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Channel: अध्ययन -कक्ष –लघुकथा
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लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता और पुरस्कृत लघुकथाएँ

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 15 मार्च 2016 को साहित्य अकादमी और फिर 27 मार्च को हिन्दी अकादमी द्वारा लघुकथा पाठ के आयोजन को लघुकथा की विकास यात्रा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। इस उपलब्धि के पीछे जहाँ एक ओर लघुकथा के प्रति समर्पित लेखकों के अथक प्रयास हैं, वहीं कुछ महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं के सम्पादकों के प्रयासों को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। कमलेश्वर जी के संपादन में सारिका के लघुकथा विशेषांक की हम सभी चर्चा करते रहते हैं। इधर पिछले कई वषों‍र् से  हरिनारायण जी के सम्पादन में लगातार आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता ने भी इस विधा को अतिरिक्त गरिमा प्रदान की है। लघुकथा की मूलधारा से जुड़े कथाकार न जाने क्यों इस महत्त्वपूर्ण आयोजन का अपने लेखों में उल्लेख नहीं करते। 15 मार्च को साहित्य अकादमी में आयोजित लघुकथा पाठ के अवसर पर राजकुमार गौतम ने कथादेश के इस आयोजन को विशेष रूप से रेखांकित किया। इधर मधुदीप के सम्पादन में ‘पड़ाव और पड़ताल’ के 25 खण्डों का प्रकाशन भी उल्लेखनीय है। बलराम के सम्पादन में लोकायत की समकालीन हिन्दी लघुकथा सीरीज की शुरुआत स्वागत योग्य है।

गत वर्षों की भाँति इस वर्ष भी लघुकथा प्रतियोगिता हेतु बड़ी संख्या में लघुकथाएँ प्राप्त हुईं, पर हर बार की तरह गिनी चुनी रचनाओं को ही विचारार्थ चयनित किया जा सका। जिन रचनाओं को निर्णायकों के पास भेजने हेतु उपयुक्त नहीं पाया गया, यहाँ उनकी चर्चा करना भी आवश्यक प्रतीत होता है। मुझे याद है वर्षों पहले राजेन्द्र यादव  जी से जब हंस में विचारार्थ आनेवाली लघुकथाओं पर चर्चा होती थी ,तो वे इन लघुकथाओं को ‘मशीनी लेखन’ की श्रेणी में रखते थे। प्रतियोगिता हेतु ऐसी रचनाएँ बहुतायत में प्राप्त हुईं । दूसरे वे कथाएँ ,जो एक ही साँचे में ढली हुई थीं।ऐसी रचनाओं के लेखकों को स्वर्गीय जगदीश कश्यप ‘डाइमेकर’ कहा करते थे। चिंता का विषय यह भी है कि इस प्रकार की रचनाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। इधर फेसबुक/ब्लाग्स पर चट–पट तैयार की गई लघुकथाएँ अक्सर देखने को मिलती हैं। आकारगत लुता के कारण इन्हें पोस्ट करने में काफी सुविधा होती है।  मज़े की बात यह है कि इन लघुकथाओं को बिना पढ़े ‘लाइक’ करने वालों की संख्या अच्छी खासी है। वही यहाँ कुछ ‘स्कूल’ भी खुल गए हैं ,जो बाकायदा लघुकथा लिखने की  ट्रेनिंग ही नहीं देते; बल्कि अच्छी खासी  लघुकथा (यदि कोई है तो)का पोस्टमार्टम कर नए संभावनाशील लेखक को भी असहाय कर देते हैं।

लघुकथा के पक्ष को लेकर विभिन्न लघुकथा लेखक सम्मेलनों में विमर्श होते रहे हैं। कुछ बिन्दुओं पर आम सहमति भी बनी हैं। वरिष्ठ लघुकथा लेखक भी प्रतिवर्ष पंजाब में होने वाले ‘जुगनुओं के अंग–संग’ और पटना लघुकथा सम्मेलन में प्रतिभागिता करते हैं और लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता के ड्राफ्ट को संशोधित/परिमार्जित करने में सहयोग करते हैं ; परन्तु सत्य यही है कि रचनाकार यदि मस्तिष्क में विधा लेखन के नार्म्स को लेकर बैठेगा ,तो मशीनी लेखन ही संभव होगा। लघुकथा का सृजन भी दूसरी विधाओं की तरह स्वत:स्फूर्त होना चाहिए। घटना  को जस का तस उतार देना लघुकथा नहीं है।

विभिन्न लघुकथा लेखक शिविरों में लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता पर आधार लेख प्रस्तुत किए जाते रहे हैं; ताकि इसका स्वतंत्र समीक्षाशास्त्र निर्मित हो सके। इन आधार लेखों में दी गई टिप्पणियाँ विमर्श हेतु प्रस्तुत की जाती रही हैं ;परन्तु कई बार कुछ लेखक इन्हें लघुकथा  के लिए अनिवार्य  और अन्तिम शर्त मान लेते हैं–

–लघुकथा में ऐटम का जो स्फोट तव सन्निहित और सन्निविष्ट होता है, वह अपनी पठन .यात्रा के अंत में विस्फोट करता है। यह विस्फोट बिल्कुल वर्टिकल होता है। एक निर्दिष्ट और रिमोट कंट्रोल्ड ऊँचाई पर जाकर धमाका होता है। फिर सब कुछ शान्त। यह ग्राफ नहीं बनाता।

लघुकथा के लिए दो घटनाओं वाले कथानक आदर्श होते हैं।

लघुकथा को चरमोत्कर्ष पर समाप्त होना ही चाहिए।

कहानी में कथा और कथ्य साफ दीखते है, शब्द और अर्थ की तरह भूमिखंड और इतिहास के कालबोध की तरह, पर लघुकथा में सम्पूर्ण कथा ही कथ्य बन जाती है अथवा सम्पूर्ण कथ्य ही कलारूप ले लेता है।

लघुकथा में पात्रों के चरित्रचित्रण का कोई अवसर नहीं होता।

लघुकथा में मानवेत्तर पात्रों के प्रयोग नहीं करना चाहिए।

पौराणिक पात्रों के प्रयोग से बचना चाहिए।

लघुकथा में कालदोष नहीं होना चाहिए।

लघुकथा में एक शब्द भी फालतू नहीं होना चाहिए।

लघुकथा 500 शब्दों से अधिक की नहीं होनी चाहिए अथवा एक पृष्ठ से बड़ी नहीं होनी चाहिए।

लघुकथा भोजन निर्माण के पूर्व की विस्तृत आयोजन प्रक्रिया नहीं है,जैसा कहानी में होता है। यह तो कुकर में दाल भात सब्जी इत्यादि सभी खाद्य पदार्थों का सजाकर रखना और दो चार सीटियों पर दो चार मिनटों में उतार लेना है।

हम खाकर (पढ़कर) संतुष्ट हो जाते हैं,ऐसा ही शील स्वभाव और क्रि़या प्रक्रि़या लघुकथा की है।

 –लघुकथा का शीर्षक कहानी की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है।

 –लघुकथा का समापन बिन्दु अधिक मेहनत की माँग करता है।

लघुकथा विमर्श के दौरान उपयु‍र्क्त बहुत सी टिप्पणियों पर आंशिक सहमति हो सकती है और हुई भी है ;परन्तु कुछ टिप्पणियाँ तो हास्यास्पद हैं। बहुत सी स्तरहीन लघुकथाओं की उपज का सबसे बड़ा कारण कुकर में दो .चार सीटियाँ बजाकर लघुकथा तैयार करना नहीं तो और क्या है? कहीं कोई घटना देखी ….उसे कुकर में सजाया और फिर उसमें आक्ऱोश/विस्फोट की सीटियाँ बजवाई….लघुकथा तैयार। लेखक के भीतर विचारों के साथ पकने में लघुकथा को महीनों यहाँ तक की सालों लग सकते हैं। मुख्य बात यह है कि पकने के लिए उसके भीतर थीम किसकी है ? उपन्यास की,लघुकथा की या कहानी की। लोहे की कड़ाही में घण्टों मेहनत से तैयार की गई सब्जी और कुकर में चुटकियों में तैयार की गई सब्जी के स्वाद में जो फर्क़ है,उससे हम सभी वाकिफ हैं।

मानवेतर पात्रों का लघुकथा में प्रयोग नहीं करना चाहिए, इस टिप्पणी से सहमत नहीं हुआ जा सकता है। यह सही है कि यदि लेखक कुशल नहीं है, उसके पास रचनाकौशल नहीं है ,तो इस प्रकार के प्रयोगों में अधिक खतरा है। हमने पिछले वर्षों  में उर्मिल कुमार थपलियाल की ‘मुझमें मण्टों ’जैसी रचना पढ़ीं। विमर्श के दौरान मण्टों की एक लघुकथा उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की गई  थी। लघुकथा में बारीक खयाली के परिपेक्ष्य में उस रचना को पेश किया गया था। पाठकों का ध्यान मण्टों की लघुकथा में गोली के ‘झुँझलाने’और ‘भिनभिनाने’ की ओर आकृष्ट किया गया था। मण्टों  की लघुकथा ‘बेखबरी का फायदा’ में पिस्टल से निकली गोली अपने गुण–धर्म के / जी हजूरी नहीं करती ,विरुद्ध व्यवहार करने लगी थी। ‘मुझमें मण्टो’ में तक आते–आते पिस्टल से निकली गोली बगावत कर देती है। अब इसे क्या कहा जाए कि कुछ विद्वान् मित्रों की यह टिप्पणी पढ़ने को मिली कि थपलियाल जी की रचना को समझने के लिए मण्टों की लघुकथा पढ़नी पड़े ,तो वह रचना की असफलता है।

कहना न होगा कि लघुकथा अपनी विकास.यात्रा में धमाकेदार अंत वाली स्थिति से काफी आगे निकल चुकी है। अंत पैना/विस्फोटक हो सकता है,पर उसे अनिवार्य रूप से लघुकथा के साथ जोड़ना उचित नहीं है। इसी प्रकार इस टिप्पणी से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि इसका ग्राफ नहीं बन सकता। इस वर्ष प्रथम पुरस्कार प्राप्त अरुण कुमार की लघुकथा ‘गाली’ को ही देखें–

पहली स्थिति– चरणदास की इस क्रि़या से बड़े बाबू की   क्रोधाग्नि   में घी पड़ गया मानो। वह कुर्सी को पीछे धकेलकर खड़े होते हुए चिल्लाया, ‘‘अबे ओ चूहड़े के बीज….तू अपना चूहड़ापना घर पर ही छोड़कर आया कर… यहाँ हमारे दफ्तर में अपनी गंदगी मत खिंडाया कर…..

दूसरी स्थिति–बड़े बाबू वो मानो इसी ताक में था। क्षंणांश की देरी किए बिना उसने चरणदास के पैर छू लिये। हाथ जोड़कर फफकता हुआ, ‘मेरी नौकरी तेरे हाथ है चरणदास…मेरी दो बेटियाँ अभी अनब्याही है….मुझे माफ कर दे।’’

तीसरी स्थिति –चरणदास की गर्दन आत्मविश्वास से तनी हुई थी तथा उसका चेहरा स्वाभिमान की आभा से दमक रहा था। यह देखकर बड़े बाबू के मन में जातीय द्वेष की भावना फिर से जाग्रत हो गई थी। बड़ा बाबू चरणदास के नजदीक आकर नफरत से उसकी तरफ देखता हुआ बुदबुदाया, ‘‘चरणदास….हो गई तेरे मन की पूरी! अब तो तू खुश  है। पर एक बात बता ….अब क्या तू ब्राह्मण हो गया है?’’

बड़े बाबू की विकृति को इस लघुकथा में ऐटम का स्फोट तव मान लें ,तो भी बड़े बाबू के चरित्र के आरोह और अवरोह से ग्राफ तो बन ही रहा है….बनता ही है। तीसरी स्थिति तक रचनाकार का पहुँचना ही लघुकथा को पूर्णता और ऊँचाई प्रदान करता है।

तो क्या’ (कुमार शर्मा अनिल) को पढ़ते हुए प्रदूषण (सूर्यकांत नागर) एवं बालीवुड डेज(सुकेश साहनी) स्मरण हो आईं। ‘तो क्या’ लेखक की आधुनिक पृष्ठभूमि पर सोद्देश्यपूर्ण रचना है ,जिसमें सम्पूर्ण कथा ही कथ्य बन गई है। यही वजह है कि रचना में तीन माह का अंतराल होने के बावजूद ,रचना की तीव्रता कहीं भी कम नहीं हुई है।

राकेश माहेश्वरी ‘काल्पनिक’ की दाँत कुचरनी में लेखक से अधिक मेहनत की अपेक्षा थी। पाठक को पता चलना चाहिए कि दाँत कुचरनी माँ की प्राथमिकताओं में से एक थी। वर्षों बाद विदेश से लौटा बेटा माँ को सोने की दाँत कुतरनी देता है ,तो माँ जोर से हँस पड़ती है। हँसते समय उसका पोपला खुला हुआ मुँह दिखाई देने लगता है। यही चित्र लघुकथा को प्रभावी बना देता है और पोपले मुँह वाली माँ की हँसी के पीछे छिपा रुदन पाठक के दिलोदिमाग में कहीं गहरे अंकित हो जाता है।

जहाँ अत्यावश्यक हो ,वहाँ पौराणिक पात्रों का प्रयोग लघुकथा को शक्ति प्रदान करता है। राम कुमार आत्रेय की ‘एकलव्य की विडम्बना’ में इसे देखा जा सकता है। द्रोणाचार्य और एकलव्य की पृष्ठभूमि से अवगत होने के कारण पाठक के दिलो.दिमाग पर लघुकथा आधुनिक संदर्भों में गहरा प्रभाव छोड़ने में सफल होती है।

अपना–अपना ईमान (हरीश कुमार अमित) सहारा (रणजीत टाडा) खुशियों की होम डिलीवरी (जगवती) बचपन–बचपन (मीरा जैन)लघुकथा की कसौटी पर खरी उतरती मुकम्मल रचनाएँ है।

चाँद के उस पार (सविता पांडे) आभासी संसार के सच को उजागर करती है। रचना को और कसा जा सकता था। घेवर (किरण अग्रवाल) अ-जातिवादी  (ओमप्रकाश कृत्यांश) पाठकों से संवाद करने में सफल रही हैं। ये लघुकथाएँ साहित्य की अन्य विधाओं की तरह पाठक के मन में भूख जगाती है, प्यास जगाती हैं…उसके सामने प्रश्न खड़े करती हैं….उसे सोचने पर मजबूर करती हैं।

भाषा और शिल्प के बारे में एक बात कहना  ज़रूरी है–बढ़िया कथ्य कमज़ोर भाषा और शिल्प के कारण अपनी  सही छाप नहीं छोड़ पाता , अत: लेखक भाषा की शुद्धता , व्याकरणिक गठन, अल्पविराम , अर्धविराम आदि का सही उपयोग करें। यथास्थान इनका प्रयोग न करने से अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। साधारण  और प्रचलित शब्द भी अगर  अशुद्ध लिखे जाएँगे( जैसे पानी पीने का लोटा होता है , लौटा नहीं), तो ऐसे रचनाकार को कोई गम्भीरता से नहीं लेगा। गुड़िया का बहुवचन गुड़ियाएँ( लघुकथा–तो क्या) नहीं ; बल्कि गुडि़याँ होता है। अल्हड़ शब्द तत्सम शब्द नहीं है। इसके साथ ता प्रत्यय लगाकर  अल्हड़ता शब्द नहीं बनता । सही शब्द अल्हड़पन होगा। ऐसे ही ‘….पहिए के नीचे उसकी गर्दन आती–आती बची हो’ यहाँ ‘आते–आते’ होना चाहिए; क्योंकि यह क्रियापद नहीं , क्रिया विशेषण है ।विषयवस्तु और शिल्प पर मज़बूत पकड़ ही लघुकथा को और प्रखर बना सकती है। लघुकथाकार की यही सजगता इस विधा को और अधिक सम्मानजनक स्थान दिला सकती है। यह सन्तुलन ही लघुकथा की शक्ति है।

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