उपस्थित वर्तमान और वह भी संघर्ष–संकुल और ह्रस्वतापहृत। इसलिए लघुकथा का अस्तित्ववान् हो जाना न तो असमीचीन है, न ही आश्चर्यजनक। लघुकथा का आविर्भाव सहज, स्वाभाविक और सामयिक है। इस विधा का स्वागत भी इसी मानसिकता के साथ व्यापक और लोकस्वीकृत हुआ।

धीरे–धीरे यह सत्य स्वीकृत होता चला गया कि ‘साहित्य’ ही एकमात्र संयोजक और समाहारक तत्व है। शेष सभी शास्त्र अपने को शेष से पृथक् कर लेते हैं। केवल साहित्य के प्रांगण में ही सबों का समन्वय–समीकरण, समागम–समाहरण होता है। साहित्य की अंतभूमि इसीलिए संधि और समास की रही है, विग्रह और विन्यास की नहीं। दूसरी बात निष्कर्ष बनकर यह आई कि साहित्य का लक्ष्य आनंद–वितरण है। इसी आनंद के साथ विनोद, मनोरंजन, विरेचन जैसी भावभूमियाँ जुड़ी हुई हैं। आजकल साहित्य की सार्थकता व्यंग्य, विनोद और मनोरंजन के पृष्ठाधार पर ही परीक्षित होने लगी है। इस वर्तमान दृष्टि और दृष्टिकोण को आधार–मान लें तो ‘लघुकथा’ का रूप–रंग और गंध–स्वाद सब कुछ सर्वथा अनुकूल और समीचीन सिद्ध होता है।

लघुकथा के साथ एक भ्रांति जुड़ी रही है कि इसका मुख्य स्वर हास्य या व्यंग्य का ही होता है, या हो सकता है। यह निपू‍र्ल है। चुटकुले और लतीफों में यह बात होती है। फिर लघुकथा को चुटकुले–लतीफों के साथ रख परीक्षित करने से यह भ्रांति पैदा हुई है। लघुकथा हास्य, व्यंग्य, विनोद की उत्पाद–भूमि हो सकती है, बिल्कुल हो सकती है, किन्तु इसकी सीमा यहीं समाप्त हो जाती है, यह स्थापना एवं धारणा गलत है। लघुकथा में करूण, शृंगार, शांत इत्यादि सभी रसों का परिपाक संभव है। इसकी स्वायत्तता में संपूर्ण समाज और उसकी संपूर्ण मनोभूमि है।

लघुकथा भोजन–निर्माण के पूर्व की विस्तृत आयोजन–प्रक्रिया नहीं है, जैसी कहानी में होती है। जैसे चूल्हे के पास जलावन का रखना, चूल्हे पर पतीली रखना, पतीली में पानी डालकर उसे खौलाना, फिर उसमें चावल धोकर डालना, पकने पर उसे उतार लेना है। इसी प्रकार दाल और सब्जियों का पकना–पकाना है। यह सब कुछ लघुकथा में नहीं होता। यह तो कुकर में दाल, भात सब्जी इत्यादि सभी खाद्य–पदार्थों का सजाकर रखना और दो–चार सीटियों पर दो–चार मिनटों में उतार लेना है। खाना तैयार । संपूर्ण दृष्टि भोजन की आस्वाघता पर है। भूख भी लगी है। हम ज्यादा देर तक इंतजार भी नहीं कर सकती। इस तरह लघुकथा एक प्रकार से कुक्डफूड, प्रीपेयर्ड फूड, पैकेट फूड या टिंड फूड हैं अथवा हद–से–हद सिटी मारता कुकर–फूड है। हम डायनिंग टेबुल पर बैठे हैं जबतक प्लेट, चम्मच, ग्लास, पानी सजाया गया, खाना तैयार। हम खाकर संतुष्ट हो जाते है। ऐसा ही शील स्वभाव और क्रिया–प्रक्रिया लघुकथा की है। उपन्यास में तो प्रक्रिया और लंबी हो जाती है। चावल बनना है तो धनरोपनी से शुरू करते हैं। चूल्हे पर हाँड़ी चढ़ानी है तो कुम्हार के घर आवा लगाने को कह आतें हैं। इसी तरह जलावन के लिए पेड़–पेड़ चढ़ते और सूखी लकडि़याँ तोड़ते हैं। उपन्यास में देश और काल का फलक विस्तृत और दीर्घ होता है। काहनी में यह देशकाल–बोध सिमट जाता है। फिर लघुकथा में यह देश और काल कण और क्षण बनकर रह जाता है। इसीलिए लघुकथा एक ओर कण–दर्शन है तो दूसरी ओर क्षण–बोध। कण और क्षण की अन्विति से जो एक खूबसूरत चीज पैदा हुई, वह लघुकथा है।

छोटी कहानी में जो विस्फोट–क्षण (ब्लास्टिंग प्वायंट) होता है, उसे ही लक्ष्यैक–चक्षुष्कता कहते हैं। लघुकथा में यह बिन्दु यथावत् घटित होता है। परिवेश और चरित्र–निर्माण, संघर्ष और द्वन्द्व में छोटी कहानी जितना समय व्यतीत करती है, उसके लिए लघुकथा में अवकाश नहीं होता। इसीतिए परिवेश और चरित्र–निर्माण तथा द्वन्द्व और संघर्ष–उपस्थापना में लघुकथा को संक्षेपण कला–कौशल से काम लेना होता है। व्याकारण–शास्त्र संक्षेपण को व्याख्या से कही ज्यादा कठिन कर्म कहता है। लघुकथा का यह संक्षेपण–व्यापार भी बहुत सरल नहीं है। इसीलिए इसका गद्य संघनन और श्लेष के धरातल पर कविता के संघनन और श्लेष्ज्ञ के निकट पहुँच जाता है। इसीलिए लघुकथा में बिम्ब और प्रतीक की महत्ता हो गई। पूरी दृष्टि तो बाण के उस सुतीक्ष्ण अग्रभाग पर और तनी हुई प्रत्यंचा से छोड़े जाने के बाद उसके तत्काल लक्ष्यवेघ एवं उसकी चुभन पर हैं शेष के लिए अवकाश कहाँ? लघुकथा किसी कपोती के चंचुपुट में समो सकने लायक कागज के छोटे–से टुकड़े पर लिखा गया व्याकुल और तात्कालिक संदेशपत्र है। किसी हाथी के हौदे पर बैठकर औपन्यासिक संदेश पहुँचाया जा सकता है अथवा घोड़े की पीठ पर बैठकर कहानी का वाक्यदूत बना जा सकता है। संदेशवाहन यहाँ भी है, पर एक नन्हीं–सी कपोती के चंचुपुट में संपुटित लघुसंदेश–पत्र। यही लघुकथा।

लघुकथा को आलोचकों ने ‘उपविधा’ कहकर संतोष की साँस ले ली है। कहानी, छोटी कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी जैसी विकास–यात्रा की आधुनिक ओर अगली कड़ी के रूप में ‘लघुकथा’ नहीं है। लघुकथा का अस्तित्व स्वतंत्र है।

जेठ की दुपहरी में पसीने से तर किसी पेड़ की छाँव में कोई ब‍र्फ़ भी छोटी–सी उली दे जाए। इससे न तो प्यास बुझ सकती है, न ही हम नहा पाते हैं। हम इस डली को हथेली पर रखकर मुट्ठी बाँध लेते हैं। हथेली की नसों की माफ‍र्त भीतर ही भीतर शीतलता पूरे शरीर में फैलने लगती है। इधर मुट्ठी में दबी बफ‍र् बूँद–बूँद पानी बन टपकती जा रही है। आँखें बंदकर हम शीतलता का अनुभव करते होते हैं कि तबतक बफ‍र् की डली गल चुकी होती है। पर करतल शीतल हो चुका होता है। हम इस शीतल करतल से अपने धूप–तपे मुखमंडल का स्पर्श–आलेपन कर लेते हैं। एक सूकून मिल जाता है। फिर कुछ दूर तक चल लेने की हिम्मत हमारी हो जाती है।

लघुकथा की अंत: प्रकृति और उसका प्रकृत स्वर हास्य, व्यंग्य, विनोद, मनोरंजन, विडंबन और चमत्कार की ओर अधिक है। केवल हास्य हल्का हो जाता है। केवल व्यंग्य गंभीर और प्रहारात्मक हो जाता है। हास्य और व्यंग्य के मिश्रण से विडंबन बनता है। इसका उद्भव विसंगतियों से होता है। हास्य में स्थायीभाव हास होता है, जबकि व्यंग्य का स्थाई भाव शोक में उपलब्ध हो जाता है। हास्य रस और करूण रस में संबंध नहीं होता। दोनों ध्रुवांतर पर स्थित हैं, परंतु विडंबन में दोनों नीरक्षीर–न्यारा से मिल जाते हैं और इनका तीसरा–रूप निखर आता है। लघुकथा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विसंगतियों का कलात्मक भांडा–फोड़ शिल्प है। ये विसंगतियाँ उरेवीपन [धूर्त्तता] असामंजस्य, अन्याय, कुरूपता, विदूपता, क्रूरता, अमानवीयता, अस्वाभाविकता के परिसर से संबंद्ध हैं। व्यंग्य–बोध इन्हीं विसंगतियों पर चोट करता है। कभी–कभी हास्य का तेवर प्रमुख होने से लघुकथा की संप्रेषणीयता सहज और त्वरित हो जाती है। व्यंग्य में तीक्षणता होती है। व्यंग्य का बाण के साथ मैत्री समास बनता है। हास्य रसों के बीच सबसे अधिक फुर्तीला है। इसका असर तात्कालिक होता है। हास्य संक्रामक भी है। इसके पटाखे तुरंत फूटते हैं। लघुकथा लघुकाय कथाविधा है। समारोह के संपूर्ण आयोजन के पूरा हो जाने पर उद्घाटन के लिए रेशमी फीता बाँधा जाता है। कैंची से फीता कटता है और तालियों की गड़गड़ाहट से माहौल गूँज उठता है। उद्घाटन संपन्न समझ लिया जाता है।

लघुकथा में लघु श्लेषार्थी विशेषण है। लघु अर्थात् छोटा, लघु अर्थात् हल्का (निर्भार,अगरिष्ठ), लघु अर्थात् त्वरित, क्षिप्त। लघुकाय (छोटी काया), लघुभोेजन (हल्का भोजन), लघुहस्त (शीघ्रलेखन)–इन प्रयोगों में लघु के मुख्य रूप से तीन अर्थ लक्षित हैं। लघुकथा में समस्त पद ‘लघु’ इन सभी अर्थों में चरितार्थ है। लघुकथा छोटी–कथा है। लघुकथा सुपाच्यकथा है। लघुकथा सद्य: प्रभावशली त्वरितत्कथा है। लघुकथा के इस त्रिशिर–दर्शन में इसकी अंत: प्रकृति व्याख्यात होती है। गुणादय की ‘बृहत्कथा’ का विलोम जहाँ शिल्पित होता है, वहाँ ‘लघुकथा’ स्व–रूप ग्रहण करती है। लघुकथा समय की ह्रस्वता की मांग है। झटके और झटिति के इस युग की अनुकूलता में, संक्षेपण–कला में नान्यधोपाय निपुण इस उपस्थित वर्तमान की आवश्यकता में और पाठकों की रसज्ञता के प्रति आश्वस्ति की मानसिकता में लघुकथा का जन्मोत्सव एक आवश्यक और प्रतीक्षित ‘कुमार–संभव’ है। इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। यह जीवन और जगत् के यथार्थ और जरूरत की क्षतिपूर्ति है।

संपत्ति की विशालता लघु सिक्कों में सिमट आई है। कथा की कथनीयता लघुकथा में व्यवस्थित–व्यक्त होने लगी है। तांत्रिक प्रक्रिया में जैसे तंत्र (तनाति इति तंत्र: =विस्तार) वह सिमट और सिकुड़कर यंत्र (यम इति यंत्र: =संकोच) हो जाता है। मंत्र दोनों के बीच संयोजक–तत्व बनता है। आज लघुकथा भी बृहत्त्कथा का यंत्ररूप है। इसमें संदेश (संवाद असंवाद दोनों स्थितियों में ) मंत्रमय सिद्ध होता है। लघुकथा बृहत्त्कथा की तरह स्तवन, स्तुति और गाथा नहीं, वरन् वीजाक्षर–तत्व है। इसीलिए इसमें स्फोटशक्ति और स्फोट–दर्शन का अनुसंधान किया जाता है। यहाँ क्षण–विस्फोट होता है।

लघुकथा मनोरंजन तो है ही, विनोद भी है। मनोरंजन में सामान्य मनस्विता है तो विनोद में वेदुष्य–मंडित सात्विक आनंद। फिर ‘चमत्कार’ लघुकथा का अन्यतम अंतरतम है। चमत्कार मूलत: तंत्र के त्रिक्दर्शन का पारिभाषिक शब्द है, किन्तु सामान्य प्रयोग में यह शब्द प्रभाव की जिस जादूगरी तक पहुँच आया है, वह जादू और जादूगरी भी लघुकथा का प्रभाव–कल्प है। लघुकथा बिना विस्तार–बोध के, पुरश्चरणहित शावर (सावर) मंत्र है। बिना लाम–काफ के, सीधी बात। यहाँ पत्रलेखन में ‘स्वस्तिश्री सर्वोपमायोग्य……..’ इत्यादि अलंकरण और विस्तारण के स्थान पर काम की सीधी बात है, पर इन बातों में ‘सतसैया के दोहरे’ का संघनन आवश्यक अभिसंधि है। कविता के प्रांगण में दोहा का जो स्थान है, कथाक्षेत्र में वही स्थान लघुकथा का है। गागर में सागर और बिंदु में सिंधु को समेट लेना मामूली बात नहीं है। इस कृच्छ्र क्रिया में बात बिगड़ भी सकती है। कोई एक स्खलन और अनवधानता लघुकथा को चुटकुले या जोक्स के पीठासन पर बिठा दे सकती है। फिर यह कलात्मक विनोद नहीं रहकर मसखरा और मनोरंजन मात्र रह जाएगा। लघुकथा इसीलिए जलती हुई आग पर बिना जले दौड़कर आर–पार हो जाना है। यह तने हुए रस्से पर चलने की बाजीगरी भी है।

लहंगा–साड़ी की जगह मिनी स्कर्ट के इस जमाने के अनुकूल लघुकथा मिनीस्टोरी है। लघुकथा शार्टस्टोरी नहीं मिनीस्टोरी हैं यह सज्जाकरण का इकेबाना है। लघुकथा भारी गहनों की जगह दुष्यंत की अंगूठी है। लघुकथा एक टिंडफूड है। कहानी या छोटी कहानी की तरह यह रसोई घर की संपूर्ण पाककला नहीं है। अँगरेजी की शार्ट स्टोरी लघुकथा नहीं है। लघुकथा की जमीन रेहन नहीं, केवाला है। लघुकथा किसी मिलन या विदाई के उत्तप्त क्षण की जमीन रेहन नहीं, केवाला है। लघुकथा किसी मिलन या विदाई के उत्तप्त क्षण का चुंबन–मात्र है। यह संपूर्ण मनुहार–कल्प और प्रभातपर्यत शय्या नहीं है। चुंबन पर ही सब कुछ अध्युषित है। इन सर्वों के बीच लघुकथा साहित्य के अंतर्गत व्यवस्थाप्य नहीं बन सकता, जबतक उसमें शिल्प और शैली, स्थापत्य और संदेश, भाषा और भाव–बोध, कथ्य और कथनभंगिमा का संतुलित सामंजस्य न हो। मर्म को छूने की बात बेमानी नहीं है। लघुकथा मर्मस्पर्श की त्वक्–चेतना है।

खुलती हुई गाड़ी से किसी ने प्लेटफार्म पर छोड़ते–दौड़ते खिड़कियों से कुछ बातें कहीं। और वे बातें पूरी यात्रा में गूँजती रहीं। यही है, लघुकथा। विस्तार और अलंकरण की कोई गुंजायश ही नहीं है यहाँ। लघुकथा एक कोड लेंग्वेज स्टोरी है। यहीं प्रतीकधर्मिता और रूपक–विधान भी है।

यथार्थ और आदर्श को लेकर साहित्य में काफी विवेचण हुआ है। विशेषकर कथाविधाओं का उल्लेख सर्वाधिक हुआ है। कभी यथार्थ को प्रमुख माना गया, कभी आदर्श को। इसी तरह कभी आदर्शों मुख यथार्थवाद और फिर कभी यथार्थोंन्मुख आदर्शवाद का उल्लेख हुआ है।

लघुकथा–मूल्यांकन में भी इसका उल्लेख होता है, किन्तु लघुकथा के मूल्याकंन–शास्त्र के निर्माण–क्रम में ये शब्द आधुनिक युगचेतना का संवहन कर नहीं पाते हैं। इसीलिए इनके स्थान पर मैं दो शब्दों को प्रस्तावित कर रहा हूँ। वे हैं, यथार्थ के लिए ‘विश्वसनीय’ और आदर्श के लिए ‘सत्य’। अविश्वसनीय यथार्थ देवीघटना या व्यक्तिवैचित्र्य चित्रण के रूप में स्वीकार किया जाएगा, जिसका साधारणीकरण नहीं हो सकता। इसलिए ऐसे ‘यथार्थ’ मानव–समाज के लिए न तो संवेदनीय बन पाते हैं, न हीं, विश्वसनीय। विश्वसनीयता के बाद ही संवेदनीयता के साधारणीकरण नहीं हो सकता। और साधारणीकरण के पृष्ठाधार के निर्माण के बिना रसोपचिति नहीं होगी। इसी तरह आदर्श और सत्य का संबंध हैं जो आदर्श है, वह सत्य है, वह आदर्श नहीं भी हो सकता है। सत्य आदर्श से बड़ा होता है। आदर्श सनातन और निरपेक्ष होता है। इसका तात्पर्य हम यह कहेंगे कि विश्वसनीयता और सत्य अंतस् और बहिर् दोनों धरातलों पर संयुक्त् होंगे, क्रम–विक्रम दोनों रूपों से संयुक्त होंगे और फिर चार शब्द समाप्त बनेंगे–आत्मसत्य, युगसत्य, आत्मविश्वसनीयता एवं युगविश्वसनीयता। मेरी दृष्टि में लघुकथा में अभी जितने प्रयोग हुए और हो रहे हैं, उनको समझने के लिए विश्वसनीयता और सत्य के निकष पर मूल्यांकन आवश्यक है।

आज लघुकथा इसलिए भी लोकप्रिय हुई है और होती जा रही है, क्योंकि इसमें विश्वसनीयता है। पाठक को यह ‘कथाकथ्यात्मक’ ‘लघुकथा’ अपने उपस्थित वर्तमान, परिधित परिवेश और अनुभूत चिंतन के त्रिकोण में जानी–पहचानी लगने लगती है। यथार्थ तो झख मारकर झेला जाता है। पर ‘विश्वसनीयता’ के साथ आत्मीयता हो जाती है। फिर ‘सत्य’ के संधान में समर्पित लघुकथा मानव मूल्य के शाश्वत स्परूप को रूपायित करने में व्यग्र और व्याकुल है। इस तरह लघुकथा के देहात्म–धर्म से यह निष्कर्ष निकलता है।

लघुकथा का अंतस्त्त्व है ‘मर्म’। मर्म अर्थात् मूलमानवमन या मूलमानववासनावृत्ति या मूलमानव–संवदेनधर्म। इस ‘मर्म’ मानववंश के इतिहास में जितना जो कुछ शुभ एवं शम् है, उसका अधिवास है। वह मर्म तीव्रसंवेद्य अंत:स्थल है। यह ‘मर्म’ मानव–समाज की सभी संवदेना एवं समवेदना का अधिकरणकारक है। अपनी स्पंदकारिका के क्षणों में यही अधिकरणाकारक संप्रदान–कारक बन जाता है। लघुकथा का कुछ भी बाहर शेष नहीं बचता। सब कुछ पाठक के भीतर, उसके मर्म पर अधिष्ठित हो जाता है। मर्म के ऊपर सभ्यता की इतनी–इतनी कृत्रिम परतें पड़ गई है कि उनका भेदन कर मूल मर्म पर पहुँचना वस्तुत: असंभव नही तो कठिनतम अवश्य हो गया है। इसलिए आज साहित्यकार का दायित्व गुरूतर और साधना कृच्छ्तर हो गई है। आज सफल लघुकथाकार नहीं हो सकता है, जिसका मर्म जीवित हो। जिसे मर्म की पहचान है, जो अपनी रचना को मर्मस्पर्शी बना सके और जिसके पास इसके शिल्प और संप्रेषण के शेष कलापक्ष का अभ्यास एवं अभ्यास हो। अन्य अनेक विधाओं में मर्महीन साहित्य रचा जा सकता है, किन्तु ‘लघुकथा’ मर्म से अलग होकर नहीं लिखी जा सकती। मर्म तो इसका वह ‘ऐटम’ है, जो विस्फोट कर दिक् एवं काल के मानस–स्तंभ पर नहीं मिटनेवाली पाषाण–पंक्तियाँ छोड़ जाता है। यही कारण है कि सौ–सौ लघुकथा पढ़ने पर कोई एक उत्तम और अनुशासित लघुकथा मिलती है। यह पाठकीय अभिमत तथा ऐतिहासिक सर्वेक्षण का अवांतर किन्तु आवश्यक विषय हैं लघुकथा का अंतिम तो नहीं, पर सर्वाधिक तीक्ष्ण संप्रेषणीय स्वर व्यंग्य का है। आज नीति और उपदेश से काम नहीं चलेगा। क्रोध और आक्रोश का भी राजनीतिक वर्गीकरण होने के कारण, वहाँ व्यर्थता आ गई है। ये सारे प्रयोग आज विफल और बेमानी है। घाव पुराना है। इसके भीतर मवाद भर गया है। दवा की गोलियों से यह घाव अब ठीक नहीं होगा। प्राकृतिक चिकित्सा भी बेकार है। इसलिए एक तेज नश्तर चाहिए। धीरे से चुभो देने की जरूरत है। फिर तो सब कुछ ठीक।

आज समाज में कुरीतियाँ कहाँ नहीं है। उनकी गणना ही व्यर्थ है? शायद ही कोई व्यक्ति, स्थान या विभाग शेष या अपवाद हो कि जहाँ ये विडंबित कुरूपताएँ न हों। अत: साहित्य के माध्यम से ही एक ओर व्यथा का मर्म उपस्थित किया जा सकता है और दूसरी और व्यथा के नियामकों पर व्यंग्य का नश्तर चुभोया जा सकता है। और कोई उपाय नहीं है। और यह कार्य सर्वाधिक कौशल एवं प्रभाव के साथ लघुकथा में हो रहा है।

व्यंग्य को लेकर एक भ्रांति भी है, जिसपर पुनर्विचार आवश्यक है। काव्यशास्त्र के अंतर्गत शब्दशक्ति–प्रकरण में तीन प्रकार के शब्दों का उल्लेख है–वाचक, लक्षक एवं व्यंजक। इन तीनों शब्दों से वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ को क्रमश: उत्पन्न किया जाता है। शब्द के अर्थ के निष्पादन में क्रमश: तीन शक्तियों का उपयोग होता है–अभिधा–शक्ति, लक्षणा–शक्ति एवं ‘व्यंजना’ शक्ति। अत: ‘व्यंग्य’ मूलत: काव्यशास्त्र का शब्द है। ‘व्यंग्य’ अर्थ (व्यंग्यार्थ) के रूप में तभी ‘व्यंजक’ शब्द से व्युत्पन्न होता है, जब ‘व्यंजना’ शक्ति का उपयोग किया जाता है। अभिधा से व्यंजना का संबंध विच्छिन्नप्राय हो जाता है। दूरगामी अर्थ का आक्षेपण (अनायन) व्यंग्य के द्वारा ही साधित होता है। आयरनी और सटायर के रूप में जब व्यंग्य का प्रयोग होता है तो इसका तात्पर्य एक आघातक साधन–विशेष है। आज के व्यंग्य और विशेषकर ‘लघुव्यंग्य’ को साहित्य–विधा के रूप में उपस्थित–स्थापित किया जा रहा है। कुछ पहले कहानी में व्यंग्य की प्रधानता के कारण उन्हें भी केवल ‘व्यंग्य’ कहा जाता था। परन्तु कालांतर में ‘व्यंग्यप्रधान कहानी’ जैसी बात कहकर विवाद समाप्त किया गया। कविता में भी व्यंग्य का उपयोग होता रहा है। कबीर इसके सर्वोत्तम उदाहरणपुरुष है परन्तु मूलत: उनकी रचना की व्यंग्य नहीं कहते। इसी तरह समाचारपत्रों में व्यंग्यप्रधान आलेख छपते हैं, जो केवल ‘व्यंग्य’ नहीं कहे जाते।

‘व्यंग्य’ गुण–मात्र है, यह गुणी नहीं हो सकता। एक उदाहरण से बात स्पष्ट होगी। नमक या लालमिर्च भोजन में आवश्यक हैं। ज्यादा मिर्च डालकर भोजन को तीखा बनाया जा सकता है, पर एक बात तै है कि केवल मिर्च या केवल नमक से भोजन नहीं बन सकता। लवण से लावण्य शब्द बनता है। लावण्य का सीधा अर्थ है नमकीनपन । यह वाच्यार्थ है, पर यही शब्द ‘व्यंग्यार्थ’ में (व्यंजना शक्ति के सहयोग से) सुंदरी नायिका के चुंबकीय एवं सम्मोहक मुखमंडल के उपांग–कपोल, अधरोष्ठ, नासिका, मस्तक–सर्वों पर छलक आता है और कहते हैं, मुख पर लावण्य है। यह लावण्य निराधार नहीं दीखता। दीख भी नहीं सकता।

इसी तरह व्यंग्य या हास्य या अन्य साहित्य–तत्व कथाफलक या साहित्य की अन्य स्वीकृत विधाओं में ही शोभित होते हैं। इसलिए व्यंग्य लघुकथा का एक आवश्यक और धारदार तेवर है। अत: अलग से लघुव्यंग्य की आवश्यकता मेरी दृष्टि में नहीं है। ‘लघुकथा’ के साथ ‘रस’ की चर्चा प्राय: नहीं हुई है। रस की चर्चा करते ही आलोचक को दिनातीत मान लिया जाता है। इसलिए लघुकथा से लेकर कहानी और उपन्यास तक और सभी गुण–धर्म, शील–स्वभाव, वृत्ति–प्रवृत्ति की तो चर्चा होगी, कुंठा, संत्रास, युगबोध इत्यादि का भी उल्लेख होगा, पर ‘रस’ का नामोल्लेख तक नहीं करेंगे और सत्य तो यह है कि रस का प्राथमिक उल्लेख भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में कथा–प्रसंग अर्थात् नाटक के सिलसिले में ही किया था। और फिर लगभग दो हजार वर्षों तक भरत के उस रससूत्र का विश्लेषण किया गया है। अंतत: इतना तो स्वीकार कर ही लिया कि साहित्य की आत्मा रस है– ‘रसासदिश्चात्मा’ रस के बिना जो साहित्य है वह रससाहित्य के कारण ‘रसहीन’ या ‘नीरस’ ही नहीं, ‘साहित्य’ मात्र नहीं है। अत: लघुकथा के प्रसंग में रस की चर्चा करनी होगी।

उत्तम कृति और सहृदय पाठक का जब ‘संयोग’ होता है धीरे–धीरे ‘साधरणीकरण’ को स्थिति उत्पन्न होती है। साधारणीकरण एक बहु–आयामी बोधन–व्यापार और अंत: प्रक्रिया है। लेखक के विचार, उन विचारों में व्यवस्थित चरित्र और शब्द, सहृदय सामाजिक (प्रेक्षक, पाठक, श्रोता किसी भी रूप में) सर्वों का साधारणीकरण होता है। फिर रसोपचिति या रसनिष्पात्ति होती है। इसके पश्चात् आनंद की वह स्थिति उत्पन्न होती है, जिसके लिए उपनिषद् में ‘रसो वै:’ कहा गया।

स्थायीभाव दिक्कालातीत भाव से प्रत्येक सहृदय सामाजिक के हृदय में पहले से ही विद्यमान होते हैं। जो अपने अनुकूल स्थिति–योग या दृश्य–स्पर्श या भावबोध के कारण रसदशा में रूपांतरित हो जाते हैं।

लघुकथा अपनी काया के अवकाश–लाघव के कारण साधारणीकरण तक पहुँचकर छोड़ देती है। तत्काल रसरूपांतरण होता नहीं, हो भी नहीं सकता। फिर होमियोपैथी की दवा की तरह यह हाई पावर्ड छोटी गोली असर करने लगती है। हो सकता है, दवा महीनों बाद असर दिखाए। इसी तरह लघुकथा का असर दूर और देर तक रहता है। ‘लघुकथा’ प्रत्यंचित बाणाग्र पर बैठकर अपने पाठक के साथ टंकार के साथ छूट तो जाती है, पर तत्काल कोई लक्ष्यवेध नहीं होता। कभी भी,कालांतर में लक्ष्यवेध हो सकता है। तबतक हम प्रक्रिया–सुख में होते हैं। भोजन के बाद की तृप्ति ‘चरम है और उसका अपना एक सुख है। किन्तुं डायनिंग टेबुल पर भोजन की चर्वणवस्था का भी अपना सुख और सौंदर्य है। लघुकथा साधारणीकरण के भूमपीठ पर पहुँची हुई मधुमती भूमिका है। मधुमती भूमिका ‘समाधि’ या ‘रसोपचिति’ के पहले की वह अवस्था है, जिसे हम खुमारी की संज्ञा देते हैं। खुमारी न तो बेहोशी है, न ही जागरण। यह मध्यवर्ती स्थिति है। इसे ही कबीर कहते हैं–’पियत रामरस लगे खुमारो।’दृष्टांत–भाषा में लघुकथा गोमुख–गोमुखी–मात्र हैं इस गोमुखी से गंगा निकलती है। गोमुखी के पीछे संशोधित जलराशि की अल्केमी का विशाल भंडार होता है, जो दीखता नहीं। गोमुखी से निकली गंगा आगे कितने तीर्थ बना यह भी नहीं दीखता। दीखती तो है बस यह मध्यस्थ गोमुखी। लधुकथा में चुंबक का पानी होता है। लघुकथा अतीत और भविष्य दोनों का संकेत दे देती हैं पाठक जीवन–भर उस लघुकथा में उपसर्ग–प्रत्यय लगाता रहता है और उसे अपना बना लेता है। लेकिन शर्त यह है कि ऐसी लघुकथा में विश्वसनीयता और सत्य होना चाहिए, कथा और कथ्य होना चाहिए, स्थापत्य–शिल्प एवं भाषा–शैली होनी चाहिए। लघुकथा के चरित्र भाषा के शब्दों में पिघलकर एकाकार हो जाते हैं। इसलिए लघुकथा में संगतराश भी शिल्पगत तराश होनी चाहिए। जरा–सी चूक, हल्की या भारी चोट या जरा–सी गलत जगह की तराश से मूर्ति विकृत हो जा सकती है। लघुकथा योग की लघिमा एवं अणिमा–सिद्धि है।

लघुकथा का इतिहास लगभग अस्सी वर्षों का इतिहास है। कहानी के समानांतर इसका सोता चलता रहा है। जिस तरह कहानी उपन्यास का उत्तर परिणाम नहीं, वरन् एक स्वतंत्र और स्वाबलंबी विषय है। यह दूसरी बात है कि कहानी का विकास पहले और ज्यादा हुआ है। लघुकथा का विकास बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से कहानी के समानांतर धीरे–धीरे अवश्य हुआ है किन्तु अब इसकी जमीन स्थिर होती जा रही है। यह भी सत्य है कि लघुकथा के लिए कभी कोई आयोजित आन्दोलन नहीं हुआ। इस प्रबंध के आरम्भ में लघुकथा को ऐतिहासिक दृष्टि से देखते हुए इसके दो काल–खण्ड किए गए थे–प्राक्–स्वातंत्र्य–काल और स्वातंत्र्योत्तर–काल। प्राक्स्वातंत्र्य -काल में प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद की कुछ लघु कहानियों को लघुकथा की गलत संज्ञा दी गई हैं, किन्तु लघुकथा का विश्वसनीय स्वरूप उपेन्द्रनाथ अश्क की लघुकथाओं में मिलता है। स्वातंत्र्योत्तर–काल में लघुकथा का आरम्भ यशपाल के ‘फूलो का कुरता’ कहानी –संग्रह की भूमिका में व्यवस्थित एक लघुकथा से होता है। फिर 1989 में, आज तक ऐसे बीसियों लघुकथाकारों के नाम सफल सूची में रखे जा सकते हैं।

विश्वस्तर पर जिन लघुकथाकारों के नाम लिए जाते हैं, उनमें मूलत: सभी छोटी कहानी के लेखक हैं। फिर भी कुछ ‘छोटी–छोटी कहानियों’ के आधार पर उन्हें लघुकथाकार के रूप में भी स्वीकार किया गया। इनमें बालजाक, खलील जिब्रान, एडगर एलेन पो,मोपासाँ, पुश्किन, चेखव, गोगोल ओ0 हेनरी के साथ अन्य बीसियों नाम आते हैं। पर मेरी दृष्टि में ओ0 हेनरी विश्व के प्रथम लघुकथाकार हैं। किसी ‘लघुकथा’ आन्दोलन का उन्होंने प्रवर्तन नहीं किया था। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशक तक ओ0 हेनरी का लेखन–काल है।

ओ हेनरी की छोटी कहानी ‘गिफ्ट ऑव मेगाई’ वस्तुत: लघुकथा है। इसे मैं विश्व की पहली शिल्पित लघुकथा मानता हूँ। यद्यपि इसे छोटी कहानी की कोटि में रखा गया है। यहाँ विधा और शास्त्र पर विचार करने के सिलसिले में ‘गिफ्ट ऑव मेगाई’ का उल्लेख करना चाहूँगा।

‘डेला और बिल पत्नी–पति हैं। गरीब हैं। बिल मामूली नौकरी पर है। जिस जगह उसके रहने का मामूली फ्लैट है, उसके सामने के लेटर–बॉक्स का भी सही रख–रखाव वे नहीं कर पाते। दोनों में बेहद प्यार है।

दोनों मन–ही–मन क्रिसमस में एक–दूसरे को उपहार देने को सोचते हैं। डेला सालभर से बचत करती चली आ रही है कि वह इस क्रिसमस के दिन अपने पति को घड़ी की चेन खरीदकर दे सके। और उसने सालभर में एक डॉलर सतासी सेंट्स बचाए हैं। पिता से मिली घड़ी को उसका पति पहन नहीं पाता, क्योंकि उसमें चेन नहीं है। वह आईने के पास खड़ी होती है। वह अपने सुंदर, रेशमी और बड़े बालों को देखती है, जिन बालों के कारण वह चर्चा में रहती है। इन रेशमी केशों के कारण पति और अधिक प्यार करता है। वह अचानक कुछ सोचती है और बाजार जाकर ब्यूटी पार्लर में अपने केश समूल कटवाकर बेच देती है। फिर बालों के पैसे और पहले से इकट्ठे पैसों से वह पति के लिए घड़ी का खूबसूरत चेन खरीद लाती है, ताकि इस क्रिसमस पर वह सरप्राइज गिफ्ट दे सके।

इधर पति बिल बाजार जाकर अपनी घड़ी बेचकर प्यारी पत्नी के लिए खूबसूरत कंघी खरीद लाता है। दोनों इस क्रिसमस पर एक–दूसरे को उपहार देते हैं।

यहीं कथा का अंत होता है। दांपत्य,वैवाहिक जीवन, प्रेम, गरीबी, त्याग, निश्छलता, अव्यावहारिकता ओर अमृत संवेदना का ऐसा संगुंफन अन्यत्र कम हुआ है। दांपत्य, प्रेम और विवाह का त्रिकोण जिस गरीबी की भूमि पर बना है, वहाँ दोनों ही अपने सर्वोत्तम का सहज त्याग करते हैं। अपने से अधिक महत्व दूसरे को देते हैं। यह लघुकथा है। इसे फैलकर छोटी कहानी, कहानी या लंबी कहानी का भी रूप दे दिया जाए तो भी इसकी कथाकाया लघुकथा की ही होगी । आधुनिक काल में ऐसी अनेक लघुकथाएँ पढ़ने को मिलती हैं, जो मूलत: छोटी कहानी या कहानी का कथातत्व लिये होती है।

हिंदी–साहित्य के स्वातंत्र्योत्तर–लघुकथाकाल में मेरी दृष्टि में पहली समर्थ लघुकथा ‘फूलो का कुरता’ (यशपाल) है । यहाँ यह लघुकथा यथावत् प्रस्तुत है–

‘वंकू शाह की दूकान के बरामदे में पाँच–सात भले आदमी बैठे थे। हुक्का चल रहा था। सामने गाँव के बच्चे ‘कीड़ा–कीड़ी’ का खेल खेल रहे थे। साह की पाँच बरस की लड़की फूलो भी उन्हीं में थी।

पाँच बरस की लड़की का पहरना और ओढ़ना क्या? एक कुरता कंधे से लटका था। फूलो की सगाई हमारे गाँव से फर्लांग–भर दूसर ‘चूला’ गाँव में संतू से हो गई थी। संतू की उम्र रही होगी, यही, सात बरस। सात बरस का लड़का क्या करेगा? घर में दो भैसें, एक गाय और दो बैल थे। ढोर चरने जाते तो संतू छड़ी लेकर उन्हें देखता और खेलता भी रहता, ढोर काहे को किसी के खेत में जाएँ। साँझ को उन्हें घर हाँक लाता।

बारिश थमने पर संतू अपने ढोरों को दलवान की हरियाली में हाँककर ले जा रहा था। संतू साह की दुकान के सामन पीपल के नीचे बच्चों को खेलते देखा तो उधर ही आ गया। संतू को खेल में आया देखकर सुनार का छह बरस का लड़का हरिया चिल्ला उठा–’आहा, फूलो का दुल्हा आया।’

दूसरे बच्चे भी उसी तरह चिल्लाने लगे।

बच्चे बड़े–बूढ़ों को देखकर बिना बताए–समझाए भी सबकुछ सीख और जान जाते हैं। यों ही मनुष्य के ज्ञान और संस्कृति की परंपरा चलती रहती है। फूलों पाँच बरस की बच्ची थी तो क्या? वह जानती थी, दूल्हे से लज्जा करनी चाहिए। उसने अपनी माँ को, गाँव की सभी भली स्त्रियों को लज्जा से घूँघट और परदा करते देखा था। उसके संस्कारों ने उसे समझा दिया था, लज्जा से मुँह ढंक लेना उचित है।

बच्चों के उस चिल्लाने से फूलो लजा गई, परन्तु वह करती तो क्या? एक कुरता ही तो उसके कंधों से लटक रहा था। उसने दोनों हाथों से कुरते का आँचल उठाकर अपना मुख छिपा लिया।

छप्पर के सामने, हुक्के को घेरकर बैठे प्रौढ़ भले आदमी फूलों की इस लज्जा को देखकर कहकहा लगाकर हँस पड़े।

काका राम सिंह ने फूलों को प्यार से धमकाकर कुरता नीचे करने के लिए समझाया। शरारती लड़के मजाक समझकर हो–हो करने लगे।

यहाँ यह लघुकथा समाप्त होती है। ‘फूलो का कुरता’ यशपाल की आठ कहानियों का संग्रह है, जिसका प्रकाशन विप्लव कार्यालय, लखनऊ से हुआ था। इस कहानी संग्रह में भूमिका शब्द के नीचे उपशीर्षक है ‘फूलों का कुरता’। तीन पृष्ठों की इस भूमिका में एक पृष्ठ यह लघुकथा घेरती है। लेखक के हस्ताक्षर के साथ तिथि छपी है, अगस्त 1949 ईस्वी।

यह लघुकथा भूमिका के मध्य में व्यवस्थित है। ग्रंथ की आठ कहानियों के साथ इसे नहीं रखा गया परन्तु भूमिका के बीच इसके व्यवस्थापन से इसका महत्व बढ़ा ही है।

परम्परा से प्रशिक्षित लज्जा की भावना और उसको ढँकने के क्रम में प्राकृतिक संस्कृति नंगी हो गई है। आज हो यही रहा है। बाल–विवाह का सामाजिक रोग भी यहाँ है। बच्चों की मासूमियत और परम्परा–प्रशिक्षित संस्कार एवं उपस्थित यथार्थ के संघर्ष का दुष्परिणाम सामने है। बच्चों के सहज चारित्रय में विश्वसनीयता और सत्य का उद्घाटन है। शब्दों में पूर्वापरता का अंत: सूत्रित अनुबंध और कथा से संयुक्त कथ्य का कौशल इस लघुकथा को एक ऊँचाई दे जाता है। धीरे–धीरे यह लघुकथा अपने शब्दानुशासन और स्थापत्यकला के सावधान पूर्वापर–संयोजन के कारण संवेद्य एवं संप्रेषणीय बन गई है। शिल्प की तराश और भाषा की एकोद्दिष्ट भंगिमा लघुकथा को साहित्यिक साधारणीकरण और सामाजिक संवेदन एक साथ प्रदान करती है। मैं इस लघुकथा को अनेक दृष्टियों से महत्व देते हुए हिंदी की पहली शिल्पित लघुकथा कहना चाहूँगा।

1949 ई0 के बाद जनवरी 1989 की एक लघुकथा का उल्लेख करना चाहूँगा। बीच में चालीस वर्षों का अंतराल है। लघुकथा अनेक उतार–चढ़ाव को पार करती हुई यहाँ तक पहुँची है। इस मध्य के बीसियों नाम उल्लेखनीय हैं, या हो सकते हैं। लघुकथा के प्रकाशित ग्रंथ भी अब अंगुलिगण्य नहीं हैं। लेकिन मेरा मकसद इतिहास उपस्थित करना नहीं, वरन इतिहास–दर्शन,ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और भविष्य–धावित कालचक्र के आलोक में लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता का अनुचिंतन करना था। जब सिद्धांत बनते या बनाए जाते हैं तो उनका विनियोग भी होता है। इसी विनियोग–विन्यास पर मैं सिर्फ़ दो लघुकथाओं को रख रहा हूँ। एक तो ‘फूलों का कुरता’, जिसका उल्लेख किया जा चुका है और दूसरा श्रीयुगल–लिखित ‘पेट का कछुआ’ शीर्षक लघुकथा। इसका प्रकाशन ‘हंस’ (दिल्ली) मासिक पत्रिका के जनवरी 1989 के अंक में पृष्ठ 65 पर हुआ है। पहले यहाँ लघुकथा यथावत् प्रस्तुत है, ‘खस्ता हाल बन्ने का बारह साल का लड़का पेट–दर्द से परेशान था और देह छीजती जा रही थी। टोना–टोटका और घरेलू इलाज का कोई फायदा नजर नहीं आ रहा था। दर्द उठता तो लड़का ऐंठ जाता, चीखता और माँ–बाप की आँखों में आँसू आ जाते। एक रात जब लड़का ज्यादा बदहाल हुआ, तो माँ ने बन्ने को लड़के का पेट दिखलाया। बन्ने ने देखा, कछुआ–जैसा कुछ पेट के अंदर चलने की कोशिश कर रहा है। गाँव के डॉक्टर ने भी हैरत से देखा और सलाह दी कि लड़के को शहर के अस्पताल ले जाओ।

बन्ने घर के बर्तन बेचकर लड़के को शहर ले आया। अस्पताल के सर्जन को भी अचरज हुआ,–पेट में जिंदा कछुआ? सर्जन ने जब कछुए को उँगलियों से दबाया तो वह इधर–उधर चलता–जैसा नजर आया। और लड़के के पेट का दर्द बढ़ गया। सर्जन ने बतलाया, लड़के को बचाना है तो दो हजार का इंतजाम करो।

बन्ने की आँखें चौंधिया गई। दो क्षण साँसें ऊपर की अटकी रह गई। लड़के को वह कभी नहीं बचा सकेगा। उसके जिस्म की ताकत चुकती लगी। वह बेटे को लेकर अस्पताल केबाहर आ गया। वह विमूढ़ बना सड़क के किनारे बेटे के साथ बैठ गया।

‘लड़के को कराहता देखकर किसी ने सहानुभूति जतलाई, ‘क्या हुआ है?’ बन्ने बोला, ‘पेट में कछुआ है साहब।’

‘पेट में कछुआ?’ मुसाफिर को अचरज हुआ।

‘हाँ साहब।’ और बन्ने ने लड़के का पेट दिखलाया। पेट पर उँगलियों का टहोका दिया। कछुआ कुछ इधर–उधर हिला। बन्ने का गला भर आया। ‘आपरेशन होगा साहब! डॉक्टर दो हजार माँगता है। मैं गरीब आदमी। लड़का मर जाएगा साहब।’ और वह रो पड़ा।

तब तक कई लोग वहाँ खड़े हो गए थे। उस मुसाफिर ने दो रुपए का नोट निकाला और कहा, ‘चंदा इकट्ठा कर लो और लड़के का आपॅरेशन करवा दो।’

फिर कई लोगों ने एक–दो रुपए और दिए। जो सुनता रुक जाता……….’पेट में कछुआ?’………’हाँ जी, चलता है।’……

‘चलाओ तो।’

बन्ने लड़के के पेट पर उँगलियों से टहोका देता। कछुआ हिलता। लड़के के पेट का दर्द आँखों में उभर आता। लोग एक–दो या पाँच के नोट उसकी ओर फेंकते! ‘आपॅरेशन करा लो भाई। शायद लड़का बच जाए।’

साँझ तक बन्ने के फटे कुरते की जेब में नोट और आँखों में आशा की चमक भर गई थी।

अगले दिन वह उस शहर के दूसरे छोर पर आ गया। वह लड़के के पेट पर उसी तरह टहोका मारता। पेट के अंदर कछुआ चलता। लोग प्रकृति के इस मखौल पर चमत्कृत होते और रुपए देते। बन्ने दस दिनों तक शहर के चालू नुक्कड़ों पर यह तमाशा दिखलाता रहा और लोग रुपए देते रहे। दूसरे–तीसरे दिन लड़के की माँ आती। बन्ने उसे रुपए देकर लौटा देता। लड़के ने पूछा–’बाबू ऑपरेशन कब होगा?’ फिर कुछ सोचता हुआ बोला–

‘मुन्ना तेरा क्या ख्याल है? पेट चीरा जाकर भी तू बच जाएगा? डॉक्टर भगवान तो नहीं। थोड़ा दर्द ही तो होता है न? बर्दाश्त करता चल। यों जिंदा तो हैं। मरने को क्या? असल तो जीना है।’

लड़का कराहने लगा। उसके पेट का कछुआ फिर चलने लगा था।’

यहाँ लघुकथा समाप्त होती है। मर्म के हर रेशे को झकझोरने वाली यह लघुकथा जिस अकथित कथ्य के साथ यहाँ उपस्थित होती है, उसका कथ्य सम्पूर्ण कथा है। कथा, कथ्य और भाषा का समीकरण तादात्म्य में बदल गया है। इन्हें हम यहाँ अलग–अलग नहीं कर सकते। शब्द उतने ही हैं, जितने की जरूरत कथा में है। एक भी फालतू शब्द नहीं है। शब्दों का संयोजन और विन्यास इस हिसाब से है कि उन्हें न तो हम न्यूनाधिक कर सकते हैं, न ही व्यक्तिक्रमित। कथा उतनी ही उपस्थित तथा स्थापत्य–स्थापित है, जो कथ्य बन सकती है। कथा और कथ्य का परस्पर निगीकरण रूपक–अलंकार की तरह सर्वात्मभावित है।

मुन्ने के पेट में कछुआ है। वह दर्द से कराहता है। वह इलाज के लिए घर के बर्तन बेच देता है। बर्तन संपत्ति की अंतिम इकाई होते हैं। माँ–बाप का वात्सल्य आँखों में उमड़ता–झरता रहता है।

वही बच्चा जब शहर के चौराहे पर खड़ा है और बाप अपरिचित भीड़ से याचना करता है तो उसे इलाज के लिए रुपए मिलने लगते हैं। रुपए इतने कि हर दूसरे–तीसरे दिन बन्ने की पत्नी राशि बटोर कर ले जाती है। समाज के पास सहानुभूति है। इस सहानुभूति के वशीभूत होकर लोगों ने रुपए दिए किंतु इससे भी बड़ी बात है, मनोरंजन की लालसा। समाज दूसरों के जीवन के मूल्य पर भी अपना मनोरंजन चाहता है। फिर वह समाज जोखिम उठाने और जान पर खेलकर तमाशा दिखानेवालों को पैसा देता है। बन्ने के पास अब रुपए बरसने लगे। वह मदारी की तरह अपने मरणोन्मुख बेटे का तमाशा दिखाता है।

इस समाज में अर्थ की जो महत्ता और नियामकता है, उसके परिणाम–स्वरूप जो मानवीय विपर्यस्तता तथा विकृति आती है, उसका एक संश्लिष्ट चित्र यहाँ उपस्थित है। माता–पिता का वात्सल्य और ममता धीरे–धीरे इस अर्थ–तंत्र में सूख जाती है। उस पैसे के लिए वह अपने बीमार और जीवित बेटे को भी परवान चढ़ाता है। बेटे के पेट पर ठोकर मारकर वह तमाशा दिखाता है। लोग पैसे देते हैं। बन्ने मुन्ने का ऑपरेशन नहीं कराता। बेटे के पूछने पर वह पूरी स्थिति का दार्शनिकीकरण कर देता है। वह कहता है, ‘थोड़ा दर्द ही होता है न? बर्दाश्त करता चल क्यों जिंदा तो हैं। मरने को क्या? असल तो जीना है।’

प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ अपनी मार्मिकता एवं शिल्पगत तराश के लिए हिंदी की सर्वोंत्तम या सर्वोंत्तम कहानियों में एक है। वहाँ घीसू और माधव पिता–पुत्र हैं। दुधिया पेट में बच्चा लिए मर जाती है। उसके कफन के नाम पर दोनों चंदा लेते और दारू पी जाते हैं। यहाँ माता–पिता अपने जिंदा बेटे के दर्द का तमाशा दिखाकर पैसे लेते और आँखों में चमक लिए हैं। दुधिया के पेट में बच्चा था। यहाँ मुन्ने के पेट में कछुआ है। दुधिया गर्भस्थबालक के साथ मर गई थी। यहाँ मुन्ना गर्भस्थ कछुआ के साथ जिंदा है।

‘कफन’ में माधव जब अपने पिता घीसू से पूछता है कि बाबा, हमने कफन के रुपए से तो दारू पी ली, कफन भी नहीं खरीदा, दुधिया की आत्मा क्या कहेगी? परलोक में हम क्या जवाब देगें? तो घीसू दार्शनिक की तरह समझाता है कि चिंता मत करो, उसे स्वर्ग मिलेगा। उसके कफन के पैसे से हमने दारू पी और भरपेट भोजन किया।

यहाँ पिता दर्द से कराहते अपने बेटे को समझाता है ‘थोड़ा दर्द ही होता है न? बर्दाश्त करता चल। यों जिंदा तो हैं। मरने को क्या? असल तो जीना है।’ दोनों स्थलों पर दर्शन के इस्तेमाल के सहारे अपनी विकृतियों को उचित ठहराया जा रहा है। यह विकृति सामाजिक विषमताओं और शोषण का उत्तर परिणाम है, किंतु कभी भी इनके कारणों का न तो उल्लेख है, न ही आक्रोश। एक विकृत स्थिति–चित्र, उसके भीतर कराहता हुआ दर्द और उसकी भी तह में सामाजिक विषमता का शोषक समुदाय। तीन परतों से बनी इस लघुकथा में केवल पहली परत स्पष्ट है। दूसरी और तीसरी परत का कहीं उल्लेख या संकेत तक नहीं। यह कथा का कथ्यापत्मक कौशल है।

बच्चा पेट में दर्द का कछुआ अथवा कछुआ का दर्द लिये कराह रहा है, किंतु माँ–बाप को तमाशा दिखाकर पैसे मिलते है और समाज को सस्ते में कौतुकाधार आनंद।

पूरी कथा की बुनावट ऐसी है कि कथा–पट पर कोई धागा अलग से नहीं दीखता। ऊपर से कोई कशीदाकारी नहीं है, बल्कि भीतरी तारों के कुशलसंयोजन से अपेक्षित चित्रांकण उभर आता है। भीतर से ही सब कुछ पैदा हो रहा है।

ऊपर वीभत्स रस, मध्य में करुण रस और भीतर अंतिम छोर पर रौद्र रस का त्रिपादी कथारस इस कौशल से प्रवाहित हुआ है कि सहृदय सामाजिक का हृदय अभीप्सित साधारणीकरण तक सहज ही पहुँच जाता है। फिर तो दर्द का यह कछुआ सबों के पेट में उतर जाता है और फिर हम बिना टहोका मारे कराह उठते हैं।

लघुकथा का यही कौशल भी है।

ऐसे और भी उदाहरण उपस्थित किए जा सकते हैं, पर यहाँ इतिहास–दृष्टि और व्यावहारिक आलोचना के स्थान पर विधागत शास्त्रीयता पर ही केंद्रित रहना था। ये कुछ उदाहरण इसलिए उपस्थित किए गए कि प्रस्तारित निकष पर लघुकथा की जाँच की क्या प्रक्रिया हो सकती है, इसे थोड़ा स्पष्ट करना था।

इस विचारपत्र के माध्यम से मैंने जो कुछ निवेदित किया है, वह अंतिम नहीं है, ऐसा मैं आरम्भ में भी कह चुका हूँ। आपके परामर्श , विचार, संशोधन और संयोजन से मैं निश्चय ही लाभान्वित होना अपना सौभाग्य समझूँगा। इत्यलम्।

[यह आधार-आलेख लघुकथा-लेखक –आलोचक –सम्मेलन , अप्रैल 1989 के अवसर पर पटना में प्रस्तुत किया गया । लेखक और सम्पादक की अनुमति के बिना इस लेख का उपयोग नहीं किया जा सकता ।]

हिन्दी लघुकथा का परिप्रेक्ष्य

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पिछले कुछ वर्षों में साहित्यिक विधाओं में लघुकथा का प्रचलन बड़े जोर–शोर से हुआ है। प्रमुख कहानी–पत्रिका ‘सारिका’ द्वारा लघुकथाओं के दो विशेषांक प्रकाशित करने के बाद लेखक का ध्यान इस विधा की ओर भी आकर्षित हुआ। ‘सारिका’ जैसी सम्भ्रान्त पत्रिका द्वारा लघुकथा विशेषांक निकालना मानो लघुकथा की विधा पर मान्यता की मोहर लगाने जैसा हो गया।

लघुकथा हिन्दी अथवा विश्व–साहित्य के लिए नई विधा नहीं है। बल्कि यह कल्पना की जा सकती है कि संस्कृति तथा साहित्य के आदिकाल में जिस प्रकार कविता बहुत छोटे गीत के रूप में होती थी उसी प्रकार उस समय कहानी भी लघुकथा के रूप में रही होगी। समुन्नत साहित्य वाली सभी प्राचान भाषाओं में भावकथाएँ तथा बोधकथाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इन कथाओं का स्वरूप लघुकथा जैसा ही है। शेखसादी की बोस्तान में प्राचीन बौद्ध धर्म–ग्रन्थों में, बाईबल में तथा लगभग सभी धमों‍र् के पुराण ग्रन्था में इस प्रकार की कथाएँ मिलती हैं। अर्वाचीन विश्व साहित्य में खलील जिब्रान ने अपनी लघुकथाएँ लिखी हैं। अमेरिकी लेखक जेम्स थर्बर भी अपनी लघुकथाओं के लिए विश्वविख्यात हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस अपने उपदेश के समय ऐसी ही छोटी–छोटी कथाएँ सुनाया करते थे जो उनके शिष्यों ने संकलित की हैं।

वस्तुत: लघुकथा मूलत: शिक्षा तथा उपदेश से जुड़ी हुई थी।;इसीलिए इसका सबसे अधिक प्रयोग बोधकथाओं आदि में हुआ है। लघुकथा मौखिक परम्परा द्वारा तथा लोककथा के रूप में खूब प्रचलित रही है।

पिछले दशक में हिन्दी साहित्य में लघुकथा का व्यापक स्तर पर पुनरुद्धार हुआ है। यों किसी सीमा तक लघुकथाएँ रिक्त स्थान के पूरक के रूप में भी पत्रिकाओं में स्थान पाती ही थी। किन्तु इतने बड़े पैमाने पर नहीं। लघुकथा के इस नवोन्मेष का मुख्य कारण तलाश करने पर मैं पाता हूँ कि यह लघु अथवा मिनी पत्रिकाओं की विवशता का स्वाभाविक  परिणाम था। लघु पत्रिकाओं में स्थान का अभाव होता ही है। दूसरी ओर संपादक पत्रिका में अधिक लेखकों को स्थान देना तथा विविधता की दृष्टि से अधिक रचनाएँ छापना आवश्यक समझता है। इस स्थिति में सामान्य आकार की कहानी छापना कठिन हो गया था। कुछ लघु पत्रिकाएँ तो अंतर्देशीय पत्र अथवा पोस्टकार्ड तक पर निकाली गई॥ प्रकट है कि इनमें सामान्य आकार की कहानी समा ही नहीं सकती। अत: लेखक रचनाओं का आकार छोटा करते–करते लघुकथा तथा मिनी कथा तक आ पहुँचे। निश्चय ही संपादकों की प्रेरणा का इसमें बहुत बड़ा हाथ है।

किंतु अपने छोटे आकार के कारण लघुकथा लिखने में जितनी सरल प्रतीत होती है, उतनी वस्तुत: है नहीं। लघुकथा की कुछ तो अपनी स्वाभविक सीमाएँ हैं तथा कुछ अनुभवहीन लेखक के हाथों में पड़ जाने का अधिक खतरा। लघुकथा एक छोर पर चुटकुले के बहुत निकट आ जाती है; किन्तु प्रकृति में यह चुटकुले से सर्वथा भिन्न है। चुटककुला केवल क्षणिक हास्य उत्पन्न करके रह जाता है। उसमें कभी–कभी व्यंग्य भी हो सकता है। पर प्राय: केवल हास्य रहता है। किन्तु लघुकथा अधिक गंभीर और अर्थवान् विधा है। केवल हास्य से तो लघुकथा बन ही नहीं सकती। व्यंग्य हो, तो उसका आकार चुटकुलों से कुछ बड़ा होता है ; किंतु कई बार व्यंग्यपूर्ण चुटकुले तथा लघुकथा के बीच की सीमा अवश्य धुंधली पड़ सकती है।

अत: लघुकथा लिखते समय यह खतरा सदा रहता है कि वह चुटकुला बनकर न रह जाए. कलेवर की सीमा के कारण चरित्र, वातावरण का निर्माण अथवा किसी स्थिति के माध्यम से पात्रों की संवेदनाओं को व्यक्त करना–ऐसे लक्ष्यों की पूर्ति लघुकथा द्वारा नहीं हो सकती। इस विधा की यही सबसे बड़ी कमी है। यह केवल भावकथा, बोधकथा आदि के रूप में अथवा एक रूपक रचकर केवल शिक्षा तथा उपदेश का माध्यम अधिक बन सकती है; इसीलिए अधिकतर कथाकारों ने इस विधा को प्राय: नहीं अपनाया है। बल्कि कुछ लेखकों का मत हैं कि वे लम्बी कहानी में ही अपनी बात को सही ढंग से कह पाना संभव पाते हैं। सामान्य आकार से भी लम्बी कहानी को वे कहानी को वे कहानी की संवेदना के लिए अधिक उपयुक्त माध्यम समझते हैं। हिन्दी के प्रमुख कथाकारों में लघुकथाएँ प्राय: किसी ने नहीं लिखी। शायद केवल परसाई इसका अपवाद हैं। किंतु वे व्यंग्यकार हैं ही और लघुकथा व्यंग्य के लिए उपयुक्त माध्यम बनने के योग्य है। या फिर कुछ लेखकों ने विदेशी लघुकथाओं के अनुवाद किए हैं अथवा सामान्य कलेवर वाली कहानियों का संक्षेप प्रस्तुत किया है।

हिंदी की व्यावसायिक पत्रिकाएँ लघुकथा बहुत छापती रही हैं। सारिका में अवश्य एक या आधे कालम तक की लघुकथाएँ छपती हैं। इसके पीछे संपादक के अनेक लक्ष्य हो सकते हैं। एक शायद यह भी कि कहानी पत्रिका में सतही पाठक के लिए कुछ रोचक सामग्री दी जाए, जो और पत्रिकाओं में चुटकुलों अथवा कॉर्टूनों के रूप में रहती है। नवनीत में बोध कथाओं के रूप में लघुकथाएँ अधिक छपती रही हैं। पर इधर मिनी पत्रिकाओं में तो इनकी भरमार है।

हिंदी के लघुकथा लेखकों में कोई भी अपना विशिष्ट स्थान नहीं बना सका है। वैसे लघुकथा लेखकों की संख्या शायद 100 से कम न होगी। पर क्योंकि उनकी रचनाएँ कोई गहरा प्रभाव नहीं छोड़ती, अत: सबके नाम याद नहीं रह पाते। जिनसे सम्पर्क और परिचय है उन्हीं के नाम ध्यान आ रहे हैं। यहाँ केवल उन्हीं का उल्लेख न्यायपूर्ण न होगा।

मेरा मत है कि अच्छी लघुकथा लिखना अच्छी सामान्य कथा लिखने से भी अधिक कठिन है। सामान्य कथा को उस पर श्रम करके बहुत सीमा तक सुधारा–सँवारा जा सकता है: किन्तु लघुकथा के साथ यह संभव नहीं है। उसके लिए एक विशेष प्रभावोत्पादक प्रसंग का होना आवश्यक है। यदि ऐसा प्रसंग आपको नहीं मिल रहा, या वह एक अच्छी लघुकथा बनने योग्य पर्याप्त प्रभाव नहीं रखता, तो फिर आप श्रम करके भी उसे सँवार नहीं सकते। लघुकथा लिखने के लिए एक अलग ही प्रकार की प्रतिभा अपेक्षित है। जैसे संत–सूफी और सयाने लोग अपनी बात कहने के लिए तुरन्त कोई कथा गढ़ लेने की क्षमता रखते थे वैसी ही क्षमता यहाँ लघुकथा के लेखक को चाहिए. इसीलिए वर्तमान हिन्दी लघुकथा एक विधा के रूप में विशेष प्रभाव नहीं रखती।

लघुकथा के साथ एक समस्या और भी है। सामान्य कहानी बहुत सशक्त या साधारण स्तर की या कमजोर कहानी हो सकती है, पर लघुकथा यदि अच्छी लघुकथा नहीं है, तो फिर वह लघुकथा रह ही नहीं सकती।

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लघुकथाओं में कल्पना तत्त्व

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लघुकथाओं में कल्पना का उपयोग करना ही पड़ता है–ऐसा कतई नहीं है। लेकिन, किया जाता है–यह भी सत्य है। विदेशी साहित्य–शास्त्रों का जायजा आपने कभी–न–कभी लिया होगा, तो निश्चय ही आप जानते भी होंगे, कि उनके साहित्य–शास्त्र में कल्पना का आशय होता है–‘‘करने की सामर्थ्य रखना।’’ करने का सामर्थ्य ही सृजन के लिए राह प्रशस्त करता है। तात्पर्य यह कि उनके साहित्य–शास्त्र में ‘‘कल्पना’’ का विशेष महत्त्व है, कल्पना गौरव है।

अब अपनी भूमि में तलाश करें, तो हमारे चारों तरफ ‘‘संस्कार’’ पहले मिलता है। जहाँ संस्कार है–वहाँ के व्यक्ति मन पर कल्पना का पूरा आधिपत्य होगा, होता ही है–‘‘यह नहीं हुआ तो? हो गया तो? खो गया तो? पा गया तो? जिया, न जिया तो?’’ और यही वैचारिकताएँ आपस में डटकर लड़ती–झगड़ती हैं। शरी के एक–एक अवयव में, रग–रग में रोशनी, आशा, अँधेरा, निराशा कल्पना फैलाती–सिकोड़ती है। अत: हमारी भूमि में कल्पना उपतजी है। हमारे ‘‘गौरव’’ साहित्य के चारों और न दिखने वाली यह एक ‘‘आभा’’ है।

संक्षिप्त में, कल्पना का तात्पर्य है–‘‘सृजन करना’’, ‘‘यथा पूर्वमकल्पयत्’’ को काव्य, कथा, उपन्यास आदि सभी साहित्यिक विधाओं ने प्रमुखता से माना है। और ग्रहण किया है।

लघुकथा की परिभाषा में मिलता है–‘‘यथार्थ और सार्थक शब्द मिलकर घटनात्मक तथ्य को चिन्तन के द्वार तक पहुँचने की प्रक्रिया जो कई विशेषताओं को समेटे होती है, लघुकथा है।’’ भारतीय दर्शन के अनुसार अंत: करण के चार अंग होते हैं–(1)मन (2) बुद्धि (3)चित और (4) अहंकार। इसी तरह लघुकथा में भी चार सोपान माने गए हैं (परिभाषा के अनुसार) (1) अनुभूत (2)यथार्थ (3) विवेचन (4)आविष्कार।

भारतीय दर्शन के अनुसार–(1) मन को संकल्प–विकल्प माना गया है। संकल्प का अर्थ होता है–‘‘अनुभूत या भोगा हुआ’’ और विकल्प प्रतियोगी धारण है। यही विकल्प, सकंल्प को (2)बुद्धि के समक्ष–न्याय के लिए लाता है। यहाँ सिर्फ़ न्याय होता है, अन्याय नहीं। इस तरह कल्पना को न्याय का आधार मिलता है। यह आधार (3) चित में तथ्य को डुबा देता है। सही न्याय के लिए यही विवेचन प्रारम्भ हो जाता है। प्रश्न उठते हैं–उारों में सहज ही चिंतन मिलता जाता है। एक लघुकथाकार को लघुकथा लिखते समय इसी प्रसूत–प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।

अनुभूत+न्याय (विवेचन) आधार (सिद्ध) होता है। जो लघुकथाकार किसी ‘‘थीम’’ (बिन्दु) को देखकर खुद अनुभव करने लगता है, अपने तई वहीं सोचने लगता है, तो कल्पना के सहारे उस पात्र (संकल्प) की जगह स्वयं को न्यायीक पलड़े पर रखकर दूध का दूध, पानी का पानी होकर ‘चित’ में, जेहन में बैठता जाता है। खुद–ब–खुद विवेचित होकर, छन–छनकर समानधर्मी शब्द संचयन के माध्यम से ज्ञान या चिन्तन का साम्राज्य समेटे खुद ही सिमट कर एक ‘‘थीम’’ कलम से उतरकर लघुकथा बन जाती है। जो लघुकथाएँ इस प्रभाव प्रक्रियागत ‘‘समय’’ में नहीं जन्मी है, उन्हें अँधेरों में गुम जाने का भय निरंतर बना रहेगा। और यह बात लघुकथाकार जानता है।

आप कहेंगे-कल्पना और सत्य (यथार्थ या प्रत्यक्ष) एकजुट हो ही नहीं सकते। दोनों दो सिरे हैं। तो मैं एक उदाहरण रखना चाहूँगा–‘‘मैं उस ‘‘चीज’’ की कल्पना कर ही नहीं सकता, जिसे कभी देख ही नहीं है, जिससे प्रत्यक्ष नहीं हूँ ।’’ तात्पर्य यह कि कोई यथार्थ है, प्रत्यक्ष में है– जिसे देखकर ही उसकी या उसके ‘समान’ कल्पना की जा सकती है। फिर कल्पना और सत्य पूरक कैसे नहीं होंगे। होंगे–ही और अवश्य है। लघुकथाओं में अनुभूत होता है, यथार्थ का चित्र होता है, और सत्य (आविष्कार) अंत में होता है। घटनात्मक ‘‘बात’’ को सत्य तक कल्पना(संकल्प–विकल्प–विवेचन के जरिए) पहुँचाती है। देखिए–डॉ0 कमल चोपड़ा द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘‘हालात’’ से लिया गया एक उद्धरण, लघुकथा है–‘‘भीड में खोया आदमी’’ और लघुकथाकार है–डॉ0 सतीश दुबे, पृष्ठ–39, लघुकथा इस प्रकार है:–

राष्ट्रपति की कार नगर के व्यस्त मार्ग से गुजर रही थी, कि अचानक छोटी–छोटी मूँछे,पैजामा–कमीज पहने, घुँघराले बालों वाला एक युवक फूल–माला के साथ गाड़ी के सामने आकर खड़ा हो गया। वह नारे लगा रहा था, ‘‘राष्ट्रपति यहीं रहें। राष्ट्रपति यहीं रहें।’’

जनता के इस आत्मीय प्रेम से राष्ट्रपति अभिभूत हो उठे। उन्होंने गाड़ी रुकवाकर के माला पहन ली, तथा उस युवक की पीठ पर हाथ फेरा।

गाड़ी गुजर जाने के बाद लोगों ने उसे घेर लिया, ‘‘तुम राष्ट्रपति को यहीं रहने के नारे क्यों लगा रहे थे?’’

युवक ने कहा, ‘‘उनके दो दिन शहर में रहने से बिजली कटौती नहीं है और मुझे महीने भर बाद फिर से काम मिला है। उनके यहाँ रहने से कम–से–कम मजदूरी तो बराबर मिलेगी।’’

सत्य या प्रत्यक्ष या घटित या यथार्थ देखिए–‘उनके दो दिन शहर में रहने से बिजली में कटौती नहीं है और मुझे महीने भर बाद फिर से काम मिला है, उनके यहाँ रहने से कम–से–कम मजदूरी तो बराबर मिलेगी।’’

और उपर्युक्त प्रत्यक्ष दर्शन या घटित–यथार्थ तक पहुँचने के लिए एक संकल्प जो लघुकथाकार लेता है, उसे देखिए–‘‘ राष्ट्रपति की कार नगर के व्यस्त मार्ग से गुजर रही थी, कि अचानक छोटी–छोटी मूँछे,पजामा–कमीज पहने, घुँघराले बालों वाला एक युवक फूल–माला के साथ गाड़ी के सामने आकर खड़ा हो गया। वह नारे लगा रहा था, ‘‘ राष्ट्रपति यहीं रहे। राष्ट्रपति यही रहें।’’ एक सच को उकेरने के लिए राष्ट्रपति जैसी हस्ती को कल्पना के सहारे कहना ‘संकल्प कल्पना’ है। और उसके समानान्तर उसी तेजी से, उसी गति से सामने आने वाला (साहसी)युवक–जो अपने समय का प्रतिनिधि भी है–विकल्प के रूप में है। यही विकल्प अनुभूत करता है और न्याय के लिए व्यक्तिगत बुद्धि के सामने आ जाता है। यथा–‘‘जनता के इस आत्मीय प्रेम से राष्ट्रपति अभिभूत हो उठे। उन्होंने गाड़ी रुकवाकर माला पहन ली, तथा उस युवक की पीठ पर हाथ फेरा।’’

और यही पर तर्क–वितर्क, विवेचन होने लगता है, यानी ‘‘चित’’ का कार्य शुरू होता है। जो कल्पना को सत्य के बाजू में ले जाकर खड़ा कर देता है। देखिए–‘‘गाड़ी गुजर जाने के बाद लोगों ने उसे घेर लिया, तुम राष्ट्रपति को यहीं रहने के नारे क्याें लगा रहे थे?’’

यही प्रश्न वह ‘‘चित’’ है जो सत्य, यथार्थ को घसीट लाने के प्रयत्न में लघुकथा को मजबूत–से–मजबूत चिंतन आधार देता हैै। और सत्य को (अंत में) प्रत्यक्ष लाने में सफल होता है। (जिसे सबसे पहले उद्घाटित किया जा चुका है।)

कल्पना का प्रथम उपयोग प्रत्यक्ष को सत्य बनाने में होता है। दूसरा प्रयोग अप्रस्तुत को विधानगत स्वरूप देने में किया जाता है। तीसरा प्रयोग संकुचित मनोभावों को उकेरने में किया जाता है और चौथे स्थान पर यह अविष्कार के अर्थ में प्रयोग होता है।

लघुकथा की प्रक्रिया विधान भी यही है। यानी प्रमुख विशेषता जो लघुकथाओं में होती हैं, वे हैं:–

(1) प्रत्यक्ष को सत्य (बनाकर)।

(2) परोक्ष या अप्रस्तुत को प्रस्तुत करना (और)।

(3) अप्रस्तुत की संकुचित मनोभावों को उकेरकर।

(4) (अंत में) एक आविष्कार करना (वह बात कहना जो सीधे चिंतन तंतुओं को झकझोर कर रख दे।) इन उदाहरणों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है, कि कल्पना प्रत्यक्ष से प्रस्तुत तक और फिर चिंतन (आविष्कार) तक के अंतर को जोड़ने वाला पुल है।

व्यक्ति में गुण है तो दोष भी है। गुण–दोष के बीच पुल का काम ‘‘व्यक्ति कर्म’’ करता है। लघुकथाएँ भी किसी जीवित पात्र को ही ग्रहण करती या स्वीकारती है। उसी जीवित पात्र का ‘‘कर्म’’ ही प्रत्यक्ष से चिंतन तक के अंतर को पाटकर आविष्कार बन जाती है।

अंग्रेज कवि एवं समालोचक श्री कॉकरीज बर्डस्बर्थ (काव्य के प्रसंग के लिए) लिखते हुए कल्पना के सम्बंध में कहते हैं, ‘‘समन्वय और जादुई शक्ति के लिए ही मैंने कल्पना का प्रयोग किया है। इसका धर्म है––विरोध या असम्बंध गुणों का एक दूसरे के साथ संतुलन अथवा समन्वय करना अर्थात एकरूपता के साथ, साधारण का विशेष के साथ, भाव का चित्र के साथ, व्यष्ठि का समष्टि के साथ, नवीन का प्राचीन के साथ, असाधारण भावावेश का असीम संचय केसाथ अथवा चिर जागृत विवेक एवम् स्वस्थ आत्म संयम का दुर्गम उत्साह तथा गम्भीर भावुकता के साथ समन्वय करना/कल्पना के बल पर ‘‘रचनाकार’’ (उन्होंने यहाँ कवि को रचनाकार कहा है) अनेकता में एकता ढूँढ़ निकालना है और विभिन्न विचारों, भावों को एक विशेष विचार अथवा भाव से अन्वित कर देता है।’’ क्या यही बात लघुकथा के लिए नहीं स्वीकारी जा सकती।

लघुकथाकार अपनी स्वस्थ लघुकथा में कल्पना को ‘हेल्दी इमेजिनेशन’ यानी सत्य कल्पना की कसौटी में कसता है तभी स्थायीत्व पाता है। तात्पर्य यह कि साहित्यिक रचना में कल्पना का होना जरूरी ही नहीं ,निहायत जरूरी है। और आज की सर्वाधिक चर्चित साहित्यिक विधागत रचना लघुकथा है।

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बाल-मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ-सं-सुकेश साहनी-रामेश्वर काम्बोज

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समकालीन लघुकथा और बालकों की दुनिया

-बलराम अग्रवाल

बचपन जीवन की वह खिड़की है जिससे बड़ों की दुनिया में झाँकते-किलकते हुए हमें पता ही नहीं चलता कि हम कब कूदकर उसके पार इधर आ पहुँचते हैं। परेशानी यह है कि खिड़की से पार कूद आने की इस अनजानी क्रिया के अधिकतर मामलों में बचपन का अधिकांश उधर ही छूट गया होता है और काफी प्रयत्नों के बाद ही उसका कोई एक सिरा कभी हाथ आ पाता है। बाइत्तफाक़ कोई अगर बचपन को समूचा साथ लेकर उस खिड़की के इस पार आ सके, बचपन का पूरा आनन्द वह तभी इधर ले सकता है। यहाँ यह बता देना अत्यन्त आवश्यक है कि ‘बचपन’ और ‘बचकानापन’के बीच वैसा ही अन्तर है जैसा कि लहरों और भँवरों, वायु के शीतल झोंकों और धूलभरी आँधियों के बीच है। ‘बचकानी’ हरकतें बचपन की खिड़की से कूदकर इधर आ चुके लोगों द्वारा ही सम्भव हैं, खिड़की के उधर खेल-कूद रहे बच्चों के द्वारा नहीं। साहित्य के क्षेत्र में जिस प्रकार विधाएँ एकाएक नहीं जन्मतीं, बल्कि समाजार्थिक व राजनीतिक दबाव से कुछेक वर्षों में शनै:-शनै: आकार ग्रहण करती हैं; उसी प्रकार मनुष्य भी अपनी पिछली अवस्था के अनुभवों, शिक्षाओं, मान्यताओं और स्थापनाओं के साथ अगली अवस्था में सुबह की धूप की तरह प्रविष्टि पाता है, एकाएक नहीं।

माधव नागदा की लघुकथा ‘असर’ देखकर सीखने के बाल-मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के अतिरिक्त बच्चों के चरित्र-निर्माण में आड़े आ रही अनेक समकालीन समस्याओं की ओर भी इंगित करती है। जैसा कि इन दिनों अनेक टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में बच्चों से प्रौढ़ संवाद बुलवाए जा रहे हैं, उनकी आयु को नजरअन्दाज करके उनसे कामुक अंग-संचालन व नृत्य कराए जा रहे हैं, उसे देखते हुए यह अति आवश्यक महसूस होता है कि बच्चों से ऐसा नृत्य और अभिनय कराने तथा उनसे वैसे संवाद बुलवाने वालों के खिलाफ कड़ा कानून बनाया जाना चाहिए ताकि कुछेक कला-पिशाचों व धन-पिशाचों द्वारा मात्र कुछ धनराशि अथवा किंचित प्रशंसापरक प्रचार देने का लालच परोसकर बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की साजिश पर रोक लगाई जा सके।

आजकल बच्चों के चरित्र में आते जा रहे नकारात्मक बदलाव के लिए वे अकेले ही दोषी हों, ऐसा नहीं है। उनको लेकर माता-पिता की अंधाकांक्षाएँ तथा विलास के क्षणों में बच्चों द्वारा उत्पन्न किए जा सकने वाले अवरोधों से मुक्त रहने के उनके प्रयत्न भी इसके लिए दोषी हैं। बच्चों को अनुशासित ढंग से घर में ही टिकाए रखने के लिए अति आवश्यक है कि घर के माहौल को खुशनुमा रखा जाए; हवादार घर के आँगन को बनाया जाना चाहिए न कि बच्चों को हवाखोरी के लिए खुला छोड़कर विलासिता में डूबे रहना चाहिए। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि बच्चों को घर में बाँधकर रखा जाय। ऐसा करना लगभग असम्भव है। नवीनतम मनोविश्लेषणों के आधार पर मनोविश्लेषकों का मत है कि स्वाभिमानी व्यक्तित्व का स्वामी बनने हेतु बच्चों को वस्तुत: आदेश नहीं, सहानुभूतिपूर्ण सलाह और समयानुकूल दिशा-निर्देश चाहिएँ। सिर्फ इतना देकर माता-पिता उन्हें उन्नति के उचित रास्ते पर डाल सकते हैं। बालक के व्यक्तित्व-निर्माण की चाबी ऐसे ही माता-पिता, अभिभावक तथा शिक्षक के अपने हाथों में होती है, सबके नहीं। अभिभावक के तौर पर अगर आप बहानेबाजी करते हैं, झूठ बोलते हैं, तो आपके बच्चे भी यह सब करेंगे ही। अगर आप अपनी रकम का छोटा-सा भी हिस्सा किसी धार्मिक संस्था, शिक्षा संस्था, स्वयंसेवी संस्था या समाजोपयोगी किसी सद्कार्य हेतु दान किए बिना, उसे पूरी तरह अपने ही ऊपर खर्च कर डालते हैं तो आपके बच्चे भी वैसा ही करेंगे। अभिभावक के तौर पर अगर आप जातिभेद, रंगभेद और लिंगभेद के किस्सों को दर्प के साथ गढ़ते, सुनाते और उन पर ठहाके लगाते हैं तो विश्वास मानिए कि आपके बच्चे उस ज़हर को अगली पीढ़ी तक अवश्य पहुँचा देंगे और तब उस जहर से समाज को बचाने का साहस आप लेशमात्र भी नहीं कर पायेंगे। सूर्यकांत नागर की लघुकथा ‘विष-बीज’ कुछ ऐसी ही स्थितियों के प्रति हमें सचेत रहने का मंत्र देती है। बच्चों का उचित पालन-पोषण करना और गलत कार्यों के खिलाफ उनमें संघर्ष की भावना पैदा करना किसी भी प्रकार की तकनीकी सिद्धहस्तता पा लेने, यहाँ तक कि आणविक अस्त्र डिजाइन करने से भी अधिक उपयोगी कार्य है। जो व्यक्ति अपने बच्चे की प्रकृति को नहीं समझता हो, उसे स्वयं को उसका पिता अथवा माता कहने का अधिकार नहीं है। दुनिया के सबसे बुद्धिमान माता-पिता वे हैं,जो अपने बच्चे की प्रकृति को जानते हैं। उस पर अपने विचार लादने की कोशिश नहीं करते। दुनियाभर के माता-पिता चिन्तित रहते हैं कि उनका बच्चा कल को क्या बनेगा? दरअसल वे यह भूल जाते हैं कि बच्चा आज भी कुछ है। समकालीन हिन्दी लघुकथा ने इस तथ्य को भी विभिन्न कोणों से प्रस्तुत किया है। श्यामसुन्दर ‘दीप्ति ‘की लघुकथा ‘बदला’ की नन्हीं बच्ची रचना अपनी माँ को अपने अस्तित्व का भास बालसुलभ अंदाज़ में ही नाराजगी व्यक्त करके कराती है। बच्चों में स्वाभिमान की भावना उच्च स्तर तक भरी होती है तथा अपनों से बड़ों की बातें वे मानें या न मानें, इतना जरूर है कि उन्हें चीखने-चिल्लाने का मौका देने से वे कभी बाज नहीं आते। इस मनोवैज्ञानिक सत्य से बलराम की लघुकथा ‘गंदी बात’ भी पाठक का परिचय कराती है।

आज की दुनिया में बच्चों के लिए सबसे कठिन काम यह है कि अच्छा आचरण दिखाए बिना उनसे अच्छा बनने को कहा जाता है। अधिकतर आचार-व्यवहार बच्चे पढ़ाने से नहीं, देखकर सीखते हैं। कालीचरण ‘प्रेमी’ की लघुकथा ‘चोर’ तथा विजय बजाज की लघुकथा ‘संस्कार’ में इस सत्य का सटीक चित्रण हुआ है। हमारी बच्चियों के चरित्र में आदर्श गृहिणी अथवा आदर्श माँ बनने का बीजारोपण बिना सिखाए ही कैसे हो जाता है, इसे समझने के लिए प्रबोध कुमार गोविल की ‘माँ’ एक आदर्श लघुकथा है तो यह समझने के लिए कि आदर्श नागरिक बनने का गुण बच्चे में कैसे पनपता है, डॉ सतीश दुबे की ‘विनियोग’ अत्यन्त प्रभावशाली लघुकथा है।

माता-पिता का दायित्व सिर्फ यहीं समाप्त नहीं हो जाता कि उन्होंने अपने बच्चे को नाक पोंछना और सू-सू करने के लिए टॉयलेट तक जाना सिखा दिया है। बच्चों को दूसरों के साथ अच्छा बर्ताव करना और देश व धरती से प्यार करना सिखाना भी उन्हीं का दायित्व है। दिनेश पाठक ‘शशि’ की लघुकथा ‘लक्ष्य’ इस दायित्व का पूर्ण निर्वाह करती है। प्रत्येक अभिभावक बच्चों को कुछ ऐसे बातें जरूर बताता है जो उन्हें याद रखनी चाहिएँ। ऐसा अवसर कि बच्चे स्वयं ऐसे अनुभवों के सम्पर्क में आएँ और स्वाभाविक रूप से उन्हें याद रखे, अभिभावक उन्हें नहीं देते। बच्चे का इस विश्वास से भरा होना कि वह भी एक इन्सान है और उसकी बात का भी कोई मूल्य है, अति आवश्यक है।

बच्चे को अभिभावक अगर कुछ सिखाना चाहते हैं तो अपने आपको उसके आगे आदर्शरूप में प्रस्तुत करने का यत्न करने की बजाय उन्हें जीवन में की हुई अपनी गलतियों से अवगत कराना चाहिए ताकि वह उनसे सावधान होकर चलना सीख सके या फिर नए सिरे से उनसे टकराने का संकल्प ले सके। एक दृष्टिकोण यह भी है कि सीधे-सीधे अपनी राय लादने से बेहतर है कि बच्चे से पहले पूछा जाय कि वह बनना क्या चाहता है। उसके बाद जैसा वह चाहता है, वैसा बनने के लिए उसे प्रोत्साहित किया जाय। लेकिन अधिकतर माता-पिता इस मनोवैज्ञानिक सत्य से या तो अनभिज्ञ होते हैं या फिर अनभिज्ञ बने रहना चाहते हैं। वे यह सोच ही नहीं पाते हैं कि बच्चे अपना पथ आप तय करने तथा गैर-सामाजिक तत्वों को पहचानने में सक्षम होते हैं। अभिभावकों को अगर कभी लगे कि बच्चे में किसी बदलाव-विशेष की जरूरत है तो उस पर ठीक से ध्यान दिया जाना और यह सोचा जाना बेहद जरूरी है कि स्वयं उन्हीं को ही तो बदलाव-विशेष की जरूरत नहीं है। रामकुमार आत्रेय की लघुकथा ‘समझ’ में चौहान साहब का बेटा इसका सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है। कुछ विशेष अवसरों पर बच्चे अगर बड़ों को उनकी औकात समझा देते हैं तो इसमें गलत क्या है?

जीवन में सबसे बड़ा उपहार जो एक पिता बच्चे को दे सकता है, यह है कि वह उसकी माँ को आदर व सम्मान दे। रामकुमार आत्रेय की ही लघुकथा ‘जन्मदिन का तोहफा’ में कूड़े-कचरे के ढेर से काम की चीजें ढूँढने का काम करने वाले बच्चे कालिया को उसका बापू यही नायाब तोहफा देता है।

पारस्परिक-बंधन वस्तुत: एक ऐसा अनुभव है जिसे समझने में व्यक्ति को घंटे, दिन, सप्ताह, महीने या साल भी लग सकते हैं। कमलेश भट्ट ‘कमल’ की लघुकथा ‘प्यास’ में मालिक के बच्चे नौकर-बालिका गुड्डी के साथ ऐसे ही बंधन में बँधे हैं जिसे उनकी मम्मी नहीं समझ पाती।

नीलम कुलश्रेष्ठ की लघुकथा ‘आरोपण’ का बोनी अपनी टीचर द्वारा अंग्रेजी मे पूछे गए सवालों के तात्पर्य को न समझकर जवाब में ‘यस’, ‘यस’ ही बोलता रहता है और चोर ठहरा दिया जाता है। माता-पिता के ऐसे ही पूर्वाग्रह की मार प्रेम भटनागर की लघुकथा ‘शिक्षाकाल’ के छात्र रवि वर्मा को भी झेलनी पड़ती है।

समकालीन लघुकथाकारों ने अस्पृश्यता एवं जातिगत भेदभाव की दुर्भावना के विरुद्ध भी प्रभावपूर्ण रचनाएँ कथा-साहित्य को दी हैं। भूपिंदर सिंह की लघुकथा ‘रोटी का टुकड़ा’ में बच्चा अपनी माँ की हिदायत से असहमति प्रकट करता हुआ उससे पूछता है—“और जो काकू जमादार हमारे घर पर पिछले कई सालों से रोटी खा रहा है, तो वह क्यों नहीं ‘बामन’ हो गया?” बच्चे को पीटने के लिए उठा हुआ किस माँ का हाथ ऐसे तर्कयुक्त सवाल को सुनकर वापस नीचे नहीं आ जाएगा? एकदम ऐसे ही तर्क के साथ प्रस्तुत होती है नीलिमा टिक्कू की लघुकथा ‘नासमझ’। दलित छात्रों के प्रति सवर्ण अध्यापकों के दुर्व्यवहार और दुर्भावना को चित्रित करती लघुकथा है रंगनाथ दिवाकर की ‘गुरु दक्षिणा’ तथा बच्चों के मनोमस्तिष्क में उच्च और निम्न जाति के जहर को भरने के प्रयासों का पर्दाफाश करने वाली लघुकथा है—मीरा चन्द्रा की ‘बच्चा’। कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘खेलने दो’ का दलितजातीय बच्चा चरणू अपने सामाजिक आस्तित्व की लड़ाई लड़ता और उसे जीतता प्रतीत होता है।

सुकेश साहनी, श्यामसुन्दर अग्रवाल, अरुण कुमार और सुरेश अवस्थी—‘स्कूल’ शीर्षक से इन चार कथाकारों की लघुकथाएँ मेरे सामने हैं, अन्य भी अवश्य होंगी। आजकल के स्कूल बच्चों को शिक्षा और स्नेह देने वाला केन्द्र बनने के अपने दायित्व का निर्वाह करने की बजाय उनको आतंकित करने वाले केन्द्र बन चुके हैं। श्यामसु्न्दर अग्रवाल की ‘स्कूल’ का बंटी इसी से आतंकित होकर अँधेरी कोठरी में जा छिपता है। सुरेश अवस्थी भी ‘स्कूल’ को बालमन को आतंकित करने वाले केन्द्र के रूप में चित्रित करते हैं—‘उसे लगता—स्कूल वह स्थान है जहाँ गमला तोड़ने, फूल तोड़ने, जोर-से बोलने, देर-से सोकर उठने आदि सभी बातों की सज़ा मिलती है।’ स्कूल, वहाँ की शिक्षा और शिक्षक—सभी के प्रति यही स्थापना भगीरथ की लघुकथा ‘शिक्षा’ में भी देखने को मिलती है।

लड़कियाँ अब नहीं चाहतीं कि कोई उन्हें गुड़िया की तरह इस्तेमाल करे। वे बेटों की तरह रहना तो पहले भी चाहती रही होंगी, लेकिन अब अपने इस अधिकार को पाने के लिए वे मुखर भी हो उठी हैं। डॉ तारा निगम की लघुकथा ‘माँ, मैं गुड़िया नहीं लूँगी’ को इस विषय की श्रेष्ठ लघुकथा चिह्नित किया जा सकता है।

देवांशु वत्स की लघुकथा ‘सपने’ भट्टा-मजदूर पिता के काले और खुरदुरे हाथों वाले बच्चे के सपनों के बनने और बिगड़ने को व्यक्त करती है। अनिंदिता की लघुकथा ‘सपने’ में गुब्बारे बेचकर परिवार का पोषण करने वाले गरीब आदमी की व्यथा का चित्रण है। अशोक भाटिया की ‘सपना’ का होमवर्क और पेपरों की तैयारी में उलझा बच्चा अपने लिए चिड़िया-जैसे स्वतंत्र जीवन का सपना देखता है; ऐसा सपना, जो यूनिवर्सिटी तक पढ़ लेने के बाद ही पूरा हो पाएगा। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘सपने और सपने’ इस मनोवैज्ञानिक तथ्य पर आधारित है कि सपनों का सम्बन्ध व्यक्ति के अचेतन मन की गहराइयों में जा छिपी उसकी अपूर्ण इच्छाओं से होता है। सेठ गणेशीलाल का बेटा पहाड़ों और नदियों के पार सैर करने का सपना देखता है और नारायण बाबू का बेटा इतना तेज स्कूटर चलाने का कि उसने सबको पीछे छोड़ दिया। इन सम्पन्नों से अलग, जोखू रिक्शेवाले का बेटा डटकर खाना खाने का सपना देखता है, लेकिन अपने इस सपने को सुनाकर वह रो पड़ता है और इस यथार्थ का उद्घाटन करता है कि सपने सिर्फ सपने होते हैं, उनमें खाए भोजन से पेट नहीं भरा करता। गरीब परिवारों में सेब, अनार और आम जैसे महँगे फलों की सहज-प्राप्ति बच्चों के लिए नि:सन्देह सपना ही है। इन परिवारों में सेब-सरीखा फल तो केवल बीमार व्यक्ति को देने-भर के लिए डॉक्टर की सलाह पर ही घर में आ पाता है। घर की तीन वर्षीय बच्ची इस यथार्थ से परिचित है और सेब खाने की अभिलाषा में ए फॉर एप्पिल पढ़ाते अपने पापा से पूछती है—“मैं कब बीमाल होऊँगी पापा?”

कुमार नरेंद्र की लघुकथा ‘अवमूल्यन’, अवधेश कुमार की लघुकथा ‘मेरे बच्चे’, विनायक की लघुकथा ‘नाव’, शैलेन्द्र सागर की लघुकथा ‘हिदायत’, पूरन मुद्गल की लथुकथा ‘जीत’ और हरीश करमचंदाणी की लघुकथा ‘लूट’ को श्रेष्ठ प्रतीक लघुकथा तथा राजेन्द्र यादव की ‘अपने पार’ व हरदर्शन सहगल की ‘गंदी बातें’ को श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक लघुकथा कहा जा सकता है। हरिमोहन शर्मा की लघुकथा ‘सिद्धार्थ’ तथा हीरालाल नागर की लघुकथा ‘बौना आदमी’ सकारात्मक मानवीय मूल्यों को स्थापित करने वाली लघुकथाएँ हैं।

भारत यायावर की लघुकथा ‘काम’ का भिखारी-बच्चा भीख माँगने को ही काम की संज्ञा देता है तो मुकीत खान की ‘भीख’ का बच्चा ड्यूटी पर तैनात पुलिस वालों द्वारा भिक्षा-व्यवसाय कराने के निकृष्ट सत्य का सामना करने को विवश होता है।

निर्मला सिंह की ‘आक्रोश’ में घर के बाल-नौकर कालू द्वारा पालतू कुत्ते स्रोई को दिया गया ट्रीटमेंट माननीया मेनका गाँधी को शायद नागवार गुजरे, लेकिन सचाई तो यही है कि बच्चे किसी अन्य पर नहीं, बल्कि उसी पर अपना गुस्सा उतारते हैं जो उनके अपमान का कारण बनता है। आयु-विशेष में पहुँचकर बालकों में निजता की भावना पनपने लगती है। वे वैयक्तिक अनुशंसा-प्रशंसा को प्राप्त कर लेने की ओर अग्रसर हो जाते हैं। डॉ राजेन्द्र कुमार कनौजिया की लघुकथा ‘घरौंदा’ इस मनोवैज्ञानिक सत्य से पाठक का साक्षात्कार कराती है। बच्चों को स्थूल प्यार और सहानुभूति ही नहीं चाहिएँ, बल्कि इन्हें वे अपने अन्तस्थल में महसूस करना चाहते हैं। अनूप श्रीवास्तव की लघुकथा ‘मातृत्व’ कमजोर शिल्प के बावजूद इस तथ्य को प्रस्तुत करने में सफल है। रमेश गौतम की लघुकथा ‘बारात’ सभ्यता का लबादा ओढ़कर मेहनतकश ग़रीबों के गाल पर तमाचा मारने जैसी असभ्यता का पर्दाफाश करती है तो पारस दासोत की ‘भूख’ गरीबी के एक यथार्थरूप को हमारे सामने रखती है। सुरेश शर्मा की ‘दीया तले’ बाल-मजदूरों के बारे में राजनैतिक नेताओं की कथनी और करनी के अन्तर को सफलतापूर्वक चित्रित करती है।

गरीबों के पास अपने जीवन-यापन हेतु अत्यल्प संसाधन होते हैं और वे लगातार इस भय से त्रस्त रहते हैं कि उक्त सीमित संसाधनों का उपयोग करके वे पुन: उनसे विहीन न हो जायँ। दीपक घोष की लघुकथा ‘रोटी’ इस सत्य का उद्घाटन करती है। कुलदीप चेतनपुरी की ‘भूख’ इस सत्य का उद्घाटन करती है कि जिनके पास भूख को मिटाने के समुचित संसाधन मौजूद हैं, वे नहीं जानते कि भूख क्या है? नीता सिंह की लघुकथा ‘टिप’ की कथानायिका एक छोटे-से ढाबे में वेटर का काम करने वाले दस-ग्यारह वर्षीय लड़के को टिप में एक रुपया दे देती है। लड़का तुरंत उस रुपए के बदले कुछ बिस्कुट खरीदकर खाने बैठ जाता है। स्पष्ट है कि भूखे व्यक्ति से यदि रुपया और रोटी में से किसी एक को चुनने को कहा जाय तो वह रोटी के चुनाव को ही वरीयता देगा।

महेन्द्र रश्मि की लघुकथा ‘कॉन्वेंट स्कूल’ के शीर्षक को पढ़कर आभास होता है कि शरनजीत के बेटे लवली की असभ्य हरकतों की जिम्मेदारी कॉन्वेंट शिक्षा पर डाली गई है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बच्चे की पहली पाठशाला उसका घर तथा पहले शिक्षक उसके माता-पिता होते हैं। लवली अगर अपने पक्षाघात-पीड़ित बाबा की भद्दी नकलें कर रहा है तो उसका दोष पिता शरनजीत द्वारा इस भद्दे काम को करने के लिए उसको प्रोत्साहित करना है। संसार के समस्त प्राणियों में सिर्फ मनुष्यों के बच्चे ही हैं, घर से निकलना सीखने के बाद, जिनका वापिस घर को लौट आना माता-पिता को अच्छा लगता है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘स्कूल’ इस सत्य के साथ-साथ इस सत्य को भी पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करती है कि व्यक्ति-जीवन में सबसे बड़ी पाठशाला यह संसार है। सिर्फ स्कूल में पढ़े बच्चे को अनपढ़ सिद्ध हो सकते हैं, संसार की पाठशाला में पढ़े नहीं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि समकालीन लघुकथाकारों ने बालकों की दुनिया के शारीरिक और मानसिक प्रत्येक क्षेत्र में साधिकार प्रवेश किया है, उस पर सकारात्मक दृष्टि डाली है। उन्होंने न तो बालकों को दब्बू बनाए रखने की पैरवी की है और न ही अनुशासनहीन व उच्छृंखल बना डालने की। समकालीन लघुकथा में बालकों की दुनिया अपनी सम्पूर्णता के मौजूद है और नि:सन्देह आगे भी रहेगी।

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लघुकथा के आईने में बालमन

भगीरथ

जीवनयात्रा में व्यक्ति सुख की साँस लेने के लिए बार – बार बचपन की ओर लौटता है। बचपन के अनमोल रतन ,जैसे -वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी , कंकड़ पत्थर , घरौंदे छिपने – छिपाने के खेल, पानी में किलोल करते क्षणों को कौन याद नहीं करता ! उर्मिकृष्ण की कथा ‘अमानत’ में मकान बदलते समय बच्ची अपने कंकड़ पत्थर समेटने लगती है तो मम्मी झल्लाकर पत्थर फेंक देती है गुडि़या फूट – फूटकर रो पड़ती है । हम बच्चों के भाव -जगत के प्रति संवेदनशील क्यों नहीं है?

क्रीड़ा बचपन की स्वाभाविक वृति है बालमन क्रीडा में रमा रहता है। क्रीड़ा में वह तन्मय हो जाता है ।बचपन से खेल को हटा दो तो बचपन समाप्त हो जाता है। अशोक भाटिया की कथा ‘सपना’ में बालक के जीवन में पढ़ाई ही पढ़ाई है , लेकिन खेल नहीं । खेल तो सपना है ;जो यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के बाद शायद पूरा हो ।

बच्चों के भावजगत में प्रेम प्रमुखता से है , बच्चे प्रेम की भाषा समझते है , कमलेश भट्ट कमल की लघुकथा ‘प्यास’ में मालिक के बच्चे , नौकरानी बालिका गुड्डी के साथ मैत्री भाव से ही जुड़े हैं ;जिसे उसकी मम्मी नहीं समझ पाती । घरौदें के लड़के – लड़की प्रेम डोर से ही बँधे हैं । उनके भाव-जगत में वस्तुएँ भी सजीव हो उठती है। बच्चा और गैंद (विष्णु नागर) में बच्चा ही गेंद से नहीं खेलता , बल्कि गेंद भी बच्चे से खेलने लगती है , बच्चों का लगाव सहज ही व्यक्तियों व वस्तुओं से हो जाता है।

बच्चे अति संवेदनशील होते हैं , दूसरों के दर्द को हृदय तक महसूस करते हैं। च्वीपूड़’ की ‘आँखें’ ऐसी ही एक कथा है जिसकी एक पात्र कहती है कि अगर उसके पास जादुई कूँची होती और उसका सिर्फ़ एक बार ही इस्तेमाल कर सकती तो वह बहुत सी आँखो के सजीव चित्र बनाकर उन सजीव आँखों को मॉं –बाप के दृष्टिहीन सहकर्मियों को भेंट करती ,ताकि उनकी अंधी दुनिया रोशन हो जाए।

‘कैथरीन के लिए’ (रैना एल्स बर्ग) लाई गुडि़या पर हाथ फेरते हुए वह कहती है– इसके बाल मेरी तरह घुँघराले हैं , नाक मुँह भी मेरी तरह है, फिर उसके हाथ गुडि़या की आँखो पर पहुँच जाते हैं ‘भगवान इसे मेरी तरह ‘अधी मत बनाना’ कह कर अँधेरी दुनिया के सच को पाठक तक संवेदित कर देती है।

अक्सर परिवार में माता –पिता के बीच झगड़े होते है। और उनका दंश बच्चों को भुगतना पड़ता है । वे चाहते हैं कि उनके माता –पिता शांति और प्रेम से रहे । उनके झगड़े निपटाने के लिए बच्चे कुछ भी करने को तैयार होते हैं । चाहे इन्हें नदी के पाट पर ‘पत्थर के फूल’(ली छयाओया) ही क्यों न ढूँढने पड़े । अक्सर माँ कहती है कि जब पत्थरों के फूल निकल आएँगे। तब उन दोनों के बीच का झगड़ा समाप्त हो जायगा । इनोसेंट बच्ची क्या जाने कि पत्थरों में फूल नहीं खिलते , लेकिन वह अपने माता –पिता के लिए असंभव को भी संभव कर लेना चाहती है।

बच्चें की संवेदनशीलता मॉं मैं भी ‘मातृत्व’ (अनूप कुमार) जगा देती है। स्कूल के मित्र अपना टिफिन शेयर करते ही हैं लेकिन रोहित की माँ को यह ठीक नहीं लगा ‘मैं इतनी मेहनत करके नाश्ता बनाकर देती हूँ और तू इस आकाश को खिला देता है। रोहित करुणासिक्त स्वर में कहता है ‘इसके मम्मी नहीं है न , उसके घर में खाना नौकर बनाता है ,पर इसका मन मम्मी के हाथ का खाना खाने का होता है।” रोहित के कथन से माँ का ममत्व जाग जाता है , माँ तो थी वह पहले भी, लेकिन मातृत्व उसे आज मिला।

बच्चा अपने ‘जन्मदिन का तोहफे’ (रामकुमार घोटड़) में अपने पिता से सिर्फ़ इतना चाहता है कि आज की रात उसे व माँ को नहीं पीटें। बच्चे की बात सुन पिता का पुत्र के प्रति प्रेम उमड़ आता है और वह बच्चे को गले से लगा लेता है , बच्चे के सहज सम्बोधन में प्रेम की कहीं आहट है ;जो पिता के हृदय को छू लेती है।

समुद्र के किनारे लड़का बार – बार रेत का ‘घरौंदा’ (राजेन्द्र कुमार कनौजिया) बनाता है और घरौंदे पर अपना नाम लिखता है, साथ खेल रही लड़की से पूछता है – क्यों अच्छा बना है न मेरा घर । लड़की प्रत्युत्तर में घरौंदा तोड़ देती है । बार – बार ऐसा करने पर वह पूछता है -“क्यों तोड़ती है मेरा घर? “लड़की ने निर्दोष भाव से उसे देखा , उसकी आँखों में आँसू भर आए । ‘तू इस पर मेरा नाम भी क्यों नहीं लिखता । लड़की के प्रेम संवेदन आपके मन को छू जायेंगे ।

हरिमोहन शर्मा की सिद्धार्थ ’ कथा में बालक घायल पिल्ले को गोद में लेकर पानी पिलाने का प्रयास करता है। बच्चे का स्पर्श पाकर और गले में दो बूँद पानी उतरते ही पिल्ले ने आँखे खोल ली। अब शायद वह मरेगा भी नहीं ।पशु पक्षियों और पेड़ पौधों से भी बच्चों का स्वाभाविक लगाव रहता है । उनके भाव जगत में वयस्क शायद ही पहुँच पाएँ , लेकिन वयस्क होने की प्रक्रिया में उनका भाव जगत कहीं खो जाता है।

बच्चे बचपन में ही वयस्क होने लगते हैं जब उन्हें गरीबी के कारण कमाई करनी पड़ती है। उनका बचपन खो जाता है लेकिन एक आत्मविश्वास भी उनके चेहरे पर झलकने लगता है । सुकेश साहनी की ‘स्कूल’ का ट्रेन में चने बेचने गया बालक तीन दिन बाद लौटा तो उसमें आत्मविश्वास की चमक देखकर माँ हैरान रह गई , कि इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया ? वह रात – दिन उसकी चिंता करती थी। लेकिन अब बेटा उसकी चिंता करता है माँ तुम्हें इतनी रात गये यहॉं नहीं आना चाहिए था ।

बाल श्रमिक (वेटर) एक रुपये की ‘टिप’ (नीता सिंह) पाते ही बिस्कुट खरीद कर खाने लगता है , जो वह लोगों को खाते देख, ललचाई नजरो से देखता था , गरीबी बच्चों का बचपन ही नहीं छीनती , उनकी छोटी – छोटी खुशियाँ भी छीन लेती है।

‘बारात’(रमेश गौतम) में पेट्रोमैक्स का बोझ उठाए दस वर्ष के बालक को बाराती जोर से चाँटा मार देता है – साले सबसे पीछे चल रहा है , मरियल कुत्ते की तरह , देखता नहीं हम यहॉं डांस कर रहे हैंं बालश्रमिक को पग –पग पर अपमानित किया जाता है।

बँधुआ मजूदरी व बालश्रम विरोधी कानून होने के बावजूद कुछ हलकों में यह बदस्तूर कायम है । दस वर्ष के नेतराम को अपने बाप की चिता में अग्नि देने से पूर्व ही उसे उसके बाप का जूता पहनने को कहा जाता है । यानि कल से उसे अपने बाप की जगह पटेल की मजदूरी हलवाही करनी पड़ेगी और तब तक करना पड़ेगा जब तक कि उसकी औलाद के पाँव उसके जूते के बराबर नहीं हो जाते , बँधुआ मजदूरों के बच्चों का बचपन तो काम करते–करते ही होम हो जाता है । (अंतहीन सिलसिला –विक्रम सोनी)

अधिकतर बाल श्रमिक चाय की दुकानों , ढाबों, रिपेयर की दुकानों , छोटे – छोटे उद्योगों में काम करते है। इनके काम के घंटे निश्चित नहीं होते, पैसे भी पूरे नहीं मिलते, जब चाहे काम से भगा दिया जाता है। उनके पास बचपन नहीं, बचपन के ‘सपने’(देवांशु वत्स) होते हैं ईंट- भट्टे पर काम करने वाला बालश्रमिक सपने में बादल , कलरव करते हुए पक्षी , रंगबिरंगे फूलों के इर्द – गिर्द इतराती तितलियाँ , क्रिकेट और करीब से गुजरती रेलगाड़ी को प्रसन्नता से देखता है लेकिन उसका सौन्दर्य- बोध तब आहत होता है जब उसके पिता उसे काम करने के लिए पुकारते हैं।

रामेश्वर काम्बोज की कथा ‘सपने और सपने ‘में बच्चे अपनी अधूरी आकांक्षाओं को पूरा होते देखते हैं रिक्शेवाले का बच्चा कहता है – सपने में मैने खूब डटकर खाया , लेकिन मुझे अभी तक भूख लगी है।

भीख माँगने वाले बालक को लेखिका चित्रा मुद्गल ‘नसीहत’ देती है कि काम करके कमाओ लेकिन बच्चा जब उससे ही काम माँगता है तो पहले तो राजी हो जाती है लेकिन उसके अतीत को जानकर वह टाल जाती है कि कैसे भरोसा करे। लेखिका ने उसे पांच रूपये देकर नसीहत दी कि बूट –पालिश करना

‘’भीख दो दस पैसा’ सीख क्यों देता है , तुम खुदीच हमारा विश्वास नई कर सकता , रखो अपना पैसा -वह मेरी नसीहत का खोखलापन जब मुझपर ही पटककर सर्र के भीड़ में गायब हो गया। ऐसे बच्चों को अच्छा बनने के लिए कोई अवसर ही नहीं है

भूख और गरीबी बच्चों को भीख माँगने पर विवश कर देती है। ‘रोटी’ (दीपक घोष) मिलने पर वह उसे खा नहीं पाता क्योंकि अगर खा लेगा तो खतम हो जायेगी । भूख के भय से ग्रसित बालक रोटी होते हुए भी उसके खाने का आनन्द नहीं उठा सकता ।

गरीब माँ बच्चे के दौड़ने –कूदने पर एतराज करती है ,तो उसकी सहेली कहती है ‘अरी बहन, बच्चा है दौड़ने कूदने से ‘भूख’ (पारस दासोत) अच्छी लगती है । चिंतित मॉं बोली- दौड़ने कूदने से भूख अच्छी नहीं ,अधिक लगती है

ट्रेन में गाना गाकर भीख माँगने वाले से यात्री ने कहा – मॉं को भीख माँगकर खिलाते हो ?

‘मॉं को उसका बेटा कमाकर नहीं खिलाएगा तो फिर कौन खिलाएगा ? बालक का उत्तर सुनकर लेखक हीरालाल नागर अपने आपको ‘बौना’ समझने लगता है ।

गरीबी बच्चों की छोटी – छोटी इच्छाओं को भी पूरा नहीं होने होती , बच्चों में परिवार की आर्थिक स्थितियों को समझने का सहज बोध होता है , फिर भी बच्चों की इच्छाएँ अपनी जगह है ही ‘बीमार’(सुभाष नीरव) कथा की बच्ची ‘ए’ फोर एप्पल पढ़ रही है , पिता बीमार माँ के लिए एक सेब लाए है। बच्ची अपने पापा से कहती है ‘पापा सेब बीमार लोग खाते है , फिर तुंरत ही कह उठती है -‘मैं कब बीमार होऊँगी पापा’ ,यानी सेब खाने के लिए उसे बीमार होने की चाह है।

बच्चे सरल होते है वे भेदभाव , ऊँच –नीच , गरीब – अमीर नहीं जानते । वे जल्दी ही मित्र बना लेते है। धीरे –धीरे उनकी मित्रता गहरी हो जाती है अभिमन्यु अनत की कथा ‘पाठ’ का पात्र हैनरी स्कूल से आते ही माँ से बोला – मम्मी , कल मैंने एक दोस्त को खाने पर बुलाया है ,।मॉं उसे प्रोत्साहित करते हुए कहती है कि वह बहुत सोशल होता जा रहा है । लेकिन मॉं अचानक ही पूछ लेती है -क्या रंग है उस विलियम का । ‘हमारी तरह गोरा या काला ’ हेनरी निराश हो पूछता है ‘रंग का प्रश्न जरूरी है क्या मॉं?

हाँ हेनरी तभी तो पूछ रही हूँ कह कर उसकी माँ उसमें रंगभेद का नस्ली बीज बोने की कोशिश करती है।

सूर्यकांत नागर की लघुकथा ‘विषबीज’ में पिता बच्चे से कहते हैं कि इस दुकान का पानी नहीं पीते क्योंकि यह मुसलमान की दुकान है , हिन्दू – मुस्लिम में भेदभाव का बीज पिता रोप ही देता है।

रोटी का टुकड़ा (भूपिंदर सिंह)’ का बच्चा भोलेपन से कहता है ‘माँ उनके घर का एक टुकड़ा खाकर क्या मैं जमादार हो गया ?

‘और नहीं तो क्या’ माँ ने तपाक से उत्तर दिया। बच्चे के प्रतिप्रश्न ने माँ को निरुत्तर कर दिया। काकू जमादार हमारे घर कई सालों से रोटी खा रहा है तो वह क्यों नहीं बामन हो गया। अछूत और अस्पृश्यता के संस्कार देने की कोशिश व्यर्थ हो जाती है क्योंकि बालक ज्यादा विवेकपूर्ण है।

‘गुरुदक्षिणा (रंगनाथ दिवाकर) के शिक्षक जाति भेद व दलित के प्रति घृणा- भाव से भरे है ।वे हरिजन बच्चों को ही दंडित करते हैं ताकि मिडिल पास न कर सके । इस तरह का भेदभाव बच्चों में घृणा व हिंसा के बीज बो देता है।

‘खेलने दो (कमल चौपड़ा) में सवर्ण बच्चे दलित बच्चे को नीच -सूअर सम्बोधन कर उसका मखौल उडाकर अपने पारावारिक संस्कारों को ही प्रदर्शित करते है।

रामकुमार आत्रेय की ‘समझ’ में भी पिता जाति भेद के बीज बो रहे हैं बेटे बड़े होकर अफसर बनना चाहते हो कि स्वीपर ? ‘अफसर बनूँगा’तो फिर स्वीपर के बेटे के साथ खेलना छोड़?

बच्चों के ,खेल मे वयस्कों की दुनिया परिलक्षित होती है , क्योंकि वे सीखते तो अनुकरण से ही है। बलराम अग्रवाल की कथा ‘जहर की जड़े’ परिवार/समाज में ही फैली है बेटी डोली सुबकते हुए कहती है ‘डैडी हमें स्कूटर चाहिए । पिंकी ने पहले तो अपने गुड्डे के साथ हमारी गुडि़या की शादी करके हमसे गुडि़या छीन ली , और अब कहती है दहेज में स्कूटर दो वरना आग लगा दूँगी गूडि़या को।

‘माँ मैं गूडि़या नहीं लूँगी(डॉ. तारानिगम) क्योंकि यह वही करेगी जो मैं करूँगी। , सुलाऊँगी तो सो जाएगी , कपड़े पहनाऊँगी तो पहन लेगी । , डाँटूँगी , मारूँगी तो चुपचाप सह लेगी । ये कोई विरोध नहीं करेगी। माँ मैं ऐसी गुडि़या नहीं लूँगी ; क्योंकि उसे ऐसी गुडि़या नहीं बनना है।

घर –घर खेल रहे थे बच्चे । कपड़े धोए खाना बनाया , अरे भात तो खत्म हो गया इतने सारे लोग आ गए चलो तुम लोग खाओ में बाद में खा लूँगी। तू माँ (प्रबोध कुमार गोविल ) बनी है क्या । घर में माँ सबसे बाद में खाती है। वही बच्चे खेल में भी करते है। ।

बालक का स्कूल से रिश्ता

मै स्कूल जाऊँगा , रिक्शा में बैठके ’ कहने वाला बंटी स्कूल में जाने से बचने के लिए अँघेरी कोठरी में छुप जाता है , ऐसी जगह जहॉं उसे जाने से भी डर लगता है ‘स्कूल’(श्याम सुन्दर अग्रवाल) क्या कीमिया करता है कि स्कूल उसे डरावनी कोठरी से भी ज्यादा डरावना लगने लगता था।

माता पिता भी स्कूल (सुरेश अवस्थी )को शैतान बच्चो को ठीक करने की जगह समझते है । तभी तो जब बालक शैतानी करता है उसे स्कूल में भरती कराने की धमकी दी जाती है। उसका नन्हा मन सोचता है कि स्कूल वह स्थान है जहॉं हर शैतानी की सजा मिलती है जब उसे स्कूल में प्रवेश दिलवाया जाता है तब वह बच्चों को उठक – बैठक करते देख सहम जाता है और चुपके से भाग जाता है।

‘शिक्षा’ (भगीरथ ) कथा में छात्रों के साथ कठोर व्यवहार चिह्नित करती है शिक्षक के व्यंग्य बाणों से छात्र आहत है। छात्र को स्कूल जहन्नुम- सा लगता है जहॉं उसे पल – पल अपमानित या दंडित किया जाता है। ऐसी स्थिति में एक छात्र स्कूल से भागने की सोचना है , तो दूसरा शिक्षक की अकड़ सीधी करने की बात कहता है। तीसरा , जरा ज्यादा संजीदगी से सोचता है – जहॉं इतनी जलालत हो वहॉं क्या भविष्य बनेगा ? पाँचवा प्रतिक्रियाहीन छात्र कुंठित और ठस्स हो जाता है।

शिक्षा में यह जाना पहचाना सिद्धांत है कि बच्चे खेल – खेल में सीखते है, जिज्ञासा जागृत करने पर भी सीखना आसान है लेकिन हमारे विद्यालयों में ऊँघते अध्यापक शिक्षण- विधि के नये प्रयोग कर रहे है इसकी झाँकी हम ‘हिदायत’ (शैलेन्द्र सागर) में देख सकते है। ‘चल निकाल किताब ,पाठ पढ़’ बालक पाठ पढ़ने लगता है और शिक्षक आँखें बंद किये नींद निकाल रहा है। छात्र पढ़ते –पढ़ते चुप हो जाता है तो शिक्षक ऊँघ से जागते हुए कहता है ‘अरे चुप क्यों हो गया’ बच्चे ने प्रत्युत्तर दिया -सर पाठ समाप्त हो गया।

तो पहाड़ा याद करा । शिक्षक ने कहा । पाठशाला (चन्द्रधर शर्मा गुलेरी) में आठ वर्ष का बालक रटे रटाये प्रश्नों के उत्तर देता है तो प्रधानाध्यापक –पिता का सीना चौड़ा हो जाता है । अतिथि ने उसे आर्शिवाद देते हुए पूछा कि तू इनाम क्या लेगा तो उसने धीरे से कहा लड्डू। पिता निराश हो गये लेकिन अतिथि प्रसन्नता हो गए कि बच्चे का बचपन बच गया उसने मेडल न माँगकर लड्डू माँगा। स्कूल व्यवस्था बच्चो में शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव तो पैदा नहीं कर पाती बल्कि प्रतिहिंसा का भाव पैदा कर देती है तभी तो शिक्षा कथा का छात्र शिक्षक की अकड़ सीधी करने की सोचता है और यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ की कथा ‘जिज्ञासा’ का बालक मैं भी अपनी काली मेड़म को उछाल दूँगा वह मुझे डाँटती है।

सभी शिक्षाशास्त्री व मनौवैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि बच्चो को दण्ड नहीं देना चाहिए । अब तो दण्ड के विरूद्ध कानून भी बन गया है। फिर भी स्थितियों में कोई खास परिवर्तन नहीं है। बच्चों के साथ घर या स्कूल में ज्यादा मानवीय तरीके से सलूक किया जाना चाहिए ।

हम बच्चों के साथ प्रेम की भाषा नहीं बोलते , भय और लालच की भाषा बोलने लगे हैं जो व्यक्तित्व के विकास में बाधा उत्पन्न करती है । उसकी सुप्त शक्तियों को खिलने का अवसर नहीं देती । भयभीत व्यक्ति (एक्स्ट्रीम केस) आत्महत्या या हत्या कर सकता है । भयभीत बालक घर छोड़कर भाग जाता है, भयभीत प्रेमी युगल एक साथ आत्महत्या कर लेते हैं हम बच्चों के साथ प्रेमपूर्ण क्यों नहीं है ;क्योंकि हमारी आकांक्षाए , हमारा मान –सम्मान हमें अंधा बना देता है।

शिक्षा व्यवस्था के केन्द्र में शिक्षा है , बच्चे नहीं , और जब तक ये प्राथमिकता बदलेगी नहीं , कोई बड़ा परिवर्तन होने वाला नहीं है। हमें समझना होगा कि शिक्षा व्यवस्था बच्चे के लिए है। बच्चा शिक्षा व्यवस्था के लिए नहीं । अत: उसे ही केन्द्र में रखकर सारे निर्णय लिए जाने चाहिए।

इन कथाओं में ऐसे कई प्रश्न उभरते हैं । जिनपर विचार करना बहुत ही जरूरी है। बच्चों को हम सरल सहज , भेदभाव रहित क्यों नहीं रहने देते ? क्यों इनका जीवन खेल से वंचित हो गया है। क्यों नहीं वे अपने शिक्षकों का प्रेम पाते ? क्यों नहीं हम अनुकरणीय आचरण पेश करते ? क्यों नहीं उनके जिज्ञासा पूर्ण प्रश्नों के उत्तर देते ? क्यों नहीं स्कूल आनन्ददायी शिक्षा का स्थान हो जाते ? भय और लालच के सिद्धांत की जगह कोई अन्य प्रेरणादायक अच्छा सिद्धांत क्यों नहीं खोज पाते ? खेल –खेल में हम शिक्षा कब दे पायेंगे? बालश्रमिकों के प्रति हमारा दृष्टिकोण ज्यादा मानवीय व शोषण रहित कब हो पायेगा ? गरीबी के हालात कब बदलेंगे कि बच्चे का बचपन उन्हें मिल सके । हम बच्चों के भाव जगत को कब समझेंगे ? इन्हीं सब प्रश्नों पर विचार करती है ये कथाएँ।

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बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ : बालमन का अवलोकन

-डॉ0 हृदय नारायण उपाध्याय

हिन्दी लघुकथा- साहित्य में सुकेश साहनी एवं रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु’ का नाम प्रतिष्ठित रचनाकारों में लिया जाता है।लघुकथा को हिन्दी कथा साहित्य की महत्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित करने का श्रेय इन दोनों रचनाकारों को जाता है।लघुकथाकार होने के साथ- साथ लगभग आधे दर्जन लघुकथा संग्रहों का संकलन एवं सम्पादन कर इन साहित्यकारों ने देश एवं देशान्तर के लघुकथा साहित्य से पाठकों को जोड़ने का महनीय प्रयास भी किया है।अन्तरजाल की दुनिया में आज लघुकथा डॉट कॉम एक मात्र ऐसी वेवसाइट है; जिस पर लघुकथा की वर्तमान दशा एवं दिशा पर महत्वपूर्ण कार्य हो रहा है।यह इन्हीं साहित्यकारों के प्रयासों का प्रतिफल है।

इन्हीं रचनाकारों द्वारा सम्पादित एवं संकलित ‘बालमनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ’ नामक नवीनतम लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुआ है जो बच्चों को केन्द्र में रखकर उनकी मासूम एवं जटिल जिन्दगी की पड़ताल करता है।

बच्चे मार्तापिता के ही नहीं वरन देश के भविष्य हैं अत देश के हर बुद्धिजीवी को इस भविष्य (बच्चे) के विषय में गंभीर चिन्तन एवं मनन करना आवश्यक है।

इसी कारण शिक्षा एवं परीक्षा प्रणाली को बालकेन्द्रित कर उनमें निरन्तर बदलाव लाये जा रहे हैं।मनोवैज्ञानिक एवं शिक्षाशास्त्री इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं ताकि बच्चे तनावरहित जीवन जी सकें।

प्रश्न उठता है -बच्चों में तनाव के कारण क्या हैं ? हम इसके लिए किसी एक वर्ग को दोषी नहीं मान सकते।भौतिकता की अन्धी दौड़ अभिभावकों की बढ़ती अपेक्षाएँ पारिवारिक विघटन एवं एकल परिवार व्यवस्था़ छात्रों एवं शिक्षकों में बढ़ती दूरी, फल फूल रहे कोचिंग सेंटर्स एवं कारगर सरकारी नीति का अभाव आदि वे तमाम घटक हैं ;जो बच्चों के सहज जीवन को जटिल एवं तनावग्रस्त बना रहे हैं।अभिभावकों के पास बेकार के काम करने का तो समय है लेकिन अपने बच्चों के साथ बैठने का समय नहीं है।अपनी सन्तानों को नौकरानियों के भरोसे सौंपकर अथवा स्कूलों में दाखिला दिलाकर वे अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना समझते हैं।ऐसे में बच्चे करें तो क्या करें ?

प्रस्तुत संकलन में बालमन की पवित्रता एवं कोमलता तथा उन पर विभिन्न कारणों एवं कोणों से पड़ने वाली कालिमा एवं खरोचों को रेखांकित करती लघुकथाओं का संचयन किया गया है।लघुकथाओं की विषयवस्तु एवं उनका फलक काफी विस्तृत है।इस संकलन में कुल 79 लघुकथाएँ संकलित हैं जिन्हें दो शीर्षकों में बॉंटा गया है: – 1- देशान्तर 2- देश । देशान्तर के अन्तर्गतकुल 9 लघुकथाएँ हैं जो विदेशी और अप्रवासी भारतीय साहित्यकारों द्वारा लिखी गई हैं।इन लघुकथाओं की कथाभूमि तो विदेशी है लेकिन बालमन का चित्रण सार्वदेशिक एवं सार्वजनीन है।इस दृष्टि से मनस्थति़ पत्थर के फूल़ पाठ एवं असंवाद ममस्पर्शी लघुकथाएँ हैं। देश शीर्षक के अन्तर्गत कुल 70 लघुकथाएँ हैं ;जो भारतीय साहित्यकारों द्वारा लिखी गयी हैं।अध्ययन की सुविधा के लिए इन लघुकथाओं को चार भागों में बॉंटा गया है :

1-बच्चे और शिक्षा

2-बच्चे और परिवार

3-बच्चे और समाज

4-बालमन की गहराइयाँ।

अर्थात् इस संग्रह की सभी लघुकथाओं के केन्द्र में बच्चे ही हैं।

घर एवं पड़ोस के बाद बच्चों का पहला परिचय विद्यालय से होता है।माता- पिता की पहली सोच बच्चे को शिक्षित करने की होती है।जाहिर है विद्यालय,शिक्षा,शिक्षक,अभिभावक एवं छात्र लघुकथाओं के लिए उत्तम विषय हैं।विद्यालय ही वह संस्था है जहॉं बच्चों के भविष्य को सॅंवारने का कार्य होता है लेकिन कहीं‍-कहीं अनुशासन के नाम पर बच्चों के मन में विद्यालयों के प्रति दहशत भी घर कर जाती है।इस दृष्टि से शिक्षा, सपना ,स्कूल -2 शिक्षाकाल ,कान्वेंट स्कूल एवं आरोपण जैसी लघुकथाएँ पठनीय हैं।सवाल उठता है कि क्या सभी विद्यालय एक ही जैसे हैं ? कुछ एक उदाहरणों के द्वारा हम सभी विद्यालयों के बारे में एक जैसी राय नहीं बना सकते।ज्ञान विज्ञान एवं सूचना के साधन कितने ही विकसित क्यों न हो जाएँ ,विद्यालयों की उपयोगिता हमेशा बनी रहेगी।ऐसी लघुकथाओं का भी संकलन होना चाहिए जिसमें विद्यालयों की सराहनीय भूमिकाओं को दर्शाया गया हो।

बच्चों में तनाव का मुख्य कारण पारिवारिक विघटन एवं पति-पत्नी के सम्बन्धों में आई दूरी भी है।इनका दुष्प्रभाव बच्चों पर सबसे अधिक पड़ता है।इस दृष्टि से अमानत, दुख़ जन्मदिन का तोहफा़, अपने पार, असर आदि लघुकथाएँ पढ़ी जा सकती हैं।धन, सम्मान एवं अहंकार के वशीभूत होकर आज शहरी मध्यवर्गीय दाम्पत्य जीवन ज्यादा सुखी नहीं है।पति-पत्नी के सम्बन्धों में तनाव और टूटन आ रही है जिसका गलत प्रभाव बच्चों पर पड़ रहा है।पति- पत्नी की आपसी लड़ाई उनकी सन्तानों को आघात पहॅंचा रही है।ऐसे दम्पतियों के बच्चे न घर पर खुश हैं और न ही विद्यालयों में। बल्कि वे अन्दर ही अन्दर टूट रहे हैं।

इन सबसे अतिरिक्त गरीबी सबसे बड़ी समस्या है जहॉं बच्चा अभाव की चक्की में पिस रहा है।ऐसे परिवारों के तमाम बच्चे शिक्षा प्राप्ति के बुनियादी हकों से महरूम होकर मजदूरी करने को विवश हैं और असमय ही बचपन की दहलीज को लॉंघ कर सयाने हो जाने को अभिशप्त हैं।बचपन की खुशरंग दुनिया की जगह उनके मन एवं मस्तिष्क में दुनिया का बदरंग क्रिया व्यापार समाता जा रहा है दुख अन्तहीन सिलसिला़ बीमार सपने और सपने स्कूल-1, दीया तले, रोटी, जड़ , सपने-2 भीख आदि लघुकथाओं में गरीबी की इसी त्रासदी का चित्रण है।

छुआछूत एवं साम्प्रदायिक सोच समाज को कमजोर करती है।इस विषय पर जो लघुकथाएँ इस संग्रह में संकलित हैं वे इन समस्याओं के घिनौनेपन को बखूबी उजागर करती हैं।जब माता और पिता ऐसी सोच को खुद बच्चों पर थोपते हैं तो बच्चों की सहज प्रतिक्रिया के समक्ष वे निरूत्तर एवं अपमानित महसूस करते हैं।इस विषय पर संकलित लघुकथाएँ वास्तव में सराहनीय हैं क्योंकि वे बच्चों की स्वस्थ मानसिकता को दर्शाती हैं- पाठ ,विषबीज, विनियोग, जिन्दा बाइस्कोप, समझ, लक्ष्य, मातृत्व, नासमझ आदि लघुकथाएँ इस दृष्टि से उत्तम लघुकथाएँ हैं।

इसके अतिरिक्त दहेज प्रथा़ लिंगीय भेद आदि अन्य सामाजिक समस्याओं पर तल्ख टिप्पणी करती लघुकथाएँ भी हैं सबको एक साथ समेटना बड़ा ही दुष्कर कार्य है।इस संग्रह की लघुकथाएँ भाव, विचार एवं शिल्प की दृष्टि से उत्तम हैं।भाषा सहज एवं सर्वग्राह्य है।जिस विषय को केन्द्र में रखकर ये लघुकथाएँ संकलित की गईं हैं वह विषय आज का प्रासंगिक विषय है।सम्पादक द्वय इस मराहनीय कार्य के लिए साधुवाद के पात्र हैं।सुन्दर प्रकाशन एवं आकर्षक कवर डिजाइन के लिए किताबघर को भी धन्यवाद।

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लघुकथा का निबंध

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लघुकथा पढ़ने–लिखने में एक शब्द पर वस्तुत: यह दो भावों का गठबंधन है–लघु और कथा। एक–दूसरे के संपूरक। यही लघुकथा की शास्त्रीयता है और इस शास्त्रीयता को आत्मसात किए बगैर लघुकथा की सिद्धि असंभव है।

लघुता ही लघुकथा की प्रभुता है और उसमें जो कथा है वही इस लघुता की प्रभूता है। लघु यानी कि विधात्मक तौर पर जीवन की कोई सूक्ष्म इकाई या कोई या फिर कोई दिशा। और कथा यानी कहानी जिसके बारे में फिलहाल किसी व्याख्या या पाद–टिप्पणी की जरूरत नहीं है। तो लघुकथा यानी छोटी–सी कथा। न तो कहानी का सार रूप और न ही अंग्रेजियत वाली शार्ट–स्टोरी। स्ट्रक्चर और टैक्स्चर दोनों में विशिष्ट और निजी मान्यताओं के साथ। लघुकथा का आशय घटना या समय के हिसाब से क्षण–क्षण की कथा किन्तु संवेदना या सरोकाार की दृष्टि से जीवन की सम्पूर्णता के लिए सूक्ष्म कथा। लघुकथा मत और मति–भिन्नता से भले ही अनगिनत परिभाषाओं से संपन्न है किन्तु अपने मूल में वह जीवन की आलोचना ही है। जीवन की आलोचना है इसलिए वह (कारण और परिणाम दोनों में) सर्वाधिक गतिशील रचनाकारों की प्रियतम विधा है। उसकी आत्मा में यथार्थ का निवास है पर वह मात्र यथार्थवादी विधा नहीं उसमें संपूर्ण भारतीयता, संपूर्ण मानवता और संपूर्ण वैश्विकता का अविछिन्न सौंदर्य भी है। फलत: शुष्क प्रगतिशीलता नहीं अपितु गतिशीलता का प्रखर प्रतिनिधित्व करने वाली विधा है और इस मायने में वह वाद नहीं–मानवीय संवाद का अजस्र आह्वान है।

लघुकथा को वेद,पुराण, रामायण, महाभारत,पंचतंत्र,हितोदेश, बौद्ध–जैन, ईसप, जातक बाईबिल आदि की कथाओं की तारत्मयता में भले ही हमारे पुरातत्व प्रिय विधाविद् देख रहे हों। भले ही उसे नैतिक ओर आध्यात्मिक दृष्टांतों से विकसित मानने की आलोचकीय जिद्द भी हो, किन्तु लघुकथा सांस्कृतिक चेतना से दूर भागते मनुष्य की वापसी के लिए नई रचनात्मक चेष्टा है। वह हालात का हस्ताक्षर है। इन मायने में उसे दीर्घ ऐतिहासिकता से जोड़कर एक अखंड किन्तु असिद्ध कथा–परंपरा में देखना शायद अतिरिक्त मुगालता है या फिर लघुकथाकारों की आत्महीनता भी। यह मनुष्य की समग्रता के खंड–खंड होने के बरक्स रचनाकारों की संवेदनात्मक और समय–सम्यक विधा है। रंग और रूप दोनों ही दृष्टियों सें उसकी ज़मीन, उसका आकाश सबकुछ भिन्न है और ऐसी सारी कथागत अवधारणाओं से कहीं अलग। वह स्वंय में विशिष्ट और साहित्य के प्रजातंत्र में पूर्ण स्वतंत्र और पृथक विधा है।

व्यंग्य या तीखापन लघुकथा का रस है पर यह व्यंग्य या लघु–व्यंग्य भी नहीं है। भले ही नामवरीय या परमांनदीय या मैनेजरीय दृष्टि में उसकी परतंत्रता और पंगुता भी दिखती हो पर कमल किशोरीय और पुष्करणीय चेष्टा के सामने है कोई,जो उसे स्वतंत्र और अस्मितावान् विधा न मानने को सिद्ध कर सके। एक साहित्यिक विधा की संपूर्ण ्शर्तों के साथ…भगवान को धन्यवाद कि ऐसे महानुभावों की कृपा के बगैर ही आज लघुकथा समूचे पाठकीय संसार में कंठहार बन चुकी है और इसके लिए लघुकथाकार और पाठक दोनों ही प्रणम्य है। लघुकथाकारों को आभार दिया जाना चाहिए कि उन्होंने लघुकथा के माध्यम से नया पाठकीय स्वाद बगराकर घटती हुई पाठकीयता को बनाए रखा और पाठक को इसलिए बधाई कि उसने अपनी संपूर्ण आस्था और विश्वास लघुकथा की झोली में उड़ेल दिया है। लघुकथा को केवल द्रुत गति वाले समय के दबाव से उपजी, विकसित और स्वीकृत विधा कहना गलत होगा।

यद्यपि साहित्यिक विधाओं के उपवन में यह लघुतम है पर समापवर्तक भी है जीवन का। लघुकथा का मतलब जीवन का लघुतम समापवर्तन। लघुकथा कई अर्थों में लघु है। वह कथा–कुल की सबसे कनिष्ठ सदस्या है, इसलिए लघु है। लघुकथा गद्य परिवार की सबसे छोटी विधा है। इन दृष्टियों से आप हम उसे लघु कह कर उपेक्षा नहीं कर सकते। पर यदि आप जब कभी उसे चुटकुले या किसी प्रेरक प्रसंग की छवि में आँक रह होते हैं तो आप स्वंय को किसी नौसिखिए लेखक, फूहड़ किस्म के रचनाकार, संपादक, आलोचक होने का स्वत: प्रमाण भी सौंप रह होते है।

लघुता उसका शिल्पगत आचरण है। लघुता भी कैसी? दूब की मानिंद। चंद्रमा की मानिंद। दूब कभी बड़ी नहीं होती, पर दूब की आभा समूचा वृक्ष भी नहीं जुटा पाता । चंद्रमा भी बड़ी नज़र नहीं आता। फुटबाल जैसा दिखाई देने वाला चंद्रमा छह महाद्वीप, सैकड़ों देश, हजारों नगर, लाखों गाँव और करोड़ों खरबों लोंगों के नाम चाँदनी रचता है। तो लघुता उसका आचरण मात्र है। विनम्र चीज़ों की निशानी है कि वे अपनी हाँकते नहीं। लघुकथा भी हाँकने में कमजोर है। यह उसकी अयोग्यता नहीं वरन् परम योग्यता का प्रमाण है। है तो वह लघु पर वह एक समूची और सर्वकोणीय कथा का बखान या व्याख्या भी है। उसी कथा से कई कथाओं, इतिहासों, वर्तमानों और भविष्य की दिशा देखी जा सकती है। लघु होते हुए भी उसकी प्रभुता में विद्यमान है। अपनी प्रभुता को अपनी लघुता में ही दिव्यता देने वाली किसी और विधा का नाम शायद ही आप या हम हिंदी वाले बात सकते हैं।

लघुकथा जीवन के एकांश का साक्षात्कार है, किसी एक दृश्य की वीडियोग्राफी है, व्याधिग्रस्त किसी एक अंत:अंग का एक्सरा है। लघुकथा में अतिरिक्त उपकथा या प्रसंग का प्रवेश वर्जित है। कथापात्रों की शारीरिक उपस्थिति भी वहाँ सीमित और अनुशासित है। यही आत्मानुशासन लघुकथा में संक्षिप्तता का आवश्यक उपकरण है। और संक्षिप्तता केलिए चुस्त–दुरुस्त किन्तु स्वाभाविक वाक्य विन्यास अपरिहार्य है। ऐसे में जाहिर है कि शब्द अमिधा से कम व्यंजकता से अधिक प्रतिष्ठित हो। कथ्य और कथोपकथन या कथा–वर्णन निहायत स्वाभाविक हो। इसे एक चमकदार लघुकथा का खास आकर्षण कह सकते है। कृत्रिमता का लघुकथा से स्थायी बैर है। कथावस्तु और भाषा–शिल्प दोनों की ही दृष्टि से। हम जब लघुकथा की भाषा की बात करते हैं तो उसमें सहजता, पात्रानुकूलता, रोचकता, समकालीनता और संपूर्ण संप्रेषणीयता की भी बात करते हैं।

हम सभी जानते हैं कि लघुकथा की आकृति को लेकर तरह–तरह की अंकगणितीय उद्धोषणाएँ होती रही हैं। मैं समझता हूँ कि साहित्य में गणितीय स्थापानाएँ नहीं चलतीं। फिर लघुकथा मात्रिक छंद तो नहीं जिसे मात्राओं और शब्दों में बाँधा–छाँदा जा सके। पर इसका मतलब नहीं कि उसमें कथा या ललित निबंध जैसी वाचालता की छूट हो। लघुकथा के सभी मान्य आचरणों की अवहेलना यदि लघुकथाकार न कर तो वह स्वयं लघुकथा को सीमित शब्दों में रख सकता है। मैं एक योग्य पाठक हीन दृष्टि लघुकथा के समूचे भूगोल को एक ही बार में देखना चाहता हूँ यानी कि शीर्षक से लेकर उसक लेखक का नाम एक ही बार दिख जाए। उसके लिए पन्ना पलटने की बाध्यता न रहे।

लघुकथा लेखकीय उपस्थिति रहित विधा है। लघुकथा और जीवन के मध्य किसी ी की सत्ता स्वीकार नहीं है। लेखक यहाँ अदृश्य रहता है। उसी अदृश्यता में ही उसकी उपस्थिति होती है। रचना में उसकी उपस्थिति कला को खंडित करती है। उसे बोझिल बनाती है। पाठक और रचना के बीच व्यवधान बनती है। लघुकथाकार की अनुपस्थिति ही लघुकथा को कला-समृद्ध बनाती है। तो हम कह सकते हैं कि लघुकथाकार अन्य विधाकारों से कहीं अधिक त्यागी है। त्यों–त्यों लघुकथा की दम घुटने लगता हे। कह सकते हैं कि लघुकथा में कला का सीमित प्रक्षेपण होता है। इस मायने में लेखक की अनुशासनप्रियता और सीमितता यहाँ गौरतलब हो सकती है। सीमितता लघुकथाकार का अंकुश है। सीमित शब्दों के सुंसगति से पाठक लघुकथा जैसे बीज में ही पौधे और उसकी समूची हरितिमा से प्लावित हो सकता है।

सच्ची लघुकथा यथार्थ की ईमानदार पड़ोसन है। इस अर्थ में कि वह यथार्थ की संपूर्ण और बारीक से बारीक चुगली में चुकती नहीं है। उसे विडम्बनाओं से घृणा है; उसे विद्रपताओं से परहेज है। वह है ना आखिर मानवतावादी पड़ोसी। पड़ोसी इस रूप में भी हे कि वह आज पाठक के सबसे करीब की विधा है। एक आम पाठक कथा, उपन्यास,बॉचने से पूर्व उसके आकार और सीमा का परीक्षण करता है पर लघुकथा पर पहले अपनी आँखों और मन को ले जोड़ता है। लघुकथा ऐसी विधा है जो पाठक के आँखों में एक ही बार में अपनी आकृति के साथ दिखाई दे जाती है। प्रकृति भले ही बाद में पता चले पर लघुकथा की यही आकारगत शिल्प उसे अन्य विधाओं से कहीं अधिक पाठकीय आमंण भेजती है। लघुकथा इस मायने में भी लघु कि वह घाव गंभीर करती है। देखने में छोटे लगे–घाव करे गंभीर।

उसका अर्थशास्त्र बहुत ही अनुशासन की माँग करता है। ठीक उस तरह जिस तरह से मनमोहन सिंह का वित्तीय अनुशासन उन्हें एक दिन प्रधानमंत्री की आसंदी तक ले पहुँचता है। एक भी शब्द यदि आप नाहक प्रयोग हैं तो समझिए कि आपमें मितव्ययिता के गुण नहीं है और आपमें मितव्यतिता के गुण नहीं है तो बेहतर है कि लघुकथा को दिया जाने वाला समय आपको कथा या फिर ललित निबंध के लिए देना चाहिए जिसे आप–हम जैसे वाचाल रचनाकारों की शख्त जरूरत है। तो शब्दानुपयोग में लघुकथाकार को सख्त और सचेत होना ही चाहिए। कुछ ही अतिरिक्त शब्द आपको लघुकथाकार के श्रेष्ठ पद से च्युत कर सकते हैं और कुछ ही सटीक,सार्थक और सारगर्भित शब्द आपको लघुकथाकार के रूप में स्थापित कर सकते हैं। कह सकते हैं कि अमिधा के बदले लक्षणा और व्यंजना के गांभीर्य के प्रति कहीं ज्यादा सचेतता अपरिहार्य है लघुकथा लिखने के लिए। कहा गया है–बातन हाथी पाइए, बातन हाथिन पाँव। प्रकारांतर से कहा जा सकता है कि शब्दों के भीतर प्रवेश किए बिना, उसकी लंबाई, चौड़ाई और गहराई नापे बिना लघुकथा का क्षेत्रफल सिद्ध नहीं किया जा सकता है। लघुकथा दोहे, गज़ल की तरह ऐसी विधा है जिसमें प्रत्येक शब्दों की विश्वसनीयता दर्ज होती है। अन्य विधा को उठाकर देखिए–सैकड़ों और कहीं–कहीं तो हज़ारों शब्द अकारज जगह घेरे दिखाई देते हैं। किसी महानगर में बेजा कब्जा किए हुए बेघरवारी की तरह। लघुकथा साहित्य में ऐसी बसाहट है, जहाँ शब्दों का बेज़ा कब्ज़ा का साफ और निहायत मनाही है।

शिल्प की सिद्धि कोई वैयाकरण नहीं कर सकता। शिल्प निहायत निजी मामला है। यही रचनाकार का व्यक्तित्व भी है। जिस दिन हम शिल्प के वैरायटीज के बारे में अपनी अंतिम राय दे देगें एक तरह से लघुकथा को परिसीमित करने का व्हीप भी जारी कर रहे होंगे। यह एक तरह से बंदीकरण का कार्य जैसा होगा। वैयाकरण दिशा दे सकते हैं। पर यह कतई जरूरी नहीं कि पथिक उसी दिशा में जाए। जो बताए गए मार्ग में चलता है, वह जाने–पहचाने गंतव्य तक ही पहुँचता है। असाधारण रचनाकार वही होता है जो अक्सर बिना मार्गदर्शक के खुद मार्ग बनाता है। कदाचित् वही भविष्य में कुछ आगे केलिए गंतव्य–सा बन जाता है।

लघुकथा का आलोचक स्वयं लघुकथाकार को होना पड़ेगा। वह इसलिए कि जहाँ आप छपते हैं जरूरी नहीं कि वहाँ कमलेश्वर, रमेश बतरा, बलराम, जगदीश कश्यप, विक्रम सोनी, सतीशराज पुष्करणा, डॉ.राजेन्द्र सोनी, सुकेश साहनी या गिरीश पंकज ही मिलें। वहाँ कई बार आप एक फीलर के रूप में लिए जाते हैं। इसे लेकर आप मुगालते में मत रहिए कि वही लघुकथा का नाता है। उसे कई बार विधाओं के हिसाब से भी पेज को इंद्रधनुषी रंग में सजाना होता है। आपकी रचना मिली, बस्स, छप गई धड़ाधड़….। जिसे लघुुकथाकार पत्र–पत्रिकाओं और पाठकों के लघुकथा की पैठ समझता है कहीं वह कचरा लेखन का प्रोत्साहन तो नहीं….इस पर भी बारीक आत्मपरीक्षण की आवश्यकता अब भी बनी हुई है।

तो चलिए सीधे लघुकथा के चरित्र पर गौर करते हैं। न अधिक शब्दों। न अधिक छंद। न अधिक राग, न ही अधिक द्वेष। लघुकथा अधिक तटस्थ विधा है। लघुकथा सिंहावलोकन वाली विधा है। विहंगलावलोकनीय लेखन की संभावना से परहेज करने वाली विधा। यहाँ उड़ान की गुंजाइश नहीं है। लघुकथा को कथ्य और शिल्प के स्तर पर हम विकल्पहीन विधा के रूप में भी सिद्ध कर सकते हैं। इसके पीछे दो कारण है। एक तो यह कि लघुकथा यथार्थ का दर्पण है। वहाँ कल्पना या फैंटेसी के लिए कोई खास स्पेस नहीं है। और है तो भी उतना ही जिससे उसकी विश्वसनीयता अमर रहे। काल्पनिकता तो लघुकथा में उस तरह से होती है जैसे कि देह में साँसें। हम हरदम साँस लेते हैं किन्तु हमें उसका प्रत्यक्ष अहसास कम ही रहता है।

कथ्यों का सही और सटीक चयन, तथ्यों का अनूठा प्रसतुतीकरण, सारगर्भिता, स्पष्ट दृश्यांकन एक स्वस्थ लघुकथा के आधार हैं जिसका र्म स्वयं–सिद्ध है। सतर्कता बस यही कि विषय–वस्तु की विश्वसनीयता संदेहास्पद न लगे। कथ्यका कालक्रम इतना अल्प हो कि वहाँ कथायी परितर की अनुगूँजें न सुनाई दे। ममन में छाप न छोड़ने वाले पात्रों के प्रति हमदर्दी से बचना एक अच्छे लघुकथाकार का गुण माना जाना चाहिए। यानी कि पात्र ऐसे हो जिनसे संघर्ष का पाठ मिल सके और उदात्तता का भी। लघुकथा का अंत विस्फोटक या मारक होो। पर इसी मारकता के नाम पर चमत्कारिक वाक्यों और उद्धरणों की प्रामाणिकता कहीं संदिग्ध न हो जाए इसकी गांरटी भी लघुकथाकार को लेनी होगी। जहाँतक शीर्षक की बात है–वह ऐसा हो जैसे देह में सिर। सिर में ही मस्तिष्क, आँख,मुँह,कान, नाक आदि होते हैं जिनके बिना धड़ की कोई खास अहमियत नहीं। जाहिर है शीर्षक लघुकथा के समग्र व्यक्तित्व का सूत्र भी हो।

बहुधा यह भ्रम पैदा होता है कि लघुकथा में कथ्य और पात्र का आसतन चरित्र एक सा लगता है पर मुझे लगता है कि भविष्य में नए पात्रों का संकट नहीं रहेगा। समय परिवर्तनशील है। यही परिवर्तनशीलता उसे नई घटनाओं, नये पात्रों, नयी मन–स्थितियों, नयी दृष्टियों, नये कथ्यों, नये विषयों से समृद्ध बनाएगी। मैं यहाँ पर सुकेश साहनी की कुछ लघुकथाओं की ओर ध्यान ले जाना चाहूँगा (जो ई–मेल, इंटरनेट आदि पर केंद्रित और सशक्त लघुकथाएँ कही जा सकती हैं) जहाँ आप तकनीकी विषयों,प्रसंगों पर की ऐसी लघुकथाओं से रूबरु हो सकते हैं जिसकी कल्पना शायद ही प्रेमचंद कर सकते थे या दास्तोवस्की। तो कहने का आशय यही कि एक समर्पित लघुकथाकार को विषयवस्तु का संकट कभी भी नहीं रहेगा। हाँ, हमें अपनी दृष्टि को पारंपरिक विषयों के इमेज से बचाते हुए और अधिक बृहत्तर बनाना होगा। यूँ भी इक्कीसवीं सदी की गंभीर चुनौतियों में जिस तरह हम बाजार, वैश्वीकरण, उदारीकरण, अदृश्य उपनिवेशीकरण और उससे जुड़ी तकनीकियों को देख रहे हैं। कथित और आरोपित उत्तर आधुनिकता के विचारों के गंदे नाले में बहकर ‘‘कुछ भी निश्चित नहीं’’ जैसे विचारों को स्वीकारने के लिए मनुष्य को बरगला रहे हैं यह ज़रूरी है कि वहाँ लघुकथाकर गंभीरता से प्रवेश कर सकता है। यहाँ वह नये समय में अपने सरोकारों को भी ढूँढ सकता है और लघुकथा की सिद्धि को भी चरितार्थ कर सकता है।

और हम ऐसा कर सके तो कोई दो मत नहीं कि लघुकथा कविता की तरह पाठक और समाज में अपनी विश्वसनीय सहकारिता दर्ज करा सकती है।

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लघुकथा में संवाद

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लघुकथा में एकबीजीय कथानक  (कथावस्तु) वर्गीय प्रतिनिधित्व करते हुए न्यूनतम पात्र (चरित्र) व्यंजक संक्षिप्त संवाद, वर्णित परिवेश की संकेतात्मकता, प्रतीकात्मकता, परिस्थिति  की विशेषता ,सरल -सहज  बोलचाल का भाषिक कलेवर,उद्देश्योन्मुखी परिणति , सुलभ कथ्य, कथारस-स्रंवण उसकी तात्त्विक विशेषता के रूप में स्वीकृत हो चुके  हैं।

आधुनिक युग में आम चेतना और परिस्थितिगत यथार्थ लघुकथा के अत्यन्त अनुकूल है; इसीलिए हिन्दी–भाषा–भूभाग में लघुकथा का विकास और उसकी लोकप्रियता उत्तरोत्तर गतिमान है। पिछले पचास वर्षों में हिन्दी–लघुकथा ने न केवल अपने परिमाण का विस्तार किया है, बल्कि समर्पित एवं सचेत प्रतिभसम्पन्न लघुकथाकारों ने लघुकथा की गुणात्मक संवृद्धि का भी परिदर्शन कराया है। इस अवधि में सैंकड़ों लेखकों  के एकल संग्रह,दर्जनों लघुकथाकारों के संपादित प्रतिनिधि संग्रह पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं। विभिन्न दैनिक, साप्ताहिक, मासिक एवं अनियतकालीन पत्र–पत्रिकाओं में लघुकथा के प्रकाशन पर्याप्त संख्या में हो रहे हैं। विभिन्न एकल संग्रहों के लघुकथाकारों के प्राक्कथन–लेखकों एवं संकलित संकलनों के सुधी संपादकों ने लघुकथा के साहित्यशास्त्र के निर्माण में मह्त्त्वपूर्ण काम किया है। ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ के पिछले सम्मेलनों के अवसर पर सैद्धान्तिक आलेखों एवं व्यावहारिक समीक्षाओं तथा विभिन्न लघुकथा–संकलनों पर आयोजित विचार–गोष्ठियों ने लघुकथा के ऐतिहासिक विकास एवं सैद्धांतिक पक्षों पर प्रकाश डाला। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं। कुछ विश्वविद्यालयों में हिन्दी–लघुकथा पर पी–एच.डी, उपाधि एवं एस.फिल. के लिए महत्त्वपूर्ण शोध–कार्य भी हुए हैं। साहित्य–विधा के रूप में अपनी स्वीकृति के उपरांत आज लघुकथा का संघर्ष साहित्य की केन्द्रीय विधा के रूप में अपनी स्वीकृति के लिए अघोषित रूप से चल रहा है। इस सम्मेलन के माध्यम से हमारी अपील है कि सभी लघुकथाकार, लघुकथा के सुधी संपादक, चिन्तक एवं समीक्षक लघुकथा के इस संघर्ष में अपनी योग्यता, क्षमता एवं निष्ठा के साथ योगदान दें; क्योंकि यह अस्तित्व का नियामक संघर्ष है।

साहित्य की अन्य विधाओं की तरह ही लघुकथा में अपने पाठकों, श्रोताओं और सामान्यत: समाज के साथ संवाद है। लघुकथाकार अपनी लघुकथा के माध्यम से अपने पाठकों एवं श्रोताओं से कुछ कहना चाहता है। यह भिन्न बात है कि वह अपनी लघुकथा के माध्यम से क्या, कितना और कितने घनत्व के साथ कह पाता है। और उनमें कितनी प्रतिक्रिया (रिसपॉन्स) का सृजन कर पाता है। किसी वस्तुगत एवं व्यावहारिक माध्यम, प्रतिमान एवं प्रक्रिया के अभाव में उसका निर्धारण करना फिलहाल कठिन कार्य है। ऐसी स्थिति में केवल प्रतिवेदन (वर्बल पिरोर्टिंकग) से ही संतोष करना पड़ता है।

लघुकथा की विभिन्न तात्त्विक अवधारणाओं में आन्तरिक संवाद–योजना का महत्त्ववपूर्ण स्थान है। लघुकथा में चयनित कथानक को प्रस्तुत करने के लिए चरित्र (रिसपॉन्स) का भी सृजन किया जाता है और उनके बीच जो परस्पर संवाद होते हैं, उससे कला का विकास होता है।

लघुकथा के संवाद में सृजित पात्रों की उन चारित्रिक विशेषताओं के दिग्दर्शक होते हैं, जिस वर्ग का वे सामान्यत: प्रतिनिधित्व करते हैं। पात्रों के पारस्परिक संवाद से उनके व्यक्तिगत स्वभाव, सामाजिक स्थिति एवं राग–द्वेष तथा अभिरुचियों आदि का भी ज्ञान हो जाता है। लघुकथाकार को उनके विषय में बहुत कुछ स्वयं कहने की आवश्यकता नहीं होती।

लघुकथा के संवादों से कभी–कभी वातावरण एवं परिस्थितियों का भी ज्ञान लघुकथा के पाठकों एवं श्रोताओं को हो जाता है।

वास्तव में लघुकथा एक ओर नाटक तथा एकांकी एवं दूसरी ओर उपन्यास एवं कहानी (लघु कहानी सहित) जैसी कथा–विधा की मध्यवर्ती विधा है। नाटक एवं एकांकी मुख्यत: संवादों पर आश्रित रहते हैं, वहीं उपन्यासों, कहानियों एवं लघु कहानियों में संवादों की कालावधि तथा विस्तार का पर्याप्त अवसर होता है। लघुकथा में यह अवसर बहुत संकुचित, संक्षिप्त, संकेन्द्रित, व्यंजक, सांकेतिक, प्रतीकात्मक, ध्वन्यात्मक एवं प्रभावपूर्ण होता है। इसलिए संवाद–संरचना की दृष्टि से लघुकथा में संवादों का विशिष्ट महत्व होता है।

लघुकथा के संवाद अधिकतर दैनन्दिन, आम बोलचाल की भाषा में होते हैं। यह लघुकथाकार की भाषा–क्षमता की बात है कि वह उसे कितना समर्थ बना पाता है, जिससे वह पाठकों एवं श्रोताओं पर अपना प्रभाव छोड़े और दूसरी ओर वह भाषा–विशेष की विकसित उपलब्धि–क्षमता का परिचय दें।

सटीक संवाद लघुकथा के प्रभाव में वृद्धि करते हैं और लापरवाह संवाद–योजना प्रभाव की मात्रा को क्षतिग्रस्त करते हैं।

संवाद लघुकथाकार को बहुत सारे विवरणों (नरेशन्स) को स्वयं कहने से बचाते हैं, जिससे लघुकथाकार की व्यक्तिगत उपस्थिति तथा कथा–विकास में लेखकीय हस्तक्षेप घटाता है, जो लघुकथाकार को श्रेष्ठतर सिद्ध करने में सहायक होता है।

अपनी उपरिलिखित महत्त्ववपूर्ण भूमिका के कारण संवाद–योजना की उपादेयता लघुकथा में साहित्य की अन्य कथा–विधाओं से सर्वाधिक है। इसलिए आवश्यक है कि लघुकथा में संवाद–योजना की विशेषताओं पर संक्षेप में चर्चा का श्रीगणेश किया जाए; यथा–

(क) कथा–विकासोन्मुखता–

लघुकथा के कथा–विकास में कथाकार के प्रत्यक्ष एवं उसकी उपस्थिति को यथासाध्य न्यूनतम करने में कथाकार कथा–पात्रों के बीच जो संवाद–संयोजित करता है, उससे कथ्य का सहज स्वाभाविक विकास होता है। कथा–विकास को गतिशील, तीव्र एवं प्रभावी करना संवाद की विशेषता है। संघर्ष तथा तर्क–वितर्क की स्थितियों को छोड़कर शेष सभी स्थितियों में संवाद कथा को विकसित करता है। लम्बे, अनावश्यक, फालतू व्याख्यात्मक तथा दुहरानेवाले संवाद के लिए लघुकथा में कोई स्थान नहीं है।

(ख) संक्षिप्तता–

लघुकथा में लम्बे, विस्तारित, व्याख्यात्मक तथा अति अलंकृत संवादों के लिए अवसर नहीं होता। इसीलिए लघुकथा के संवाद यथासाध्य संक्षिप्त, संश्लिष्ट, सटीक, सुगठित और सार्थक होते हैं। इस संक्षेपीकरण में यद्यपि संक्षेपीकरण के लगभग सभी नियम लागू होते हैं; किन्तु वे सभी इसकी अर्थ–गर्भिता, भाव–सम्प्रेषणीयता तथा प्रतीकात्मकता की रक्षा करते रहते हैं।

(ग) पात्रों की चारित्रिक–प्रतिनिधित्व–सूचकता–

 अन्य कथा–विधा की भांति लघुकथा में भी सामाजिक–आर्थिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करते लघुकथा के पात्र भी दिखते हैं। इसलिए जब वे कोई संवाद करते हैं, तो वे अपनी वर्गीय विशेषताओं से बहुत हद तक सम्पन्न होते हैं। इसकी पहचान उनके संवादों की वाक्य–रचना, प्रयुक्त शब्दावली, भाषित ध्वनि, भाषा–भंगिमा तथा अलंकरण अथवा स्लैंग के प्रयोग से लगता है। इसलिए यदि लघुकथा के संवाद लघुकथाकार द्वारा थोड़ी सावधानी से संयस्त किए जाएँ, तो वे कथा–पात्रों की चारित्रिक, वर्गीय, परिचयात्मक विवरणी देने से बहुत दूर तक बचाव हो जाता है और कथा–यष्टि में कसाव, गठीलापन तथा संतुलन बढ़ता है।

(घ) कथा–परिवेश एवं कथात्मक परिस्थिति–

सामान्यत: लघुकथा में कथा का विस्तृत परिवेश एवं बदलती परिस्थितियों का विस्तृत विवरण देना संभव नहीं होता। इसके लिए लघुकथाकार जिन विभिन्न कौशलों का उपयोग करता है, उसमें संवाद–प्रायण का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यदि लघुकथा के संवाद कथा के परिवेश को तथा बदलती कथात्मक परिस्थितियों के द्योतक तथ्यों को संकेतात्मक या प्रतीकात्मक रूप में समाहित करते हैं, तो वे लघुकथाकार को बहुत सारे विवरणों को देने से बचाते हैं और लघुकथा की गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक होते हैं।

(ङ) कथा–रस–सम्पोषकता–

प्रत्येक लघुकथा को कथा–रस का अपने पाठकों, श्रोताओं को आस्वादन करना चाहिए। इसके लिए रस–सिद्धांतकारों द्वारा निर्धारित भाव, विभाव, अनुभाव  या संचारी भावों के द्वारा रस–प्रवाह बनना होता है। विभिन्न कौशलों के द्वारा कथाकार इनका सृजन करता है, जिसमें संवाद–योजना की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जिस अभीप्सित रस का सृजन लघुकथा–विशेष में होता है, उस के संवादों की संरचना ऐसी होती है, जो उस रस के उद्दीपन, आलम्बन एवं संचारियों को सृजित कर रस की सिद्धि के प्रयास में रचित लघुकथा में शांत रस या रौद्र के संवाहक अनुभावों एवं संचारी भावों के सूचक संवाद ही रसाभाव/रस–दोष उत्पन्न कर देते हैं। यदि अभिप्रेत रस के अनुकूल संवाद संवाद हों, तो वे विशिष्ट बन जाते हैं।

(च) भाषिक–विकास की दिग्दर्शिता–

भाषा –विकास का परिचय अन्याय माध्यमों के अतिरिक्त उस भाषा में सृजित साहित्य–भाषा से भी दिग्दर्शित होता है। साहित्य विधा के रूप में लघुकथा के संवादों की भाषिक संरचना के भाषिक–विकास का परिचय मिल सकता है। वास्तव में भाषा–विकास की दो धाराएँ हैं–जन–भाषा एवं परिनिष्ठित भाषा। लघुकथा की भाषा जिसमें सरलता, सहजता, बोधगम्यता, दैनन्दिन व्यावहारिकता और क्षिप्रता होती है। ध्वन्यात्मकता एवं त्वरा भाषा की अतिरिक्त विशेषताएँ हैं। लघुकथा के संवाद यदि इन गुणों से मण्डित हैं, तो निश्चय ही वे लघुकथा की गुणवत्ता में वृद्धि करेंगे। भाषा का अपना देश–काल भी होता है, जिसका लघुकथा के संवादों में विशेष सावधानी से समुचित प्रयोग प्रभविष्णुता बढ़ाता है।

इन विशेषताओं से समन्वित लघुकथा–संयोजन के लिए लघुकथाकार को कुछ लेखकीय कौशल (क्राफ्ट) के प्रति सावधान होना चाहिए। वास्तव में कुछ गिनती के सिद्ध लघुकथाकारों को छोड़कर 95 प्रतिशत लघुकथाकारों को अपनी लघुकथा को एकाधिक बार लिखने,परखने, संशोधित करने तथा परिवर्द्धित रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा करनी चाहिए। प्रकाशित हो जाने के बाद लघुकथा पर केवल लघुकथाकार का स्वामित्व नहीं रह जाता है, वरन् वह आम जनता की सांस्कृतिक सम्पदा बन जाती है। इसीलिए प्रकाशन–पूर्व कुछ व्यायाम लघुकथाकार तथा उस लघुकथा के स्वास्थ्य के लिए हितकर हो सकता है। इस लेखकीय संपादन–कार्य के लिए अधोलिखित कुछ प्रश्न लघुकथाकार के लिए हैं और वह अपनी लघुकथा के सामने लिखकर स्वयं से प्रश्न क्रम में पूछे और लघुकथा का संशोधन–संपादन स्वयं करे। उदीयमान लघुकथाकार के लिए यह अधिक आवश्यक है।

1.जो संवाद लघुकथा में आए हैं, क्या वे आवश्यक हैं? क्या उनमें से किसी को पूर्णता: या अंशत: हटाया जा सकता है!?

2.क्या लघुकथा–संवादों में कोई ऐसा भी संवाद है, जो लघुकथा के विकास में प्रतिरोधक/भ्रामक/अस्पष्टतापूर्ण है, जिसे हटाना या बदलना आवश्यक है।

3.क्या लघुकथा–संवाद में सृजित पात्रों की सामाजिक–आर्थिक चारित्रिक विशेषताओं को व्यक्त करने में समर्थ है?

4.क्या लघुकथा में आए संवाद उस लघुकथा के लिखने के अन्त: निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं?

5.क्या लघुकथा के संवाद की भाषा सरल, सहज, बोधगम्य, सांकेतिक, प्रतीकात्मक, व्यञ्जक तथा देश–काल के अनुकूल,संक्षिप्त एवं प्रभविष्णु हैं?

6.क्या लघुकथा के संवाद कथा–रस को सम्पुष्ट करने का सामर्थ्य रखते हैं?

लघुकथाकारों, विशेषत: उदीयमान कथाकारों तथा लघुकथा–समीक्षकों से विनम्र अनुरोध है कि इस आलेख में प्रस्तावित विषयों पर विचार करने की कृपा करें तथा आवश्यक संशोधन का प्रस्ताव दें।

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लघुकथा में शीर्षक का महत्त्व

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दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक नाम होता है, उसकी पहचान। इसी तरह से प्रत्येक साहित्यिक कृति का भी अपना एक नाम होता है, उसका शीर्षक। अकसर कहा जाता है कि नाम में क्या पड़ा है। अगर रामचंद का नाम लेखराज हो तथा सोहन लाल का रमेश कुमार तो कुछ फर्क नहीं पड़ता। असल बात तो गुणों की होती है। किसी भिखारी का नाम करोड़ी मल तथा सेठ का नाम फकीरचंद हो सकता है।

क्या साहित्यिक कृति के सम्बन्ध  में भी ऐसा कहा जा सकता है? मेरा उत्तर है–नहीं। हाँ, किसी उपन्यास अथवा महाकाव्य के नामकरण के समय अधिक कठिनाई पेश नहीं आती। इन साहित्यिक कृतियों के शीर्षक रचना पर अधिक प्रभाव नहीं डालते। वास्तविक प्रभाव तो रचना का ही होता है। फिर भी शीर्षक रचना के मूल भाव के विपरीत नहीं हो सकता। कहानी का शीर्षक भी रचना के अनुरूप ही होता है, यद्यपि शीर्षक में किए गए थोड़े बदलाव से रचना की प्रभावोत्पादकता में अधिक फर्क नही पड़ता। परंतु इस सम्बन्ध  में लघुकथा की स्थिति भिन्न है। प्रभावोत्पादकता के संदर्भ में लघुकथा का शीर्षक बहुत अंतर डाल सकता है। परंतु फिर भी अनेक लघुकथा लेखक रचना के शीर्षक की ओर अधिक ध्यान नहीं देते। बहुत कम समीक्षकों ने लघुकथा में शीर्षक के महत्त्व की ओर ध्यान दिलाया है।

क्योंकि लघुकथा छोटे आकार की साहित्यिक विधा है, इसलिए इसमें शीर्षक का महत्त्व अधिक हो जाता है। हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि लघुकथा की बुनावट बहुत ही कसी हुई होनी चाहिए तथा इसमें एक भी शब्द ऐसा नहीं होना चाहिए जिसे रचना से हटाया जा सके। तब हम लघुकथा के शीर्षक को गैर-महत्त्वपूर्ण कैसे मान सकते हैं? डॉ. सतीश दुबे के अनुसार–‘शीर्षक लघुकथा के प्रभाव को बढ़ाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा लघुकथा का नब्बे प्रतिशत कथागत संदेश शीर्षक में ही छिपा होता है।’ जब शीर्षक इतना ही महत्त्वपूर्ण है तो इसके बारे में गंभीरता से विचार-विमर्श होना चाहिए।

लघुकथा का शीर्षक कैसा होना चाहिए, इस पर बहुत विचार-विमर्श की आवश्यकता है। इस आलेख का मुख्य उद्देश्य इस विषय की ओर लेखकों एवं समीक्षकों का ध्यान आकर्षित करना है। मेरे विचार में लघुकथा के शीर्षक का चुनाव करते समय निम्नलिखित कुछ बातों की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए—

शीर्षक आकर्षक हो—शिक्षित माता-पिता अपने बच्चे का नामकरण करते समय उसे कभी भी टींडू, कद्दू, भिंडी, तोता, बंदर जैसे बेहूदा नाम देना पसंद नहीं करते। वे अपने बच्चे का नाम मनमोहक-सा रखना चाहते हैं ताकि सुनने वाले को वह प्यारा लगे, बच्चे के प्रति दूसरों के मन में अच्छे विचार उत्पन्न हों। रचना में भी पाठक ने सबसे पहले शीर्षक को ही पढ़ना होता है। इसलिए शीर्षक में पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता होनी चाहिए। मन को प्रभावित करने वाला शीर्षक ही पाठक को रचना पढ़ने के लिए बाध्य करता है। ‘चुप्पी के बोल’, ‘काली धूप’, ‘ठंडी रजाई’, ‘रोटी की ताकत’, ‘बिन शीशों वाला चश्मा’, ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’, ‘विष-बीज’, ‘जब द्रोपदी नंगी नहीं हुई’ इत्यादि आकर्षक शीर्षक कहे जा सकते हैं।

शीर्षक कथ्य अनुरूप हो— लघुकथा का शीर्षक रचना के कथ्य के अनुरूप ही होना चाहिए। शीर्षक कथ्य के अनुरूप न हो तो रचना अपने मूल भाव को पाठक तक ठीक से संप्रेषित नही कर पाती। शीर्षक से रचना के कथा-कहानी विधा से संबंधित होने का भी पता चलना चाहिए। शीर्षक पढ़कर पाठक को ऐसा न लगे कि यह किसी अन्य विधा से संबंधित रचना है। ‘विज्ञान के चमत्कार’, ‘परिवार नियोजन’, ‘आर्थिक असमानता’, ‘देश के निर्माता’ तथा ‘सक्षम महिला-एक पहल’ जैसे शीर्षक कथा-साहित्य के लिए उपयुक्त नहीं कहे जा सकते।

शीर्षक कथ्य को उजागर न करता हो— केवल वही लघुकथा पाठक को बाँध कर रख सकती है जो उसे साहित्यिक आनंद प्रदान करे। जो उसके मन में रचना को आगे पढ़ने के लिए उत्सुकता पैदा करे। प्रत्येक पंक्ति को पढ़ने के पश्चात–‘आगे क्या होगा?’ जानने की जिज्ञासा बनी रहनी चाहिए। अगर रचना का समापन बिंदु अथवा कथ्य शीर्षक से ही उजागर हो जाए तो रचना में पाठक की दिलचस्पी का कम हो जाना स्वाभाविक है। पाठक ऐसी रचना को पढ़ना पसंद नहीं करता। ‘खेत को खाती बाड़‘, ‘ढोल की खुली पोल’, ‘चोर की दाढी में तिनका’, बच्चे पैदा करने वाली मशीन’, ‘पर-पीड़ा में सुख’, ‘इश्क न पूछे जात’ तथा ‘कथनी-करनी’ जैसे शीर्षक रचना के कथ्य को पहले ही उजागर कर देते हैं। ऐसी रचनाओं को पढ़ने के प्रति पाठक उदासीन हो जाता है।

शीर्षक अस्पष्ट न हो— अकसर नए लेखक व कुछ सूझ-बूझ वाले रचनाकार भी लघुकथा को शीर्षक देते समय बहुत सोच-विचार नहीं करते। वे अकसर रचना में बार-बार प्रयोग किए गए शब्द का ही शीर्षक के रूप में प्रयोग कर लेते हैं। या फिर रचना के अंतिम अवतरण अथवा वाक्य में प्रयुक्त कोई विशेष शब्द अथवा वाक्यांश को ही शीर्षक का रूप दे देते हैं। कई बार ऐसे शीर्षक बहुत ही अजब व अस्पष्ट बनकर रह जाते हैं। ‘इज्जत मुफ्त मिलेगी’, ‘लव यू बोले तो’, ‘आपका स्वागत है’, ‘पढ़ा, पढ़ा, भला तुम क्या पढ़ोगे?’, ‘तुम मेरे क्या लगते हो?’, ‘जा तू चली जा’, ‘ऐसे ही खामखाह’, ‘कह देंगे’, ‘मैं नहीं जाती’, ‘तुम गुस्सा तो नहीं करोगी?’ जैसे शीर्षक अस्पष्ट व अर्थहीन बनकर रह जाते हैं। पाठक इनसे कुछ नहीं समझ पाता। शीर्षक का चुनाव करने से पहले कथ्य व उसके द्वारा संचारित संदेश को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। शीर्षक संपूर्ण रचना का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखाई देना चाहिए।

शीर्षक रचना को अर्थ प्रदान करता हो— लघुकथा का शीर्षक अर्थ-भरपूर होना चाहिए न कि कोई व्यर्थ शब्द। उसी शीर्षक को उत्तम शीर्षक कहा जा सकता है जो रचना को अर्थ प्रदान करता हो तथा अगर शीर्षक को हटा दिया जाए अथवा बदल दिया जाए तो रचना पर गहरा प्रभाव पड़े अथवा उसके अर्थ ही बदल जाएँ। रचना पढ़ने के पश्चात उसको समझने के लिए पाठक को पुनः उसका शीर्षक पढ़ना पड़े, उसे मैं श्रेष्ठ शीर्षक मानता हूँ। ऐसे शीर्षक ही सही अर्थों में लघुकथा का भाग बनते हैं। उदाहरण के लिए उर्दू के प्रसिद्ध लेखक जोगेंद्र पाल की लघुकथा ‘चोर’ को लिया जा सकता है। रचना है—

मैं अचानक उस अंगूर बेचने वाले बच्चे के सिर पर जा खड़ा हुआ।

“क्या भाव है?”

बच्चा चौंक पड़ा और उसके मुँह की तरफ उठते हुए हाथ से अंगूर के दो दाने गिर गए।

“नहीं साहब! मैं खा तो नहीं रहा था…”

शीर्षक के बिना इस रचना के अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं हैं. लेकिन जब लेखक ने इसको शीर्षक ‘चोर’ दिया तो अर्थ स्पष्ट हो गए। विचार कीजिए, अगर इस रचना का शीर्षक ‘बच्चा’, ‘अंगूर’ या फिर ‘जूठे अंगूर’ रख दिया जाए तो क्या इसके अर्थ बदल नहीं जाएँगे?

यह केवल शुरुआत है। इस सम्बन्ध  में बहुत विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

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लघुकथा;कुछ अनुत्तरित प्रश्न

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कथानक के दृष्टिकोण से लघुकथा में एक घटना या एक बिम्ब को उभारने की अवधारणा सार्थक है। अधिक स्पष्ट रूप से कहा जाए तो एक या दो घटनाएँ होने पर भी उनमें बिम्ब प्रतिबिम्ब जैसा सम्बन्ध हो अर्थात् लघुकथा का समग्र प्रभाव एक पूर्ण बिम्ब का निर्माण करता हो।

प्रकृति -पात्र कहानियों में भी उपादान नायक बनते रहे हैं ]परन्तु बहुत ही कम। ‘उद्भिज परिषद्’ इसका सार्थक उदाहरण है। लघुकथा में ये केन्द्रीय पात्र की भूमिका निभा सकते हैं जैसे लघुकथा-‘आदमी और पेड़’ , लेकिन यह कोई विशिष्ट विभाजन नहीं है। हम जड़ और चेतन जगत के समस्त उपादानों को उनके मानवीकृत रूप में प्रस्तुत करते हैं। अतः ‘मानवरूप’ होना ही अभीष्ट है।

शास्त्रीय शब्दावली में कहा जाए-शब्द का स्थान शब्दकोश में है। किसी वाक्य का अंग बन जाने पर वह ‘पद’ कहलाता है। कभी-कभी कोई वाक्य अपने पूर्वापर सम्बन्ध के-के कारण ‘पद’ तक भी सीमित रह सकता है। अतः वहाँ वह पदरूप होते हुए भी वाक्य ही है। वाक्य भाषा की सार्थक इकाई है ;अतः वाक्य का होना अनिवार्य हैं । कथोपकथन लघुकथा का अनिवार्य तत्त्व नहीं है;लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जहाँ कथोपकथन लघुकथा को तीव्र बना रहा हो ,उसे उस स्थान से बहिष्कृत कर दिया जाए.

काल-दोष’ न कहकर इसे’ अन्तराल’ कहा जा सकता है। दोष का किसी रचना के लिए क्या महत्त्व? अन्तराल को बिम्ब से जोड देना चाहिए.’ अन्तराल’बिम्ब को पूर्णता प्रदान करता है या उसे अस्पष्ट एवं अधूरा छोड़ देता है, यह देखना ज़रूरी है। अन्तराल की पूर्ति ‘पूर्वदीप्ति’ से हो सकती है। अगर पूर्वदीप्ति से भी खंडित बिम्ब पूर्ण नहीं होता ,तो अन्तराल की खाई लघुकथा को लील लेगी।

कथोपकथन कभी विचारात्मक होता है तो कभी घटनाक्रम की सूचना देने वाला या घटना को मोड़ देने वाला। कथोपकथन यदि घटना बिम्ब को उद्घाटित करता है तो इसे लघुकथा की परिधि में ही माना जाएगा। कथोपकथन से लघुकथा को पूर्णता प्रदान करना लेखक की क्षमता पर निर्भर है।

लघुकथा की भाषा सरल होनी चाहिए. पांडित्यपूर्ण भाषा सरल होनी चाहिए. पांडित्यपूर्ण भाषा लघुकथा के लिए घातक है। भाषा व्यंजनापूर्ण हो तो और अधिक अच्छा होगा लेकिन हर लघुकथा में ‘व्यंजना’ का आग्रह उसे दुरूह भी बना सकता है।

शैली तो कथ्य के रूप पर भी निर्भर है। एक ही व्यक्ति यार-दोस्तों में, माता-पिता के सामने, अपरिचितों के सामने, अलग-अलग ढंग एवं व्यवहार प्रस्तुत करता है। शैली-लघुकथाकार एवं कथ्य की सफल अभिव्यक्ति है। विषय एवं आवश्यकतानुसार उसमें बदलाव आएगा ही। यदि एक लेखक की सभी लघुकथाएँ (विषय वस्तु भिन्न होने पर भी) एक ही शैली में लिखी गई हैं तो वे ऊबाऊ शैली का उदाहरण बन जाएँगी।

श्रेष्ठ लघुकथा वह है, जो पाठक को बाँध ले। इसके लिए ऐसा कठोर नियम नहीं बनाया जा सकता कि सभी कथातत्त्व उपस्थित हों। सबकी उपस्थिति में भी लघुकथा घटिया हो सकती है। पात्र कथावस्तु, भाषा-शैली, उद्देश्य, वातावरण, संवाद, अन्तर्द्वन्द्व आदि आवश्यक तत्त्व संश्लिष्ट रूप में उपस्थित हो। ठीक ऐसे ही जैसे चन्द्रमा और चाँदनी-दोनों अलग-अलग होते हुए भी संश्लिष्ट हैं। एक की अनुपस्थिति / उपस्थिति दूसरे की भी अनुपस्थिति / उपस्थिति बन जाती है।

किसी विधा का मूल्यांकन उसके पाठक करते हैं। काजियों की स्वीकृति न होने पर भी लघुकथा निरन्तर आगे बढ़ती रही है। ‘काजी की मारी हलाल’ वाली स्थिति लघुकथा के साथ नहीं चलेगी। इस समय लिखने की बाढ़ आ रही है। बाढ़़़ थमेगी तो निर्मल जल ही बचेगा_ कूड़ा-कचरा स्वतः हट जाएगा। जीवन का आवेशमय, सार्थक एवं कथामय लघुक्षण अपनी तमाम लघुकथाओं के बावजूद इलेक्ट्रानिक ऊर्जा से कम नहीं। व्यंग्य-कहानी, उपन्यास लेख-किसी भी रचना में हो सकता है अतः लघुकथा के साथ ‘व्यंग्य’ विशेषण जोड़ना जँचता नहीं।

-0- (रचनाकाल-17-10-1987)

आकारगत लघुकथा के निहितार्थ

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कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता के आयोजन की रूपरेखा 2005 में हरिनारायण जी के साथ तय की गई थी। अक्टूबर 2006 में प्रथम प्रतियोगिता में पुरस्कृत रचनाओं की घोषणा हुई. इसमें अरुण मिश्र की ‘पावर विण्डो’ प्रथम घोषित किया गया था। यह देखकर सुखद अनुभूति हुई कि 19 जून 2019 को हिन्दी भवन, भोपाल में आयोजित लघुकथा-पर्व में अरुण मिश्र की ‘पावर विण्डो’ चर्चा में रही। लघुकथा को वहाँ उपस्थित श्रोताओं ने खूब सराहा और लघुकथा के समापन पर सभागार तालियों से गूँजता रहा। 2006 से इस प्रतियोगिता की निरंतरता बनी हुई है। जिसका श्रेय भाई हरिनारायण जी को जाता है। प्रतियोगिता में नए पुराने सभी कथाकार प्रतिभाग करते रहे हैं। पुरस्कृत लघुकथाएँ आज भी बहुत से पाठकों की पहली पसंद बनी हुई हैं। कथादेश की इस प्रतियोगिता के माध्यम से बहुत से नए लेखकों ने लघुकथा के क्षेत्र में पदार्पण किया और अपनी पहचान बनाई. पुरस्कृत लघुकथाएँ कथादेश में प्रकाशित होने के बाद लघुकथा डॉट कॉम के जरिए देश-विदेश के बड़े पाठक-वर्ग तक पहुँची।
इस प्रतियोगिता को उत्कृष्टता प्रदान करने में निर्णायक मण्डल की भी महती भूमिका रही है। 2006 से अब तक निर्णायक मण्डल में निम्न हस्ताक्षर रहे-

मैनेजर पाण्डेय, योगेन्द्र आहूजा, आनंद हर्षुल, सत्यनारायण, महेश कटारे, जितेन्द्र रघुवंशी, विभांशु दिव्याल, श्याम सुन्दर अग्रवाल, गौतम सान्याल, सुरेश उनियाल, हृषिकेश सुलभ, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ सुकेश साहनी, राजकुमार गौतम, सुभाष पंत, भालचंद जोशी, श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ , एवं हरिनारायण।

आर्य स्मृति साहित्य सम्मान 2000 के अवसर पर बोलते हुए राजेन्द्र यादव जी ने कहा था, ” सौ-सवा सौ लघुकथाएँ हर महीने आती हैं और उनमें कहीं कोई गहराई, कहीं कोई छूनेवाली बात नहीं होती। यह बात थोड़ी-सी परेशान करने वाली है कि सौ लघुकथाएँ आपको हर महीने मिलें और उनमें आप एक या दो बड़ी मुश्किल से चुन सकें। लगभग 20 वर्ष बीत जाने के बाद कथादेश को प्राप्त होने वाली लघुकथाओं को लेकर यही बात हरिनारायण जी को भी हैरान करती है। कमोवेश इसी स्थिति का सामना मुझे और काम्बोज जी को लघुकथा डाट कॉम के लिए प्राप्त होने वाली रचनाओं को लेकर करना पड़ता है। कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता हेतु भी बहुतायत में रचनाएँ प्राप्त होती हैं। इनमें बहुत सीमित रचनाओं का चयन हो पाता है। 2019 की प्रतियोगिता हेतु लगभग 70 प्रतिशत रचनाएँ ई-मेल से और शेष डाक द्वारा प्राप्त हुई. इनमें से निम्न लघुकथाएँ निर्णायकों के पास भेजने हेतु चयनित की जा सकीं-

वर्चुअल वर्ल्ड (मार्टिन जॉन) , शुभकामना सन्देश (शशिभूषण बडोनी) , आइपैड (रेणू श्रीवास्तव) , मौसम (विनय सिंह) , नेकी की दीवार (लवलेश दत्त) , बदला (विनोद कुमार दवे) , आत्मग्लानि (सारिका भूषण) , उतरन (डॉ.पूनम सिंहा) , प्यार की महक (सविता मिश्रा) , हार (राम करन) , पतंग (अदिति मेहरोत्रा) , बदलते करवटों के निशां (अणु शक्ति सिंह) , बालिका दिवस (सुधा भार्गव) , छन्न (निरंजन धुलेकर) , अकीदत (नीतू मुकुल) , बड़ा कौन (सविता इन्द्र गुप्ता) , ज़िन्दगी की रफ्तार (प्रहलाद श्रीमाली) , यादों की बारिश (सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ ) , अष्टावक्र: उत्तर आख्यान (अभिषेक चंदन) , गिरा नागरिक (मुसाफिर बैठा) सर्व शिक्षा अभियान (पूरन सिंह)

प्राप्त सैकड़ों लघुकथाओं में से केवल 21 लघुकथाओं का चयन चिंतित करता है, विचार करने पर बाध्य करता है। लघुकथा अपने विकास-यात्रा में नित्य नये सोपान चढ़ रही है। साहित्य आजतक-2018 में पूरा एक सत्र लघुकथा पर केन्द्रित था। राष्ट्रीय फलक पर मान्यता की दृष्टि से लघुकथा के लिए इसे बड़ी उपलब्धि कहा जाएगा। लघुकथा कलश (सम्पादक-योगराज प्रभाकर) संरचना (संपादक-कमल चोपड़ा) जैसे आयोजन लघुकथा को लोकप्रियता और सम्मान दिलाने में निरंतर प्रयासरत हैं।

वर्तमान में लघुकथा के क्षेत्र में सर्वाधिक लेखक सक्रिय है। सोशल मीडिया पर उनकी आपाधापी को देखकर डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’ को ‘करमवा बैरी हो गए हमार’ जैसा लेख लिखना पड़ता है। लघुकथा प्रतियोगिता हेतु प्राप्त अधिकतर लघुकथाओं का चयन क्यों नहीं हो पाता, इस पर 2017 में पुरस्कृत लघुकथाओं पर टिप्पणी ‘लघुकथा का गुण धर्म और पुरस्कृत लघुकथाएँ’ में विस्तार से लिखा गया था, इसे लघुकथा डाट कॉम, नवम्बर 2017 अथवा गद्यकोश पर पढ़ा जा सकता है।

आकारगत लघुता का अतिक्रमण करने वाली रचनाएँ प्रथम द्रष्टया ही चयन प्रक्रिया से बाहर हो जाती हैं। यहाँ आकारगत लघुता के निहितार्थ समझने होंगे। पिछले चार दशकों में लघुकथा अपनी पहचान बनाने में सफल रही है। कहना न होगा इसके पीछे वर्षों से विभिन्न लघुकथा लेखक सम्मेलनों और कार्यशालाओं में किया गया गम्भीर विमर्श है। इधर फेसबुक पर लघुकथा के आकार को लेकर निरर्थक बहस चल पड़ी है, जो लघुकथा लेखन की ओर प्रवृत्त नये लेखक को भ्रमित करने का काम कर रही है। लघुकथा का ‘शिल्प विधान’ में डॉ. शंकर पुणतांबेकर कहते हैं-लघुकथा में प्रधान तत्त्व उसकी लघुता है। यही इसे अन्य विधाओं से अलगाती है। कहानी की भाँति तथ्यान्विति लघुकथा में भी है; पर लघुकथा में लघुता या सामासिकता होती है, इसलिए वह कहानी से भिन्न है। लघुकथा छोटी है, पर हम उसे शब्दों में नहीं बाँध सकते। ऐसा करना अवैज्ञानिक और असाहित्यिक काम होगा।

श्याम सुन्दर अग्रवाल इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-जहाँ तक मुझे याद है वर्ष 1993 में कोटकपूरा में हुए अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन में इस विषय पर बहुत बहस हुई थी। इस दो दिवसीय सम्मेलन में सर्वश्री सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ , डॉ. अशोक भाटिया, सुभाष नीरव, डॉ. श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’, डॉ. रूप देवगुण सहित बहुत-से लघुकथाकारों ने भाग लिया था। तब इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि लघुकथा की शब्द संख्या निश्चित नहीं की जा सकती। रचना का कथ्य ही उसके आकार को तय करता है। मेरे विचार में समस्या लघुकथा की शब्द-संख्या को लेकर है ही नहीं। समस्या तब पैदा होती है जब लेखक लघुकथा को कहानी की सीमा में प्रवेश कराता है। आज सब से बड़ी ज़रूरत लघुकथा के तत्त्वों को जानने की है। लघुकथा के गुणों को समझ लेंगे तो शब्द-संख्या की समस्या आएगी ही नहीं।

श्यामसुंदर अग्रवाल जिस समस्या का उल्लेख कर रहे हैं, रमेश बतरा वर्षों पहले उसका समाधान कर चुके हैं-“कथ्य बहुमुखी हैं, तो उसे विस्तृत फलक पर (कहानी) लिख लिया जाए और कथ्य किसी एक मनःस्थिति क्षण के व्यवहार की तरफ संकेत करता है, तो उसे थोड़े (लघुकथा) में लिख लिया जाए.” रमेश बत्तरा के इस कथन ‘थोड़े में लिख लिया जाए’ को समझने के लिए लघुकथा को शब्द सीमा में बाँधने की वकालत करने वाले विद्वान् मित्रो को उनकी ‘कहूँ कहानी’ ‘शीशा’ और ‘बीच बाजार’ जैसी लघुकथाएँ पढ़नी चाहिए। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का अभिमत है-‘वाक्पटुता क्या है-उत्तर है-मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता: अर्थात् जो नपा-तुला (मितं) हो और किसी विषयवस्तु का सारांश नहीं, वरन् सारयुक्त अर्थात् सार्थक हो (सारं) वही वाक्पटुता है। यह कथन लघुकथा की लघुता पर पूर्णरूपेण लागू होता है। कथ्य की प्रस्तुति का यह कसाव ही उसके आकार का निर्धारण करता है। यही उसकी आकारगत सीमा है, यही उसकी पूर्णता है।’

मण्टो और खलील जिब्रान की दो तीन पक्तियों की लघु रचनाओं की तर्ज़ पर लघुकथाएँ लिखने की होड़-़सी दिखाई देती है। ऐसी रचनाएँ बहुत ही कमजोर और हास्यास्पद होने के कारण प्राथमिक चयन से ही बाहर हो जाती हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इस तरह की लघुकथाएँ नहीं लिखी जानी चाहिए. इस तरह का सर्जन बहुत ही श्रम की माँग करता है। इसमें तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा संतुलन ज़रूरी है। कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता 2018 में पुरस्कृत रचनाओं पर टिप्पणी ‘रचनात्मकता की उष्मा से अनुस्यूत पुरस्कृत लघुकथाएँ’ में इस पर उदाहरण सहित विस्तृत चर्चा की गई है। इसी प्रकार दो परस्पर विरोधी घटनाओं वाली रचनाएँ शुरूआती दौर में प्रतियोगिता से बाहर हो जाती हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. श्यामसुंदर ‘दीप्ति’ कहते है, “लघुकथा को अब दो परस्पर विरोधी घटनाओं की तुलना वाले परिवेश से बाहर आना चाहिए व अपने लघु आकार के मद्देनजर, जल्दी से समेटने या परिणाम देने के मकसद से, रचना के अन्त को असहज, अस्वीकार्य, यथार्थ के दूर ले जाने का लोभ भी नहीं पालना चाहिए.”

कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में तीन निर्णायकों (कथाकार देवेन्द्र, सुकेश साहनी और डॉ.श्यामसुंदर ‘दीप्ति’ ) द्वारा दिए गए अंकों के आधार पर प्रथम 10 पुरस्कृत लघुकथाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) हार (राम करन) , (2) बड़ा कौन (सविता इन्द्र गुप्ता) , (3) बदला (विनोद कुमार दवे) , (4) अकीदत (नीतू मुकुल) , (5) छन्न (निरंजन धुलेकर) , (6) यादों की बारिश (सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ ) , (7) प्यार की महक (सविता मिश्रा) , (8) ज़िन्दगी की रफ्तार (प्रहलाद श्रीमाली) (9) अष्टावक्र: उत्तर आख्यान (अभिषेक चंदन) (10) पतंग (अदिति मेहरोत्रा) ।

निर्णायकों और कथादेश परिवार की ओर से पुरस्कृत सभी लघुकथा लेखकों को हार्दिक बधाई! आगे चर्चा करने से पूर्व स्पष्ट करना आवश्यक है कि सभी पुरस्कृत लघुकथाएँ स्वागत योग्य हैं। खूबियों के कारण निर्णायकों ने इनका चयन किया। पुरस्कृत रचनाओं पर चर्चा की जाती रही है, उसका सदैव ही स्वागत हुआ है। यहाँ चर्चा का उद्देश्य लघुकथा के विकास के लिए बेहतर जमीन तैयार करना होता है, न कि रचनाओं की कमजोरियाँ गिनाना। वैसे भी आम पाठक को लघुकथा के लिए निर्धारित मानदण्डों से कोई लेना-देना नहीं होता है। सबसे बड़ा निर्णायक तो रचनाओं का पाठक ही होता है।

हार (राम करन) , बड़ा कौन (सविता इन्द्र गुप्ता) , बदला (विनोद कुमार दवे) , अकीदत (नीतू मुकुल) , अष्टावक्र: उत्तर आख्यान (अभिषेक चंदन) यानी कुल पुरस्कृत लघुकथाओं का 50 प्रतिशत में ‘ संवाद शैली, को प्रधानता दी गई है। लघुकथा के गुण धर्म को देखते हुए संवाद शैली लघुकथा सर्जन के लिए बहुत उपयुक्त है। आकारगत लघुता को सुनिश्चित करते हुए चुस्त संवादों के माध्यम से कथ्य विकास करते हुए इसमें प्रभावी प्रस्तुति संभव है।

संवाद शैली का उत्कृष्ट उपयोग बड़ा कौन (सविता इन्द्र गुप्ता) में देखा जा सकता है। बाल-श्रम अधिनियम का पालन करते हुए एक कारखाने पर छापा मारकर कुछ बच्चे पकड़े जाते हैं। बच्चों को चेतावनी देकर उनके घरवालों को सुपुर्द किया जा रहा है। वहीं एक दस साल के बच्चे और सिपाही के बीच संवाद से बहुत ही प्रभावी लघुकथा का सर्जन हुआ है, जो अंत में पाठक को बहुत भावुक ही नहीं, प्रेरित भी करती है। बच्चा सिपाही को बताता है कि उसका पिता पिछले साल ट्रक से कुचलकर मर गया, माँ को बुलाने की बात पर बच्चा रोते हुए कहता है कि मुझे पुलिस ने पकड़ लिया है, माँ सुनेगी तो जान दे देगी, अब आगे की पक्तियाँ जस की तस प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ-

“और कौन है घर में।

“छोटी बहन है साहब। लेकिन अब तक वह आँगन-बाड़ी जा चुकी होगी।” बहन का ख़्याल आते ही बच्चे का रोना बंद हो गया। चेहरे पर अचानक अभिभावक जैसे फ़िक्र के भाव आ गए।

“और कोई बड़ा है घर में, जो तुझे यहाँ से ले जाए?” सिपाही ने झुँझलाकर कहा, वह असमंजस में था कि इस बच्चे का क्या करे।

“अब तो मैं ही अपने घर का बड़ा हूँ साब।” इस बार बच्चे की आवाज आत्मविश्वास से लबरेज थी।

इस लघुकथा को विषय की नवीनता और महीन बुनावट के लिए भी जाना जाएगा। जब वार्त्तालाप के दौरान बहन का सन्दर्भ आता है, तो लेखिका ने बच्चे का रोना एकाएक बंद करवा दिया और चेहरे पर अचानक अभिभावक जैसे भाव उत्पन्न करवाकर लघुकथा में नेपथ्य के महत्त्व को उजागर किया है। ये पंक्तियाँ पढ़ते ही पाठक का ध्यान वर्तमान में देश में बच्चों के साथ हो रहे बलात्कारों की ओर चला जाता है। लघुकथा का समापन सकारात्मक है और जीवन में संघर्ष की प्रेरणा देता है। सोशल मीडिया पर अपनी उथली सोच के साथ अधकचरी लघुकथाएँ प्रस्तुत करके दम्भ भरने वालों को ऐसी लघुकथाओं से प्रेरणा लेनी चाहिए। ‘लघुकथा में संवाद’ पर डॉ. नागेंन्द्र प्रसाद सिंह के प्रस्तुत विचार आकारगत लघुता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं-

उपन्यासों एवं कहानियों में संवादों की कालावधि तथा विस्तार का पर्याप्त अवसर होता है। लघुकथा में यह अवसर बहुत संकुचित, संक्षिप्त, संकेन्द्रित, व्यंजक, सांकेतिक, प्रतीकात्मक, ध्वन्यात्मक एवं प्रभावपूर्ण होता है। इसलिए संवाद-संरचना की दृष्टि से लघुकथा में संवादों का विशिष्ट महत्त्व होता है। संवाद लघुकथाकार को बहुत सारे विवरणों (नरेशन्स) को स्वयं कहने से बचाते हैं, जिससे लघुकथाकार की व्यक्तिगत उपस्थिति तथा कथा-विकास में लेखकीय हस्तक्षेप घटता है। लघुकथा के संवाद लघुकथाकार द्वारा थोड़ी सावधानी से संयस्त किए जाएँ, तो कथा-यष्टि में कसाव, गठीलापन तथा संतुलन बढ़ता है।

हार (राम करन) निर्णायकों के सम्मिलित अंकों के आधार पर प्रथम स्थान पर रही। नए विषयों की तलाश के संन्दर्भ में भी इस लघुकथा को रेखांकित किया जा सकता है। इसमें दो पात्रों की मनःस्थिति का चरित्रांकन हुआ है। जेठ की दुपहरी में साहब (लघुकथा में यह अनकहा है) के सैंडिल का तल्ला निकल जाता है। वे समीप ही बैठे मोची को मरम्मत के लिए कहते हैं। मोची पूछता है-‘सिल दूँ?’ वे कहते है-‘नहीं भाई, लुक बिगड़ जाएगा’। इस संवाद के माध्यम से लेखक उनके ओहदे और सोच को प्रकट करने में सफल रहा है। जब मोची संकेत से उन्हें दूसरी जगह मरम्मत करा लेने के लिए कहता है, तो उनका तिलमिला जाना यह सिद्ध करता है कि उनको ‘न’ सुनने की आदत नहीं है। वह उसके सामान का निरीक्षण करते हैं और उसके दोबारा कहने पर भी दूसरे मोची के पास नहीं जाते। छोटे-छोटे संवादों और घटनाओं से दोनों पात्रों का चरित्रांकन करते हुए कथा आगे बढ़ती है। जब वह पता लगा लेते हैं कि उसके पास चिपकाने वाला गोंद नहीं है, तो भी दूसरी जगह न जाकर मोची को रुपये देकर गोंद मँगवाते हैं। पैसे देकर गोंद मँगवाने के बाद साहब उस मोची से इस प्रकार का व्यवहार करने लगते हैं, जैसे उसे खरीद लिया हो। सवाल पर सवाल। मोची शांत भाव से उनके प्रश्नों का उत्तर देता जाता है और कहीं भी अपना आपा नहीं खोता। साहब को उम्मीद थी कि गोंद के पैसे देते ही वह उनके आगे जी हुज़ूरी करते हुए बिछ जाएगा; पर ऐसा कुछ भी होते न देख खुद को पराजित महसूस करते हैं। यहाँ लेखक का उद्देश्य ऐसे तथाकथित गरीबों के हितैषियों को बेनक़ाब करना है, जिसमें उसे सफलता मिली है।

‘बदला’ (विनोद कुमार दवे) संवाद शैली में लिखी गई है। उसमें नवीनता यही है कि मास्साब के चरित्र के बदलाव को संवादों के माध्यम से उजागर किया गया है। मिठू बेटा, मिठिया और फिर हराम के पिल्ले! जैसे सम्बोधनों से उत्तरोत्तर कथ्य-विकास किया गया है। लघुकथा को और अधिक कसा जाना चाहिए. एक दिन, कुछ दिनों बाद, काफी दिनों बाद, महीने भर बाद, कुछ महीनों बाद जैसे शब्दों की कोई ज़़़रूरत नहीं थी, इनके बगैर भी लघुकथा अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहती। लघुकथा का सकारात्मक पक्ष यह रहा कि लेखक ने शुरू से अंत तक कहीं भी मास्टर जी की अथवा छात्र की जाति का उल्लेख नहीं किया है। यहाँ ‘बदला’ शीर्षक रचना को कमजोर करता है। अंत में मास्टर जी की हिम्मत नहीं हो रही थी अधिकारी महोदय से नाम पूछने की। बस उनके कानों में बरसों पुरानी छात्र की आवाज ‘गूँज’ रही थी। ‘गूँज’ शीर्षक लघुकथा के कथ्य के अधिक करीब है। लघुकथा पढ़ते हुए बीसवी सदी की प्रतिनिधि लघुकथाएँ में संकलित रंगनाथ दिवाकर की ‘ गुरु दक्षिणा’ याद आती है।

अकीदत (नीतू मुकुल) मानवता के पक्ष में खड़ी सशक्त लघुकथा है। यह सच है कि वोटों की राजनीति ने धर्म के आधार पर समाज को बाँटने का काम ही नहीं किया; बल्कि मानव मन में ऐसा डर पैदा कर दिया है कि उसका जीवन दुष्कर हो गया है। इस विषय पर बहुत-सी कहानियाँ / लघुकथाएँ मिल जाएँगी; पर इस रचना में एक घटना के माध्यम से उस सच्चाई को प्रकट किया गया है, जो जीवन का आधार है। माँ बहुत खोजबीन के बाद एक ऑटो चुनती है। गंतव्य पर पहुँचकर जब ऑटो वाले को पेटीएम से भुगतान सम्भव नहीं होता तो ऑटो वाला गुस्साते हुए बोला…”या अल्लाह! एक तो मेरे ऑटो में जबरदस्ती बैठते हैं, फिर कहते है पैसा नहीं हैं, पर्स भूल गए. खुदा ऐसी सवारी ना दिया करें।” यह सुनते ही आई का माथा ठनका।

“तू मुसलमान है…?”

“हाँ तो क्या…?”

“लेकिन तू तो गणेश की मूर्ति लगाए है।”

“इस ऑटो का मालिक हिन्दू है और मैं मुसलमान हूँ।”

छन्न! (निरंजन धुलेकर) विषय की नवीनता के कारण निर्णायकों का ध्यान खींचने में सफल रही। बैंड में झाँझ बजाने वाले की मनःस्थिति का बहुत ही मार्मिक और सशक्त चित्रण हुआ है। इस तरह के विषय लघुकथा में आने चाहिए. ऐसी लघुकथाएँ ही विधा की ताकत का अहसास कराती हैं। कुछ पंक्तियाँ रेखांकित करने लायक हैं-

मैं तो उनको ढूँढ़ता, जो खुश न हों, मदहोश ज़रूर हों और दस और बीस के नोट में फ़र्क़ भूल चुके हों। वह लोग, जिन्हें अपना रुतबा सबके सामने दिखाने के लिए, मेरी ज़रूरत होती!

साथ बिगुल वाले चचा चलते, फूँकते बजाते दमें की बीमारी हो गई, पर इलाज के पैसे के लिए…बजाते चल रहे।

बड़े ढोल वाले भैया ने इतना ही सिखाया कि जब मैं बोलूँ, ‘मार’ , तब दोनों हाथ ऊपर उठाकर जोर से मारना। बस उनकी इस मार-मार से, ज़िन्दगी से भिड़ना सीख गया।

यादों की बारिश (सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ ) लघुकथा उसमें निहित संवेदना के कारण प्रभावित करती है। यह रचना हर उस पाठक को अपनी कथा लग सकती है, जो गाँव-घर छोड़कर महानगरों के मायाजाल में जीने को अभिशप्त हैं। दिन बीतते जाते हैं और माँ के बुलाने पर भी बेटा उसके पास गाँव नहीं जा पाता। नहीं समझ पाता कि मोबाइल पर बातें हो जाने पर भी माँ चिट्ठियाँ क्यों भेजती रहती है। रेत-से फिसल जाते हैं दिन हाथों से और माँ चली-चली जाती है दुनिया से। कथा नायक टी.वी. पर अपने गाँव के चित्र देखता है, बाढ़ सब कुछ बहाकर ले जा रही थी…वह फूट फूटकर रो पड़ता है। उसे लगता है जैसे माँ दो महीने पहले नहीं बल्कि आज ही मरी हो।

सविता इन्द्र गुप्ता और सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की लघुकथाएँ पाठक के मन में संवेदना जगाने में सफल है। संवेदना के महत्त्व को उजागर करते हुए डॉ. पुणतांबेकर लिखते है-राजा मर गया और रानी मर गई’, मात्र स्टोरी या सामान्य घटना है, जिसमें से कोई संवेदना नहीं जागती, किन्तु वहीं यह कहा जाए कि राजा मर गया और इस कारण रानी भी मर गई, तो यह प्लॉट या असामान्य घटना है, जिसमें से संवेदना जागती है। इस कसौटी से हमारी अधिकतर लघुकथाएँ लघुकथा नहीं रह जातीं। फिर वे भले ही’ लघु’हों और उनमें’ कथा’भी हो; इसीलिए आज लिखी जा रही ढेरों कथाएँ’ लघु ‘और’ कथा’दोनों होकर भी’ लघुकथा’ नहीं हैं।

प्यार की महक (सविता मिश्रा) पारिवारिक जीवन पर सकारात्मक सोच की सशक्त लघुकथा है। यह लघुकथा हर पाठक को अपनी कथा लग सकती है। लेखिका ने घर परिवार के अपने अनुभवों पर कलम चलाते हुए परिवार में प्यार के महत्त्व को रेखांकित किया है। इस लघुकथा में बच्चों के माध्यम से यह भी संदेश देने का प्रयास किया गया है कि माँ-बाप के बीच झगड़े के कारण सबसे ज़्यादा बालमन प्रभावित होता है।

‘ज़िन्दगी की रफ़्तार (प्रहलाद श्रीमाली) में लेखक ने महानगर की रेलमपेल में आत्मकेन्द्रित होते मनुष्य की स्थिति का चित्रण किया है। जीने के लिए संघर्षरत आम आदमी न चाहते हुए भी संवेदनहीन होता जा रहा है। जिन्हें महानगर में इन परिस्थितियों में रहने का अवसर मिला है, वह महानगर इस ‘रफ्तार’ के फलस्वरूप आनेवाली भयावह स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं। आकारगत लघुता को सुनिश्चित करती एकदम कसी हुई लघुकथा। लोकन ट्रेन पर चढ़ने वाला और उसे बचाकर ट्रेन में खींचने वाला दोनों ही आम आदमी हैं। बचाने वाला व्यक्ति चढ़ने वाले व्यक्ति को जलती आँखों से घूरते हुए फूट पड़ता है-“कमबख्त! अभी गिरकर मर जाता, तो तेरा तो कुछ नहीं बिगड़ता! लेकिन साले ट्रेन लेट हो जाती, तो हमारा रूटीन बिगड़ जाता। टाइम टेबल टूट जाता। कितना नुकसान होता पता है!” यहाँ एकाएक डॉ. शंकर पुण्तांबेकर की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं-लघुकथा की संक्षिप्तता केवल उसका लघु आकार नहीं, बल्कि उसमें सामविष्ट प्रभावात्मकता भी है। लघुकथा धनुष की वह टंकार है, जहाँ से चला बाण दूर कहीं भेदता है और गहरे भेदता है। अष्टावक्र: उत्तर आख्यान (अभिषेक चन्दन) शिक्षा-जगत् पर लिखी गई सशक्त लघुकथा है। ‘आधुनिक शिक्षाजगत् की विकृतियों का सजीव चित्रण’ विषयक आलेख में डॉ. कविता भट्ट लिखती हैं-‘मूल प्रश्न है; शिक्षण एवं अधिगम की प्रक्रिया का अत्यंत भयावह तथा जटिल होना। प्रत्येक बालक-बालिका की अधिगम क्षमता एवं बोधगम्यता बिल्कुल भिन्न होती है। पारिवारिक परिदृश्य, सामाजिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ नितान्त भिन्न होते हुए भी प्रत्येक छात्र-छात्रा को विद्यालयीय शिक्षा प्रणाली में एक ही डण्डे से हाँका जाता है। यह आधुनिक शिक्षा-पद्धति का ऐसा दोष है; जिसका परिणाम आज किशोर एवं युवा वर्ग को अधिक से अधिक आत्महत्याओं, मानसिक कुंठाओं-विकृत मनोविकारों के रूप में भोगना पड़ रहा है।’ अभिषेक चन्दन की लघुकथा इस ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रही है।

हम सभी मानते हैं कि वास्तविक जीवन की पाठशाला से बड़ी कोई पाठशाला नहीं है। संवाद शैली में लिखी गई इस लघुकथा में आचार्य जी और बालक के बीच रोचक वार्त्तालाप पूरी कक्षा को उनके पढ़ाए गए पाठ से इतर वास्तविक दुनिया में ले जाता है, जहाँ टेढ़े हाथ पैर वाला लड़का है, जो चाट पकौड़ी बेचता है, गली-गली, शीला के घर के आगे भी। जब शीला चाट नहीं खाती है तो मुँह फुला लेता है, कुएँ पर बैठ जाता है। फुचका के ठेले के पास रहता है, किताब कभी नहीं पढ़ा। अष्टावक्र से सम्बंधित सभी सवालों के जवाब सुनकर बालक का रचनात्मक-कौशल आचार्य जी को सोचने पर विवश कर देता है कि उनके पढ़ाए किताबी आख्यान से अधिक सार्थक उस बालक के माध्यम सुना गया जीवन का वास्तविक पाठ है।

विषय में नवीनता की दृष्टि से ‘पंतग’ (अदिति मेहरोत्रा) को बहुत ऊपर रखना चाहूँगा। लघुकथा में अति सांकेतिकता के चलते यह लघुकथा सभी निर्णायकों का ध्यान आकृष्ट नहीं कर पाई. लेखिका ने लघुकथा के प्रस्तुतीकरण पर भी बहुत श्रम नहीं किया। इन सब कमियों के बावजूद अपने कथ्य के कारण प्रभावी बन पड़ी है। यहाँ ‘पतंग’ शीर्षक बहुत उपयुक्त है। लड़की ने गर्दन पर उड़ती पतंग का टैटू बनवा रखा है। कथा में नायिका समाज की पारम्परिक सोच, अपेक्षाओं और अपनी आधुनिक सोच के बीच बहुत ही समझदारी से सामंजस्य बिठाती है। वह उन आधुनिक युवक-युवतियों को बहुत ही सकारात्मक संदेश देने में सफल है, जो अपने माता पिता के पास गाँव जाने से कतराते ही नहीं, उसे बहुत बड़ी सजा समझते हैं। ‘पतंग की उड़ान’ को कथा में जगह-जगह सिद्ध भी किया गया है-

रेशमी, लेस लगे, खूबसूरत लाल-काले, खुबानी त्वचा पर फबने वाले (अंडर-गारमेंट्स) यहीं घर पर अकेले दिवाली मनाएँगे। ऐसा सोचते ही हँसी छूटती है। अमर पूछता है-क्या हुआ। उँगलियों के बीच दो-चार को पकड़ती हूँ और कहती हूँ “ये अकेले दिवाली मनाएँगे।” वह भी हँस देता है। हवा-सी हँसी, पतंग के नीचे की हवा।

एक अगूँठी, जो अमर ने पसंद की थी और एक पतली सोने की चेन जो मैंने अपनी पहली सैलरी से ली थी, उसी की आदत है। बाकी सब फँसता है, खींचता है, रोकता है। पतंग हल्की होगी, तो उड़ेगी।

मेकअप बैग से फाउंडेशन की शीशी निकालती हूँ और अमर को पकड़ाती हूँ। पीछे घूम, गर्दन झुका उससे कहती हूँ, “लगाओ, पार्टनर इन क्राइम!” “क्या ज़रूरत है?” कहते हुए उसकी गीली उँगिलयाँ गर्दन को छूती हैं। गर्दन पर बना उड़ती पतंग का टैटू धीरे-धीरे हल्का हो रहा है। पूरी तरह से छुपेगा नहीं; पर घूँघट से ढका इतना हल्का फिलहाल चलेगा।

आकारगत लघुकथा की अनिवार्यता के कारण ही लघुकथाओं में गजलों, दोहों जैसी बारीक खयाली की बात की जाती है। पुरस्कृत सभी रचनाएँ आकारगत लघुता की दृष्टि से लघुकथा की परिधि में आती है। यहाँ आकारगत लघुता की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि जब कोई घटना स्वाभाविक रूप से लेखक के भीतर सर्जन की आँच में पककर लघुकथा के फॉर्म में ढलती है तो कैमिस्ट्री की भाषा में उसमें नख से शिख तक ‘सामग्री की सान्द्रता’ होनी चाहिए. यह टिप्पणी पहले भी कई बार पेश की गई है; पर थोड़ा और स्पष्ट करना ज़रूरी है। जब नख से शिख की बात है, तो लघुकथा के शीर्षक से समापनबिंदु तक पूरी बॉडी (शब्द-शब्द) की बात हो रही है। यह कार्य लेखक अपनी रचना का सम्पादन करते हुए भी कर सकता है। जो बात आप चार पाँच पंक्तियों (कपसनजमक / पतला) में कह रहे हैं। उसे और भी प्रभावी तरीके से एक वाक्य (बवदबमदजतंजम / सान्द्र) में कहकर इस ‘सामग्री की सान्द्रता’ को समझा जा सकता है। यहाँ कुछ वाक्यों को संक्षिप्त / छोटा करने की बात नहीं है। हंस, अप्रैल 2013 में प्रकाशित लघुकथा ‘आधी दुनिया’ का जो विश्लेषण लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर भगीरथ परिहार ने किया है, उससे इसको बखूबी समझा जा सकता है। प्रस्तुत है उस विश्लेषण का एक अंश। इसमें इटैलिक और बोल्ड पंक्तियाँ लेखक की हैं और शेष टिप्पणियाँ भगीरथ की हैं-

शादी से पहले: अवसर है लड़की देखने का।

जब लड़की को लड़केवाले देखने आते है, तो लड़की को कैसे देखते हैं …साड़ी पहनकर दिखाओ, लूज़ फ़िटिंग के सूट में फ़िगर्स का पता ही नहीं चलता। (जैसे इन्हें बहू नहीं मॉडल चाहिए, फैशनेबल गुडिया चाहिए) …चलकर दिखाओ. (कहीं लँगडी तो नहीं है) …लम्बाई? ऐसे नहीं-बिना सैंडिल के चाहिए. (कहीं नाटी तो नहीं है) …मेकअप तो नहीं किया है न? …पार्क में चलो, चेहरे का रंग खुले में ही पता चलता है। (यानी गोरी है कि साँवली, उन्हें तो गोरी ही चाहिए) …बड़ी बहन की शादी में क्या दिया था?। (यह सब देखने के बाद बताओ-बड़ी बहन की शादी में कितना मालपत्ता दिया था, ताकि हमें अनुमान लग सके कि हमें कितना मिलेगा) … क्या-क्या पका लेती हो? … (पक्का है उसका जीवन रसोईघर में ही बीतना है) …घर सम्हालना आता है? आज के समय में नौकर-मेहरी रखना ‘सेफ़’ नहीं है। (यानी हम नौकर नहीं रखेंगे। तुम्हें ही घर संभालना है, यानी बिना तनखा की महरी बनकर रह जाएगी। उन्हें गोरी, लम्बी और अच्छे फिगर वाली लड़की चाहिए, जो पाक कला में प्रवीण हो और घर को अकेले सँभाल सके.)

अब अंत में लघुकथा में चरित्रांकन की बात करना भी ज़रूरी लगता है॥ डॉ. शमीम शर्मा लिखती हैं-‘कहानी में एक पात्र के समग्र या अधिकांश जीवन का चित्रण संभव है। लघुकथा में पात्र की किसी एक मनःस्थिति को ही लिखा-परखा जाता है और यह एक स्थिति भी इतनी प्रगाढ़ता से निरूपित की जाती है कि कई बार तो पात्र का समग्र चरित्र रेखांकित हो जाता है। इस सन्दर्भ में प्रबोध कुमार गोविल की’ माँ’एक बेजोड़ मिसाल है।’ पुरस्कृत लघुकथाओं में हार (राम करन) में एक ही लघुकथा में दो पात्रों (साहब और मोची) की मनःस्थिति का चरित्रांकन प्रभावी ढंग से हुआ है। लघुकथा जगत् में संतू, ओए बबली, ईश्वर, जुबैदा, नमिता सिंह, दुलारे जैसे पात्रों को लेकर लघुकथाएँ लिखी गई हैं। चरित्रांकन की दृष्टि से लेखक आकारगत लघुता का निर्वहन करते हुए इनमें कितनी डैप्थ दे पाए; इस पर अभी काम होना है। यहाँ इसी संदर्भ में कथादेश के दिसम्बर 1999 के अंक में प्रकाशित रघुनंदन त्रिवेदी की लघुकथा ‘निहाल चंद’ प्रस्तुत है, बहुत से प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे-

निहालचंद

निहालचंद दुनियादार आदमी हैं। दुनियादार होने का मतलब इतना ही कि वे मौके की नज़ाकत को पहचान लेते हैं, कहीं भिड़ गए हैं, कहीं झुक जाते हैं। रिश्वत के खिलाफ हैं; लेकिन ज़रूरत पड़े तो रिश्वत दे सकते हैं और ले भी सकते हैं, रेलों में इतनी भीड़ रहती है; लेकिन निहालचंद के कहे मुताबिक उन्होंने कभी खड़े रहकर ‘सफ़र’ नहीं किया। भावुक आदमी से सीट हासिल करनी हो तो बीमार की तरह मुँह लटकाए खड़े रहना चाहिए, ताकतवर आदमी को पटाना हो तो उसकी तारीफ़ करनी चाहिए, स्त्रियों के मामले में उनके साथ जो बच्चे होते हैं उन्हें पुल की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है, ये कुछ सूत्र हैं जिनके कारण निकाल चंद को अपनी यात्राओं में कभी कष्ट नहीं हुआ।

निहाल चंद सिगरेट पीते हैं; लेकिन माचिस नहीं रखते अपने पास। सिगरेट सुलगाने के लिए माचिस दूसरों से माँगी जा सकती है, ऐसा निहालचंद सोचते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें आदमी को देखते ही अन्दाजा हो जाता है कि कौन व्यक्ति बीड़ी पीने वाला है और कौन नहीं। सिगरेट पीने वाले लोग प्रायः माचिस नहीं रखते; जबकि बीड़ी पीने वाला आदमी माचिस ज़रूर रखता है, निहाल चंद अपने इस विश्वास के बूते पर कहते हैं कि जिस व्यक्ति का चेहरा कुछ झुलसा हुआ, होंठ काले, दाढ़ी बढ़ी हुई और आँखों में लाचार पीलापन हो, वह व्यक्ति ज़रूर बीड़ी पीने वाला होता है। ऐसे लोगों की जेबें अंट-शंट (और प्रायः फिजूल) चीजों से भरी हुई रहती हैं। बच्चे इस किस्म के लोगों से डरते हैं सफर में, परन्तु यह इस वजह से कि वे उनकी आँखों में जो लाचारी-सी होती है उसे पढ़ नहीं पाते। ये लोग मजदूर, किसान और अनपढ़ (या एक शब्द में कहा जाए तो गरीब) होने के कारण दो वजहों से माचिस दे देते हैं। एक वजह तो यह कि ऐसे लोग प्रायः झूठ नहीं बोल सकते, इसलिए जेब में माचिस होने पर इनकार नहीं करते। दूसरी वजह यह कि ऐसे लोग हमारे साफ-सुथरे कपड़ों ओर चमचमाते जूतों से इतने प्रभावित (या आतंकित) हो जाते हैं कि माचिस देकर आभार-सा महसूस करते हैं।

निहाल चंद कहते हैं कि अकसर उनका अन्दाजा सही साबित हुआ है। जीवन में अब तक वे कई अनजान लोगों से माचिस ले चुके हैं और लौटाते वक्त हमेशा उन्होंने शुक्रिया अदा किया है। यह अलग बात है कि माचिस देने वाला आदमी अगर दूसरे दिन रास्ते में मिल जाए तो निहालचंद उसे पहचान नहीं पाते। माचिस की वजह से बस एक आदमी का हुलिया ज्यों का त्यों याद है निहालचंद को। बकौल निहालचंद वह एक कमीना आदमी था, जिसके पास माचिस थी और जो अनपढ़ भी था, मगर माचिस देने से मुकर गया था। पीले दाँतों वाला वह सींकिया-सा आदमी, जिसने खाकी कुरता और धोती पहन रखी थी, जरा-सी आग बचाकर क्या हासिल कर लेगा, निहाल चंद कहते हैं यह बात आज तक उनकी समझ में नहीं आई.

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रामकुमार आत्रेय की दृष्टि में लघुकथा

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संचयन :  राधेश्याम भारतीय

साहित्य मेरे लिए हवा भी है, पानी भी है, और धूप भी। इन्हें पाने और सहेजने के लिए मैं अक्सर भटका भी हूँ और अटका भी। इसी राह पर आगे बढ़ते रहने पर मैंने झटका भी खाया है और पटका भी। इस प्रक्रिया के दौरान मेरे तन-मन पर गहरे निशान जन्म लेते रहे हैं। तन पर पड़े निशान तो समय पाकर क्रमानुसार मिटते रहे और फीके पड़ते रहे; परन्तु मन पर पड़े निशान निरन्तर सालते रहे हैं। उनका फीका पड़ना, मिटना, मेरे वश में कभी नहीं रहा। निशान पड़ने की यह प्रक्रिया आज भी जारी है। लगता है जब तक जिंदा रहूँगा तब तक जारी ही रहेगी।

इतना अवश्य है कि कभी-कभी मैं अपने हाथ में कलम उठा लेता हूँ और मन में पड़े निशानों को कागज पर उकेरने लगता हूँ। गरीबों, शोषितों तथा सीधे-साधे इन्सानों के मन पर पड़े गहरे घावों को भी मैं अपने ही घाव समझने लगता हूँ। सिर्फ समझने ही नहीं, महसूस भी करने लगता हूँ।  सही ढंग से लिखना मुझे कभी नहीं आया। मैं स्वयं भी बेडोल हूँ, मेरे अक्षर भी बेडोल हैं। आपको मेरी लघुकथाओं के बहुत सारे पात्र में मेरे जैसे ही मिलेंगे। उनके दुख दर्द  मात्र उनके नहीं बलिक मेरे भी बन गए हैं।

यदि मैं लघुकथाओं के बारे में बात करूँ तो बताना चाहूँगा, लघुकथा मेरे लेखन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। अभी तक मेरे चार लघुकथा संग्रह (इक्कीस जूते ,आँखों वाले अंधे, छोटी सी बात ,बिन शीशों का चश्मा) प्रकाशित हो चुके हैं। और सैकड़ों लघुकथाएँऔर है जिनसे एक पुस्तक प्रकाशित हो सकती है।

‘लघुकथा’ शब्द ’लघु’ तथा ’कथा’ के योग से बना है। ’कथा’ अपने आप में संज्ञा शब्द है और ’लघु’ उसका विशेषण है। परन्तु ’लघुकथा’ विशेषण और विशेष्य के योग से बना सिर्फ एक नया और सार्थक शब्द नहीं है। लघुकथा स्वयं को साहित्य की गरिमामय अभिवृ़द्धि करने वाली एक नई विधा बनकर सुस्थापित कर पाने में सफल सिद्ध हुई है।

 मेरी दृष्टि में लघुकथा ‘सीमित शब्दों’  में, सीमित संवाद  के साथ या सीमित रचना वातावरण के माध्यम से  एक  अनूठा प्रभाव पैदा करती है। जिसका  प्रभाव ऐसा होता है, मानो किसी ने किसी  के मुंह पर तमाचा जड़ दिया हो। यहां तमाचा जड़ने का अर्थ खेल खेल में तमाचा जड़ना नहीं बल्कि एक दम उसको आंदोलित करना है।’

          कहानी और लघुकथा में एक विशेष अंतर देखने को मिलता है।  कहानी में जो प्रभावोत्पादकता पांच-छह पेज में पैदा होता है। लघुकथा में वहीं प्रभाव एक या मुश्किल से दो पृष्ठ की लघुकथा में मिल जाता है।

यदि मैं लघुकथा लेखन प्रक्रिया की बात करूँ तो कहूँगा कि लेखन कार्य की शुरूआत  में मुझे लगता था कि लघुकथा लिखना आसान है। अनुभव से सीख पाया हूँ पर वास्तव में ऐसा है नहीं।  लिखने का तो सभी लघुकथाएँलिख ही रहे हैं। पर इतना आसान भी नहीं है लघुकथा लेखन।  लघुकथा का स्तरीय रूप टेढ़ा काम है। जितना इसमें लाघव है उतना ही टेढ़ापन ; जिसे साधना कठिन है। कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा सार्थक बात कहना ही लघुकथा की विशेषता है। लेकिन जब रचनाकार शब्दों से खेलने लगता है और सिर्फ कहन मानकर ही रचना का रूप दे देता है। इससे उसकी गम्भीरता एवं सार्थकता पर आघात पहुँचता है। और वास्तव में वह लघुकथा नहीं रह जाती। लघुकथा में उसके लघु या विस्तार पर अक्सर चर्चा होती रहती है तो इस पर मेरा मानना है कि कोई लघुकथा  शब्दों की निश्चित संख्या में नहीं बांधी जा सकती है क्योंकि रचना कोई गणित नहीं होती। गणित की अपनी एक सीमा होती है । रचना संवेदना होती है; भावना होती है और भावना, संवेदना को शब्द सीमा में बाँधना उसकी आत्मा को मार देना है।

यदि मैं लघुकथा में कथानक की बात करूँ तो किस्सागोई से जुड़ी जितनी भी विधाएँ  हैं, चाहे वह उपन्यास अथवा नाटक हो, कहानी अथवा एकांकीं हो सभी में ’कथानक’ की आवश्यकता रहती है। कथानक का फलक जैसा होगा वह विधा के रूप में वैसा आकार ग्रहण करता है। कथानक का होना लघुकथा में भी जरूरी है। कहने का मतलब यह है कि कथा तो यहां भी रहेगी ही। यह पहली शर्त है लघुकथा के लिए। कथा जहां होगी, वहां मनोरंजन भी होगा ही। मनोरंजन जहां होगा वहां मन को बिगाड़ने, सुधारने या फिर सन्तुष्ट करने की प्रक्रिया भी रहेगी ही। यदि ऐसा है तो फिर कथा भी लघुकथा में उपस्थित रहती ही है। स्थूल रूप में यदि कहा जाए कि जो अन्तर रूमाल और टॉवल में होता है, वही अन्तर लघुकथा और कथा में होता है। यहॉं इस बात पर ध्यान देना भी जरूरी है कि कई रूमाल मिलकर भी एक टॉवल का काम नहीं कर सकते और न ही एक टॉवल एक रूमाल की तरह आपकी जेब में आपके दिल के समीप रहने की औकात रख सकता है।

       मेरी प्रत्येक लघुकथा में  ’कथा’ निश्चित रूप से मौजूद रहती है। वह कथा आपका मनोरंजन भी करेगी, तिलमिलाएगी, गुदगुदाएगी, कुछ सोचने के लिए मजबूर भी करेगी। ऐसा मेरा दावा है। ऐसी लघुकथाएँही मुझे आकर्षित करती हैं। प्रयोग जिसे करना हो, करे। मैं ऐसा नहीं कर पाता।

लघुकथा में शीर्षक का अपना महत्व है। शीर्षक ऐसा हो जो पाठक को कथा पढ़ने को विवश कर दे।  मेरी लघुकथा ‘बिन शीशों का चश्मा’ का शीर्षक पढ़कर एक बार पाठक अवश्य सोचेगा कि क्या बिन शीशों का चश्मा भी होता है…होता भी है तो कैसा होता है….लेखक इसके माध्यम से क्या बताना चाहता है। और यही बातें सोचते हुए पाठक उस रचना को पढ़ना चाहेगा। बहुत से साथियों की लघुकथाओं के शीर्षक अक्सर चर्चा में रहते है।  मैं सुकेश साहनी की लघुकथा ‘अथ विकास यात्रा’ का उदाहरण देना चाहूँगा।  

विद्वानों का मानना है कि शीर्षक जितना छोटा हो उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है। ‘अथ विकास यात्रा‘ में से यदि ‘अथ’ शब्द हटा दिया जाए तो ‘विकास यात्रा’ शीर्षक बचा रहता है। विकास यात्रा भी एक बढ़िया शीर्षक है। लेकिन कथा के अनुसार विकास यात्रा तो शुरू ही हुई है। यह यात्रा निरन्तर जारी रहने वाली है।  सभंव है भविष्य इस यात्रा का मार्ग परिवर्तित हो जाए, अथवा इसका मंतव्य ही बदल जाए। ऐसे में आप विकास को भी और ही कुछ कहने लगें। यात्रा बीच में विश्राम भी कर सकती है, रुक भी सकती है। ऐसे में न तो ‘विकास यात्रा’ और और न ही ‘यात्रा‘ शीर्षक रचना के मर्म को प्रकट कर पाते। रचना का विषय भ्रष्टाचार को उजागर करना है। सिर्फ उजागर ही नहीं करना; बल्कि भ्रष्टाचार आपके दिल और दिमाग में कांटे की तरह चुभने लगे उसे ऐसा रूप प्रदान करना है। भ्रष्टाचार एक ऐसा रोग है जो नासूर की तरह लाइलाज बनता जा रहा है। लेखक एक कुशल और अनुभवी चिकित्सक की तरह अपने ढंग से इस रोग का इलाज करता है। जिसका नाम ईलाज नहीं होता उसका नाम थैरेपी हो सकता है। इस थैरेपी के माध्यम से रोग धीरे-धीरे मूलसहित नष्ट होने लगता है यही तरीका साहनी जी अपनाते हैं। भ्रष्टाचार शब्द का उन्होंने एक बार भी प्रयोग नहीं किया है। हालाँकि यह एक भ्रष्टाचार कथा है।

लघुकथा का उद्देश्य की बात करें तो कोई भी रचना निरुद्देश्य नहीं लिखी जाती। रचना का काम भटके हुए को रास्ता दिखाना है। संवेदनहीन होते समाज को संवेदनशील बनाना और मानवीय मूल्यों की स्थापना करना है। कभी -कभी मेरे सामने ऐसे पात्र आ गए ,जिनका दुःख सुनकर मुझे लघुकथा लिखने पर विवश कर जाते हैं। फिर मैं लघुकथा की रचना करते हुए उस पात्र की तरह रोता रहता हूँ। उसका दुःख मेरा दुःख बन गया और मैं चाहता हूँ कि वही दुःख हर पाठक का दुःख बन जाए।

दूसरी बात,  किसी घटना से प्रभावित होकर उसे अपने शब्दों में ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देना लघुकथा का उद्देश्य पूरा नहीं होता, उसके लिए लेखक का कौशल  काम करेगा। मैं  अपनी एक लघुकथा ‘पंख’ की रचना प्रक्रिया के बारे में बताना चाहूँगा। वैसे अभी हाल में मैंने यह रचना प्रक्रिया लघुकथा को समर्पित  साहित्यकार योगराज प्रभाकर के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका‘ लघुकथा कलश’ के लिए लिखी है।

‘पंख’ लघुकथा में खुद मैं ही उपस्थित हूँ। हुआ यों कि दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक छात्र ने एक लव लैटर लिखकर एक लड़की के सामने फेंका। अचानक वह पत्र दूसरी लड़की के सामने जा गिरा। लड़की ने प्रधानाचार्य से शिकायत कर दी। लड़के को बुलाया गया ,तो उसने बता दिया कि पत्र अमुक लड़की के लिए लिखा गया था। जो गलती से दूसरी लड़की पर जा गिरा। लड़के को धमकाने पर उसने बता दिया कि लड़की भी उसे पत्र लिखती है। और वे दोनों शादी करना चाहते हैं। इसपर उस लड़की के माता-पिता को स्कूल में बुलाया गया । उन्होंने उस लड़की को विद्य़ालय में भेजना बंद कर दिया। दूसरी लड़कियों के अभिवाभवकों को जब इस घटना का पता चला, तो उन्होंने अपनी -अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से मना कर दिया।

 प्रधानाचार्य  के साथ-साथ अन्य अध्यापकों एवं गाँव के लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि लड़कियों के पंख उग आए हैं। यदि इन पंखों को काटा नहीं गया ,तो गाँव उजड़ जाएगा । घटना यह थी अब उस घटना को लघुकथा के रूप में देखिए।

पंख

गाँव के सभी लोग,जिनमें औरतें भी शामिल थीं, अपने हाथों में कैंचियाँ उठाएँ एक ही दिशा में दौडे़ चले जा रहे थे। आश्चर्य तो इस बात का था कि उनके हाथों में थमी कैंचियाँ  उनके कदों से कहीं बड़ी थीं। मैं उस गांव में किसी काम से पहली बार गया था। उन लोगों के लिए मैं और मेरे लिए वे पूर्णतया अपरिचित थे। इसलिए मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब हो क्या रहा है। विवश होकर मुझे एक आदमी को रोककर पूछना पड़ा-‘‘ मेहरबानी करके मुझे इतना बताते हुए जाओ कि आप सब हाथों में कैंची उठाए क्यों और किधर भागे चले जा रहे हैं?’’

‘‘गाँव पर अचानक एक विपत्ति आ पड़ी है…इसलिए सब लोग उससे बचाव करने के लिए कैंचियाँ  उठाएँदौड़े चले जा रहे हैं।’’उसने किसी तरह अपनी हंफहंफी पर काबू पाते हुए मुझे बताया।

‘विपति! कैसी विपत्ति?’’ चौंकते हुए मैंने पूछा था।

‘अरे भाई, एक लड़की के पंख उग आए हैं। देखा -देखी दूसरी लड़कियों के भी पंख उगने लगेंगे। यह विपति नहीं तो और क्या है?’’ इतना कहते ही वह भी उधर ही दौड़ चला। 

 मेरी लघुकथाओं में समकालीन समाज की चिंताए  तीक्ष्ण और यथार्थपरक ढंग से  पाठकों के सामने उपस्थिति दर्ज करवाती हैं। भारतीय व्यवस्था, व्यवस्था में व्याप्त सडांध, भ्रष्टाचार भाई-भतीजावाद, जाति एवं धर्म की संकीर्णता,  किसान-मजदूर की पीड़ा, रिश्तों में स्वार्थ की बू और कथनी और करनी में अंतर को दर्शाती लघुकथाए हैं।

          अंत में इतना ही कहूँगा कि लघुकथा जन-जन की विधा इसलिए नही बन रही है कि पाठक के पास समय का अभाव है बल्कि इसलिए बन रही है कि लघुकथा अपना विशेष प्रभाव छोड़ती है, पाठक को चिंता एवं चिंतन को बाध्य करती है। बहुत लम्बे समय तक उसके जेहन में वह घटना घूमती रहती है। बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कह जाती है। यानि गागर में सागर भर जाती है।

हिन्दी लघुकथा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव

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साहित्य की कोई भी विधा हो, जब वह विकास करती है, तो उसमें अनेक पड़ाव आते हैं जो उसके विकास को गति देते हैं ।लघुकथा भी इस तथ्य का अपवाद नहीं है । यों तो लघुकथाओं का उद्भव विद्वानों ने वेदों से माना है किन्तु जहाँ तक हिन्दी–साहित्य का प्रश्न है तो डॉ राम निरंजन परिमलेन्दु के अनुसार, 1874 ई में बिहार के सर्वप्रथम हिन्दी साप्ताहिक–पत्र ‘बिहार–बन्धु’ में कतिपय उपदेशात्मक लघुकथाओं का भी प्रकाशन हुआ था । इन लघुकथाओं के लेखक मुंशी हसन अली थे जो बिहार के प्रथम हिन्दी–पत्रकार भी थे । इसके पश्चात् 1875 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की लघुकथाओं का संकलन ‘परिहासिनी’ प्रकाश में आया ।

1885 ई के आसपास तपस्वी राम ने पर्याप्त लघुकथाएँ लिखीं ,जो उनकी पुस्तक ‘कथा–माला’ में संगृहीत हैं । उनकी ये लघुकथाएँ नीति–कथाओं के निकट होते हुए भी वर्तमान लघुकथा की परंपरा की आरंभिक कड़ियों का सुखद एहसास कराती हैं । सन् 1912 के आसपास ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने ‘गल्पमाला’, ‘ईसप की कहानियाँ भाग–3’, ‘पंचशर’ आदि लघुकथा–संकलन संपादित किये । 1924 ई में आचार्य शिवपूजन सहाय की लघुकथा ‘एक अद्भुत कवि’ कलकत्ता से प्रकाशित पत्रिका ‘मारवाड़ी’ में प्रकाशित हुई थी । 1928 ई में लक्ष्मी नारायण ‘सुधांशु’ ने साहित्य में स्वीकृत नौ रसों में प्रत्येक रस पर एक–एक लघुकथा लिखी, जिनमें हास्य और व्यंग्य रस पर लिखी उनकी लघुकथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । उसी काल में प्रफुल्ल चन्द्र ओझा ‘मुक्त’ ने भी अनेक लघुकथाएँ लिखीं, जो ‘सरस्वती’जैसी ख्याति प्राप्त साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हुईं । ‘सरस्वती’ के अतिरिक्त उस काल की अन्य अनेक पत्रिकाओं में भी उनकी लघुकथाएँ प्रकाशित हुईं । पंडित जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के विषय में ललित मोहन शुक्ल लिखते हैं, ‘’द्विज जी ने 1929-30 में कुछ लघुकथाएँ लिखीं वे तत्कालीन पत्र–पत्रिकाओं में ससम्मान स्थान प्राप्त करती रहीं ।’’

प्रेमचंद 1930 से अपनी पत्रिका ‘हंस’ में लघुकथाओं में प्रकाशन कर रहे थे । ‘हंस’, वर्ष 2 अंक 1–2 पृष्ठ 65 पर नेपाल के श्री विश्वेश्वर प्रसाद कोईराला की लघुकथा ‘अपनी ही तरह’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । इसी तरह की एक अन्य लघुकथा बालकृष्ण बलदुवा की ‘भूलने दे’ शीर्षक से उसी अंक के पृष्ठ 91 पर प्रकाशित हुई थी । अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद की पत्रकारिता’ के पृष्ठ 47 पर डॉ सरदार सुरेन्द्र सिंह लिखते हैं -वस्तुत: लघुकथा का प्रचलन प्रेमचंद के ‘हंस’ ने ही किया । सुरेन्द्र सिंह की इस बात से सहमत होना आसान नहीं है इसलिए कि इससे पूर्व 1874 में ‘बिहार–बन्धु’ ‘लघुकथा’ नाम से ही लघुकथाएँ प्रकाशित करता रहा है किन्तु सुरेन्द्र जी के इस उद्धरण से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि प्रेमचंद लघुकथाओं को लघुकथा शीर्षक यानी स्तंभ के अन्तर्गत प्रकाशित कर रहे थे । लघुकथा हेतु यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि । लगभग इसी काल में यानी 1935 ई में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री भी इस विधा के विकास में अपना योगदान दे रहे थे । उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में मुझसे (डॉ सतीशराज पुष्करणा) कहा था-“संभवत: 1935 से 1955 ई के बीच की अवधि में लगभग 70-80 लघुकथाएँ लिखीं । उन्होंने और आगे बताया कि उनकी एक सौ एक लघुकथाएँ ‘चलन्तिका। नामक लघुकथा–संग्रह में संगृहीत हैं, जो अभी तक अप्रकाशित है ।

इसके पश्चात् तो लघुकथा शनै: शनै: विकास की यात्रा तय करती रही । प्राय: लघुकथाएँ आदर्शों की बातें करती रही । ऐसे में जो कथाकार सक्रिय रहे उनमें माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी, जयशंकर ‘प्रसाद’, प्रेमचंद, माधवराव सप्रे, सुदर्शन, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, रामधारी सह ‘दिनकर’, रामेश्वरनाथ तिवारी, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’, दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, बैकुण्ठ मेहरोत्रा, रावी, श्रीपतराय, कामताप्रसाद सह ‘काम’, शांति मेहरोत्रा, राम दहिन मिश्र इत्यादि प्रमुख हैं ।

लघुकथा के विकास में एक पड़ाव सन् 1942 में तब आया जब बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ ने लघुकथा को परिभाषित किया । यह परिभाषा बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ की चर्चित पुस्तक ‘साहित्य–साधना की पृष्ठभूमि’ के पृष्ठ 267 पर प्रकाशित है । फिर इसी परिभाषा को लक्ष्मीनारायण लाल ने बहुत ज़रा–से हेर–फेर के साथ हिन्दी–साहित्य कोश, भाग.1 के पृष्ठ 740-741 पर प्रकाशित कराया ।

इस विकास–क्रम को रामवृक्ष बेनीपुरी, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’, राधाकृष्ण, ज्योति–प्रकाश, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र, आनंद मोहन अवस्थी, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, भृंग तुपकरी, डॉ ब्रजभूषण प्रभाकर, श्यामलाल ‘मधुप’, शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ , रामेश्वर नाथ तिवारी, श्याम नंदन शास्त्री, मधुकर गंगाधर, चन्द्र मोहन प्रधान इत्यादि कथाकारों ने आगे बढ़ाया ।

1962 में ‘कादम्बिनी’ में डॉ सतीश दुबे एवं डॉ कृष्ण कमलेश की लघुकथाओं से लघुकथा का पुनरुत्थान काल आरंभ होता है । आधुनिक लघुकथा का प्रथम पड़ाव वास्तव में ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ (संपादक : भगीरथ एवं रमेश जैन) से शुरू होता है । इसके प्रकाशन में सहयोग एवं दिशा–निर्देशन डॉ त्रिालोकी नाथ व्रजबाल का रहा । इस संग्रह की लघुकथाओं में पारंपरिक लघुकथाओं एवं आधुनिक लघुकथाओं का संगम मिलता है । इस संग्रह ने लघुकथा के लिए आगे का रास्ता बनाया जिसका प्रभाव लघुकथा के अगले पड़ाव डॉ शमीम शर्मा के सम्पादकत्व में 1983 में प्रकाशित ‘हस्ताक्षर’ में दिखा । इस संग्रह में परंपरागत लघुकथाएँ पीछे छूटती नज़र आईं और आधुनिक लघुकथाएँ अपना दमखम दिखाती सामने आईं । इस कृति में लघुकथाओं के साथ–साथ अनेक महत्त्वपूर्ण लेख भी प्रकाशित थे । ये सभी लेख जहाँ लघुकथा के इतिहास पर प्रकाश डाल रहे थे, वहीं कुछ लेख लघुकथा की शास्त्रीयता भी सिद्ध कर रहे थे । यों ‘हस्ताक्षर’ से पूर्व 1977 डॉ शंकर पुणतांबेकर के सम्पादकत्व में ‘श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ का और इसके ठीक दो वर्षों पश्चात् ‘आठवें दशक की लघुकथाएँ’ का प्रकाशन डॉ सतीश दुबे के संपादकत्व में हुआ । ये दोनों संकलन अपनी भूमिका में सफल रहे किन्तु वैचारिक स्तर पर कोई विशेष दिशा–निर्देश नहीं दे सके । हाँ ! 1978 में जगदीश कश्यप एवं महावीर जैन के सम्पादकत्व में ‘छोटी–बड़ी बातें’ प्रकाश में आया । इसकी लघुकथाएँ अपने काल के हिसाब से तो श्रेष्ठ थीं (किन्तु इसमें प्रकाशित लेख भी थे जो पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में उतने सफल नहीं हो सके जितना उन्हें ‘उस काल में’ होना चाहिए था । कारण वह काल ऐसा था जब लघुकथा अपनी पुरानी केंचुल उतारकर नयी केंचुल धारण कर रही थी, ऐसे में कुछ ऐसे ही लेखों की आवश्यकता थी जो नई–पुरानी लघुकथाओं के संध्किाल पर प्रकाश डालते तो भावी लघुकथा हेतु कुछ सार्थक दिशा प्राप्त हो पाती,जो न हो पाया ।यह कार्य ‘हस्ताक्षर’ (संपादक : डॉ शमीश शर्मा) ने किया ।

1983 ई में लघुकथा ने फिर एक अगले पड़ाव पर पहुँची जब डॉ सतीशराज पुष्करणा के सम्पादकत्व में लघुकथा के आलोचना–पक्ष पर प्रकाश डालते लेखों का संकलन ‘लघुकथा : बहस के चौराहे पर’ प्रकाशित हुआ । यह अपने ढंग की लघुकथा–जगत् में प्रथम पुस्तक थी । इसकी सर्वत्र चर्चा एवं प्रशंसा हुई । इस पुस्तक के लेखों ने भावी लघुकथा की दिशा लगभग तय कर दी और लघुकथा उस दिशा पर चलकर सफलता की मंजि़लें तय करने लगी । डॉ पुष्करणा के ही संपादकत्व में 1984 में ‘तत्पश्चात्’, ‘लघुकथा : सर्जन एवं समीक्षा’ , ‘लघुकथा की रचना–प्रक्रिया’, ‘लघुकथा : एक संवाद’, ‘अँधेरे के विरुद्ध का सौंदर्य शास्त्र’ तथा कृष्णानंद कृष्ण के संपादकत्व में प्रकाशित ‘लघुकथा : सर्जना एवं मूल्यांकन’ एवं उनके एकल लेखों का संग्रह ‘लघुकथा : दिशा एवं स्वरूप’ इत्यादि पुस्तकें प्रकाश में आईं । इन पुस्तकों में प्रकाशित लेखों के प्रभाव से लघुकथा–सृजन काफी निखरा ।

1984 में श्री चन्द्र भूषण सिंह ‘चन्द्र’ का दूसरा संग्रह ‘मिट्टी की गंध’ प्रकाश में आया जिसमें उनकी सैंत्तीस लघुकथाओं के अतिरिक्त कृष्णा कुमार सिंह का शोधपरक लेख तथा ‘नौवें दशक की लघुकथाओं पर एक दृष्टि’ के साथ–साथ 1980 से लेकर 1984 तक प्रकाशित लघुकथा–संग्रह, संकलन तथा उनके प्राप्ति स्थान दिए गए हैं जिससे यह कृति लघुकथा के विकास में एक पड़ाव के रूप में चर्चित हुई । 1985 में सिद्धेश्वर एवं तस्नीम के सम्पादकत्व में ‘आदमीनामा’ का प्रकाशन हुआ । जिसमें बिहार के ही आठ लेखकों की दस–दस लघुकथाएँ संकलित थीं । इन आठ लेखकों में डॉ सतीशराज पुष्करणा, चितरंजन भारती, निविड़जी शिवपुत्र, रामयतन प्रसाद यादव, सिद्धेश्वर, तारिक असलम ‘तस्नीम’ इत्यादि थे । इसमें एक लेख भी था जो किसी स्तर पर भी विचार करने को बाध्य नहीं करता था ।

इसी काल में अरविन्द एवं कृष्ण कमलेश के संयुक्त सम्पादकत्व में ‘लघुकथा : दशा एवं दिशा’ प्रकाशित हुई जिसकी लघुकथाएँ एवं विचार–पक्ष में दिए गए लेख काफीफी विचारोत्तेजक थे । अपने इन्हीं गुणों के कारण इस कृति को पर्याप्त ख्याति प्राप्त हुई । इस कृति ने अनेक नये एवं सशक्त हस्ताक्षर लघुकथा को दिये जो आज भी अपनी रचनाओं के कारण ख्यातिलब्ध हैं ।

1986 ई में ‘प्रत्यक्ष’ (सं डॉ सतीशराज पुष्करणा) लघुकथा में एक ऐसा पड़ाव था जिसने सृजन–पक्ष एवं विचार–पक्ष दोनों को न मात्र समृ( किया अपितु भावी लघुकथा में होने वाले परिवर्तनों की ओर भी संकेत किये जो लघुकथा के आकार एवं विषय–वस्तु पर केन्द्रित थे । जिसका प्रभाव यह हुआ कि लघुकथा के आकार में विस्तार होना आरंभ हुआ और घिसे–पिटे विषयों को छोड़कर इसे नये विषयों के साथ–साथ लघुकथा को संवेदनात्मक बनाने पर भी चर्चा थी । इसी काल में ‘आयुध’ (सं कमल चोपड़ा) ‘आतंक’ (सं नंदल हितैषी एवं संयोजक ध्ीरेन्द्र शर्मा) , ‘हालात’ एवं ‘प्रतिवाद’, (सं कमल चोपड़ा) , ‘पड़ाव और पड़ताल’ (सं मधुदीप) , रमेश कुमार शर्मा ‘अन्जान’ का शोध–प्रबंध ‘हिन्दी लघुकथा : स्वरूप एवं इतिहास’ 1989 में प्रकाशित हुआ । इन सारी कृतियों ने लघुकथा–जगत् में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की । ये सारी कृतियाँ अपने आप में नई एवं दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक–दूसरे की पूरक सिद्ध हुई हैं । इससे लघुकथा–सृजन एवं समीक्षा दोनों के ध्रातल पर समृद्ध हुईं । अब सृजन एवं समीक्षा–कार्य साथ–साथ विकास पाने लगे ।

लघुकथा–जगत् में एक नया मोड़ तब आया जब 1985 से क्रमश: ‘कथानामा’, ‘कथानाम’–2 एवं ‘कथानामा’–3 बलराम के संपादकत्व में प्रकाशित हुए । इनमें दस–दस लघुकथाकारों की सचित्र–परिचय के दस–दस लघुकथाएँ एवं इनमें एक–एक गंभीर लेख प्रकाशित थे । मूल्यांकन किए जाने की दृष्टि से बलराम का यह कार्य कापफी सराहा गया । पिफर बलराम यहीं नहीं रुके उन्होंने पिफर क्रमश: ‘हिन्दी लघुकथा कोश’ (1977) ‘भारतीय लघुकथा कोश 1–2’ (1993) और ‘लघुकथा विश्व–कोश 1.4’ (1995) इनके संपादन में प्रकाशित हुए । इनमें लघुकथाएँ एवं लेख दोनों साथ–साथ प्रकाशित थे । इसें संदेह नहीं बलराम के इस कार्य ने लघुकथा के विकास एवं सम्मान में कापफी वृद्धि की । 1990 ई में डॉ सतीशराज पुष्करणा के सम्पादकत्व में 730 पृष्ठों की एक बड़ी पुस्तक ‘कथादेश’ प्रकाश में आयी । इस पुस्तक में 25 कथाकारों की 25–25 लघुकथाएँ, चित्र, परिचय एवं लेखक का वक्तव्य के साथ प्रकाशित हुए । इसमें एक खंड ‘विचार–पक्ष’ का भी था जिसें अनेक महत्त्वपूर्ण लेख थे । प्रो निशांतकेतु का चर्चित लेख ‘लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता’ भी इसी पुस्तक में शामिल था । यह पुस्तक काफी चर्चित रही । इस पुस्तक ने पाठकों एवं लघुकथा–लेखकों को सोचने–समझने हेतु विवश किया कि वे अपने भीतर स्वयं अपने रचना–कर्म का ईमानदारी से मूल्यांकन करें और वांछित सुधार हेतु चर्चा–परिचर्चा करें, बात करें, बहस करें, संवाद स्थापित करें । इस दिशा में जगह–जगह पर गोष्ठियों का सिलसिला बढ़ा जिसके सार्थक परिणाम सामने आये कि ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ के तत्त्वावधान में 1988 ई से 2012 ई पचीस अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन, पटना में आयोजित हुए जिनमें फतुहा (1991) , बरेली (2000) और हिसार (2001) में हुए । देश के अन्य अनेक स्थानों पर गोष्ठियाँ, संगोष्ठियाँ और सम्मेलनों का सिलसिला चल पड़ा । फ़रवरी 2008 में रायपुर में विश्व लघुकथा सम्मेलन भी हुआ और लघुकथा विकास की राह पर और आगे बढ़ी ।

एक दौर यह भी आया जब विभिन्न राज्यों से अपने–अपने राज्य के रचनाकारों को लेकर संकलन संपादित किए गए जिसमें ‘बिहार की हिन्दी लघुकथाएँ’ एवं ‘बिहार की प्रतिनिधि् हिन्दी लघुकथाएँ’ (दोनों के संपादक डॉ सतीशराज पुष्करणा) , ‘हरियाणा का लघुकथा–संसार’ (संपादक: रूप देवगुण एवं राजकुमार निजात) , ‘राजस्थान का लघुकथा–संसार’ (संपादक : महेन्द्र सह महलान एवं अंजना अनिल) जैसे उल्लेखनीय संकलन प्रकाश में आए । इनके अतिरिक्त 2004 में डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र के संपादकत्व में ‘कल के लिए’ प्रकाश में आया जिसमें हिन्दी की प्राय: तमाम महिला लघुकथा–लेखिकाओं की लघुकथाओं के साथ स्वयं संपादक का लेख ‘हिन्दी–लघुकथा के विकास में महिलाओं का योगदान’ प्रकाशित था । इसी वर्ष ‘राजस्थान की महिला लघुकथाकार’ (संपादक : महेन्द्र सह महलान एवं अंजना अनिल) प्रकाश में आया । ये सभी संकलन इसीलिए महत्त्वपूर्ण थे कि ये एक जगह, एक ही राज्य एवं महिलाओं की रचनाओं के साथ–साथ इन पुस्तकों में प्रकाशित लेख लघुकथा के इतिहास पक्ष को पर्याप्त बल दे रहे थे । इस दिशा में बलराम के संपादकत्व में भी पर्याप्त कार्य हुआ है । लघुकथा–इतिहास–लेखन के क्रम में ये सारी कृतियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकेंगी ।

लघुकथा–जगत् में पिफर एक पड़ाव ऐसा आया जिसमें एक विषय को केन्द्र में रख कर वैसी ही लघुकथाओं के संकलन प्रकाशित किए गए जिनमें सुकेश साहनी के संपादकतत्व में ‘स्त्री–पुरुष सम्बन्धोंकी लघुकथाएँ’ (1992) , ‘, ‘देह–व्यापार की लघुकथाएँ’ (1997) , ‘महानगरों की लघुकथाएँ’ (1998) , बीसवीं सदी की लघुकथाएँ’ (2000) तथा रूप देवगुण के संपादन में ‘शिक्षा–जगत् की लघुकथाएँ’ (1993) में प्रकाशित हुईं । नि:संदेह इन सभी पुस्तकों में ‘हिन्दी लघुकथा : उलझते–सुलझते प्रश्न’ भी अपने ढंग की निराली पुस्तक थी । इसी क्रम में 2000 में कृष्णानंद कृष्ण के सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘शताब्दी शिखर की हिन्दी–लघुकथाएँ’ प्रकाश में आई । इन पुस्तकों ने जहाँ पूर्व सदी की लघुकथाओं को शामिल रखा, वहीं इन लघुकथाओं के मूल्यांकन का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया । इन सभी पुस्तकों के सम्पादकीय अपनी विशेष अहमियत रखते थे ।

2007 में डॉ सतीशराज पुष्करणा, कृष्णानंद कृष्ण, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’ एवं डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र के संयुक्त संपादकत्व में ‘लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र’ प्रकाश में आया इसमें लघुकथा के प्राय: सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों पर केन्द्रित दस लेख तथा एक संपादकीय था । यह पुस्तक काफी चर्चित रही । इस पुस्तक की समीक्षा में डॉ शत्रुघ्न प्रसाद ने लिखा–यह सौंदर्यशास्त्र नहीं, बल्कि लघुकथा का शास्त्र है । 2008 में डॉ सतीशराज पुष्करणा प्रणीत ‘लघुकथा–समीक्षा : एक दृष्टि’ प्रकाश में आई । इस कृति में डॉ पुष्करणा के बारह ऐसे लेख थे जो 2005 के वर्ष में कृष्णानंद कृष्ण, डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’, रामयतन प्रसाद यादव, सी रा प्रसाद, उर्मिला कौल, पुष्पा जमुआर, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज इत्यादि लघुकथाकारों के हुए एकल–पाठ के अवसर पर पढ़े गए डॉ पुष्करणा के लेखों का संग्रह है, जिसके अन्त में कई दर्जन उत्कृष्ट लघुकथाएँ भी दी गयी थीं । यह भी अपने आपमें एक प्रयोग था, जो लघुकथा–समीक्षा–कार्य को बल एवं विकास देता है ।

डॉ रामकुमार घोटड़ ने भी लघुकथा के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । उनके संपादकत्व में ‘प्रतीकात्मक–लघुकथाएँ’ (2006) , ‘पौराणिक संदर्भ की लघुकथाएँ’ (2006) , ‘अपठनीय लघुकथाएँ’ (2006) ‘दलित समाज की लघुकथाएँ’ (2008–2011) , ‘भारतीय हिन्दी लघुकथाएँ’ (2010) , ‘लघुकथा–विमर्श’ (2009) ‘राजस्थान के लघुकथानगर’ (2010) , ‘भारत का हिन्दी लघुकथा–संसार’ (2011) ‘कुखी पुकारे’ (2011) ‘हिन्दी की समकालीन लघुकथाएँ (2012) ‘आजाद़ भारत की लघुकथाएँ’ (2012) इत्यादि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । ये सभी महत्त्वपूर्ण हैं । उनमें क्या है ? यह पुस्तकों के नाम से ही स्पष्ट है । इन पुस्तकों से जहाँ शोधार्थी लाभान्वित होंगे ,वहीं लघुकथा पर विचार करने वालों को विचार करने की दृष्टि से विभिन्न श्रेणियों की लघुकथा एकत्र करने में सुविधा होगी । लघुकथा के इतिहास–लेखन में भी ये पुस्तकें सहायक होंगी । ये सभी पुस्तकें ऐसी हैं जो लघुकथा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव बन गयी हैं । ‘इन सब उल्लेखनीय पड़ावों के अतिरिक्त लघुकथा के विकास में अन्य जो महत्त्वपूर्ण पड़ाव सिद्ध हुए, उनमें ‘मिनीयुग’ (सं जगदीश कश्यप) , ‘आघात’ बाद में ‘लघुआघात’ (सं विक्रम सोनी) , ‘दिशा’ (सं डॉ सतीशराज पुष्करणा) और अब ‘संरचना’ (सं डॉ कमल चोपड़ा) इत्यादि लघुकथा को निर्मित पत्रिकाओं की भूमिका की भी अवहेलना करती । इसी क्रम यह बताना भी है कि विगत कई वर्षों से इंटरनेट पत्रिका ‘लघुकथा डॉट काम’ एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ भी महत्त्वपूर्ण पड़ाव के रूप में बहुत बढ़ा कार्य कर रही है । इस प्रकार के अन्य अनेक कार्यों की अपेक्षा है । और अन्त में इस पुस्तक यानी ‘कही–अनकही’ की चर्चा भी प्रासंगिक प्रतीत होती है, कारण यह पुस्तक हिन्दी लघुकथा की विकास–यात्र का नया एवं उल्लेखनीय पड़ाव है । इसमें श्री चन्द्र की लघुकथाओं के अतिरिक्त विचार करने योग्य ऐसी पर्याप्त सामग्री दी गई है ,जिससे विचार पर आगे कार्य करने वालों को पर्याप्त मार्ग–दर्शन सहज ही प्राप्त हो सकेगा, ऐसा मेरा विश्वास है ।

लघुकथा: स्वरूप और दिशा

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पटना-सम्मेलन-88 की बात है। कार्यक्रम के बाद हम सब लघुकथा की तत्कालीन स्थिति पर विचार कर रहे थे। भगीरथ उस दौर के चर्चित एवं सक्रिय लघुकथा-लेखकों की प्रदेशवार सूची तैयार कर रहे थे। मैं और अशोक भाटिया उन्हें इस कार्य में सहयोग दे रहे थे। वहीं उपस्थित थे, भाई कृष्णानंद ‘कृष्ण’ जो बहुत सकुचाते हुए हमारी जानकारी में महत्त्वपूर्ण इज़ाफा कर रहे थे। उनके द्वारा उपलब्ध कराई जा रही जानकारी से समझा जा सकता था कि वे लघुकथा के प्रति काफी गम्भीर हैं और लघुकथा-जगत में हो रही गतिविधियों का बहुत बारीकी से अध्ययन कर रहे हैं। लघुकथा के प्रति उनकी इसी गम्भीरता का सुफल है यह पुस्तक। उनके द्वारा समय-समय लिखे गए इन आलेखों का प्रकाशन लघुकथा-जगत् की उल्लेखनीय घटना है। जहाँ तक मेरी जानकारी है-लघुकथा-समीक्षा के क्षेत्र में पंजाबी (गुरुमुखी) के डॉ. अनूप सिंह के बाद कृष्णानंद ‘कृष्ण ही हैं, जिनका एकल संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस दृष्टि से इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्त्व है, जिसके लिए कृष्णानंद’ कृष्ण’ बधाई के पात्र है।

श्रेष्ठ लघुकथाओं का शुरू से ही अभाव रहा है। जो श्रेष्ठ रचनाएँ लिखी जाती हैं, वे लघुकथा के नाम पर लिखे जा रहे कूड़े के ढेर में गुम हो जाती हैं। ऐसे में लघुकथा-समीक्षा का कार्य खासा जोखिम भरा है। कृष्णानंद ने इस चुनौती को स्वीकारा है। सफल रचनाकार एवं ‘ पुनः के कुशल सम्पादक के रूप में उनसे सभी परिचित हैं। विभिन्न लघुकथा-सम्मेलनों में पढ़ी गई लघुकथाओं की तत्काल समीक्षा कर वे अपनी प्रतिभा का परिचय देते रहे हैं, पर इस पुस्तक में संकलित आलेखों के माध्यम से वे कुशल समीक्षक के रूप में हमारे सामने आते हैं। पुस्तक में कुल 19 आलेख संकलित हैं। संक्षिप्त परिचय की दृष्टि से इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है-

एक: हिन्दी-लघुकथा के विकास-क्रम की पड़ताल।

दो: विभिन्न लघुकथा-संकलनों की समीक्षा के माध्यम से हिन्दी-लघुकथा के बदलते परिदृश्य की विवेचना। एक: हिन्दी लघुकथा के विकास क्रम की पड़ताल करते सात आलेख इसमें सम्मिलित हैं। अध्ययन की दृष्टि से इन्हें तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। (क) हिन्दी-लघुकथा का प्रस्थान बिन्दु-

लघुकथाके विकास-क्रम को सुनिश्चित करने के क्रम में हिन्दी लघुकथा के प्रथम रचयिता की खोज पर बल देते हुए कृष्णानंद ‘टोकरी भर मिट्टी (माधवराव सप्रे) का उल्लेख करते हुए’ परिहासिनी (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र) में संकलित छोटी-छोटी रचनाओं में आधुनिक लघुकथा के बीज तत्व मानते हैं। यह सही है कि इस श्रेणी के आलेखों में जिन रचनाकारों का उल्लेख है, उन्होंने ये लघु रचनाएँ लघुकथा मानकर नहीं लिखी थीं। इस पर बहस हो सकती है, इस स्थिति को अपने आलेख में स्पष्ट करते हुए कृष्णानंद लिखते हैं-“इन रचनाओं में अधिकतर हास-परिहास पैदा करने के उद्देश्य से लिखी गई हैं और इन रचनाओं के माध्यम से ऐसा व्यंग्य उत्पन्न नहीं होता, जो पाठक को तिलमिलाने के लिए बाध्य कर सके. शिल्प और स्वरूप के स्तर पर ये रचनाएँ लघुकथा के निकट भी नहीं पहुँच पातीं। क्योंकि ये रचनाएँ सिर्फ़ हास-परिहास उत्पन्न करती हैं। पाठक-मन को कहीं से भी नहीं झकझोरती। मेरी दृष्टि में ये लघुकथाएँ शुद्ध रूपेण चुटकुला की श्रेणी में आती हैं।” इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि लेखक की लघुकथा-समीक्षा विषयक दृष्टि बिल्कुल साफ है। भारतेन्दु जी की रचनाओं का उल्लेख लघुकथा के प्रस्थान बिन्दु की तलाश के सन्दर्भ में ही किया गया है।

‘प्रतिध्वनि’ में संकलित रचनाओं में लघुकथा के तत्त्वों की खोज की गई है। विशेष रूप से ‘प्रसाद’ , ‘गुदड़साई’ , ‘गुदड़ी में लाल’ , ‘पत्थर की पुकार’ , ‘कलावती की शिक्षा’ , ‘उस पार की योगी’ , ‘खंडहर की लिपिर’ के माध्यम से लेखक यह स्थापित करता है कि जयशंकर प्रसाद के मन यह बात ज़रूर रही होगी कि कहानी से अलग छोटी-छोटी रचनाएँ लिखी जाएँ, जो पाठकों को संवेदित करें, प्रभावित करें। अपने जीवन-अनुभवों को उन्होंने जीवन के अंतरंग क्षणों से जोड़ते हुए मानवीय धरातल पर इन लघु रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। कृष्णानंद का मानना है कि जयशंकर प्रसाद को हिन्दी में संवदेनात्मक लघुकथाओं के जनक के रूप में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए. ‘आधुनिक लघुकथा’ की पीठिका और दिनकर की ‘उजली आग’ में खलील जिब्रान की भाववादी और दर्शनवादी लघु रचनाओं के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए ‘उजली आग’ में संकलित 46 रचनाओं को आधुनिक हिन्दी-लघुकथा के लिए सुदृढ़ पीठिका माना गया है। यहाँ भी लेखक ने इस बिन्दु पर आगे अनुसंधान की गुंजाइश से इंकार नहीं किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस श्रेणी के तीनों आलेखों में उन रचनाकारों की लघु रचनाओं में आधुनिक लघुकथा के बीच-तत्व तलाश किए हैं, जिनके मन में सर्जन के दौरान लघुकथा विधा का कोई स्वीकृत स्वरूप नहीं था।

(ख) लघुकथा की पहचान-

इस श्रेणी में लेखक ने उपेन्द्रनाथ अश्क एवं विष्णु प्रभाकर की लघुकथाओं के माध्यम से आधुनिक लघुकथा की विकास-यात्रा के विभिन्न पड़ावों का मूल्याकंन किया है। दोनों कथाकारों ने लघुकथा-लेखन अनजाने में नहीं किया, बल्कि उनके सामने लघुकथा का स्वरूप एवं विषय-वस्तु स्पष्ट थे। विष्णु प्रभाकर के संग्रह ‘कौन जीता कौन हारा’ में तो 1938 से 97 तक की लघुकथाएँ संकलित हैं। अश्क जी की लघुकथाओं में सामाजिक विसंगतियों एवं गिरते मानव मूल्यों पर व्यंग्यात्मक प्रहार हुआ है, जिनका विश्लेषण लेखक ने बड़ी बारीकी से किया है। समीक्षक के अनुसार प्रभाकर जी की लघुकथाएँ ज़िन्दगी के आस-पास बिखरी घटनाओं पर आधारित हैं। यही वजह है कि उनकी लघुकथाओं का कैनवास बड़ा ही विस्तृत है। कृष्णानंद ने प्रभाकर जी की लघुकथाओं पर शिल्प के स्तर पर खलील जिब्रान का प्रभाव माना है। इस प्रकार ये लघुकथा-विकास-यात्रा का महत्त्वपूर्ण दौर कहा जा सकता है। जिसमें अश्क एवं विष्णु प्रभाकर सरीखे कथाकार लघुकथा के माध्यम से अपनी बात कहते हैं।

(ग) हिन्दी-लघुकथा का स्वर्णकाल-

आठवें एवं नौवें दशक को हिन्दी-लघुकथा का स्वर्णकाल माना जाता है। इस स्वर्णकाल में लिखी जा रही लघुकथाओं का विश्लेषण डॉ. सतीशराज पुष्करणा एवं बलराम की लघुकथाओं के माध्यम से हुआ है। कृष्णानंद ‘कृष्ण’ के समीक्षा-कर्म की यह विशेषता है कि लघुकथाओं का मूल्यांकन वे लघुकथा की विकास-यात्रा के सन्दर्भ में करते चलते हैं। फलस्वरूप वे लेखक की दृष्टि के साथ-साथ लघुकथा के क्रमिक विकास को प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। मानवोत्थानिक एवं प्रयोगधर्मी कथाकार डॉ. पुष्करणा की विभिन्न लघुकथाओं का विस्तृत विवेचन करते हुए लेखक लघुकथा-विकास-यात्रा में उनके द्वारा किए गए विभिन्न प्रयोगों को रेखांकित करने में सफल हुआ है। बलराम की लघुकथाएँ शिल्प और शैली के स्तर पर अलग पहचान बनाती हैं। समीक्षक के अनुसार इस दौर में लघुकथा भाषा एवं सम्प्रेषण के स्तर पर पहले की तुलना में अधिक समृद्ध हुई है।

दो-इस श्रेणी में विभिन्न एकल एवं सम्पादित लघुकथा-संकलनों के माध्यम से लघुकथा के बदलते परिदृश्य पर प्रकाश डाला गया है। समीक्षित कृतियाँ है-‘यथार्थ का एहसास’ (डॉ. परमेश्वर गोयल) , ‘बदलती हवा के साथ’ (डॉ. सतीशराज पुष्करणा) , ‘सांझा हाशिया’ (कुमार नरेन्द्र) , ‘डरे हुए लोग’ (सुकेश साहनी) , ‘तरकश का आखिरी तीर’ (अतुल मोहन प्रसाद) , ‘बूँद-बूँद’ (अमर नाथ चौधरी ‘अब्ज’ ) , ‘समकालीन हिन्दी-लघुकथा के बदलते आंयाम’ (पटना सम्मेलन में पढ़ी गई लघुकथाओं पर टिप्पणी) ‘महानगर की लघुकथाए’ ँ (सं सुकेश साहनी) , ‘आम जनता के लिए’ (चितरंजन भारती) ‘भविष्य का वर्तमान’ (भगवती प्रसाद द्विवेदी) , ‘कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ’ ‘समकालीन हिन्दी-लघुकथा के बहाने’ और ‘अंजुरी भर लघुकथाएँ’ (सत्यानारायण नाटे एवं श्यामल) ।

उपर्युक्त संकलनों की समीक्षा के माध्यम से कृष्णानंद न केवल हिन्दी-लघुकथा के बदलते स्वरूप का मूल्यांकन करते हैं बल्कि कुछ संकटों की ओर हमारा ध्यान भी खींचते हैं, यथा- (एक) भाषा एवं संप्रेषण का संकट—सशक्त भाषा एवं फोर्सफुल संप्रेषण के अभाव में लघुकथा का प्रभाव गहरा नहीं हो पाता, (दो) किसी रचना का चमत्कारिक अन्त किसी चमत्कारवाद की रचना नहीं कर सकती। लघुकथा के इस गुण को काफी पीछे छोड़ दिया है। चमत्कार आम जनता के लिए नहीं है, (तीन) वैचारिकता के स्तर पर एक ही थीम को बार-बार दुहराना-इससे लेखक के सीमित अनुभव का बोध होता है, आदि।

लेखक ने इस पुस्तक में संकलित विभिन्न आलेख किसी योजना के तहत नहीं लिखे होंगे, फिर भी संकलित आलेख लघुकथा के प्रस्थान बिन्दु से लेकर अब तक के क्रमिक विकास केा बखूबी पेश करते हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन इस दृष्टि से आश्वस्त करता है कि लघुकथा समीक्षा क्षेत्र में जिस रिक्तता को हम लंबे समय से महसूस कर रहे थे, उसे भरने की शुरूआत कृष्णानंद कृष्ण ने कर दी है।


लघुकथा का शीर्षक

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‘तत्त्व ’ शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रयोग तंत्र विद्या में बहुत होता है। तांत्रिकों के अनुसार ये छत्तीस होते हैं। संख्याओं के अनुसार इनकी संख्या पच्चीस होती है। रसायन–शास्त्र के अुनसार मूल पदार्थ–जिसे किसी भी  रासायनिक विधि से सरलतर पदार्थों में विश्लेषित नहीं किया जा सकता। ऐसा भी कहा जाता है कि मानव–शरीर की संरचना भी पाँच तत्त्वों के मिलने से ही हुई है। वे पाँच तत्त्व हैं–आग,पानी,वायु,धरती और आकाश। इसी प्रकार ‘कथा’ की संरचना कथानक,वातावरण,कथोपकथन,चरित्र–चित्रण,भाषा–शैली और उपसंहार। ये छह तत्त्व ही उपन्यास,कहानी और लघुकथा की भी संरचना करते हैं। यानी इन छह तत्त्वों से ही प्राय: सभी कथात्मक विधाओं की रचना संभव हो पाती है। यह बात अलग है कि कथानक यानी कथा–वस्तु (जिस रूप में भी हो) के अनुसार ही इन तत्त्वों का प्रयोग होता ही है। किन्तु लघुकथा में एक तत्त्व और है, जो कि इसको सही स्वरूप में प्रस्तुत करने में सहायक होता है–वह है ‘शीर्षक’।

आकारगत लघुता ‘लघुकथा ’ का प्रमुख गुण है। अत: लाघवता हेतु इसमें बहुत कुछ संकेत में ही कहा जाता है। संकेत भी ऐसा कि सम्प्रेषणीयता में कहीं कोई संकट न हो। यही कारण है कि लघुकथा लिखने से अधिक समय कभी–कभी उसका शीर्षक रखने में लग जाता है। तात्पर्य यह है कि ‘शीर्षक’ रखना भी एक कौशल है। रचना की सफलता में शीर्षक का बहुत बड़ा योगदान होता है। किसी भी रचना को शीर्षक ही प्रथम दृष्टि में पाठक को पढ़ने हेतु उत्प्रेरित करता है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने के साथ–साथ, आकर्षक, विचित्र और जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला होना चाहिए कि पाठक तुरन्त उसे पढ़ना आरंभ कर दे। इसके अतिरिक्त लघुकथा में कथाकार शीर्षक कई प्रकार से रखते हैं। कुछ कथाकार तो लघुकथा के ‘लक्ष्य’ या ‘परिणाम’ को ध्यान में रखते हुए शीर्षक देते हैं। मगर यह ढंग काफी पुराना है। इस प्रकार के शीर्षक अक्सर दृष्टातों, बोध–कथाओं, लोक–कथाओं, नीति–कथाओं या फिर मुद्रित दंत कथाओं में देखने को मिलते हैं। इनका शीर्षक एक प्रकार से कथा का उद्देश्य बता देता है, यानी कथा के माध्यम से जो उपदेश दिया जा रहा है, उसकी ओर ध्यान आकर्षित करता है। वर्तमान में ऐसे शीर्षकों का न तो प्रचलन है, और न ही पाठक पसंद करते हैं। इस प्रकार के शीर्षकों में एक कमी और होती है किये पाठकों की जिज्ञासा को बिना लघुकथा पढ़े ही शांत कर देते है।

पाठक शीर्षक देखते ही यह समझ जाता है कि कथाकार क्या कहना चाहता है, अत: पढ़ने का सारा आनंद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी एक लघुकथा ‘परिधि से बाहर’(अक्टूबर–दिसम्बर,99) के पृष्ठ–43 पर प्रकाशित ‘दो टाँगों वाला जानवर’ (डॉ0सुरेन्द्र वर्मा) को देखा जा सकता है। दो टाँगों वाला जानवर का सीधा और स्पष्ट अर्थ है ‘आदमी । शीर्षक पढ़ते ही जिज्ञासा शांत हो जाती है, तो रचना का आनंद जाता रहता है। अत: ऐसे शीर्षक से बचना ही लघुकथा हेतु हितकर होता है।

कभी–कभी कथाकार किसी ‘वस्तु’ या ‘स्थान’ को भी अपनी लघुकथा का शीर्षक बनाते हैं। इस संदर्भ में सुकेश साहनी की लघुकथाएँ ‘आईना’, ‘चश्मा’ और ‘खरबूजा’ (वर्तमान–सं.डॉ. सतीशराज पुष्करणा) पृष्ठ सं. 15,14,और 12 पर प्रकाशित इन लघुकथा ओं की विशेषता यह है कि ये शीर्षक व्यंजना–शक्ति के प्रतीक रूप में उपस्थित हैं। सम्प्रेषणीयता में कहीं कोई कठिनाई नहीं होती। लघुकथा में शीर्षक रखने की यह पद्धति सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस क्रम में ‘आटे का ताजमहल’ (डॉ.सुरेन्द्र साह) ‘कटी हुई पतंग’ (मुकेश शर्मा), ‘चादर मैली हो गई’ (डॉ.देवेन्द्रनाथ साह), ‘नकाब’ एवं ‘आईना’ (डॉ.सतीशराज पुष्करणा) इत्यादि ऐसी अनेक लघुकथाएँ उपलब्ध हैं। व्यंजना–शक्ति का उपयोग अन्य लघुकथाओं में भी हुआ है–यह बात अलग है कि उनके शीर्षक ‘वस्तु’ या ‘स्थान’ का नाम न होकर अन्य–अन्य हैं। व्यंजना–शक्ति लघुकथा के प्राण हैं। इस प्रकार के शीर्षक में प्राय: चर्चित कथाकार लिखते ही हैं। इस संदर्भ में डॉ. परमेश्वर गोयल की लघुकथा ‘मानसिकता’ को देखा जा सकता है। इस लघुकथा में कुत्ता कहीं से उड़ाकर रोटी खा रहा होता है, तो बिल्ली उसे ललचाई दृष्टि से देखती है, कुत्ता उसे रोटी खाने हेतु आमंत्रित करता है। बिल्ली उसकी नज़रों में झाँकते कपट को देखकर बोल पड़ती है–‘‘स्साला! कुत्ता भी आदमी की सारी आदतें सीख गया है।’’…गर्दन को झटकते हुए वह आगे बढ़ गई। इसमें ‘मानसिकता’ शीर्षक कुत्ते की मानसिकता के साथ–साथ आदमी की ‘मानसिकता’ पर भी चोट करता है। इस प्रकार यह शीर्षक लघुकथा की ऊँचाई‍ प्रदान कर जाता है और इस लघुकथा की गिनती श्रेष्ठ लघुकथाओं में सहज ही होने लगती है। जबकि ‘मानसिकता’ शब्द की चर्चा पूरी लघुकथा में कहीं नहीं हुई है। तात्पर्य यह है कि यह शीर्षक लघुकथा की आत्मा को स्पर्श करता है।

सुकेश साहनी की दो लघुकथाएँ ‘इमीटेशन’ एवं ‘वापसी’ भी इस संदर्भ में सटीक बैठती हैं। ये दोनों शीर्षक ही इन दोनों लघुकथाओं की आत्मा को स्पर्श करते हुए अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं। वापसी में एक बच्चे के कथन पर एक अभियन्ता गलत करते हुए पुन: सच्चाई एवं ईमानदारी के रास्ते पर वापस आ आता है। इस प्रकार की लघुकथाओं में डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘भविष्य–निधि’ महत्त्वपूर्ण है। एक पिता को अपने पैर स्वयं दबाते देखकर पुत्र पिता के पैर दबाने लगता है। पैर दबाते–दबाते वह सोचता है कि आज मैं जैसे पौधे लगाऊँगा, कल उन पर फल भी वैसे ही आएँगे। आज मेरे बच्चे मुझे पिता जैसे करता देखेंगे, कल वे भी मेरे साथ वैसा ही करेंगे। अपने भविष्य के लिए यह बहुत अनिवार्य है कि वह अपने वृद्धावस्था में अपने बच्चों से जैसी अपेक्षा रखता है, उसे अपने माता–पिता के साथ भी वैसा ही करना चाहिए। इस लघुकथा का भविष्य–निधि से श्रेष्ठ शीर्षक हो ही नहीं सकता। इस लघुकथा में वह बात पूरी लघुकथा में सम्प्रेषित नहीं हो पाती–उसे यह शीर्षक न केवल सम्प्रेषित है, अपितु लघुकथा को श्रेष्ठता भी प्रदान करता है। यह शीर्षक भी लघुकथा की आत्मा को स्पर्श करता है और उसकी आत्मा की अभिव्यक्ति को सहज ही सम्प्रेषित कर जाता है। इस क्रम में कृष्णानन्द कृष्ण की लघुकथा ‘संस्कार’ का भी अवलोकन किया जा सकता है। पति के अत्याचारों के कारण पत्नी को अपने पुत्र के साथ घर छोड़ना पड़ता है। एक लम्बे अन्तराल पर पति पत्नी से मिलने आता है ताकि पुन: साथ–साथ रह सकें। बेटा विरोध करता है ;किन्तु माँ कहती है, ‘नहीं अनिल, नहीं। तुम्हें बीच में बोलने की आवश्यकता नहीं है। ये पहले भी तुम्हारे पापा थे, आज भी हैं। चलो पैर छूकर प्रणाम करो।’’ नायिका का यह सम्वाद भारतीय संस्कार को प्रत्यक्ष करता है। यही इस शीर्षक की सार्थकता है। कोई अन्य शीर्षक सटीक नहीं हो सकता। इसमें भी सम्प्रेषण का कार्य शीर्षक ही करता है कि वस्तुत: लेखक क्या कहना चाहता है।…. क्या संदेश देना चाहता है। इस लघुकथा के औचित्य को भी यह शीर्षक ही स्पष्ट करता है।

इंदिरा खुराना की लघुकथा ‘कुण्ठा’ भी इस मायने में महत्त्वपूर्ण है। इस रचना में धृतराष्ट्र को प्रतीक बनाकर एक अंधे व्यक्ति के मनोविज्ञान को दर्शाया गया है। उसे लगता है कि मेरे अतिरिक्त सभी उसकी पत्नी के रूप–सौन्दर्य का रसपान करते हैं। वह कहता है–‘‘जब तुम्हारी दृष्टि किसी अन्य वीर, बलिष्ठ, सुन्दर–तेजस्वी युवक पर पड़ेगी तो उस समय मैं तुम्हें कितना दयनीय, असहाय, नगण्य प्रतीत होऊँगा।’’ धृतराष्ट्र का यह संवाद ही इस लघुकथा के प्राण है। कुण्ठा से बेहतर शायद इसका अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता। इसी क्रम में नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’ की लघुकथा ‘साम्राज्यवाद’ को रखा जा सकता है।

कुछ योरोपीय एवं अमरीकी लेखक वाक्यों या वाक्यांशों में अपनी रचना का शीर्षक रखते हैं। हिन्दी में उपन्यास एवं कहानी में इस प्रकार के शीर्षकों की भरमार दिखाई पड़ती है। किन्तु लघुकथा में ऐसा कम ही देखने में आता है। डॉ0 कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘खेलने के दिन’, ‘मुन्ने ने पूछा’ और ‘जो बाकी बचा है’ को सहज ही देखा–परखा जा सकता है। ‘जो बाकी बचा है’ में एक प्रवासी मज़दूर का बेटा गाँव में मर जाता है और वह गाँव जा नहीं पाता। वह सोचता है उसके जाने का दुख तो उसे है, मगर जाने वाला तो चला गया। अब मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा। खर्चा ऊपर से होगा। दो ढाई महीने के बाद फसलों की कटाई के अवसर पर जाएगा तो कह देगा कि चिट्ठी नहीं मिली–अब बाकी जो दो बच्चे हैं, उनके लिए तो कुछ–न–कुछ जमा–जोड़ कर लूँ यह शीर्षक भी ठीक है–किन्तु इस रचना का दूसरा शीर्षक भी हो सकता था। मगर यह शीर्षक एक अतिरिक्त आकर्षण पैदा करता है। ‘मुन्ने ने पूछा’ ये शीर्षक भी महत्त्वपूर्ण है। इस संदर्भ में इस लघुकथा की कतिपय पंक्तियाँ द्रष्टव्य होंगी–मुन्ने की धोई–सफाई करने के बाद वह उसे निक्कर पहनाने लगी तो मुन्ने ने कहा–मम्मी आप मेरी धोई तो बड़े प्यार से करती हैं और दादी जी की सफाई करते वक्त बड़बड़–बड़बड़ करती हैं–‘खेलने के दिन’ भी बहुत मार्मिक लघुकथा है। इसमें एक रईस अपने घर के फालतू खिलौने को गरीबों की बस्ती में मुफ्त बाँटने जाता है, तो एक बच्चा कहता है–‘‘बाबू जी! खिलौने लेकर क्या करेंगे? मैं फैक्ट्री में काम करता हूँ, वहीं पर रहता हूँ। सुबह मुँह अँधेरे से देर रात तक काम करता हूँ, किस वक़्त खेलूँगा? आप ये खिलौने किसी बच्चे को दे देना…। यह शीर्षक इस लघुकथा हेतु बहुत ही सटीक है। पूरी लघुकथा जो बात नहीं कह पाती– यह शीर्षक वह सब कुछ कह जाता है, जो कथाकार कहना चाहता है।

कुछ शीर्षक व्यंग्यात्मक होते हैं। प्रत्यक्षत: ऐसी लघुकथा एँ नकारात्मक संदेश देती प्रतीत होती है, किन्तु वस्तुत: उनमें से ध्पनित होता व्यंग्य–जो उसमें से सकारात्मक संदेश सम्प्रेषित करता है। इस प्रकार की व्यंग्यापरक लघुकथाएँ आठवें दशक में थोक के भाव में लिखी गईं–प्रकाशित भी हुई। उनमें भी कुछ श्रेष्ठ लघुकथाएँ सामने आईं थीं और आज भी ऐसी व्यंग्यपरक लघुकथाएँ कम ही सही, मगर लिखी जाती हैं। ऐसी लघुकथाओं में डॉ. परमेश्वर गोयल की ‘युग–धर्म’ को देखा जा सकता है। एक ग्रामीण बैंक के बाबू से कहता है–‘‘बैल हेतु कर्ज़ के लिए कई महीने हुए दरखास्त दिए। बाद वालों को कर्ज मिल भी गया, पर मुझे अब तक नहीं मिला।’’ इस पर काबू कहता है–‘‘रामभरोसे! दुनिया में जीना है, तो दुनियादारी सीखो केवल हाथ जो़ड़ने से, देवता भी खुश नहीं होते…प्रसाद भी चढ़ाना पड़ता है, समझे?’’

इस क्रम में रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ‘संस्कार’ को भी देख जा सकता है। इसमे कुत्ते एवं साहब के बेटे में विवाद होता है। कुत्ता साहब के बेटे को व्यंग्यपरक बाणों से छलनी करता है। उसपर साहब का बेटा बिगड़ उठता है और कुत्ता हँसते हुए कहता है, ‘‘अपने–अपने संस्कार की बात है। मेरी देखभाल साहब और मेमसाहब दोनों करते हैं। तुम्हारी देखभाल घर के नौकर–चाकर करते हैं। उन्हीं के साथ तुम बोलते बतियाते हो। उनकी संगति का प्रभाव तुम्हारे ऊपर जरूर पड़ेगा। जैसी संगति में रहोगे, वैसे संस्कार बनेंगे।

साहब के बेटे का मुँह लटक गया। कुत्ता इस स्थिति को देखकर अफसर की तरह ठठाकर हँस पड़ा।

जब कभी व्यंग्य स्वाभाविक रूप से लघुकथा में आता है, तो लघुकथा को श्रेष्ठता प्रदानकर जाता है। यह लघुकथा भी इस कथन का सटीक उदाहरण है। लघुकथा में शीर्षक के महत्त्व एवं उसकी सार्थकता को सिद्ध करते हुए कुछ उदहारण सटीक होंगे। इस संदर्भ में सत्यनारायण नाटे की एक लघुकथा ‘अपने देश’ का अवालोकन किया जा सकता है। एक व्यक्ति भिखारी की पूरी देह पर उभरे घावों को देखकर पूछता है कि तुम इन घावों का इलाज क्यों नहीं करवाते हो? भिखारी उत्तर में कहता है कि ‘‘घाव एकाध हो, तो इलाज भी करवाऊँ, मगर जहाँ पूरी देह घावों से भरी हो– उसका क्या किया जा सकता है?’’

इस क्रम में डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘बोफोर्स काण्ड’ को भी अवलोकित किया जा सकता है। इस संदर्भ में निशान्तर का यह कथन महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है–‘‘ लघुकथा का शीर्षक उसके शिल्प के अन्तर्गत आता है, यह बात डॉ.पुष्करणा की लघुकथओं से सिद्ध होती है। कई बार तो इनकी लघुकथा ओं का शीर्षक एक स्वतंत्र एवं केन्द्रीय प्रतीक बनकर अपनी महत्ता को स्थापित करता है। यह शीर्षक लघुकथा का ऐसा अभिन्न अंग बन जाता है, जैसे कि वह सम्प्रेषण की कुंजी हो। डॉ. पुष्करणा की ऐसी लघुकथाओं में प्रमुख हैं ‘बोफोर्स काण्ड’ और ‘सत्ता परिवर्तन’। ये दोनों लघुकथा एँ ऐसी हैं कि यदि इनके शीर्षकों को न पढ़ा जाए अथवा इन पर ध्यान न दिया जाए तो उनका कथन स्पष्ट नहीं होता, अन्यथा उसमें वह धार या चमक महसूस नहीं होती और लघुकथा के शिल्प का एक आवश्यक अंग बनकर उभरा है। डॉ. पुष्करणा की ही एक लघुकथा ‘अपाहिज’ भी अवलोकन की आकांक्षा रखती है। लघुकथा इस प्रकार है–

पश्चिमी रंग में रंगते जा रहे एक पुत्र ने किसी तरह साहस जुटाकर अपने भारतीय रंग में रंगे पिता से कहा, ‘‘पापा! मैं शादी करना चाहता हूँ।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मुझे प्यार हो गया है।’’

‘‘बेटे! पहले अपने पैरों पर खड़े हो जाओ, फिर जो जी में आए करना।’’

‘‘पापा! अगर अपने पैरों पर खड़ा नहीं भी हो सका हूँ, तो क्या हुआ….वह तो अपने पैरों पर खड़ी है।’’

इस लघुकथा को पढ़कर देखें और स्वयं सोचें, इसका अन्य भी सटीक शीर्षक हो सकता है? शायद नहीं हो सकता। इस शीर्षक के बिना इस लघुकथा का न तो कोई मतलब है, और न ही कोई औचित्य।

तात्पर्य यह है कि शीर्षक का जितना महत्त्व लघुकथा में है, उतना अन्य किसी विधा में नहीं है। लघुकथा में शीर्षक शिल्प का एक महत्त्वपूर्ण अंग है यानी लघुकथा का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता।

रत्नकुमार सांभरिया की लघुकथाएँ

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रत्नकुमार सांभरिया की लघुकथाएँ

-डॉ0 जितेन्द्र जीतू

यदि मानवेतर लघुकथाओं को पढ़ने का सुख लेना है तो आपको रत्नकुमार सांभरिया को पढ़ना होगा। यदि लघुकथा में थॉटफुलनेस से साक्षात्कार करना है तो भी आपको रत्नकुमार सांभरिया को पढ़ना होगा। यदि स्त्री-विमर्श की लघुकथाएँ पढ़नी हैं तब भी आपको रत्नकुमार सांभरिया को पढ़ना होगा। यदि दलित-विमर्श की लघुकथाएँ पढ़नी है तब भी आपको रत्नकुमार सांभरिया को पढ़ना होगा। उनकी लघुकथाएँ आपको पढ़ने के लिए मजबूर ही नहीं करती, मजबूत भी करती हैं। यदि हिन्दी लघुकथा से सांभरिया को डेबिट करना पड़े तो हमें हिन्दी लघुकथा की बैलेंस सीट फायनल करने के लिए कई अन्य को क्रेडिट करना होगा, क्योंकि उनकी अनेक लघुकथाएँ ऐसी हैं, जिन्हें केवल और केवल रत्नकुमार सांभरिया के द्वारा ही रचित किया जा सकता है।

सांभरिया की लघुकथाएँ आवाज़ नहीं करतीं। उनके पास मूक बोलने की कला तो  है ही, पात्रों में शालीनता के साथ विरोध करने का संयम भी कायम है। उनकी लघुकथा का भी यही प्रमुख आधार है। वे उन गरीबों के साथ हैं, जो चुपचाप अन्याय सहते जाते हैं, तो वे उनके साथ भी हैं, जो प्रतिरोध करना जानते हैं। सामान्यतः उनके पात्र गाँधी की भाँति अहिंसा का प्रदर्शन करते हैं, जो निश्चित ही अवतार नहीं  हैं, वह सामान्य हैं।

जब श्री सांभरिया मानवेतर पात्र रचते हैं, तो सज्जन हो जाते हैं। हालाँंकि यह एक सामान्य बात नहीं है। उनके पात्र हिंसक नहीं है, लेकिन उनका प्रतिरोध करने का ढंग द्रष्टव्य है। वे भाषा के ज्ञाता हैं। यदि अपनी भाषानुकूल पात्र रचते तो शर्तिया वह भी बौद्धिक हो जाता है। उनके पात्र आम जीवन से उठाये गये हैं। मानवेतर भी, जिनके माध्यम से सांभरिया अपने भीतर की आग को शब्दों के हवाले कर देते हैं। उनकी लघुकथाएँ बेशक वैचारिक द्वन्द्व से साक्षात्कार करातीं हों, लेकिन वे बौद्धिकता के फ्रेम में बंधी नहीं होतीं।

उनकी कतिपय लघुकथाओं पर दृष्टि डालेंगे जिन्हें प्रतिनिधि लघुकथाएँ मानना गहरी भूल होगी ;क्योंकि उनका फलक कहीं ज्यादा बढ़ा है।सांभरिया जी अपने मानवेतर पात्रों के सहारे अपने विचारों की दुनिया सजाते हैं। ये विचार बेशक उनके होते हैं लेकिन ये सारी दुनिया को प्रभावित और संवेदित करने की क्षमता रखते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में सर्वप्रथम उनकी लघुकथा ’अंतर’ को देखिए। लघुकथा का मुख्य पात्र एक घोड़ा है। घोड़ा भी क्या है, एक संवेदना है। एक फीलिंग है, जो आदमी में नहीं जागती, एक घोड़े में जागती है।

आदमी और घोड़े में यही अंतर होता है। आदमी स्वभाव से घोड़ा यानी जानवर होता है, जबकि घोड़ा अपने स्वभाव के कारण यहाँ आदमी को भी मात कर देता है।

घोड़ा दिन भर चाबुक खाता है फिर भी उसे अफसोस होता है कि उसके मालिक की हथेली चाबुक मारने के कारण नीली पड़ गयी है और वह अपनी संवेदनाओं का मलहम लगाने मालिक के पास पहुँच जाता है।

‘दर्द से गीली हो गईं घोड़े की आँखें एकाएक अपने मालिक की ओर घूमीं। वह थान के पास चारपाई डाले बैठा अपनी हथेली पर मेहंदी लगा रहा था। घोड़े का मन व्यथित हो गया। आँखें डबडबा आईं। गर्दन हिलाई और अश्रुकण नीचे झटक दिये। चारा छोड़ दिया। वह दो टापें आगे बढ़ा।’ (अन्तर)

दिनभर चली चाबुकों से मालिक की हथेली छिल गई थी। फफोले उठ रहे थे। चाबुक से आहत मालिक की हथेली को घोड़ा अपनी नर्म-नर्म जीभ से सहलाने लगा था। दर्द करते फफोलों को राहत मिलेगी।

यहाँ लघुकथा का कथानक जितना छोटा प्रतीत होता है, असर उससे कहीं अधिक है। यदि आपने लघुकथा उसी भावना के साथ पढ़ी है, जिस भावना के साथ लिखी गयी है तो आप आधी रात में सपने में देख पायेंगे कि घोड़ा आपके हाथ सहला रहा है। यह घोड़ा वस्तुतः एक जागृति है, जिसे सांभरिया जी जगाना चाहते हैं कि जाग जा मानुष..अभी भी वक्त है।

एक घोड़े में किस तरह की फीलिंग होती है। यह वही लेखक जान सकता है जिसने घोड़े के साथ उम्र गुज़ारी हो अथवा जो खुद घोड़े को जिया हो। यह जो दर्द होता है मालिक के हाथ में, वो दर्द सारा का सारा सिमट कर घोड़े की आँखों में आ गया लगता है। यह दर्द माालिक की छिली हथेली से घोड़े की आँखों में उतरा और अंततः लेखक की लेखनी में उतर गया।

रत्नकुमार सांभरिया जब लिखते हैं तो यह नहीं सोचते कि वे मानुष हैं। वे लघुकथा के कथानक का अंग बन जाते हैं। वे चरित्र को जीने लगते हैं। कभी वे वृक्ष बनते हैं तो कभी वटवृक्ष। मानवेतर लघुकथा ‘अपने हाथ’ में उनका चारित्रिक विश्लेषण करेंगे तो रत्नकुमार सांभरिया कभी न पायेंगे। वटवृक्ष या वृक्ष को ही पायेंगे। यह लघुकथा सृजन नहीं, बल्कि एक पूरा दर्शन है। इसमें वृक्षों के जीवन के ऊहापोह का चित्रण है, उनके जीवनकाल में आयी निश्चिंतता का वर्णन है। यदि आप लघुकथा को पढ़कर कुछ ऐसा ही सोच रहे हैं तो कृपया लघुकथा को दोबारा पढ़िये। आप अभी तक वहाँ नहीं पहुँच सके हैं जहाँ तक लेखक पहुँच गया है। कथानक वृक्षों के जीवन की कहानी नहीं बांच रहा। मानव जीवन की त्रासदियों को चित्रित कर रहा है। बेशक अडॉप्टेड वातावरण में ऐसा कुछ आभास न होता हो, किन्तु है कुछ ऐसा ही।

‘हरियाये वृक्षों की एक गुंफित  शृंखला थी। कुल्हाड़े हाथों में लिए कुछ लोग उन वृक्षों को काटने आ गए थे। सशस्त्र आततायियों को देखकर वृक्ष घबरा गये। उनके पाँव होते, इधर-उधर भाग खड़े होते। पंख होते उड़ जाते। हाथ होते मुकाबला करते। जड़ें थीं, गहरीं।

भयभीत वृक्षों ने वयोवृद्ध वटवृक्ष से समवेत स्वर में गुहार की-‘‘दादा, दुश्मन मौत बन कर आ रहे हैं, बचा लो, हमें।’’ (अपने हाथ)

रत्नकुमार सांभरिया जब ‘अहसान’  लघुकथा लिखते हैं तो वे निरीह बछड़ा बन जाते हैं। उनका बछड़ा होना गाय के दूध का सेवन करना नहीं, दर्द में विश्वास रखना है। खुर में कील ठुकवाने के लिए उन्हें बछड़ा होना होता है। उन्हें माँ मिले या न मिले, मर्म मिलना चाहिए। ‘सिकुड़ कर गठरी हो गया’ तथा ‘फड़फड़ी’ जैसे शब्द लघुकथा को एक नई हाइट से लबरेज करते हैं।

“नाल बाँधने वाले कारीगर ने अद्र्ध-चन्द्राकार लोहे को किशोर बछड़े के खुर पर रखा। उसके छेद में कील नुमाई और हथौड़ी की ठोंक दी। नुकीली कील खुर में घुसते ही बछड़े के सर्वांग पीड़ा बिजली-सी कौंध गई। सिकुड़ कर गठरी हो गया। भाग खड़ा होने के लिए उसने रस्सियों में जकड़े अपने पाँव छटपटाए। शरीर को फड़फड़ी दी। निष्फल।’’

विवश बछड़े ने व्यथित मन कील से अनुनय की-‘‘बहन, किस दुश्मनी तुमने मुझे कष्ट पहुँचाने का पुण्य कमाया?’’

‘अहसास’ प्रतिशोध की लघुकथा है, दुर्व्यवहार की गाथा है। यह प्रतिशोध अभी समाज में  द्रष्टव्य नहीं हैं। लेकिन यदि ऐसा होने लगा तो कप ही नहीं टूटेंगे, अपितु समाज के शेष बर्तनों से भी बास आने लगेगी।

‘‘सुदेश ने अपनी पत्नी से बलवंत का परिचय कराया-‘‘याद करती थी न, खूब। यही हैं, मेरे दोस्त बलवंत लाल। जाति से चाहे नीचे हैं, रहन-सहन, खान-पान, बोलना-बतियाना ऊँची जाति वालों से कतई कम नहीं है। फक्र है ऐसे दोस्त पर।’’

उसकी पत्नी चाय-नाश्ता ले आई थी।

बलवंत चाय-पानी पीकर गेट से बाहर निकला तो सुदेश की पत्नी ने उन कप-प्लेटों को तोड़ दिया, जिन्हें बलवंत ने इस्तेमाल किया था। वह खून का घूँट पीकर रह गया था।’’ (अहसास)

लघुकथा लिखते हुए सहजता जरूरी है। अधिक मुखरता सृजन को कमजोर कर सकती है। सांभरिया लघुकथा को लिखते वक्त उसके कंटेन्ट को ध्यान में रखते हैं और पात्रों के भीतर प्रवेश कर जाते हैं। उनकी लघुकथा ‘आईना’ बोधकथा के पैमाने को छूकर निकली है। लघुकथा में खरखराने तथा रिपसता-रिपसता जैसे शब्दों का प्रयोग अलग ही आकर्षण उत्पन्न कर देता है।

एकांत पाकर चिड़ा आईने पर आ बैठा। वह अपनी चोंच खरखराने के लिये उस पर झुका। उसे आईने में बलिष्ठ देहयष्टि का एक चिड़ा दिखाई दिया। उतना ही तगड़ा-ताजा, जितना वह है।

            एकाएक एक शंका से चिड़े का सर्वांग सुलग उठा था, ‘‘ओह, यह उसकी संगिनी की करतूत है। मेरी अनुपस्थति में यह मेरा विकल्प है। वह जितनी भोली-भली है, उतनी ही बेवफ़ा है। मेरे पत्नीव्रत होने का यह सिला! कपटाचार।

पस्त चिड़ा आईने से रिपसता-रिपसता नीचे आ गिरा था।

दम तोड़ता चिड़ा खुश था, उसने गैर को परास्त कर दिया है।’’ (आईना)

सांभरिया नहीं मानते। गर्ज़ कि तवा हो गये हैं। खुद को जलाने लगे हैं। रोटी से बहस लड़ाने लगे हैं और इस बहस में वे इशारा कर बैठते हैं कि बड़ा वही होता है, जो खुद को होम कर देता है। दूसरों के सुख के लिए। इतनी बड़ी बात कहने के लिए वे यह भी परवाह नहीं करते कि उनकी लघुकथा को बोधकथा होने का खतरा उत्पन्न हो सकता है।

सांभरिया की लगभग हर लघुकथा संदेश देती है। लघुकथा ‘आटे की पुड़िया’ में कष्टों का विवरण है। दर्द का विस्तार है। लघुकथा में मजदूरिन आटे की पुड़िया को सोने के सिक्के की माफ़िक रखती है। लघुकथा वर्णनात्मक है। लघुकथा का अंत किसी नतीजे की घोषणा करता प्रतीत नहीं होता, अपितु कष्टों के भीतर कष्टों के साथ कलपता हुआ मौन ही सिधार जाता है। सिधारता भी कहाँ है। वह मजदूरिन तो कत्र्तव्य निभा रही है तो लघुकथा का अंत भी पल-प्रतिपल नये संघर्ष के अन्वेषण में सिसकता प्रतीत होता है। प्रतीति है तो मजदूरिन के बच्चे के प्रति, बच्चे की माँ के प्रति और उस दर्द और संघर्ष के मार्ग के प्रति, जिसे उन्होंने स्वयं चुना है।

लघुकथा में ये अपने मुहावरे स्वयं गढ़ते हैं-माँ सींक सी, बेटा कांटे सा तथा भूख बड़ी, दुनिया छोटी और मजदूरिन के आँचल दूध उतरे आदि। ये मुहावरे नैरेशन में देते हैं और लघुकथा का प्रवाह अवरूद्ध होने का खतरा मोल लेने में भी संकोच नहीं करते।

‘‘मजदूरिन के पास मात्र पाँच रुपये हैं, वह आटा खरीदे या ….? वह बच्चे को लिए दुकान से थोड़ी दूर खड़ी थी, दुकान की ओर आँख लगाए। दुकान पर मौजूद ग्राहक जब चले गए, मजदूरिन ने अपनी अंटी खोली। पाँच रुपए के मुड़े-तुड़े नोट की सलें ठीक कर वह दुकान पर गई। उसने दुकानदार की ओर जितनी जल्दी हाथ बढ़ाया, उतनी ही लंबी साँस मारी, व्यथाभरी-‘‘सेठजी, आटा तोल दो।’’

दुकानदार ने गरीबी की मुखबिर-सी मजदूरिन की ओर तटस्थ भाव से देखा-‘‘पाँच रुपए का आटा? कितना-सा आएगा?’’

तोल दो। उसने सेठजी का बिगड़ा चेहरा देखा। तराजू देखी। गर्दन नीची कर ली।’’ (आटे की पुड़िया)

सांभरिया की लघुकथा ‘आदमी’ लेखक की जिद की कथा है, जिसने कथा के आरम्भ में ही आदमी की नीयत पहचान कर उसे भिखारी घोषित कर दिया। यह एक ऐसे भिखारी की कथा है जिसे सत्ता हमेशा भिखारी बनाये रखना चाहती है और इन दोनों से अधिक यह सत्ता की एक कथा है जिसे बाँटों और राज करो की नीति सदैव भाती आयी है। सांभरिया ने इन तीनों कोणों को जम कर टटोला है।उनकी भाषा का जादू भी यहाँ जम कर चला है-धरती बिछाते थे, आसमान ओढ़कर सोते थे, जगह गंदाई है। नाक भींचे निकलते हैं जैसे वाक्यों का सुनहरापन यहाँ भी देखने को मिलता है।

‘‘मंत्री ने अपने नेताई अंदाज में भिखारी नेता को सहलाया-‘‘भिक्षावृत्ति उन्मूलन के लिए सरकार अभियान चलाकर उनके पुनर्वास की योजना पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कर रही है। आपको सहयोग करना चाहिए।………………..पशुओं के साथ रहते इज़्ज़त नहीं है। रही बात उनके सींग पैने करने की, चिंता मत करो। हमारे पास बंदूकें हैं।’’ मंत्रीजी ने भिखारी नेता का कंधा थपका-‘‘जाओ, निजी सचिव से मिल लो।’’

दूसरे दिन चैराहे पर जलसा था। भिखारी नये-नये परिधान पहने स्टेज के नजदीक बैठे थे। भिखारी जिसको सबने अपना नेता चुना था, सफेदपोश बना मंत्रीजी के पास स्टेज पर विराजमान था।

आक्रोशित और आहत पशु दूर खडे़ खोखिया रहे थे।’’ (आदमी)

कभी-कभी सांभरिया जी साधारण से लगने वाले कथानक को भी अत्यन्त सावधानीपूर्वक सजाते हैं। फलस्वरूप लघुकथा एक मैसेज देने की कोशिश करती प्रतीत होती है। उनकी लघुकथा ‘अपना अपना संसार’ देखी जा सकती है जो एक शिशु पक्षी और उसकी माँं के बीच के सम्बन्धों का खाका खींचती है। ये सम्बन्ध इतने गहरा गये हैं कि शब्द कम पड़ जाते हैं किन्तु भीतर की संवेदना कम होने का नाम नहीं लेती। हालाँंकि यह सर्वविदित तथ्य है कि युवा होने के बाद पक्षी बहुत दिन अपनो के साथ नहीं गुज़ारता तो भी सांभरिया जी स्त्री पक्षी की उस मूक संवेदना को परिभाषित करने की चेष्टा करते हैं। इस तरह यह लघुकथा मानवेतर नहीं स्त्री मानव मन की पड़ताल करने लगती है।

            ‘सूरज डूब गया था। रात गहरा गई थी। रात बीत रही थी। चिड़ी घोंसले के द्वार पर अपनी चोंच टिकाये, ममता का चिराग जलाये बैठी थी। बच्चे की चिंता, उसकी आँखें अश्रुवर्षण कर रही थीं। मन तड़प रहा था। बच्चे की बाट जोहते उसने पूरी रात आँखों में काट ली।

वह नहीं आया था। उसके संसार के समक्ष घोंसला छोटा था, अब।’ (अपना अपना संसार)

सांभरिया जी अपनी लघुकथा ‘आवरण’ में मुखौटों की वकालत करते नज़र आते हैं और यह नाहक ही नहीं है। जब वे आवरण रचते हैं तो उनके संज्ञान में जंगल में पायी जाने वाली भेड़ें नहीं, कंकरीट के जंगलों में मिलने वाली भेड़ें होती होंगी। यह लघुकथा हमारे वर्तमान संकट को प्रदर्शित करती है। यदि यह लघुकथा उपदेशात्मक नहीं है, तो सांभरिया जी प्रशंसा के पात्र हैं। मेरे विचार से इसे उपदेशात्मक बनाने का विचार उनके मन में आया भी नहीं होगा। और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। यह एक सच्चाई है और इसके अपने खतरे बेशक होते हों लेकिन उपदेशात्मक होने की घोषणा करने से बड़ा खतरा कोई नहीं होता होगा।

देश में जातिगत व्यवस्था के तेवर जिस भाँति तारी हो रहे हैं, उसे देखते हुए सम्मान के साथ जीना एक दुष्कार्य बनता जा रहा है। ऐसे में मुखौटों का अस्तित्व बेशक एक औषधि प्रदान करता हो, किन्तु यह इलाज नहीं है और निश्चित रूप से यही कारण रहा होगा सांभरिया जी के समक्ष लघुकथा ‘आवरण’ लिखते वक्त।

‘भेड़ दम्पती लौटा तो उनके शरीर पर भेड़िया-आवरण था। वे गली मोहल्ले से निकलते। कुत्ते, कुत्तियाँ और उनके पिल्ले उनको देखकर घरों में घुस जाते। भाग खड़े होते। ज़मीन पर लेट दुम हिला-हिला उनका अभिवादन करते। अपनी जान की खैरियत चाहते।

दम्पती को पश्चाताप था।पहले चेते होते, न उनकी वंश संपदा का विनाश होता, न ही उनका स्वाभिमान मरता।’ (आवरण)

रत्नकुमार सांभरिया यर्थाथवाद के पोषक हैं। उनका यर्थाथवाद उनकी लघुकथाओं के शब्द-शब्द में झलकता है। ‘आस्था’ ऐसी ही यथार्थवादी लघुकथा है, जिसे उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ रचा है। लघुकथा में जो चींटियां हैं, वे सांभरिया जी की सहयोगी हैं। चींटियाँ लघुकथा के आरम्भ में ही बता देती हैं कि ये पड़ोसी की दहलीज के भीतर नहीं रहने वालीं। ये दहलीज के बाहर निकलेंगी। लेखक के रुकने से भी नहीं रुकने वाली। और ऐसी कोई कोशिश भी नहीं करते दिखते। चींटियों का एक समर्पण हैं। उनका एक समाज है। मानवों का समाज नहीं होता। न ही समर्पण होता है। उनका तो स्वभाव होता है। और यह स्वभाव उन्हें चींटियों से भी पिछड़ा हुआ बनाता है।

            ‘‘बरसात हुई और चींटियों के बिलों वाली नीची जगह में पानी भर गया। मरता क्या नहीं करता। चींटिया ने रातों-रात अपना दूसरा बसेरा ढूँढ लिया था।

                        उसने सुबह उठकर देखा। उसके गेट के पास जो ऊँची जगह थी, वहाँ चींटियों ने अपनी बिलें बना ली थीं। बिलों से उनकी आवाजाही अनवरत जारी थी।’’ (आस्था)

                        घर के बूढ़ों के साथ व्यवहार पर आधारित लघुकथा ‘एक और एक ग्यारह’ अपनी भाषा और शिल्प के कारण चिह्नित की जा सकती है। लघुकथा में बाढ़ के द्वारा अपने ही खेत को खाने का इधर अपने भारतवर्ष में चल रहे ट्रेण्ड का उदाहरण मिलता है। यह जो मुल्क हैं न, उसमें नयी जमात आजकल भरोसे की नहीं रह गयी है। वो जब कुछ नहीं होता है तो उसे सब कुछ चाहिए होता है और जब वो कुछ बन होता है तो उसे एक ही चीज चाहिए होता है जो उसे अपनी संगिनी में मिल जाता है।

जब वो कुछ बन जाती है तो उसे वो सब नहीं चाहिए होता है, जो उसने माँ-बाप से सीखा होता है।

            ‘‘क्षुब्ध बूढ़ी ने शिकायती निगाह बूढ़े की ओर लखा-‘‘मुझ से लड़-झगड़ कर दंभ भरे गये थे न, बेटे के पास दिल्ली   रहूँगा।

            पत्नी के तंज का प्रत्युत्तर, आत्मग्लानि और रोष से हिलती बूढ़े के चेहरे की झुर्रियाँ थीं। उसका कंठ रुंध गया, बुदबुदाते होंठ पीड़ कर पी कर रह गये थे।’’

उनकी लघुकथाओं में दलित विमर्श आसानी से मिल जाता है। सदियों से पंडितों के द्वारा समाज पर हुकूमत करने का चित्रण उनकी लघुकथाओं में मिलता है। ‘कर्म’ लघुकथा कुछ इसी तरह का मैसेज देती है। साधारणतया सोच यही है कि दलितों की खराब स्थिति ब्राह्मणों के द्वारा ब्राह्मणों के लिए बनायी गयी है। इसलिए इस प्रकार की रचनाओं में ब्राह्मणों के द्वारा किये गये अन्यायों का सचित्र वर्णन दृष्टिगत होता है।

‘‘चारावाली ने उसकी हाँफी देखी। सहज होते हुए आग्रहपूर्वक अनुरोध किया-‘‘दादीजी, आप तीसरी मंजिल से नीचे आती हैं। आपका शरीर दोहरा है। उतरते-चढ़ते तकलीफ होती है। आपके नाम पर मैं गायों को चारा डाल दिया करूँगी। सप्ताह दस दिन में हिसाब कर लेंगे और लोग भी……….। आप गायों से लिपट-लिपट रोज साड़ी भी गंदी कर लेती हैं।’’

पंडिताइन ने  होंठ बिचकाए। हाथ नचाया। चिनकी उठी-‘‘बावली हुई है। धर्म हाथ का। गौ-माता के बारे में ऐसी अधर्मी बात मत निकालना मुँह से सेवा करती साड़ी खराब कर लेती हूँ। कह देती हूँ, हाँ।’’ (कर्म)

कतिपय लघुकथाएँ ऐसी हैं जो अपने समय की चुस्त रचनाएं रही होंगी, किन्तु कालांतर में इसी प्रकार की अनेक रचनाएं आ जाने के कारण नये पाठक को मूल रचना में वह स्वाद नहीं आ पाता है जो इसके लिखने के समय रहा होगा। यह विचित्र स्थिति है और इससे बड़े से बड़े लघुकथाकार को गुज़रना पड़ता है। फिर भी रत्नकुमार सांभरिया की लघुकथा ‘किरचें’ राजनीतिक और मंजे हुए चरित्रों के प्रस्तुतीकरण के लिए अलग से पहचानी जा सकती है।

‘‘उसकी गर्दन लटकी थी। धीरे से बोला-‘‘साहब, सुबह दस बजे से शाम पाँच बजे तक पंडाल में इतनी भीड़ थी तिल गिरने की जगह नहीं थी।’’ वह अपने बूढ़े हाथों धोती का छोर लेकर चश्मे के काँच पोंछने लगा था।

‘‘जब इतना पैसा फुँक गया, ठेकेदार को थोड़ा रुपया और देते, भीड़ रुक जाती।’’

‘‘हमने लाख कोशिश की साहब। उसके पाँवों पगड़ी तक रख दी। तैयार ही नहीं हुआ, वह।’’

‘‘क्यों?’’ अध्यक्ष ने क्रोधित मुद्रा में अपनी कार की ओर बढ़ते हुए पूछा।

उम्मीदवार रुँधे कण्ठ बोला-‘‘साहब, शहर में अभी छह बजे दूसरी पार्टी का जलसा है।’’ (किरचें)

सांभरिया जी के भीतर एक आक्रोश है, जिसके स्वर उनकी लघुकथाओं में उनके द्वारा क्रिएट किये गये प्रधान चरित्रों के माध्यम से प्रस्फुटित होते हैं। उनकी लघुकथा ‘कोड़ा’ ऐसी ही है जिसकी प्रमुख पात्र ‘पतिया’ है। ‘पतिया’ के भीतर ज्वाला सुलगती है जो उसे बिल्कुल अलग चरित्र घोषित करती है। जिसके कारण लघुकथा अविस्मरणीय बन गयी है।

            ‘‘मालकिन ने अपने मुँह में दबी पान की गिलौरी को चुभला और नाक छिनक कर कहने लगी-‘‘ऐ पतिया, देख तेरी बक-बक सुनने के लिए मेरे पास टेम नहीं है और सुन, ऐसी मुँहजोर भी पसंद नहीं है, मुझे। कल से पोंछा-बर्तन को मत आना, तू।’’

लाख रोकते पतिया के अंदर का आक्रोश दब नहीं पाया। वह मालकिन उसे बेहद खुदगर्ज और जाहिल लगी। पतिया दो क़दम आगे बढ़ी और मालकिन के हाथ में रुपये थमाकर बोली-‘‘ऐ री बीबीजी, हम तुम्हें पूरे महीने की तनखा दिये देती हैं, तुम एक दिन हमारे घर पोंछा-बरतन कर आओ।’’ (कोड़ा)

‘‘गुंडई’’ सांभरिया जी की वह लघुकथा है, जो वर्दी की कलई खोलती है। बूढ़ों की व्यथा अपने सपूतों द्वारा ठुकराया जाना ही नहीं होती, प्रशासन से भी परेशान है। लघुकथा में किस्सागोई आकर्षित करती है। भाषा तो खैर इनकी गज़ब की है ही।’’

            ‘‘एक दिन बूढे़ और बुढ़िया दोनों ने हिम्मत बाँध ली। वे अपनी-अपनी लकड़ी टेकते, हाँफते-धूजते थाने चले गए। दरोगा दिखे कि वे उनके पाँवों में गिर पड़े। बूढ़े ने उनको अर्जी पकड़ाई। झुर्रियों से अटीं, डबडबार्इं आँखों को मिचमिचाते हुए उसने व्यथा-कथा दरोगा को सुना दी।

            बुढ़िया ने अपनी आँखों की पानियाँ पोंछते हुए दरोगा से गुहार की-“बेटा, गुण्डों से हमारी इज्जत बचा लो।“

अधेड़ावस्थी दरोगा का रात-बिरात वृद्ध दम्पती के घर आना-जाना शुरू हो गया था।’’

साम्प्रदायिकता की आग को ‘घोंसला’ जैसी लघुकथा के माध्यम से व्यक्त करना रत्नकुमार सांभरिया जैसे कुशल लघुकथाकार का ही कौशल है। पूरी लघुकथा में साम्प्रदायिकता का कहीं भी ज़िक्र नहीं है। अंत में चिड़ी जब वेदनापूर्वक बस्ती में घोंसला न बनाने के अपने अनुरोध का स्मरण चिड़े को कराती है तभी यह जाहिर होता है।

‘‘चिड़ी ने फुँक रहे घरों की ओर देखा, जल कर ठूँठ हो गये अपने आश्रयदाता वृक्ष के प्रति सहानुभूति प्रकट की और चिड़े को आग्नेय नेत्रों से घूरती हुई बोली-‘‘मैंने तो पहले ही मना किया था, बस्ती में घोंसला मत बनाओ, अब।’’

‘चश्मा’ शानदार लघुकथा है, जो भारतीय लालफीताशाही और विभागों@कार्यालयों में चल रही अव्यवस्थाओं का पुरजोर ढंग से पोल खोलती है। लघुकथा व्यंग्य करती है भ्रष्ट आचरण पर और पाठकों को यही प्रतीत होता है कि एक सामान्य सा किस्सा है सांभरिया जी ने किस्सागोई अंदाज़ में पिरोया है।

‘फूँक- फूँककर क़दम रखते दो वृद्धजन आए। फूँक  उड़े उनकी देह थीं। बाबूजी का चश्मा और खुला काग़ज़ देखकर वे आश्वस्त थे। बाबूजी बस आते ही हैं। हालाँकि वहाँ कुर्सियाँ पड़ी थीं, उन्होंने अपनी गरज और गँवई गरिमा के मद्देनज़र धरती मैया पर बैठना उचित समझा। वे दोनों हाथ जोड़ कर वहीं आस लगा कर बैठ गए और उम्मीदभरी निगाह कुर्सी की ओर देखते रहे, बाबूजी अब आए।’’

चपड़ासी आया और उसने अपना वही वाक्य दोहराया-‘‘बाबूजी अभी-अभी बाहर गए हैं। उनका चश्मा रखा हैं। काग़ज़ खुला पड़ा है। आएँगे ज़रूर। बाहर बैठो।’’

शाम होते नेत्रहीन, मूकबधिर, निःशक्त, अशक्त और वृद्धजनों का हुजूम हो गया था। रोज-रोज की परेशानी से अच्छा है, आज बाबूजी से मिल कर ही लौटें। उनका चश्मा रखा है। काग़ज़ खुला पड़ा है। ‘‘आएँगे ज़रूर।’’ (चश्मा)

पत्रकारों का दायित्व निरपेक्ष भाव से पत्रकारिता करना होता है, बिना किसी दवाब के। इसीलिए मीडिया को लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहा जाता है। यदि मीडियाकर्मियों को चुग्गा खाने की आदत पड़ जाये तो? सांभरिया जी की लघुकथा ‘चुग्गा’ में एक पत्रकार को यही रोग लगा है। लघुकथा नैरेशन में है और पुराने ट्रीटमेंट के बावजूद अपने कथ्य के कारण आकर्षित करती है। राष्ट्रहित में ऐसे कथानक वाली लघुकथाओं की बहुत जरूरत है। आजकल के मोबाइल युग में भी इस तरह के प्रस्ताव पत्रों के माध्यम से आते होंगे इसमें संदेह होता है। लघुकथा बतलाती है कि सत्ता के सामने इस प्रकार की पत्रकारिता हमेशा से एक चुनौती रही है।

‘‘लेखक को अगले दिन पत्र मिला। उन्होंने उसे खोलकर पढ़ा। उनकी आँखें पत्र से चिपक गईं। उन्हंे यक़ीन नहीं हो रहा था, सरकार ने उनको अपनी साहित्यिक संस्था का अध्यक्ष बना दिया है।

सहसा वे आनंदित हो हवा में तैरने लगे। दफ्तर, आवास, स्टॉफ, कार, नौकर-चाकर और मासिक पत्रिका। नामी-गिरामी साहित्यकार ढोंक देंगे। वाह! वाह!! अच्छे दिन आ गए हैं।’’

सांभरिया जी में गज़ब की किस्सागोई है। ‘चुनाव प्रचार’ कुछ इसी प्रकार की लघुकथा है। चुनाव के प्रचार जैसे विषय को लेकर उन्होंने पूरी चुनाव प्रणाली पर ही तंज कसा है।

‘‘एक सभा-स्थल पर अजूबा हुआ। नेताजी मंच पर तुल रहे थे, उनका वज़न बढ़ गया। आयोजकों की चिंतित, आश्चर्यभरी सवालिया निगाहें एक-दूसरे पर अटक गयीं, ‘कैसे हो? क्या करें? और सिक्के कहाँ से लायें? उनमें उतना ही वज़न होता था, जितने बोरी में सिक्के।

दर्शक कुछ देर उत्सुक और उत्साही रहे। तराजू के दोनों पलड़े बराबर नहीं हुए, तो उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने शोर मचाना शुरू कर दिया। नेताजी और उनकी पार्टी के खिलाफ हाय-हाय के नारे लगा दिये।

नेताजी सुर्ख हुए पलड़े से उतरे और आयोजन समिति पर आग बबूला हो उठे। क्षमा माँगने पर भी जब वह शान्त नहीं हुए, उनके एक हमप्याला से नहीं रहा गया। उसने याद दिलाया-‘‘साहब रात दारू कम पड़ गई तो आपने ही कहा था न, कार में पड़ी बोरी में से सिक्के निकालकर ले आओ।’’ (चुनाव-प्रचार)

वे अपनी लघुकथाओं में कभी-कभी पात्रों की बेबसी का ऐसा वर्णन करते हैं कि आँखें चौधिया जाएँ। उनकी लघुकथा ‘चौकीदार’ एक ऐसी ही लघुकथा है। लघुकथा में ‘मुँह चुभलाते हुए मेरी ओर आँखें टिमकाईं’ और ‘धूजते हाथों’ जैसे वाक्यांश-शब्द उनकी सम्पन्न शब्द सम्पदा को दर्शाते हैं। इन पर गर्व किया जाना चाहिए।

‘‘जिस कॉलोनी में मैं पहले रहता था, वहाँ दस रुपए माहवार चौकीदारा देता था। यहाँ के चौकीदार की शख्सियत और लॉकेलिटी देख, मैंने बीस रुपए उसकी ओर बढ़ा दिये।’’

उसने जेब में से गुटके का पाउच खींचा। चुटकी से फाड़ा। मुँह में फांक गया, समूचा। मुँह चुभलाते हुए मेरी ओर आँखें टिमकाईं-‘‘सर पचास रुपए और दे दीजिएगा, आप?’’

‘‘सत्तर  रुपये?’’ मैं चौंका। ‘‘ज्यादा है?’’

‘‘सर आपके छोटा बच्चा भी है, न एक। उसके भयावह चेहरे पर कुटिलता उभर आई थी।

मेरे नथूने काँपने लगे। पलकें नम हो आई थीं। दो माह की इकलौती बिटिया है, मेरी।

उसे पचास पये पकड़ा कर मैंने धूजते हाथों गेट बंद कर लिया था।’’

सांभरिया की लघुकथा ‘‘जानवर’’ के चरित्रों की बात करें तो एक ही परिवार के सभी सदस्य उनके घर घुसे सिपाही नाम के जानवर के बारे में जानते हैं और बात करते हैं, लेकिन बोलने का बीड़ा उठाता है एक किशोर वय पात्र। सांभरिया जी की महारत है उनके पात्रों की महानता या जिस किसी पात्र के हिस्से के संवाद होते हैं वही सामने आता है अथवा मौके की नज़ाकत भांपकर ही किरदार उपस्थित होता है, यह विस्मयकारी है। लघुकथा में तरुण ने जो कहा वह खानाबदोश मुखिया भी कह सकता था। तरुण तो एक है जिसे लघुकथा में लाना या न लेकर आना लेखक पर निर्भर करता है। अब या तो लेखक ही इतना असहाय हो जाता है लिखते समय कि किरदार खुद-ब-खुद बनते चले जाते हैं और अपने हिस्से के संवाद बोलते चले जाते हैं अथवा लेखक खुद ईमानदारी से किरदारों को चुनता है और उनके  संवादों को गढ़ता है।

‘‘नहीं साब! हमें डर लगता है। बहुत डर लगता है, साब!’’ गुहार करता असहाय खानाबदोश रुआँसा हो गया था।

‘‘किसका?’’ सिपाही ने आँखें फैला कर जिज्ञासा प्रकट की।

सिपाही की कदाचारी देखकर तेरहेक साल के खानाबदोश लड़के ने सिपाही को घूरते ज़मीन में अँगुली  धँसा दी-‘‘है एक जानवर।’’ (जानवर)

सांभरिया जी की ‘जीने की राह’ से परिचय ‘हंस’ मासिकी के माध्यम से हुआ। लघुकथा में सांभरिया जी का मुख्य पात्र सारी दुनिया को रुलाता है। वह दर्द में है पर दर्द से बेखबर है। उसे दर्द से तब राहत तब मिलती है जब घर पर उसकी पत्नी उसके दर्द को बांटती है। लेकिन थोड़ी ही देर में उसका दर्द फिर बढ़ जाता होगा क्योंकि तब एक घोड़े की चर्चा हम उसके मुँह से सुनते हैं। घोड़ा भी दर्द के मारों में होता है, लेकिन उसके पाँंवों में लोहा ठोंक दिया जाता है, जिससे उसे दिन भर सर्दी, गर्मी, बरसात, पत्थर, पानी, रेत, मिट्टी में चलते हुए दर्द कम हो। इसी की कामना मुख्य पात्र करता है और अपने लिए जूती खरीदने से पत्नी के प्रस्ताव का मुस्कुरा कर ठुकरा देता है। दर्द और पीड़ा का जो मार्मिक वर्णन सांभरिया जी ने किया है वह मुख्य पात्र के साथ आपको भी रुला जाता है। सांभरिया जी जो भाषा लघुकथा में प्रयुक्त करते हैं, वह अतुलनीय है। जो लघुकथा लिखने की राह प्रदर्शित करती है।

‘‘पति की दयनीयता देखकर उसका मन भर आया। विस्फारित नेत्रों में आँसू डबडबाने लगे। रोती-सी बोली-“अभी जाकर जूतियाँ पहन आओ। यूँ कितने दिन जी पाओगे?”

उसने अपने हड़ीले चेहरे में धँसी छोटी-छोटी आँखों को टिमटिमा कर पत्नी को समझाया-“इस काम में जूतियाँ चार दिन नहीं पकडे़ंगी। पैसे बेकार। तैनाल वाले के पास जाऊँगा कल। वह घोड़े की तरह मेरे पंजों में भी लोहा ठोंक दे।”

‘तमाचा’ में एक नेकलेस की संघर्ष गाथा का सारांश हथौड़ी के माध्यम से व्यक्त है। यह मात्र कुछ ही शब्दों में है और वार्तालाप शैली में है। यह सब सांभरिया के बस का ही है। वस्तुतः सांभरिया जी का आशय है कि बिना कथानक के संवाद अदायगी भर से भी लघुकथा कही जा सकती है और काफी कुछ कहा जा सकता है।

‘‘यह मत भूलो, तुम्हारा यह सुंदर बदन मेरी ही चोटों की परिणति है? हथौड़ी ने बड़ी अहमियत से नेकलेस की बात का प्रतिवाद किया।’’

यह सांभरिया की इच्छित शैली है कि बाल और कैंची परस्पर संवाद आरम्भ कर दें और लघुकथा बना दें।

‘‘बालों की बेतुकी बात कैंची के रति-मासा गले नहीं उतरी। बोली-‘‘भैया, तुम अकेले ही कटते हो, मैं नहीं घिसती हूँ क्या, तुम्हारे साथ? मेरी काया वह कहाँ रह गई, जैसी थी।’’

दूसरी ओर, जहाँ कहीं सांभरिया जी अपनी लघुकथा के लिए जीवंत कथानक बुनते हैं, वहाँ वे अपने भीतर की संवेदना सारी की सारी उलट देते हैं, कथानक में। उनकी लघुकथा ‘ताला’ को इसके लिए पढ़ना होगा, जहाँ पर कोई मैसेज उनकी लघुकथा नहीं छोड़ती पाठकों के लिए। सिवाय  संवेदना के। यह संवेदना ही लघुकथा की जान बन जाती है।

‘‘पत्नी की तेरहवीं को दूसरा दिन था। आँगन आँसुओं से गीला रहा, पूरे दिन। रात दस बजे थे। कॉलेज जाती अपनी लड़की और स्कूल जाते लड़के को रामधारी ने अपने पास बैठाया। उसने एक-एक के सिर पर वात्सल्य से दोनों हाथ फेरे। बायाँ बाप का हाथ। दायाँ माँ का हाथ।

उनको ढांढस बंधाते वह कहने लगा-‘‘जब तुम्हारी माँ थी, घर खुला रहता था।’’

जेब से ताला निकालकर सामने रख दिया। चाबियाँ लीं तथा लड़के और लड़की को एक-एक संभलाकर कहने लगा-‘‘ताला ले आया हूँ। तीन चाबियाँ हैं। हम सबके पास एक-एक चाबी रहेगी। पहले आएगा, घर का ताला खोल लिया करेगा।’’ (ताला)

जातिगत शोषण के विरोधस्वरूप ‘दंश’ जैसी लघुकथाएँ उपजती हैं।

‘‘एक चिड़ा झोंपड़ी की छान पर बैठा अपनी चोंच खरखरा रहा था। उसने आँखें रोककर टकटकाया। उड़ा और दाना खींच कर ले जा रहे चींटे के निकट आ बैठा था। चींटे से दाना छीना, चोंच में भरा और फुर्र उड़कर फिर छान पर जा बैठा था। चोंच मार-मार उसने दाने को तोड़ा और ग्रास-ग्रास खा गया था।’’

सांभरिया को विरोध की चाशनी पसंद है। बाप-बेटे के द्वंद्व के बीच उन्होंने विरोध के स्वर को प्रमुखता दी है। यह स्वर उनकी लघुकथा ‘दो मुँह’ में शिद्दत से महसूस किया जा सकता है जिसमें पिता को अपनी होने वाली बहू के प्रोफेशन, शौक पर एतराज है। लघुकथा पर इसके काल को लेकर बयानबाजी की जा सकती है, लेकिन देखा जाये तो आधुनिक होने के बाद भी घरों में इस प्रकार की दिक्कतें पुत्र के समक्ष उपस्थित हो जाती हैं, जिनपर लेखकों को ध्यान जरूर जाता है भले ही परिणाम पुत्र के पक्ष में हो अथवा पिता के पक्ष में। यहाँ लघुकथा में पुत्र के संकल्प से पाठकों को अवगत करा दिया जाता है, लेकिन क्या हम इसी प्रकार के पुत्रों के हर काल में दर्शन करेंगे। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पुत्र माँ-बाप का विरोध न करके उनकी अपने पक्ष में सहमति बनाकर इतिहास रचे?

‘‘बेटे की पसंद सुनी कि वे अवाक रह गए। शौहरत और धन-दौलत का नशा, प्रतिष्ठा और जात्याभिमान मानो दफ़न हो गए थे, उनके। मन दुःखी हुआ। लड़के का मुँह नोच ले। उन्होंने उम्र की परिपक्वता और पिता की गरिमा को सहेजा। लड़के के कंधे पर सहज भाव हाथ रखा और चेहरे पर नम्र भाव लाते हुए बोले-‘‘पश्चिमी संस्कृति में मत ढलो बेटा, संतान की शादी माँ-बाप का दायित्व है।’’

‘‘द्रोणाचार्य ज़िंदा है’ एक गुरु की हीनभावना और जातिगत मनोवृत्ति को प्रकट करती है। परीक्षा का परिणाम बनाते समय एक मोची के पुत्र के अंक को सर्वाधिक देखकर वे उसके अंकों में संशोधन करते हैं और उसे अनुत्तीर्ण घोषित कर देते हैं। परिणामस्वरूप उस बेचारे को बाप का पुश्तैनी व्यवसाय संभालना पड़ता है।’’

इस छोटे से कथानक को फैलाव बहुत विस्तृत है। इतना विस्तृत कि इस सोच के भीतर ढेर सारे प्राध्यापक आ जाते होंगे। लघुकथा काफी पहले लिखी गयी जब इस प्रकार की निकृष्ट सोच आम हुआ करती थी। सोच अब समाप्त हो गयी होगी, इसमें संदेह है। बड़े शहरों में तो लोगों के पास फुर्सत ही नहीं है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में यह सोच अब भी प्रभावी है और यही कारण है कि इस प्रकार की लघुकथा अब भी प्रासंगिक हो रही है। सांभरिया जी अपनी लघुकथाओं में होने वाले वार्तालाप को बखूबी चित्रित करते हैं और जहाँ वार्तालाप न होकर नाटक की भाँति सूत्रधार वाली स्थिति होती है, वहाँ भी अपने संग्रहणीय शब्दकोश के माध्यम से परिस्थितियों का निर्वाह इस प्रकार कर जाते हैं कि लघुकथा अविस्मरणीय बन जाती है।

‘‘मेरिट लिस्ट बनाते उनके मन-मस्तिष्क पर एक गहरी चोट लगी। ना चुही, ना  नील उपड़ी। टीस उठी। कुछ देर तक वे अनमने से बैठे रहे, फिर अनापेक्षित चिन्ता से झुलसे और शनैः-शनैः उनकी चिंता कुत्सा में परिणित हो भभक उठी-”रामदीन! स्साला मोची का पूत! इतने अंक ले मरा, पूरी कक्षा के सिर पर चढ़ बैठा। मेरे खुद के लड़के से भी ऊपर। गाँव थूककर आंट देगा मुझे गुरुजी के लड़के से मोची का लड़का ज्यादा होशियार है, जिसका बुढ़ऊ बाप जूते सीं कर उसे पढ़ा रहा है।’’

सांभरिया जी के पास याद रखने लायक पात्र हैं। अधिकांशतः ये पात्र बिना नाम के हैं। नाम नहीं होता तो कोई याद रखने वाला भी नहीं होता। लेकिन कतिपय पात्रों का चरित्र-चित्रण स्मरणीय रह जाते हैं।

‘हार’ लघुकथा के उन दोनों पति-पत्नी के चरित्रों को स्मरण कीजिए जिसमें पत्नी के गले में महंगा हार देखकर पति की भृकुटी तन जाती है। यह हार पति की अनुपस्थिति में किसी हिस्ट्रीशीटर को बचाने के लिए अग्रिम भुगतान स्वरूप घर दीवाली के उपहारों में पर प्राप्त हुआ था।

स्व0 ध्रुव देवी को याद कीजिए जिसका पुत्र जीते जी उसकी बेकद्री करता है और उनके मृत्यु के उपरांत उनकी याद में  गाँव के स्कूल में हॉल बनवाता है।

पत्तू और पतिया की लघुकथा ‘हाथ’ को याद कीजिए जिसमें पतिया अपने पति के ऊपर इसलिए हाथ उठा देती है क्योंकि वह उसे शराब के नशे में मारता-पीटता है।

हरामी ‘हरिया’ उसकी पत्नी और दोनों युवा पुत्रों के हरामीपन टाइप के चरित्रों लघुकथा ‘हत्या’ को याद कीजिए जो मजदूर से घर पर मजदूरी कराते हैं, लेकिन उसकी मजदूरी को देने में आनाकानी करते हैं।

‘समीकरण’ के कर्मचारी यूनियन के उस नेता के चरित्र को याद कीजिए जो कार्यालय अध्यक्ष से वार्ता करने जाता है, तो बाँहों पर बंधी काली पट्टी खोल कर जाता है।

‘समझौता’ लघुकथा में आप थानेदार के चरित्र को कभी नहीं भूल सकते हैं जो दो सगे भाइयों के बीच झगड़े में से पैसा कमाना जानता है।

‘वजूद’ लघुकथा में रमिया का किरदार देखिए जो भूखी रहती है और अपने बच्चे का स्कूल जरूर भेजती है। साथ ही घाघ जमींदार के किरदार से उसकी तुलना कीजिये जो नहीं चाहता कि बच्चा स्कूल की किताबंे पढे़। साथ ही उस बच्चे के किरदार को भी आप भूल नहीं सकते जो जमींदार के द्वारा दिया रुपया फेंक देता है और अपनी किताब को उठा कर पढ़ने लगता है।

ये किरदार कहां से आए सांभरिया जी के पास? कैसे जन्म लिया इन्होंने? उपरोक्त किरदारों में ध्रुव देवी अबला है, मजदूर बेचारा है, रमिया बेचारी है। लेकिन साथ ही ध्रुव देवी के पुत्र का चरित्र काला है, मजदूर के शोषक भी लघुकथा में मौजूद हैं और जमींदार तो है ही शोषक।

तो इन लघुकथाओं में सांभरिया जी वर्ग शोषण का संघर्ष दिखलाने में पीछे नहीं हटते। लघुकथा में बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन जितना कहा जा सकता उतना कहने से सांभरिया जी पीछे नहीं हटते।

एक सवाल का जवाब उठने से पहले देना ज़रूरी है। किसी भी लघुकथाकार की अनेक लघुकथाएँ बने-बनाए फ्रेम से बाहर निकलने की कोशिश करती प्रतीत होती हैं और समीक्षकों की पेशानी पर बल डाल सकती हैं। कदाचित उनमें कथा न होने का आरोप लग सकता है। लेकिन कोई लेखक लिख रहा है और लगातार लिख रहा है, यही क्या कम है। वह क्या लिख रहा है और क्या लिख डाला है इसका मूल्यांकन तो किया जा सकता है परन्तु ख़ारिज़ करने का कार्य तो समय और पाठकों का ही होता है।

एक बात और हर काल में पाठकों का सोचने का ढंग अलग हो जाता है। यह उसकी बौद्धिक क्षमता पर निर्भर करता है। मनुष्य की बौद्धिक क्षमता लगातार बढ़ रही है। जिस रचना का मर्म तब समझ नहीं आया था, अब समझा जा रहा है। जो अब नहीं समझा या समझाया जा सकता उसे कुछ वर्षों बाद आसानी से समझा जा सकेगा। इसलिए रचनाएं देखकर तेवर नहीं, सिर्फ पहलू बदलें। पहले बदलें।

-0-कविकुल, खरबदा निवास, स्टेशन रोड़,बिजनौर-246701, उ0प्र0

मो. 8650567854

हिन्दी-लघुकथा में भाषा का महत्त्व

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साहित्य की हर विधा को लिखने की भाषा भिन्न-भिन्न होती है। जैसे लेखों में हम जिस भाषा का उपयोग करते हैं वह तत्सम्-मय होती है, किन्तु कथात्मक विधाओं जैसे उपन्यास, कहानी और लघुकथा में एक ही रचना में दो प्रकार की भाषाएँ चलती हैं , जो भाषा विवराणत्मकता   में आती है, वह रचना के परिवेश को प्रत्यक्ष करती है, उसी में जब भाषा संवाद के रूप में आती है, वह  उच्चरित भाषा कहलाती है। लघुकथा भी इसका अपवाद नहीं है।

डॉ. सतीश राज पुष्करणा अपने आलेख, ‘ हिन्दी लघुकथा : संरचना और मूल्यांकन में लघुकथा की संरचना को मुख्यतः दो तत्त्वों में विभाजित किया है १. कथानक (कथोपकथन) एवं २. शिल्प, और शिल्प के छह उप्तत्त्व जिसमें से उप्तत्त्व भाषा और शैली के विषय में विस्तृत विचार व्यक्त किये हैं। उनके अनुसार :-‘ लघुकथा में दो प्रकार की भाषाओं का सामानांतर रूप में उपयोग होता है। पहली तरह कि तो वह, जो लघुकथा में लेखक अपनी और से कहता है, प्रस्तुत करता है। दूसरी तरह कि वह, जो पात्र और पात्रों के चरित्र बोलते हैं/अभिव्यक्त करते हैं। लघुकथा में दोनों प्रकार की भाषाओँ का महत्त्व होता है। लेखक लघुकथा को प्रभावकारी एवं सम्प्रेषणीय बनाने हेतु अपनी मौलिक शैली प्रस्तुत करता है, और यही शैली लेखक की अलग पहचान उपस्थित करती है, बनाती है…’ वह आगे लिखते हैं , ‘ कुछ लघुकथाएँ तो संवादों में ही पूरी हो जाती हैं। यह स्थिति कथानक की आवश्यकता पर निर्भर होती है। संवादोंवाली लघुकथाओं में निश्चित रूप से उच्चरित भाषा (चरित्रानुकुल भाषा) का ही सटीक उपयोग होता है, होना चाहिए।’ इसी आलेख में आप लिखते हैं कि, ‘ अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा की भाषा-शैली में अपेक्षाकृत विराम-चिह्नों का अत्यधिक महत्त्व है। इसका कारण इसका अन्य विधाओं से अपेक्षाकृत अधिक क्षिप्र एवं सुष्ठु होना है। प्रायः वरिष्ठ लघुकथाकारों ने विराम-चिह्नों का सटीक उपयोग करके अपनी लघुकथाओं को ऊँचाइयाँ प्रदान की हैं। इनमें प्रमुख- पारस दासोत, कमल चोपड़ा, मधुदीप, शंकर पुणताम्बेकर, सुकेश साहनी, रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ सतीश राठी, सतीश दुबे इत्यादि की लघुकथों का अवलोकन किया जा सकता है। विराम-चिह्न वस्तुतः भाषा-शैली के ही महत्त्वपूर्ण अंश है।’

डॉ. सतीश राज पुष्करणा के दूसरे आलेख, ‘ हिन्दी लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु’ ( पुस्तक: हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि पृष्ठ 64) से :

भाषा-शैली के सन्दर्भ में उदाहरण स्वरुप मधुदीप की लघुकथा ‘हिस्से का दूध’ का सहज ही अवलोकन किया जा सकता है-

हिस्से का दूध (मधुदीप)

उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आकर बैठ गई वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था

“सो गया मुन्ना…?”

“जी! लो दूध पी लो” सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढ़ाया

“नहीं, मुन्ना के लिए रख दो उठेगा तो…” वह गिलास को माप रहा था

“मैं उसे दूध पिला दूँगी” वह आश्वस्त थी

“पगली, बीड़ी के ऊपर चाय-दूध नहीं पीते तू पी ले” उसने बहाना बनाकर दूध को उसके और करीब कर दिया

तभी-बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया उसकी आँखें कुरते की खाली जेब में घुस गईं

“सुनो, जरा चाय रख देना” पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया

आपके मतानुसार : ‘ इस लघुकथा में भाषा-शैली का चमत्कार यों तो पूरी लघुकथा में ही परिलक्षित होता है, जैसे –“ उनींदी आँखों को मलती हुई  वह अपने पति के करीब आकर बैठ गयी। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।”

यहाँ  इस वाक्य में श्रेष्ठ भाषा-शैली का नमूना देखें –“ बाहर से हवा के साथ एक स्वर कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खली जेब में घुस गईं।” यहाँ लेखक का वास्तविक रूप एक शैलीकार के रूप में सामने आता है। यह वाकया साधारण नहीं है। मधुदीप ने इसे इसे लघुकथा के कथानक के अनुसार विशिष्ठ रूप में प्रयोग करके लघुकथा-भाषा को अतिरिक्त सौन्दर्य प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। जहाँ संवादों की भाषा-शैली की बात है तो वह आम सर्वहारा, घर-परिवार के पति-पत्नी जो आपस में एक-दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं। इसकी सहज बोलचाल की आत्मीय भाषा है। जैसे –यह संवाद देखें : “ पगली, बीड़ी के ऊपर चाय-दूध नहीं पीते। तू पी ले।”

हिन्दी-लघुकथा के एक और वरिष्ठ हस्ताक्षर, ‘जगदीश कश्यप ने अपने आलेख, ‘ लघुकथा की रचना-प्रक्रिया और नया लेखक ( सन्दर्भ: लघुकथा : बहस के चौराहे पर, संपादक: सतीश राज पुष्करणा, पृष्ठ- 167)  ने लघुकथा का कथ्य प्रकटीकरण के अंतर्गत बिंदु (ब) भाषा-प्रयोग में उदार दृष्टिकोण में लिखा है : ‘ अच्छा लेखक वही है जिसे क्लिष्ट शब्दों से परिचय हो परन्तु सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दे। भाषा-प्रयोग के बारे में प्रेमचंद की लोकप्रियता सर्वविदित है जबकि जयशंकर प्रसाद इसी शुद्ध भाषा प्रयोग के कारण कहानी में उतने सफल नहीं हो सके जितने कि  प्रेमचंद। हमें यह नहीं देखना चाहिए कि फ़लां शब्द उर्दू का है, पंजाबी का है या तमिल का। अगर वह शब्द समाज में किसी बात के लिए लोकप्रिय है और उसके प्रयोग की पाबन्दी केवल यह समझकर लगायी जाय कि इससे लघुकथा की भाषा का अन्तर पड़ेगा, समझदारी नहीं है। देखना यह है कि किस शब्द का प्रयोग कितना विस्फोट करता है।’

डॉ. शकुंतला ‘किरण ने अपने शोधकार्य पर आधारित पुस्तक: हिन्दी-लघुकथा (आठवें दशक की लघुकथाओं का समीक्षात्मक मूल्यांकन) के पृष्ठ  38 पर इसी सन्दर्भ में लिखा है , ‘ किसी भी साहित्यिक विधा के लिए भाषा एक पुल है जिसके माध्यम से रचनाकार अपना कथ्य पाठक व श्रोता तक सम्प्रेषित करता है। भाषा जितनी सादगीपूर्ण, अनगढ़, सहज,स्वाभाविक, आडम्बरहीन होती है कथ्य जन-साधारण के लिए उतना ही ग्राह्य व प्रभावोत्पादक होता है। लघुकथा की भाषा किसी एक विशेष धरातल पर विद्यमान  न होकर एक रस नहीं अपितु विविधोन्मुखी है। उसमें विविध भंगिमाएँ हैं। वह व्याकरण-सम्मत या अभिजात्य-वर्ग की सुसभ्य अथवा टकसाली भाषा न होकर, जनसामान्य के दैनिक जीवन की बोलचाल की सहज व्स्वाभाविक सीधी-सादी भाषा है जो किसी आडम्बर, चमत्कार, पांडित्य-प्रदर्शन अलंकार से रहित एवं अपने कथ्य-परिवेश के अंतर्गत आये पात्रों के अनुरूप है यहाँ तक कि पात्रागत आक्रोश के चरम-क्षण को व्यंजित करने के लिए इसे गालियों से भी गुरेज नहीं होता। इसमें कथ्य के सापेक्ष ही भाषा भी चुटीली, पैनी,व्यंग्यात्मक,आंचलिक या सपाट होती है। भाषा की सादगी के साथ ही इसमें शब्द-चयन पर अतिरिक्त सतर्कता अपेक्षित है ताकि कम –से-कम शब्दों में वर्णित स्थिति की अधिकतम जानकारी दी जा सके। प्रचलित मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग भी लघुकथा को अभीष्ट  रहा है क्योंकि इनके माध्यम से लम्बी-चौड़ी परिस्थितियों का कम शब्दों में सटीक चित्रण हो सकता है अतएव लघुकथा की भाषा जनसामान्य के प्रतिदिन की बोलचाल की साधारण, सहज, स्वाभाविक,भाषा है जो रचनाकार को निजी अस्मिता को सुरक्षित रखती हुई स्थितियों को यथावत प्रस्तुत कर उन्हीं के बीच में से प्रवाहित होती हैं।’ आपने इस तथ्य के उदाहरण स्वरूप, महेश दर्पण की लघुकथा ‘रोजी (समग्र लघुकथा विशेषांक से) प्रेषित की है।

रोजी (लघुकथा)

तड़ाक…तड़ाक…तड़ाक… उसने पूरी ताकत से सोबती के गाल पर तीन-चार तमाचे जड़ दिए वह अभी और मारता पर पीछे से सत्ते ने हाथ रोक लिया-‘पागल हुआ है क्या?’… डेढ़ हड्डी की औरत है मर गयी… तो…’ उसके हाथ रुके तो जबान चल पड़ी… “हरामजादी आँख फाड़-फाड़ के क्या देख रही है… रात भर में तुझे दो ही रुपये मिले बस? निकाल कहाँ रखे हैं…रोटी तोड़ते समय तो ऐसे…”

सोबती लाल आँखे, जो अब तक झुकी हुई चुपचाप सुने जा रही थी उसकी ओर उठ गईं,’चुप भी कर हिजड़े… रात भर बीड़ी के पत्ते मोड़े हैं और तू…तन बेचना होता तो तुझे खसम ही क्यों करती!”

 ‘लघुकथा का प्रबल पक्ष में बलराम अग्रवाल ने भी भाषा को महत्त्व देते हुए (पृष्ठ -८१) पर   लिखा है -लघुकथा की भाषा को कथ्य-परिवेश से विलग नहीं होना चाहिए। उसमें सादगी, सहजता, लेखकीय आडम्बरहीनता और जनसाधारण के लिए ग्राह्यता का गुण तो होना ही चाहिए, लेकिन सपाट-बयानी की हद तक नहीं। काव्य-तत्त्वों का प्रयोग लघुकथा की भाषा को आकर्षक एवं  ग्राह्य बनाता है। चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथाएँ इस तथ्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है, लेकिन लघुकथा में काव्य-तत्त्व भाष्य-प्रयोग तक ही सीमित रहने चाहिए, उन्हें ‘कथा पर हावी नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि मूलतः तो लघुकथा ‘कथा’ ही है, कविता नहीं ।’ आपने आगे कथा-साहित्य की तीनों विधा, उपन्यास, कहानी और लघुकथा में भाषा भिन्नता को भी महत्ता दी है।

सुकेश साहनी की पुस्तक लघुकथा सृजन और रचना-कौशल में अपने एक आलेख ‘लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता (पृष्ठ:104)  में लघुकथा में भाषा के महत्त्व के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है: भाषा और शिल्प के बारे में एक बात कहना जरूरी है –बढ़िया कथ्य कमज़ोर भाषा और शिल्प के कारण अपनी सही छाप नहीं छोड़ पाता, अतः लेखक भाषा की शुद्धता, व्याकरणिक गठन, अल्पविराम, अर्धविराम आदि का सही उपयोग करें

अशोक जैन द्वारा सम्पादित लघुकथा को समर्पित  अर्धवाषिक पत्रिका’ ‘दृष्टि’ के महिला लघुकथाकार अंक में माधव नागदा ने अपने आलेख ‘ लघुकथा के रंगमंच पर भाषा का इन्द्रधनुष’ ( पृष्ठ- 26) के माध्यम से हिन्दी- लघुकथा में भाषा का महत्त्व को दर्शाते हुए कहा है : ‘ भाषा रचना की जान होती है और रचनाकार की पहचान…। आपके मतानुसार भाषा का मामला जिंदगी की तरह उलझा हुआ है। इसका ऐसा समाधान निकाल लेना संभव नहीं लगता जो सर्वमान्य हो। जीवन की तरह भाषा की उलझनों को भी स्वीकार करके ही उसे लिखना-पढ़ना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि लघुकथा या किसी भी विधा को भाषा के नियमों में क़ैद करना संभव नहीं है। आप व्याकरण को भी महत्ता देते हैं। 

 बी.एल.आच्छा भाषा के महत्त्व को दर्शाते हुए कहते हैं  : रचना की अभिव्यक्ति भाषा में ही होती है और उसकी अर्थ-छायाएँ भी भाषा के माध्यम से व्यक्त होती है। इसलिए शब्दार्थ पर सारा जोर होता है। यही कि लेखक अपनी अनुभूति को व्यक्त करने के लिए शब्दों को अपने रंग में रंगने को विवश कर दे और वे ही शब्द पाठक को उसके मंतव्य का सद्द्भागी बना दे। संस्कृत में कहा गया है- ‘अन्यूनातिरिक्तत्वं मनोहारिणीव्यव स्थितिः।’ न कम शब्द, न ज्यादा शब्द, पर जिन शब्दों में लिखी गई रचना है, वह मनोहारिणी हो।

मधुदीप ने अपने आलेख- ‘लघुकथा: रचना और शिल्प’ में कहा है  :- लघुकथा की भाषा जनभाषा के नजदीक होनी चाहिए ,अर्थात् लघुकथा में जयशंकर प्रसाद की जगह मुंशी प्रेमचंद की भाषा अधिक स्वीकार्य होगी; क्योंकि उसे हमारा आज का पाठक बेहतर तरीके से समझ सकता है। यह तो सर्वमान्य है कि हम जिसके लिए लिख रहे हैं, उसे वह समझ तो आनी ही चाहिए। सपाट बयानी से हर लघुकथाकार को बचना चाहिए।

‘हिन्दी लघुकथा : शिल्प और रचना विधान’ – आलेख के माध्यम से महावीर प्रसाद जैन ने भी लघुकथाओं में भाषा को महत्त्व देते हुए अपने विचारों को व्यक्त किया हैं- ‘जहां तक लघुकथा की भाषा का प्रश्न है, इसमें दो राय नहीं हो सकती है कि लघुकथा की भाषा किसी विशेष धरातल पर विद्यमान नहीं है। जब कोई विधा सामाजिक सार्थकता या निस्सारता या जीवन की विसंगतियों क प्रकट करने में उपकरण के रूप में प्रयुक्त हो जाती है तब उसकी अभिव्यक्ति ऐसी होनी चाहिए कि वह सुपाठ्य बन सके । अर्थात भाषा सरल किन्तु औदात्य विहीन न हो। अन्यथा ऐसी अभिव्यक्ति लघुकथा की रोचक समाचार या विवरण के समक्ष कर देगी, शास्त्रीय शब्दों के तार्ताम्यों को वैकल्पिक शब्दों के द्वारा प्रकट करने की क्षमता ही किसी व्यक्ति को साहित्यकार होने का गौरव प्रदान करती है। हमें लघुकथा को गूढ़ ग्रंथिय विधा नहीं बनाना है। लघुकथा सामाजिक भूमिका का तभी निर्वाह कर सकती है जब उसका शिल्प आदमी के हालातों को सीधी-सच्ची बयानी सरल शब्द द्वारा कर सके और जिससे जनमत को उसकी संवेदना का भागिदार बनाता चला जाये।’

हिन्दी लघुकथा के सिद्धांत पुस्तक में भगीरथ ने अपने आलेख-‘लघुकथा लेखन की सार्थकता’ में कहा है-‘लघुकथा चूँकि जीवन के यथार्थ को प्रतिबिम्बित करती है । आमजन तक पहुँचने की अपेक्षा रखती है , अतः उसकी भाषा जनभाषा ही हो सकती है। और भाषा का सौन्दर्य भी तो यही है। भाषा संक्षेपण में भी सहायक होती है । इस सन्दर्भ में कभी-कभी लम्बे जटिल वाक्य तो कभी-कभी छोटे-छोटे अर्थगर्मी वाक्य भी रचनाकार की मदद कर सकते हैं। यह निर्भर करता है रचनाकार के कौशल पर तथा रचना कि आत्यन्तिक जरूरतों पर। भाषा की सांकेतिकता तथा व्यंजनात्मकता का लघुकथा में अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान है। भाषा के ये उपकरण एक तरफ लघुकथा के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं, वहीँ लघुकथा में विस्तार को रोकने में समर्थ हैं। चूँकि लघुकथा भ्रष्ट व्यवस्था पर सीधे चोट करती है, विरोधाभासों एवं विसंगतियों को उघडती है, अतः इसकी भाषा भी दो टूक एवं व्यंग्यात्मक होती है। भाषा आँचलिकता से ओत-प्रोत हो सकती है किन्तु  आंचलिकता का अतिरिक्त मोह अन्य हिन्दी भाषी पाठकों के लिए रचना को दुरूह बना देता है।’

अपने आलेख;  ‘लघुकथा शिल्प और संरचना’ में शमीम शर्मा कहती हैं :- ‘लघुकथा जन साधारण के बहुत निकट है, अतः इसकी भाषा में क्लिष्टता, संस्कृतनिष्ठता, बौद्धिकता व दुरूहता का कोई स्थान नहीं है लघुकथा के भाषागत वैशिष्टय पर यदि दृष्टिपात करें तो हमें कतिपय विशिष्टाएँ इस प्रकार उपलब्ध होती है-

1 सपाटबयानी 2 स्वाभाविकता 3 संक्षेपण 4 पात्रानुकूलता 5 विषयानुरुप्ता 6 आंचलिकता 7 मुहावरेदार 8 विदेशी शब्द 9 वाक्यों का अधूरापन 10 ध्वन्यात्मक शब्दावली आदि।’

लघुकथा में भाषा के महत्त्व को डॉ सत्यवीर मानव, डॉ उमेश महादोषी. डॉ रामकुमार घोटड, योगराज प्रभाकर और अन्य वरिष्ठजनों ने भी अपने-अपने ढंग से लिखा है।

 प्रायः लघुकथों में विवरण और संवाद कथानक की आवश्यकता के अनुसार सटीक अनुपात में साथ-साथ चलते हैं, संवादों की भाषा पात्रों के चरित्र व स्थान और परिवेश के अनुसार बोली के रूप में लिखी जाती है। बहुत सारी लघुकथाएँ संवाद से शुरू होकर संवाद पर ही ख़त्म  हो जाती हैं। ऐसी लघुकथाएँ सम्वाद-शैली की लघुकथाएँ कहलाती हैं। जहाँ संवाद होते हैं, वहाँ नाटकीयता स्वाभाविक रूप से आ जाती है, किन्तु संवाद-शैली में और नाट्य- शैली में कुछ भिन्नता भी होती है, संवाद शैली की लघुकथाएँ संवाद से शुरू होकर संवाद पर ही खत्म हो जाती हैं किन्तु नाट्य शैली में विवरण भी साथ चलता है, और उसके संवादों में बोली नहीं अपितु नाटकीयता लिये हुए भाषा होती है।

मेरा कहना है कि अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा में भाषा का महत्त्व अपेक्षाकृत अधिक बढ़ जाता है; क्योंकि इसमें जिस भाषा का उपयोग किया जाता है, उसमें इसका सांकेतिक भाषा के साथ-साथ विराम चिह्नों का भी सटीक एवं सम्प्रेषणीय प्रयोग होता है जिससे कि आकरगत दृष्टि से लघु होते हुए भी लघुकथा अपने उद्देश्य को बहुत ही करीने से प्रस्तुत कर पाने में सक्षम होती है, यही सारी स्थितियाँ हिन्दी लघुकथा में भाषा के महत्त्व को बढ़ा देती है।

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लघुकथा और भाषिक प्रयोग

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भाषा मनुष्य का आत्मिक स्वरूप है, जिसके बिना उसके अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।भाव , विचार , चिन्तन , कल्पना सबकी उड़ान भाषा से ही सम्भव है। इन सबकी अभिव्यक्ति ही उसे सामाजिक प्राणी बनाती है ।यदि मानव के पास सम्प्रेषण का यह गुण न हुआ होता तो पूरी सृष्टि बेतरतीब होने के साथ-साथ अभिशप्त ही प्रतीत होती। भाषा शब्द सामने आते ही इसके विकास की कथा का सामाजिक स्वरूप सामने आ जाता है । समाज या समुदाय ही किसी भाषा के विकास का प्रमुख कारण है ।जो समाज जिस भाषा का प्रयोग करता है , वह भाषा उसके सम्पूर्ण चिन्तन और सामाजिक व्यवहार की संवाहक होती है ।नदी जिस प्रकार निरन्तर प्रवाहित होने के कारण ही नदी है ; ठीक उसी प्रकार समाज और भाषा भी अपने प्रवाह से ही जीवित रहते हैं ।भाषा में उसके सुख -दु:ख , हर्ष-विषाद उत्थान -पतन के सारे दौर देखे जा सकते हैं । जिस समाज को ,समाज की भाषा को या चिन्तन को संकुचित करने की चेष्टा की जाती है , वह धीरे-धीरे अपनी इयत्ता खो बैठता है ।इयत्ता खोने का डर उस भाषा और समाज को ज़्यादा होता है ;जो जन सामान्य से कटने लगता है ,अपना एक अलग कवच निर्मित कर लेता है ।विश्व की समृद्ध भाषा संस्कृत विशिष्ट वर्ग तक सीमित होना के कारण अपना अस्तित्व खो चुकी है , जबकि हिन्दी ने खड़ी बोली तथा अन्य बोलियों को साथ लेकर भारतीय समाज के बड़े वर्ग को अपने साथ बाँधा है ।इसका मुख्य कारण है हिन्दी की समाहरण शक्ति जो सात समन्दर पार भी अपना परचम फ़हराने का प्रयास कर रही है ।

जब हम अच्छी लघुकथा की बात करते हैं तो अच्छी भाषा की बात अनायास ही सामने आ जाती है । आज हिन्दी का समाज उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं है , वरन् देश की सीमाएँ लाँघ चुका है ।इसका कारण है, हिन्दी भाषा की समाहरण शक्ति । जिस प्रकार गंगा में अनेक जलधाराएँ आकर मिलती हैं और उसे और अधिक विशाल बना देती हैं, उसी प्रकार हमारे अंचल की अनेक बोलियों की शब्दावली , आचार , व्यवहार निरन्तर घुलते और समाहित होते जा रहे हैं । यही नहीं आज़ादी के बाद स्वतन्त्र राष्ट्र बनने पर इसने दूसरे देशों की सरहदें भी पार कर ली हैं । वह समय नहीं रहा कि समुद्र यात्रा करने पर समाज से निष्कासित कर दिया जाएगा । राजनीति , विज्ञान प्रौद्योगिकी , चिकित्सा, व्यापार एवं कम्प्यूटर क्रान्ति ने नए द्वार खोल दिए हैं । ऐसी स्थिति में भाषा -सुन्दरी को सात पर्दों के अन्दर छुपाकर नहीं रखा जा सकता । कथा की भाषा कभी शब्दकोशीय शब्दावली का अन्धानुकरण नहीं कर सकती । भाषा सीमाओं में नहीं बँधती । उसका सामाजिक संवाद और सम्प्रेषण में उपयोग उसकी वास्तविक शक्ति है । भाषा जड़ नहीं होती; क्योंकि वह प्रवहमान समाज की जीवनी शक्ति है । एक बात और रेखांकित करने योग्य है कि शब्दकोशीय भाषा की एक सीमा है, वाक् भाषा इससे कहीं ओर आगे है, कहीं अधिक बहुवर्णी और नवीनतम भावबोध की अनुचरी है । यह वही गोमुख है जिसका जल शब्द कोश में आकर मिलता रहता है और उसको सागर बनाता है । अंग्रेज़ी भाषा में आज हिन्दी के कई हज़ार शब्दों का समावेश हो चुका है । भारत का ‘गुरु’ शब्द अब केवल भारतीय भाषाओं का शब्द नहीं बल्कि हज़ारों मील दूर अंग्रेज़ी के अखबारों में अग्रणी समाचार के शीर्षक की शोभा बढ़ा रहा है । भाषा के सन्दर्भ में ज़रा कुछ स्थितियों पर गौर कीजिएगा- 1-छात्र देर से कक्षा में पहुँचा तो शिक्षक ने चुटकी बजाई और दरवाज़े की तरफ़ इशारा किया । छात्र चुपचाप बाहर निकल गया । 2-कई दिनों की भाग दौड़ के बाद लूट्मार करने वाला बदमाश आज पकड़ में आया । दारोगा जी के सामने लाया गया तो वे मुस्काराए -“आइए हुज़ूर ! आपका स्वागत है! आपके इन्तज़ार में तो हम पलक पाँवड़े बिछाए बैठे हैं”- फिर सिपाही की ओर मुड़े-जोधासिंह जी , अपने इन मेहमान की खातिरदारी में कोई कोर -कसर मत छोड़ना।” 3-ड्राइविंग लाइसेन्स न बन पाने से परेशान होकर जब युवक ने बाबू से कारण पूछा तो वह बत्तीसी निकालकर बेशर्मी से बोला -‘’भैया हम तो गाँधी जी के फोटो के पुजारी हैं । बाकी बात आप जितना जल्दी समझ लोगे , उतना जल्दी काम हो जाएगा।” -पहले वाक्य में रेखांकित कथन शब्द कोश के अर्थ का नही वरन् देरी से आने के परिणाम स्वरूप सांकेतिक अर्थ का द्योतक है। -दूसरे वाक्य में दारोगा जी के कथन में स्वागत,पलक पाँवड़े बिछाए ,मेहमान की खातिरदारी शब्दकोशीय अर्थ नहीं वरन् लाक्षणिक रूप में आए हैं। -तीसरे वाक्य में- गाँधी जी के फोटो के पुजारी हैं । का सांकेतिक अर्थ रिश्वत के रूप में आया है । गाँधी जी के फोटो छपे नोट में वह आज के समाज की गिरती हुई नैतिकता का परिचय देता है ।

कथा में अभिप्रेत अर्थ कभी -कभी शब्द के पीछे बहुत सारी अर्थ सम्भावनाएँ एवं अर्थ छटाएँ छोड़ जाता है , जिसका अनुमित अर्थ रसज्ञ पाठक को सोचना पड़ता है ।साहित्य की कोई भी विधा रचनाकार का ‘वन वे ट्रैफ़िक’ नही है। लघुकथा के लघु कलेवर और संश्लिष्ट शिल्प में यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि रचना अपने पाठक के रूबरू हो सके । पाठकीय माँग पर कुछ भी परोसना या अपने हर लेखकीय अनुभव को या किसी घटना को पाठक के सिर पर थोपना रचाकार की सबसे बड़ी कमज़ोरी है । अच्छा लेखक पाठक की रुचि को व्यापक बनाने के साथ-साथ परिष्कृत भी करता है । सब जगह एक ही जैसी भाषा या शैली नहीं चल सकती। कमज़ोर भाषा के चलते शिल्पगत प्रयोग कथा को और कमज़ोर करते हैं । हाँ अच्छी भाषा कमज़ोर कथ्य के लिए ऑक्सीजन का काम कर अनुप्राणित कर सकती है और कमज़ोर भाषा अच्छे -भले कथ्य को भी चौपट कर सकती है। कथ्य की माँ ग पर ही भाषा और शिल्प का निर्धारण करना चाहिए । किसी लेखक की देखा -देखी केवल प्रयोग के नाम पर नया शिल्प अपनाना खतरे से खाली नहीं है ।

पात्र , पात्र की मन:स्थिति, परिवेश , स्तर , परिस्थिति बहुत सारे ऐसे कारक हैं, जो भाषा के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। लघुकथा के बारे में मैं कहना चाहूँगा कि यह विधा भी कमज़ोर भाषा, सीमित अनुभव , घटना को ही कथा मान बैठना, उसे बिना तराशे अखबारी समाचार की तरह पेश कर देना या किसी प्रिय घटना को ही विषयवस्तु मान लेने वाले लेखकों के कारण और कुछ विधागत जानकारी से शून्य लोगों की वाहवाही में घिरकर सही उद्देश्य से भटक सकती है । शिल्प और शैली का नवीनतम प्रयोग करना लम्बे एवं गम्भीर भाषा-अध्ययन के पश्चात ही आता है । भाषा -शिल्प में भाषा उस अश्वमेध के घोड़े की तरह है , जिसकी वल्गा थामने का मतलब है पीछे आ रहे सैन्यदल से भी जूझना पड़ता है अर्थात् वल्गा थामने वाले से अतिरिक्त शौर्य की उम्मीद की जाती है । इसी प्रकार लघुकथा में किसी नव्य प्रयोग का अपनाना ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि उसका निर्वाह भी आवश्यक है ।

हर लघुकथा अपने कथ्यानुसार किसी न किसी पात्र पर ही टिकी रहती है । पात्र का क्षेत्र , शिक्षा , परिवेश भी उस कथा में बोलते हैं । किसी भी अच्छी कथा की मूल शक्ति है उसकी सम्प्रेषण शक्ति । उसे यह शक्ति भाषा की त्वरा से मिलती है , जिससे पात्र का कथन पूरी कथा का संवाहक बन जाता है। श्याम सुन्दर अग्रवाल की एक लघुकथा के कुछ वाक्य देखिए- गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।” मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।

“हम सब तो हफ़्ते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा। मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।

मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।

उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।’

थोड़ी झिझक के साथ एक बुजुर्ग बोला, ‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ? ’ ।(मरुस्थल के वासी)

नेता जी के इस सुझाव पर एक बुज़ुर्ग की यह शंका-‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?’भूख से पस्त बस्ती वालों की दारुण दशा का बहुत गहरा चित्रण कर देती है ।यह एक संवाद उस भूख रूपी मरुस्थल के वासियों की पीड़ा बन जाता है; जो सदैव इससे जूझने के लिए अभिशप्त हैं। ‘बोहनी: चित्रा मुद्गल’ में भिखारी का संवाद झकझोर देने वाला है । इस संवाद की भाषा और चित्रण में शब्द प्रयोग पर ध्यान देना आवश्यक है-

‘‘नई, मेरी माँ !’’ वह दयनीय हो रिरियाया, ‘‘तुम देता तो सब देता….तुम नई देता तो कोई नई देता….तुम्हारे हाथ से बोनी होता तो पेट भरने भर को मिल जाता….तीन दिन से तुम नई दिया माँ…भुक्का है, मेरी माँ!’’ भीख में भी बोहनी। सहसा गुस्सा भरभरा गया।इस लघुकथा का शीर्षक ‘बोहनी’ आमफ़हम भाषा का शब्द है , लेकिन इस शब्द का अन्तरंग संसार बहुत व्यापक है ।

-इन पंक्तियों में रिरियाया,नई देता ,भुक्का है, मेरी माँ!’’,सहसा गुस्सा भरभरा गया। शब्दों पर ध्यान देना ज़रुरी है । रिरियाया की ध्वन्यात्मकता , गुस्सा भरभरा गया का लाक्षणिक प्रयोग और नहीं के स्थान पर ‘नई’,भूखा के स्थान पर ‘भुक्का’ का प्रयोग किसी शब्दकोशीय या व्याकरणिक शुद्धता का मोहताज़ नहीं है ।भाषा का यह सधा हुआ प्रयोग ही ‘बोहनी’ कथा को कई दशक से उत्कृष्ट लघुकथा की श्रेणी में रखे हुए है । भिखारियों पर लिखी गई सैकड़ों लघुकथा अपने कमज़ोर शिल्प के कारण कालकवलित हो चुकी हैं।

इसी तरह की लघुकथा है-‘ ठाकुर-हँसुआ-भात :चाँद मुंगेरी’ की । इस लघुकथा के ये संवाद देखिए – -अरे करमजला अब ही साल भर पहले जब बड़का ठाकुर मारा रहा तो तू हुनका मरण-भोज में भात खाया कि नहीं ….बोल ?

-हाँ! खाया रहा.!. लेकिन अम्मा का ई दूसरा ठाकुर नहीं मरेगा ?

-मरेगा कैसे? बड़का को चोर मारा रहा…हिनका कौन..मारेगा ?

क्षेत्रीय बोली के ये शब्द इस लघुकथा की धुरी हैं। बड़का ,हुनका , ई, मारा रहा -हिनका शब्दों का परहेज़ करके यह लघुकथा लिखी जाती; तो उतना गहन प्रभाव न छोड़ती और न पात्रों की मन: स्थिति का अपरिचय ही दे पाती । आंचलिक शब्दावली इसकी शक्ति कई गुना बढ़ा देती है । ‘करमजला’ का सबसे बड़ा भाग्य है कि उसने सालभर पहले ही तो भात खाया था । विपन्नता की इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है ! वह भी कोई छप्पन भोग नहीं , वरन् साधारण -सा भोजन भात । उनके लिए वही सबसे बड़ा भोज है।

बच्चे की भाषा के बहुत सारे उदाहरण लघुकथा जगत में मिल जाएँगे। ‘बीमार” सुभाष नीरव’ की लघुकथा का एक उदाहरण – बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, “मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?” इस वाक्य में -“मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?”पाठक को भीतर तक बेध जाता है और परिवार की विपन्न स्थिति का अनायास ही आभास करा जाता है । बीमार के स्थान पर ‘बीमाल’ शब्द भीतर तक बेध जाता है ।

‘चटसार’ :पंकज कुमार चौधरी’ की इस लघुकथा में बच्चे देखते हैं कि सड़क से एक आदमी सूअर के बच्चे की पिछली टाँग बाँधकर लाठी से टाँगे हुए ले जा रहा था। सूअर का बच्चा (पाहुर) लगातार चिल्ला रहा था। स्कूल के सारे बच्चे खेलकूद छोड़कर उसके चिल्लाने का अनुमान लगाते हैं । एक बच्चे का यह कथन -“अरे । वह डोम पढ़ाने के लिए उसे स्कूल ले जा रहा था। उसी डर से वह रो रहा था। एकाएक सब बच्चे चिल्ला पड़े–हाँ… हाँ सही बात! सही बात!!!

इस अन्तिम वाक्य में बच्चों का अनुमान और सहमति आतंक का पर्याय बन चुके हमारे स्कूलों ( चटसार) की वास्तविकता का दर्शन कराती है , जहाँ पूरा शिक्षा शास्त्र एक हठयोग ही सिद्ध होता है। सूअर के बच्चे को पात्र के रूप में प्रस्तुत करना कथा को और भी धारदार बना देता है ।शिक्षा व्यवस्था के के लिए और किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं है ।

अपनी लघुकथाओं में सुकेश साहनी ने भाषा और शिल्प के कई बार नए प्रयोग किए हैं; जो उनके गहन चिन्तन और विषयवस्तु पर उनकी मज़बूत पकड़ का सशक्त उदाहरण हैं।‘बॉलीवुड डेज़’ डायरी शैली में लिखी इनकी लघुकथा सचमुच में भाषा और शिल्प का चुनौती पूर्ण कार्य है। इस कथा में लेखक का जीवन अनुभव , अनुभव की वह विश्वसनीयता जो उन्होंने मुम्बई में कई वर्ष रहकर अर्जित की है ; सब मिलकर लघुकथा का नया स्वरूप गढ़ते हैं । एक ओर पूरा विश्व विश्वग्राम ( ग्लोबल विलेज) की ओर बढ़ रहा है , जिसमें नैतिक मूल्य जर्जर होते जा रहे हैं । बड़ी कम्पनियों की गलाकाट प्रतियोगिता उन्हें किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार कर रही है । इससे और आगे बढ़ें तो आजकल चिट्ठी -पत्री का स्थान चैट रूम ले चुके हैं । विश्व स्तर पर आँधी की तरह एक अलग भाषा नही वरन उसका स्थान लेने वाले परिवर्णी शब्द ( ऐक्रॉनिम्स-acronyms) सामने आ रहे हैं । जैसे- BBN-Bye Bye Now ; FYI=For your information ; KIT=Keep in Touch आदि प्रयोग में लाए जा रहे हैं । यही नहीं ,चैट रूम की सांकेतिक भाषा में नए प्रतिरूप भी गढ़े जा चुके हैं। क्रुद्ध (> –),स्वादिष्ट(:-9–) हाई फ़ाइव के लिए ( ^5–), आश्चर्यचकित (: 0–) और मुस्कान के लिए(–) सांकेतिक चिह्नों के अलावा सैकड़ों संकेत गढ़े जा चुके हैं । मैं भाषा के किसी भ्रष्ट रूप का समर्थन नहीं कर; बल्कि यह आग्रह कर रहा हूँ कि अपनी आँख और अपना दिमाग खोलकर देखें -समझे । हम दुनिया से अलग नहीं हैं । लाठी लेकर बहती नदी नहीं रोकी जा सकती । भाषा में आए बदलाव को महसूस ही नहीं वरन् स्वीकार भी करना पड़ेगा ; चैटरूम में फेरी वाले की या सब्जीमण्डी की भाषा नहीं चलेगी और सब्जी मण्डी में विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की भाषा या विवाह संस्कार की भाषा नहीं चलेगी । हमें कथ्य के अनुरूप अवसर , आवश्यकता और परिस्थिति को समझना होगा ; इस सन्दर्भ में सुकेश साहनी की ही इस लघुकथा के अंश अपनी बात कह रहे है-

खेल (रेनड्रॉप के चैटरूम से)

सुकेश साहनी

मायसेल्फ : तुम्हारे ज़िस्म पर ये निशान?

रेनड्रॉप : दंगाइयों ने हमारे साथ सामूहिक बलात्कार किया, हमारे ज़िस्मों को बेरहमी से रौंदा गया, ये उन्हीं ज़ख्मों के निशान हैं। मायसेल्फ : ओह!… तब तो तुमने उन्हें बहुत करीब से देखा है, वे कौन थे?

रेनड्रॉप : पहचानना मुश्किल था, उन्होंने एक ही सांचे में ढले मुखौटे पहन रखे थे।

मायसेल्फ : टेल मी एवरीथिंग अबॉउट दिस, हम इस स्टोरी को अपनी पार्टी की वेबसाइट के मुख्य पृष्ठ पर देंगे।

रेनड्रॉप : वाट इज द नेम ऑफ योअर पार्टी?

मायसेल्फ : सेकुलर 2002 डॉट काम।

रेनड्रॉप : ओके… आय एम रेडि फॉर नेट मीटिंग।

मायसेल्फ : लेकिन आगे बढ़ने से पहले- जस्ट फॉर फॉरमेलिटी- हमारा यह जानना ज़रूरी है कि तुम किस सम्प्रदाय से हो। -जो इस लघुकथा की गहराई में नहीं जाना चाहेगा , जो साम्प्रदायिक दोगलेपन की कलुषित भावना को नहीं पकड़ना चाहेगा वह चैट रूम की नग्नता को कोस कर रह जाएगा । उसकी समझ में भाषा की समन्वित शक्ति का प्रयोग नहीं आएगा । वह इस लघुकथा की प्रभविष्णुता को भी हास्यास्पद जुमलों में समेटकर कम करने का प्रयास कर सकता है और खुद ही अपनी पीठ थपथपाने का काम करके वाह ! वाह! कर सकता है। साहित्य ऐसा मरीज़ नहीं है ,जो परहेज़ी खाने पर निर्भर हो या जिसे डाइऐलिसिस पर ज़िन्दा रखा जा सके।प्यार , क्रोध , भय ,दुविधा ,सम्मान ,अनुनय-विनय आदि की परिस्थिति में क्या हमारी भाषा एकरूपता से ग्रस्त होती है? क्या हम एक व्यक्ति होते हुए भी सबके साथ एक जैसा भाषा व्यवहार करते हैं । यदि ऐसा हुआ होता तो दैनन्दिन जीवन का काम तो चार सौ -पाँच सौ से चला जाता है । चाँद-सूरज , बिजली , पानी ,बादल , सागर के लिए कई -कई शब्द अकारण नहीं हैं। भाषा में लोकोक्तियाँ और मुहावरे हमारे इतिहास , भूगोल , कृषि -सभ्यता ,धर्म ,दर्शन , संस्कृति की सदियों से पाली पोसी फसल है ।इस फ़सल को हम क्षेत्रीय सीमाओं से बाहर की जलवायु में भी प्रसारित कर रहे हैं। जहाँ करेला और नीम नहीं होंगे वहाँ , ‘एक तो कड़वा करेला दूजे नीम चढ़ा’, जहाँ कंगन नहीं होगा वहाँ ‘हाथ कंगन को आरसी ‘ भी नहीं होगा । जिस प्रकार भाषा एक व्यवहार है उसी प्रकार कथा भी एक व्यवहार है । वह रूखा -सूखा निबन्ध नहीं है; बल्कि समाज में निरन्तर हो रहे विकास-ह्रास सबकी प्राणवान् गाथा है।

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मण्टो की लघुकथाओं का यथार्थबोध

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उर्दू कथा–साहित्य में प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी में सबसे बड़ा एवं असरदार नाम सआदत हसन मण्टो (1912–55) का है, जो अपने लेखन से न केवल सदैव विवादों में रहे, बल्कि जिसने पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से अपने समय के यथार्थ और सियासी भगिमाओं को बेपर्द कर मनुष्य के रुहानी रिश्तों को कलमबंद किया। 1935 से 1955 के भारतीय परिवेश के एकपक्ष को अपने कथा–साहित्य में यथार्थपरक दृष्टि से दर्ज कर मण्टो ने वस्तुत: उस दौर की स्याह दास्तान का उद्घाटन किया है। कहते हैं कि साहित्य अपने समय का सच्चा इतिहास होता है, जिसकी पुष्टि मण्टो के लेखन से होती है। ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘बू’, काली सलवार’, टोबाटेक सिंह’, ‘धुआँ, ऊपर नीचे और दरम्यान’, ‘नया कानून’,‘ब्लाउज’, ‘सरकंडो के पीछे’, ‘डरपोक’, ‘हतक’, ‘खुशियाँ’ जैसी कहानियों के द्वारा एक जमाने में मण्टो को न केवल व्यापक चर्चा मिली, बल्कि इनमें कई कहानियाँ सामाजिक ठेकेदारों एवं कानूनविदों के बीच हंगामेदार विवादों में भी रहीं और उनमें अधिकतर पर मुकदमे भी चले, जिनमें दो–तीन कहानियों के कारण मण्टो को सजा भी हुई। ये सब अपनी जगह, किन्तु इस हकीकत से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यही कहानियाँ अपने समये के सच को अपने में इतिहास की तरह सुरक्षित रखे हुए हैं। नाना मुसीबतों को मोल लेकर भी मण्टो ने अपने समय के तल्ख यथार्थ को अपने साहित्य में दर्ज किया, वगैर इसकी परवाह किए कि केवल यथार्थ चित्रण भर के लेखन से सारस्वत साहित्य में उसका सतही मूल्यांकन भी हो सकता है। बकोल डॉ. रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ जिस समय मण्टो ने लिखना शुरू किया उस समय उर्दू–कथा साहित्य आदर्शवाद से आगे न बढ़ा था। यह आदर्शवाद भी क्रांतिकारी किस्म का न था, बल्कि नजीर अहमद और राशिदुल खैरी की परम्परा में वैयक्तिक व्यवहार के सुधार की ओर प्रयत्नशील था। प्रेमचंद आदि के प्रभाव से उसमें सामाजिक क्रांति की दृष्टि को एकदम से फलांग कर तत्कालीन यूरोपीय साहित्य से प्रेरणा प्राप्त की, जो फ़्रायड के मनोविज्ञान और लैंगिक मनोविकारों के अध्ययन पर आश्रित था। आलोचकों ने मण्टो के ‘नग्नवाद’ को खूब कोसा, लेकिन मण्टो ने किसी की परवाह न की और बराबर के यौन मनोविकारों के सड़ते हुए घाव खोलकर दिखाते रहे।

लैंगिक मनोविकारों के साथ फसादी माहौल की सियासी भंगिमाओं को भी सामाजिक विद्रूपताओं की लपट में बेपर्द कर उसकी अंत: कथाओं को मण्टो ने लेखनबद्ध किया। इन दो सूत्रों के सहारे मण्टो –साहित्य का आकलन किया जा सकता है। यहाँ हम मण्टो की लघुकथाओं (जिसे उर्दू में अफसांचे कहते हैं,)के ही विवेचन तक अपने को सीमित रखना चाहेंगे। मण्टो ने छोटी–छोटी कथाओं के द्वारा भी भारत विभाजन की त्रासदी तथा साम्प्रदायिक हिंसा की नाना स्थितियों का चित्रण कर व्यक्ति की उन प्रवृत्तियों को आकलन किया है, जहाँ सामुदायिक भावना के पूर्वाग्रहों में आकर वह अपनी मनुष्यता खो बैठता है। मण्टो की इन्हीं स्थितियों की लघुकथाओं का एक संग्रह ‘स्याह हाशिए’ नाम से प्रकाशित हैं अपनी सभ्यता एवं संस्कृति से पूरे विश्व को राह दिखाने वाले मधुमय देश भारत में एक समय ऐसा भी आता है, जब समुदायगत आदिम प्रवृति के कारण उसकी दास्तान स्याह हाशिए में दर्ज हो पूरी मानवता को कलंकित कर जाती है। इस तथ्य को यथार्थपरक दृष्टि से पूरी संवेदना के साथ मण्टो ने अपनी लघुकथाओं में दर्ज किया है। यद्यपि अपनी लघुकथाओं में मण्टो ने फसादी स्थितियों के हर रंग को अतियथार्थपरक ढंग से चित्रित किया है, तथापि कहीं–कहीं रचनात्मक आदर्श के गठन में घटनाओं के मनोवांछित चित्रण के द्वारा उससे युटोपियाई निष्कर्ष निकालने की कोशिश भी की है, जिसके मूल में देशकाल एवं समाज पर किसी विचार का प्रत्यारोपण न होकर गुण–धर्म के आलोक में मनुष्यता की व्याख्या ही है। अपने मानसिक संर्ष के इस ज़द्दोजहद में अनेक बार लघुकथा के शिल्प एवं कथ्यगत बुनावट को मण्टो प्रतीकात्मक तरीके से फंतासी की हदों तक ले जाते हैं, जहाँ ये मोंपासां एवं मॉम जैसी फ़्रांसीसी लेखकों की शिल्पगत संरचना के अधिक निकट मालूम जान पड़ने लगते हैं। व्यंजनामूलक भाषा की चासनी में मण्टो के पात्र अनकही कहानी भी कहते हैं, जिससे उनका अपना संसार, खिलता–खुलता नजर आता है। ‘स्याह हाशिए’ की लघुकथाओं के बहाने प्रथमत: उनके लेखन–तकनीक तथा फसादी माहौल के लेखन–विस्तार की व्याख्या प्रासंगिक होगी।

‘स्याह हाशिए’ की पहली लघुकथा है–‘जूता’। साम्प्रदायिक पृष्ठभूमि की इस रचना में लेखक ने एक बुत के बहाने सामाजिक आदर्श एवं मूल्यों के संरक्षण को तमाम साम्प्रदायिक आग्रहों के ऊपर प्रतिष्ठित किया है। इस रचना में गंगा राम का बुत सामाजिक आदर्श एवं मूल्यों का प्रतीक है, जिसे साम्प्रदायिक जुनून से उद्धत हो अपर समुदाय के लोग जूतों की माला से लांछित कर अपने समुदाय की छद्म भावनाओं को संतृप्त करना चाहता है, किन्तु औचक पुलिक के आगमन से उसकी मंशा सिद्ध नहीं हो पाती है और उनमें एक अत्यंत घायल हो भाग पाने में भी असहाय हो जाता है। प्राण–रक्षा हेतु उसे ‘सर गंगाराम अस्पताल पहुँचा दिया जाता है। इस कथा में दो बातें गौर करने लायक हैं, एक–जिस ‘आदर्श’ के प्रतीक बुत को तोड़–फोड़ कर उसे जूतों की माला से लांछित करने की कोशिश की जाती है, उसी आदर्श से नामित अस्पताल में दंगाई को प्राण–रक्षा हेतु भेजा जाता है अर्थात् सामाजिक आदर्श एवं मूल्य व्यवहार–जगत की संकुचित दृष्टि से बहुत ऊपर पूरे जगत के कल्याणकारी तत्त्व हो जाते हैं, जिन्हें उनके संसारी एवं भौतिक परिचय से मूल्यांकित कर उनके साथ तदनुकूल व्यवहार करना अनुचित होगा। दो–जूता यहाँ लांछन का प्रतीक है। संसारी लोगों में, जो साम्प्रदायिक आग्रही होते हैं, उनके द्वारा किसी आदर्श की हत्या में वह आदर्श लांछित नहीं होता, बल्कि उसकी ही मनुष्यता लांछित होती है। ऐसे में ‘गिरे हुए’ अर्थात् पतित व्यक्ति की रक्षा भी वही ‘आदर्श’ करता है, जिसकी हत्या साम्प्रदायिक आग्रही करते हैं। यहाँ यह भी गौर करना चाहिए कि यह छोटी–सी रचना ‘जूता’ शीर्षक पाकर अनन्त विस्तार पा लेती है, जिससे ध्वन्यांकित होता है कि दंगों की आवोहवा में महज समुदाय–भावना की सनक में जिन असंख्य लोगों की हत्याएँ की जाती हैं, उससे हमारी अपनी ही मनुष्यता लांछित होती है।

दंगे की ज्वाला में लगातार हाथ सेंकने वाले समुदाय न केवल अपनी चेतना खो बैठते हैं, बल्कि उसकी संवेदना भी–भू लुंठित हो जाती है। ऐसे ही नृशंस समुदाय की कथा है–‘बेखबरी का फायदाह’, जिसमें संवेदनशून्यता की स्थिति को चित्रांकित किया गया है। इस कथा में एक समुदायी की पिस्तौल दिन भर गोलियाँ उगलती हैं जिससे अनेक जाने हलाल होती हैं। पिस्तौल की गोलियाँ खत्म हो जाती हैं, पर समुदायी की सनक नहीं। तभी एक बच्चा सड़क पर दिख जाता है। उसे भी समुदायी अपनी गोली से हलाल कर जाना चाहता है। उसका संवेदनशून्य मस्तिष्क बड़े और अबोध बच्चे में कोई फर्क नहीं कर पाता। अपनी सनक में वह इस कदर बेखबर है कि उसे पता ही नहीं चलता कि पिस्तौल में गोली है भी या नहीं। अबोध बच्चा तो उसकी बेखबरी के कारण बच जाता है किन्तु उसके मानस का वहशीपन अपनी दास्तान कह जाता है। यहाँ अबोध बच्चे का बच जाना महज इत्तेफ़ाक बताकर लेखक उस पूरे परिवेश के चेतनाशून्य हादसे का बयान कर जाता है। फसादी–माहौल की एक अन्य लघुकथा है–‘करामात’। दंगाई मानसिकता मनुष्य की आत्मा को भी कुलषित कर देती है और जब आत्मा ही कुलषित हो जाती है तो हर मीठी चीज भी खारा लगने लगती है। ‘करामात’ शीर्षक लघुकथा इसी दृष्टि की उत्तम रचना है। दंगे में बाजार की लूट का स्वाद प्राय: सभी चखना चाहते हैं, लेकिन बाद को शिकंजा कसने लगता है तो उससे जान छुड़ाने के लिए लूटी गई वस्तु के साथ–साथ अपनी वस्तुएँ भी बाहर कर देते हैं। एक व्यक्ति लूटे गए शक्कर के बोरे को कुएँ में डालने के साथ–साथ खुद भी उसमें गिर जाता है। लोग उसे बाहर निकालते हैं ;लेकिन कुछ देर बाद ही वह मर जाता है। यहाँ तक कथा को बयान करने के बाद लेखक उसे आश्चर्यजनक मोड़ देता है–लोग जब दूसरे दिन कुएँ के जल को इस्तेमाल में लाते हैं तो वह मीठा लगने लगता है और लोग यह भी देखते हैं कि मरने वाले की कब्र पर दीए जल रहे हैं। यहाँ कुएँ के जल का मीठा लगना’ और ‘कब्र पर दीए जलने’ की प्रतीकात्मकता के द्वारा लेखक स्पष्ट करना चाहता है कि लूट में हिस्सेदारी निभाने से जो आत्मा कलुषित हुई थी, वह व्यक्ति के मर जाने अर्थात् आत्मोत्सर्ग से निष्कलुष हो जाती है और इसीलिए कुएँ का खारा जल मीठा हो जाता है। लोक व्यवहार में क्योंकि ऐसा होता नहीं;इसीलिए रचना के अंत को चमत्कारपूर्ण कर प्रतीकात्मक तरीके से एक रचनात्मक आदर्श के गठन की कोशिश की गई है। ‘करामात’ शीर्षक रखकर भी रचना में इसी तथ्य को रेखांकित किया गया है कि किसी जटिल एवं संक्रमणकारी युग में किसी करामात से ही रचनात्मक आदर्श का गठन संभव है। इस रचना में दंगे के एक आयाम को दर्शाने में यथार्थपरक चित्रण करते हुए भी रचनात्मक आदर्श की निर्मिति में कदाचित फंतासी का सहारा लिया गया है।

दंगे की मानसिकता विवेक को पूरी तरह से किस प्रकार हर लेती है, इस ‘घाटे का सौदा’ में देखा जा सकता है। दो मित्र अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए अनेक लड़कियों में से एक को बयालीस रुपए में खरीदता है। बाद को, लड़की से बातचीत करने पर उसे पता चलता है कि लड़की उसी के समुदाय से है, जबकि बेचने वाले ने उससे झूठ कहा था कि लड़की उसके समुदाय से नहीं है। सच्चाई जान लेने के बाद दोनों मित्र लड़की को वापस कर आने का निर्णय लेते हैं। यौन बुभुक्षा एक प्रकार की बॉयोलोजिकल नेसीसिटी है, लेकिन दंगाई पृष्ठभूमि में मनुष्य यौन तृप्ति में भी समुदायगत भावना से ही निर्णय लेते हैं–यही निर्दिष्ट करना इस लघुकथा का अभीष्ट है। शरीर की भूख से मुक्ति के लिए सौदा किया जाता है, वह इसलिए घाटे में तब्दील नजर आता है कि लड़की उसके ही समुदाय की निकल जाती है। दंगों में केवल विवेक ही विकृत नहीं होता, प्रवृत्ति भी दूषित हो जाती है।

‘पेशबंदी’ शीर्षक लघुकथा दंगाई हालात में सुरक्षा प्रहरियों के गलत डेपुटेशन की अन्त:कथा बयान करती है। इस रचना का चरमोत्कर्ष है एक सिपाही को नई जगह पर गश्ती के हुक्म दिए जाने पर उसके द्वारा इंस्पेक्टर से कहा गया कथन–‘मुझे वहाँ खड़ा कीजिए, जहाँ नई वारदात होने वाली है।’ यहाँ यह संवाद ही पूरी अंत:कथा खोकर खुलासा कर देता है। दंगे का एक सच यह भी है कि व्यक्ति संकट में सब कुछ खोकर भी अपनी जान का प्रतिरक्षक बना रहता चाहता था। ‘तआबुन’ इसी स्थिति की रचना है। समुदाय–विशेष के क्षेत्रों में अपर समुदाय का एक तन्हा व्यक्ति जो दौलतमंद भी है, इसी बात में समझदारी मानता है कि बलवाई लुटेरों को आमंत्रित कर हवेली का सब कुछ लूट जाने दे, ताकि उसकी अपनी जान सलामत रहे। वह यही करता है। इस रचना का निहितार्थ यह है कि दंगे में व्यक्ति धन के मद में वशीभूत होकर ही दूसरे समुदाय की जान का दुश्मन बनता है, अन्य कारण गौण भूमिका में होते हैं। इसी तथ्य को एक अन्य लघुकथा ‘तकसीम’ ने नए अंदाज में पेश किया है। यूटोपियाई निष्कर्ष के द्वारा अघटित के वर्णित करने के मूल में भी इसी प्रकार की सदिच्छाएँ ही होती हैं। ऐसी सदिच्छाएँ उसी के मानस में पनपती हैं, जिसे लगातार दंगाई माहौल में रहना पड़ा हो। ‘तकसीम’ इसी प्रकार की रचना है। लूट से प्राप्त धन के आधे–आधे वितरण के निमिा जब संदूक खोला जाता है, तो उसमें से एक आदमी निकलता है और वह दोनों लुटेरों को दो–दो हिस्सों में काट डालता है। दंगे का यह मन–कल्पित दृश्य भर है, जिसके द्वारा व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति को एक आदर्श की तरफ आकृष्ट भर करना रचना का अभीष्ट है। रचना केवल यथार्थ भर नहीं होती, मानव मन के आकलन को प्रेरित करने के निमित वांछित आदर्शोंन्मुख कल्पना का प्रतिफलन भी होती है। ‘तकसीम’ को इसी आलोक में देखा जाना चाहिए।

दंगाई–लूट में केवल सामान्य व्यक्ति ही अपने धर्म से च्युत नहीं होता, कभी–कभी वे भी इसके शिकार हो जाते हैं जिन पर देश–समाज की रक्षा का भार होता है। साम्प्रदायिक हिंसा के इस कटु पक्ष के यथार्थ को लेखक ने ‘मजदूरी’ एवं ‘निगरानी में’शीर्षक लघुकथा ओं के माध्यम से चित्रित किया है, जो पुलिस एवं सेना के लेकर है। इसी कड़ी की दूसरी लघुकथा है–‘निगरानी में’, जिसमें मिलिटरी वाले की भी दंगाई लूट में हाथ सेंकने की दास्तान है। जिन पर राष्ट्र–रक्षा का दायित्व होता है, उनमें भी कुछ दंगाई माहौल के प्रभाव में आकार किस कदर बहक जाते हैं, उसे सांकेतिक रूप में यह रचना उद्घाटित करती है। जिस देश में पुलिस एवं मिलिटरी के लोग भी अपने कर्तव्य को भूल दंगाई–लूट में अपने हाथ गरम करने लगे, उस देश की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है? यही स्याह हाशिए की निर्मम दास्तान है, जिन्हें पूरी संजीदगी के साथ लेखक ने अपनी लघुकथा ओं में चित्रित कर उस नग्न को उदटित किया, जिससे यह देश कलंकित हुआ।

‘स्याह हाशिए’ की लघुकथाओं में सॉरी, उलेहना, आराम की जरूरत, दावते अमल, जेली, इस्तेकलाल, साअतेशीरी, किस्मत, आँखों पर चर्बी जैसी रचनाएँ भी है, जो दंगे में हलाल–लूट आदि को पृथक–पृथक् कोण से चित्रित कर न केवल जातीय संस्कार को झटकती हैं, अपितु फसादी माहौल के अतियथार्थपरक चित्रण के द्वारा सभ्य समाज के सामने ऐसा संकट (द्वन्द्व) उपस्थापित करती है, जिनसे जूझने के उपरान्त ही मनुष्यता की रक्षा संभव है। यहाँ इस तथ्य को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है कि मण्टो के अफसांचों को आधुनिक हिन्दी लघुकथा के कलागत शिल्प एवं कथ्य की पूर्ववर्ती रचना–परम्परा के रूप में न देखकर, स्वातंत्रयोत्तर भारत की सीमावर्ती क्षेत्रों में व्याप्त तत्कालीन भीषण साम्प्रदायिकता दंगे की विविध कोणीय यथार्थपरक चित्रण के रूप में ही आकलित किया जाना चाहिए, तभी हम उनके साथ न्याय कर पाएंगे….गो कि इतना तो मानना ही पड़ेगा कि मण्टो की लघुकथा ओं ने भी भावी हिन्दी लघुकथा ओं की दिशा को प्रभावित किया। आज मण्टो की रचनाएँ अपने समय के सच का इतिहास बताती हैं तो लगता है कि वे कल की नहीं, आज की ही हकीकत बयान कर रही हैं….केवल संदर्भ एवं घटनाएँ बदल गई हैं, पर आज भी मनुष्य अपनी उसी आदम प्रवृत्तियों के साथ ‘मनुष्यता की लूट’ में सक्रिय है….और सच मानी में, यहीं मंटों की प्रासंगिकता अधिक उजागर होती है!

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