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कथा–सम्राट प्रेमचंद की लघुकथाएँ : एक दृष्टि

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कथा–सम्राट प्रेमचंद की लघुकथाएँ : एक दृष्टि
डॉ सतीशराज पुष्करणा
वेदों में कथा–सूत्र भले ही प्राप्त होते हों, किन्तु ‘कथा’ की सही पहचान हमें ‘अग्नि पुराण’ के निम्न श्लोक से ही होती है :–
आख्यायिका, कथा, खण्डकथा परिकथा तथा ।
कथा निकेति मन्यन्ते गद्यकाव्यं च पंचधा ।।
अर्थात् आख्यायिका, कथा, खण्डकथा, परिकथा, कथानक–गद्यकाव्य के ये पाँच प्रकार हैं। जबकि कुछ लोगों को भ्रम है कि ये सभी ‘कथा’ के प्रकार न होकर, अपने–अपने स्वतंत्र साहित्य–रूप हैं, यानी एक–दूसरे के समान अस्तित्व रखने वाले हैं, समानान्तर हैं। अग्निपुराणकार ने इन साहित्य–रूपों की जो परिभाषाएँ बतायी हैं, उनको देखते हुए ‘लघुकथा’ का संबंध गद्य–काव्य के ‘कथा’ प्रकार से निसर्गत: जुड़ता है।
‘कथा’ का जन्म मनुष्य के जन्म से माना जा सकता है। कारण ‘कथा’ का शाब्दिक अर्थ ‘वृत्तांत वर्णन’ होता है या दूसरे शब्दों में इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि ‘कथा’ ‘कथ’ धातु से व्युत्पन्न है, जिसका सीधा अर्थ – ‘वह जो कहा जाए’ होता है। यहाँ कहने वाले के अतिरिक्त सुनने वाले की स्थिति अन्तर्भुक्त है। क्योंकि सुनने वाले की अनुपस्थिति में कहने की कल्पना ही व्यर्थ की बात है। किन्तु वह सभी कुछ जो कहा जाए ‘कथा’ नहीं कहा जा सकता । कारण किसी भी घटना को कहने में एक सिलसिला या तारतम्य होना अत्यावश्यक है। फिर उस घटना का कुछ परिणाम भी होना चाहिए । तात्पर्य यह है कि सिलसिलेवार कही गई ‘घटना’ जिसका कुछ परिणाम हो – ‘कथा’ कहलाती है।
‘कथा’ वस्तुत: नैरेशन यानी कथन, वर्णित घटना, कही हुई बात, घटनाओं का क्रमिक वर्णन, घटनाक्रम का वर्णन, आख्यान इत्यादि हैं, जो बीज–रूप में प्राय: सभी साहित्य–रूपों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में विद्यमान रहती है। किन्तु ‘उपन्यास’, ‘कहानी’ और ‘लघुकथा’ में इसका प्रभुत्व होता है – या यों कह लें, ये तीनों ‘कथा’ के ऐसे रूप हैं, जिनमें नाटकीयता भी रहती है। इसमें पात्र स्वयं अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं।
इन तीनों कथा (गद्यात्मक) रूपों में ‘उपन्यास’ का फलक सबसे बड़ा होता है, कारण इसमें एक सम्पूर्ण जीवन या जीवन के एक बड़े भाग की कथा विस्तृत रूप में होती है, जबकि ‘कहानी’ में अध्कितर कुछ घटनाओं का वर्णन कहा जाता है और ‘लघुकथा’ जीवन के किसी क्षण विशेष का जो कम–से–कम शब्दों का क्षिप्र, चुस्त और त्वरा से चलने वाले प्रभावपूर्ण कथात्मक (गद्य रूप में) ढंग से दोहे की तरह कसा–गठा, किन्तु यथार्थ के धरातल पर पैनी धार से कहा (शैली के अर्थ में) गया मानवोत्थानिक संदेश है। ‘लघुकथा’ स्थूल से सूक्ष्म की सहज यात्रा है।
हिंदी में ‘लघुकथा’ को पहले–पहल बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ ने अपनी पुस्तक ‘साहित्य–साधना की पृष्ठभूमि’ के पृष्ठ 267 पर परिभाषित किया था। पुन: 1958 ई. में लक्ष्मीनारायण लाल ने बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ द्वारा दी गई लघुकथा की परिभाषा को ही लगभग हू–ब–हू ‘हिन्दी साहित्य–कोश (भाग–1) के पृष्ठ 740 पर उतार दिया था ।
‘लघुकथा’ नाम ‘छोटी कहानी’, ‘मिनी कहानी’, ‘लघु कहानी’ इत्यादि नामों के बाद ही रूढ़ हुआ। ‘लघुकथा’ को अंग्रेजी में स्टोरिएट एवं उर्दू में ‘अफसाँचा’ कहा जाता है।
कोई भी विधा अकस्मात् अस्तित्व में नहीं आती । इस हेतु उसे लंबी यात्रा तय करनी पड़ती है। तब उसकी पहचान होती है और तत्पश्चात् उसका रूप–स्वरूप तय करने हेतु प्रयास किये जाते हैं और बाद में उसके अतीत की खोज स्वाभाविक रूप से होने लगती है, ताकि उसके ‘मूल’ और ‘बीज’ का पता चल सके। ‘लघुकथा’ भी इस सत्य का अपवाद नहीं रही ।
अतीत की खोज करते–करते इस विधा के शोध्कत्र्ता इसके बीज संस्कृत के गं्रथों–वेदों में आयी कथाओं, दृष्टांतों, रामायण और महाभारत की कथाओं, ईसप की कहानियों, पंचतंत्र की कथाओं से होते हुए मुंशी हसन अली, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र , माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, माधव राव सप्रे, पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र, प्रेमचन्द इत्यादि ख्यातिलब्ध साहित्यकारों से होते हुए विकास की यात्रा को रेखांकित करते हैं तथा इसकी स्वतंत्र पहचान को स्पष्ट करते हैं ।
पहचान बनने से पूर्व की लघुकथाओं की पड़ताल करना सहज कार्य नहीं है। रूप–स्वरूप के अतिरिक्त इसमें प्रमुख संकट कथानक, शिल्प, भाषा इत्यादि के अतिरिक्त लेखक के प्रतिष्ठित नाम का आतंक भी है। यही कठिनाई प्रेमचन्द की लघुआकारीय कथात्मक रचनाओं के साथ भी है।
प्रेमचन्द ने उपन्यास, कहानी, निबंध, संपादकीय, नाटक, पत्र इत्यादि विधाओं में साहित्य का पर्याप्त सृजन किया, किन्तु उनकी पहचान एवं ख्याति ‘उपन्यास’ एवं ‘कहानी’ इन दोनों विधाओं के वे सम्राट के रूप में हैं। संख्या की दृष्टि से उनकी 312 कहानियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं, किन्तु लगभग एक दर्जन कहानियाँ ही ‘मानक’ मानी जाती हैं।
प्रेमचन्द ने आकार की दृष्टि से लघुकहानियों को भी अलग नाम से रेखांकित नहीं किया । उन्होंने या उनके समकालीनों ने ऐसी लघुआकारीय रचनाओं को भी ‘कहानी’ की ही श्रेणी में रखा । परन्तु 1930 में ‘हंस’ में लघुकथा नाम से ही लघुकथाएँ छपती रही हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचंद इस विधा को जानते और समझते थे और इसे अन्य विधाओं की तरह महत्त्व भी देते थे । किन्तु वर्तमान में जब ‘लघुकथा’ अपनी स्पष्ट पहचान बनाकर विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है, तो आधुनिक काल के आरंभिक दौर के कथा–लेखकों की लघुआकारीय कथा–रचनाओं को ‘लघुकथा’ के विकास के एक पड़ाव के रूप में परखना सहज स्वाभाविक ही है।
मेरी दृष्टि से वर्तमान लघुकथा–लेखन में निम्न सात तत्त्वों का होना अनिवार्य माना जाता है :
1.एक ही प्रभावशाली पूर्ण अवायविक घटना या फिर एक ही विचार,
2.उस घटना या विचार से सम्बद्ध पात्र,
3.उन पात्रों का बाह्य एवं मानसिक द्वन्द्व को स्पष्ट करने वाली भावानुरूप भाषा–शैली,
4.एक ही परिणाम या प्रभाव,
5.क्षिप्रता एवं लाघव जिसमें एक क्षण के कथानक को प्रस्तुत करने में शब्दों का अपव्यय न हो और
6.शीर्षक, जो रचना का अभिन्न अंग बनकर उभरे ।
प्रेमचन्द की चौदह लघु आकारीय कथा–रचनाएँ क्रमश: ‘बाँसुरी’, ‘बीमार बहिन’, ‘राष्ट्र का सेवक’, ‘देवी’, ‘बंद दरवाज़ा’, ‘बाबाजी का भोग’, ‘कश्मीरी सेब’, ‘दूसरी शादी’, ‘ग़मीं’, ‘गुरु–मंत्र’, ‘यह भी नशा, वह भी नशा’, ‘शादी की वजह’ और ‘ठाकुर का कुआँ’ हमारे समक्ष हैं ।
लेखक अपने को किसी भी विधा में अभिव्यक्त करे, किन्तु वह अपने समय के सच को ही अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करता है। प्रेमचन्द भी इस तथ्य का अपवाद नहीं हैं। उनके उदूर् कहानी–संग्रह ‘प्रेम चालीसी’(1930 ई.) में ‘कौम का ख़ादिम’ शीर्षक से प्रकाशित ‘राष्ट्र का सेवक’ यानी ‘नेता’ की कथनी और करनी के अन्तर की कथा है। ‘लघुकथा’ में इस विषय को काफी भुनाया गया । इस विषय पर असंख्य लघुकथाएँ लिखी गयीं । किन्तु प्रेमचन्द की यह कथा संवादों के माध्यम से बहुत स्वाभाविक ढंग से तथा कथित ‘राष्ट्र का सेवक’ के इस संवाद – देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीच के साथ भाई–चारे का सलूक, पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव । दुनिया में सभी भाई–भाई हैं, कोई नीचा नहीं, कोई ऊँचा नहीं से आरंभ होती है इसका समापन पूरी विश्वसनीयता के साथ इन तीन पंक्तियों–इंदिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा–‘मोहन अभी नौजवान है, जिसे अपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गए, जो सच्चा बहादुर और नेक है।’
राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आँखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया ।
वस्तुत: यह एक पूर्ण एवं श्रेष्ठ लघुकथा है। वर्तमान निकष पर भी यह लघुकथा शत–प्रतिशत पूरी उतरती है। ‘राष्ट्र का सेवक’ व्यंग्यात्मक शीर्षक है। पूरी लघुकथा में कहीं भी व्यंग्य प्रत्यक्ष नहीं होता–शीर्षक इस दायित्व का निर्वाह बहुत ही सुन्दर ढंग से करता है।
प्रेमचन्द की ‘देवी’ लघुकथा भी वर्तमान निकष पर सही बैठती है। यह एक ऐसी विधवा पर केन्द्रित लघुकथा है, जो अनाथ भी है और ग़रीब भी । प्रत्येक तरह से लाचार भी है। किन्तु उसका चरित्र एवं विचार इतने ऊँचे हैं कि वह स्वत: ‘देवी’ का स्थान पा जाती है।
वह उस आर्ष वाक्य को चरितार्थ कर देती है कि दान इस प्रकार दो कि दूसरे हाथ तक को पता न चले । इस विचार को ही प्रतिपादित करने हेतु प्रेमचंद ने इस लघुकथा का सृजन किया ।
‘देवी’ की नायिका जो स्वयं बेबस, लाचार, ग़रीब और विधवा है और एक भिखारी के हाथ में दस का नोट थमाकर चुपचाप अपने निवास में आ जाती है। नायक के पूछने पर–प्रात आपने पफकीर को… बीच में ही बात काटते हुए नायिका कहती है–‘अजी वह क्या बात थी, मुझे वह नोट पड़ा मिल गया था, मेरे किस काम का था।’
यह वाक्य इस लघुकथा का आधार है, जिस पर यह लघुकथा पूरी ताक़त एवं मजबूती से खड़ी है। वर्तमान दृष्टि से देखें तो लघुकथा का यह अंतिम वाक्य–‘मैंने उस देवी के कदमों पर सिर झुका दिया। अनावश्यक एवं अस्वाभाविक है। किन्तु प्रेमचंद ने इसे 1930 ई. या उससे भी पहले लिखा होगा । अत: इस प्रकार के वाक्यों का यानी आदर्श प्रस्तुत करने का वह दौर था। अत: प्रेमचंद इससे बच नहीं सकते थे। किसी भी रचना पर विचार करते समय उसमें रचना–काल एवं परिवेश को भी ध्यान में रखना अनिवार्य है, वस्तुत: तभी उस रचना के साथ न्याय संभव है।
प्रेमचंद एक सतर्क एवं जागरूक रचनाकार थे। अपने समय को उन्होंने बहुत गहराई से देखा एवं समझा था। उनके पूरे साहित्य में उनके समाज का यथार्थ मुखर है। ‘दरवाज़ा’ लघुकथा इस सत्य का प्रत्यक्ष एवं श्रेष्ठ उदाहरण है। इस लघुकथा में शीर्षक अपने औचित्य एवं महत्त्व को पूरी तरह सिद्ध करता है। यदि यह शीर्षक बदल दिया जाए तो पूरी रचना उद्देश्यहीन बनकर रह जाएगी । इस रचना का नायक ‘दरवाज़ा’ है। इस प्रतीक के मायम से ही प्रेमचंद ने अपने समय के मयमवर्गीय परिवार की स्थिति को बहुत ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। प्रस्तुत सभी चौदह कथा–रचनाओं में यही लघुकथा सर्वश्रेष्ठ है। आत्मकथात्मक शिल्प का सुन्दर उदाहरण है, यह लघुकथा । अपनी विषय–वस्तु एवं शिल्प के कारण ही यह रचना आज भी प्रासंगिक है।
प्रेमचंद की लघुकथा के रूप में जो कथा सबसे अ्धिक प्रकाशित हुई–वह है ‘कश्मीरी सेब’ । यह कथा भी अपने विषय के स्तर पर आज भी सटीक है। इस लघुकथा में तत्कालीन समय के व्यवसायियों की गन्दी मानसिकता पर करारा प्रहार किया गया है कि तब का व्यवसायी पैसे के लेन–देन में तो ईमानदार था, किन्तु सामान के मामले में नहीं । आज तो दोनों स्तरों पर ही अन्तिम सीमा तक पतन हो चुका है कि जहाँ से लौट पाना, लगता है, बहुत कठिन है। इसी कथा में लेखक उपभोक्ता को भी सावधान करता है कि कोई भी व्यक्ति आपको धोखा तभी देता है, जब आप धोखा खाते हैं। अवसर मिलने पर प्राय: लोग बेईमानी करने से नहीं चूकते । ज़रूरत इस सावधानी की है कि आप किसी को बेईमानी का अवसर ही प्रदान न करें । यह कथा वर्तमान के निकषों पर पूरी तरह फिट नहीं बैठती, इस कथा में जहाँ कालान्तर–दोष है, वहीं लेखक का उपदेशात्मक भाषण वर्तमान स्थिति में अखर जाता है। आज का पाठक स्थितियों से प्रभावित होता है, उपदेशों अथवा भाषणों से नहीं । इस स्तर पर यह रचना आज की स्थिति में अपनी तीक्ष्णता खो देती है।
‘बाबाजी का भोग’ ढोंगी साधुओं पर व्यंग्य करती यह भी एक श्रेष्ठ लघुकथा है। चूँकि प्रेमचंद ने इसे लघुकथा के रूप में नहीं लिखा । यही कारण है विषय के चुस्त होते हुए भी शिल्प उसके अनुसार उतना क्षिप्र एवं सुष्ठु नहीं है। यही कारण है कि यह रचना उतनी पैनी एवं धारदार नहीं बन पायी, जितना कि उसे बनना चाहिए था। इस लघुकथा की कतिपय पंक्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं–‘रामधन ने जाकर स्त्री से कहा– घी माँगते हैं, माँगने को भीख, पर घी बिना कौर नहीं धँसता’ और उसका अन्तिम वाक्य– ‘रामधन लेटा, तो सोच रहा था–मुझसे तो यही अच्छे !’
सन् 1926 के आसपास हमारे समाज में कैसी–कैसी रूढ़ियाँ और इन्सानी भावनात्मक जज़्बा मौजूद था, उसका खुलासा भी करती है, यह लघुकथा । कुछ पंक्तियाँ इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य हैं–भूसा बेचा तो बैल के व्यापारी से गला छूटा, बस थोड़ी–सी गाँठ अपने हिस्से मे आई । उसी को पीट–पीट कर एक मन भर दाना निकाला था । किसी तरह चैत का महीना पार हुआ । अब आगे क्या होगा? क्या बैल खाएँगे, क्या घर के प्राणी खाएँगे, यह ईश्वर ही जाने ! पर द्वार पर साधु आ गया है, उसे निराश कैसे लौटाएँ, अपने दिल में क्या कहेगा !’
‘दूसरी शादी’ 1931 ई. के समय में, विषय अनुसार श्रेष्ठ रचना रही होगी, किन्तु वर्तमान में इस विषय का कोई महत्त्व नहीं है। आज तो विधुर और विधवा दोनों ही पुनर्विवाह हेतु स्वतंत्र हैं। इसे कानूनी मान्यता भी है और सामाजिक भी। आज तो यह इतनी आम बात है कि पुनर्विवाह पर किसी का यान तक नहीं जाता । यों शिल्प के स्तर पर यह रचना कसी–गढ़ी है और अपना वांछित प्रभाव छोड़ने में भी समर्थ है ।
इस रचना में अभिव्यक्त यह सच आज भी पूर्व की भाँति शाश्वत है–औरत चाहे कितनी नेक दिल हो, वह कभी अपने सौतेले बच्चे से प्यार नहीं कर सकती । इस कथा का नायक अपनी दूसरी पत्नी द्वारा अपने पुत्र के प्रति किये जा रहे व्यवहार को लेकर भी दु:खी है और वह महसूस करता है–यह हार्दिक दु:ख वह वादा तोड़ने की सज़ा है, जो कि मैंने एक नेक बीवी से उसके आखिरी वक़्त में किया था ।
‘ग़मीं’, ‘परिवार नियोजन’ या ‘परिवार कल्याण’ हेतु लिखी गई सोद्देश्य कथा है। चन्द पंक्तियाँ इस उद्देश्य को स्पष्ट करती हैं–एक बालक का जन्म हुआ, पर मैं उसे आनन्द का विषय नहीं, शोक की बात समझता हूँ। आप लोग जानते हैं, मेरे दो बालक मौजूद हैं। उन्हीं का पालन मैं अच्छी तरह नहीं कर सकता । दूध भी कभी नहीं पिला सकता, फिर इस तीसरे बालक के जन्म में आनन्द कैसे मनाऊँ ? इसने मेरे सुख और शांति में भारी बाधा डाल दी । मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि इसके लिए दाई रख सकूँ । माँ इसको खिलाए, इसका पालन करे या घर के दूसरे काम करे, यह होगा कि मुझे सब काम छोड़कर इसकी सुश्रूषा करनी पड़ेगी । दस–पाँच मिनट जो मनोरंजन या सैर में जाते थे, अब इसके सत्कार की भेंट होंगे। मैं इसके विपत्ति समझता हूँ, और इसीलिए इसके जन्म को ‘ग़मीं’ कहता हूँ।’ हालाँकि 1929 ई. में सरकार या समाज में ‘परिवार कल्याण’ जैसी कोई बात नहीं थी, किन्तु लेखक तो दूरदर्शी होता है, अत: बढ़ती जनसंख्या के खतरे को प्रेमचन्द ने 1929 ई. में ही भाँप लिया था। तभी तो उन्होंने तब ‘हम दो हमारे दो’ की कल्पना की, जिसे आज सरकार प्रचारित कर रही है। यही इस रचना की सार्थकता है। हालाँकि इस कथा–रचना की क्षिप्रता नष्ट हो गई और इसकी बनावट में भी ढीलापन आ गया।
‘बाँसुरी’ यह रचना उर्दू मासिक ‘ज़माना’ के जनवरी, 1913 ई. अंक में प्रकाशित कहानी ‘तिरिया चरित’ के पाँचवें उपखण्ड का अन्तिम पैरा मात्र है; जिसे स्वयं प्रेमचन्द ने उर्दू मासिक ‘कहकशां’ जनवरी, 1920 ई. के अंक ‘बाँसुरी’ शीर्षक से स्वतंत्र कहानी के रूप मंे प्रकाशित करा दिया था । किन्तु यह न कहानी है, न ही लघुकथा । कारण लघुकथा होने हेतु एक ‘कथा’ तो होनी ही चाहिए । इन कतिपय पंक्तियों से तो मात्र बाँसुरी के स्वर की प्रशंसा तथा ढलती रात का चित्रण मात्र है। वातावरण या किसी वस्तु अथवा भाव का चित्रण मात्र ही लघुकथा नहीं है। लघुकथा में क्षण मात्र की घटना के साथ–साथ इस लेख के तेरहवें पैरा में वर्णित सात तत्त्वों/अवयवों का प्रतिपादन भी अनिवार्य है।
‘बीमार बहिन’ में घटना तो है, किन्तु ‘कथा’ नहीं है। यह तो किसी कथा का आरंभिक पैरा मात्र प्रतीत होता है। अत: इसे किसी भी दशा में लघुकथा नहीं माना जा सकता है। इसमें कालान्तर दोष भी है।
‘बन्द दरवाज़ा’ में संप्रेषण का अभाव ही इस रचना की सबसे बड़ी कमी है। यदि हम ‘बच्चे’ को सूरज का प्रतीक मान लें और यह कि यह पूरे दिन का चित्रण है, तो भी पूरा बिम्ब सिर के ऊपर से निकल जाता है और ‘बन्द दरवाज़ा’ उलझी हुई रचना प्रतीत होने लगती है। यदि बच्चे को बच्चे के रूप में ले लें तो बाल–मनोविज्ञान किसी हद तक स्पष्ट होता है, किन्तु फिर ‘बन्द दरवाज़ा’ शीर्षक का औचित्य स्पष्ट नहीं होता ।
‘गुरु–मंत्र’ ढोंगी साधुओं पर व्यंग्य करती कथा–रचना है, जो आकारगत दृष्टि से लघुकथा की सीमा का अतिक्रमण करती है। इस कथा–रचना का शीर्षक भी अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं करता, यों इसे ‘लघु कहानी’ की संज्ञा दी जा सकती है। यह भी कालान्तर–दोष की शिकार कथा है।
‘यह भी नशा, वह भी नशा’ एवं ‘ठाकुर का कुआँ’ ये दोनों रचनाएँ अपने शिल्प एवं कथानक के कारण स्पष्ट रूप से कहानी को श्रेणी में ही आती हैं। इन दोनों रचनाओं को लघुकथा की श्रेणी में कदापि नहीं रखा जा सकता ।
‘शादी की वज़ह’ यह रचना न लघुकथा है और न ही कहानी, अपितु शादी की वजह के बत्तीस टिप्स मात्र है ।
कुल मिलाकर इन चौदह रचनाओं में ‘राष्ट्र का सेवक’, ‘देवी’, ‘दरवाज़ा’, ‘बाबाजी का भोग’ और ‘दूसरी शादी’ वर्तमान निकष पर श्रेष्ठ लघुकथाएँ ठहरती हैं। ‘ग़मीं’ और ‘कश्मीरी सेब’ लघु कहानियाँ हैं। ‘बाँसुरी’ और ‘बीमार बहिन’ अधूरी रचनाएँ हैं। ‘बन्द दरवाज़ा’ में संप्रेषणीयता का अभाव है। ‘यह भी नशा, वह भी नशा’ और ‘ठाकुर का कुआँ’ कहानियाँ हैं। ‘शादी की वजह’ मात्र टिप्स है।
प्रेमचंद ने इन कथा–रचनाओं को लघुकथा समझकर लिखा या नहीं लिखा, यह कहना मेरे लिए बहुत कठिन है । किन्तु अनुमानत: उन्होंने इन रचनाओं को कहानी के रूप में या लघुकहानी के रूप मंे लिखा होगा, ऐसा मैं महसूस करता हूँ । प्रेमचंद चूँकि आरंभिक दौर के कहानीकार थे, अत: उनकी कहानियों में आदर्शोन्मुखी यथार्थ के दर्शन के साथ शिल्प के स्तर पर नाट्य–शिल्प का अध्कि व्यवहार हुआ है। इनकी भाषा पात्रों के चरित्रानुकूल न होकर सपाट उनकी अपनी भाषा है । जिस काल में प्रेमचंद ने इन्हें लिखा उस दृष्टि से ये सभी रचनाएँ अपने–अपने फॉर्म में श्रेष्ठ हैं–अनुकरणीय हैं।

डॉ सतीशराज पुष्करणा
बिहार सेवक प्रेस,‘लघुकथानगर’, महेन्द्रू , पटना–800 006


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