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Channel: अध्ययन -कक्ष –लघुकथा
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संश्लिष्ट सृजन-प्रक्रिया

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रचनाकार का सोचा हुआ आशय अभिप्राय, विचार या अनुभूति रचना के माध्यम से पाठक तक कैसे संप्रेषित हो पाता है? अपनी बात वह दूसरों तक कैसे और कितने सफल एवं सही और किस रूप में संप्रेषित कर पाता है? इसका जायजा रचना-विधान सम्बन्धी कई पहलुओं और प्रश्नों के उत्तर खोजने पर लिया जा सकता है।

रचना का आशय, विचार, बात, अनुभूति या अभिप्राय, रचना में आये प्रसंगों, घटनाओं, सन्दर्भों, प्रश्नों, पात्रों, संवादों, वाक्यों, संवेदनाओं के प्रस्तुतीकरण में अन्तर्व्याप्त रहता है। लघुकथा अपने आप में स्वतन्त्र और सम्पूर्ण कला है।

लघुकथा के शिल्प को लेकर आज जितनी चर्चा हो रही है वह निःसन्देह लघुकथाकारों के शिल्प के प्रति जागरूकता का प्रमाण है और यह सजगता स्वाभाविक है। लेकिन लघुकथा विधा के मूलतः जीवन्त गद्य रूप को नजरअंदाज करके कई निरर्थक सवालों को लघुकथा से जबरदस्ती जोड़ा जा रहा है, जोकि लघुकथा को अगम्भीर, सीमित, अस्पष्ट एवं अपूर्ण साहित्य सिद्ध करते हैं। इनमें से कई कुछ प्रश्न उल्टा रचना-विधान की दृष्टि से लघुकथा की सीमाएँ बांधते दिखते हैं…… जिससे सिद्ध होता है कि लघुकथा वस्तु को उसकी समग्रता के साथ प्रस्तुत करने में अक्षम है…… जबकि लघुकथा एक सार्थक, स्वतन्त्र एवं संभावनाशील विधा है और जीवन के यथार्थ अंश, खण्ड, प्रश्न, क्षण, केन्द्र, बिन्दु, विचार या अनुभूति को गहनता के साथ व्यंजित करती है।अत्यधिक आग्रहों के कारण लघुकथा की मूल संवेदना तो खण्डित हो ही जाती है…. उसके कथ्य में अविश्वसनीयता, अपूर्णता और शिल्प में असहजता और कृत्रिमता आ जाती है।

कोई भी रचना किसी प्रकार की निर्धारित औपचारिकताओं के अधीन नहीं होती। रचनाकार जब जीवन की सूक्ष्म, गहन अनुभूति एवं विचारों को शिल्पगत निर्धारित तत्वों की सीमा में आबद्ध होकर सही इजहार दे पाने में दिक्कत महसूसते हैं तो वे शिल्पगत पुराने सांचों को तोड़ फेंकते हैं।

जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों में रचना की मूल संवेदना निश्चित करने के बाद रचनाकार के सामने संप्रेषण की समस्या उपस्थित होती है। कथ्य के अनुरूप शिल्प माध्यम ही इस समस्या का एकमात्र हल है। लघुकथा का रचना-विधान एक यन्त्र-क्रिया की भांति निश्चित नहीं किया जा सकता। अगर यह टेकनीक एकदम निश्चित कर दी जाती है तो रचनाकार रचनाकार न कहलाकर केवल टैक्नीशियन कहलायेगा। निर्धारित रूपों, मात्राओं, अवधियों और सीमाओं में लघुकथा के कथानक, चरित्र, संवाद…. उद्देश्य आदि को देखा, नापा और मापा जाना लघुकथा ही नहीं किसी भी संभावनाशील विधा के सामर्थ्य, सार्थकता और संभावनाओं पर अंकुश लगाने जैसा है। लघुकथा एक जीवन्त विधा है। उसके अंग प्रत्यंग की जाँच टुकड़ों में निर्धारित प्रतिमानों के तहत नहीं की जानी चाहिए।

रूपबन्ध की दृष्टि से लघुकथा एक इकाई है और उसे उसके संश्लिष्ट रूप में ही ग्रहण किया जाना चाहिए। पाठक उसे एक इकाई के रूप में लेता है। कथनक चरित्र, संवाद, भाषा उद्देश्य आदि के सामंजस्य से लघुकथा बनती है। वस्तुतः लघुकथा के ये सभी तत्व अविभाज्य हैं और लघुकथा के उक्त समस्त तत्वों के सामूहिक रूप से सम्पूर्ण प्रभाव उत्पन्न करके ही रचनाकार अपने आशय को संप्रेषित कर सकता है।

हालाँकि लघुकथा कहानी की ही तरह कथा और शिल्प की संश्लिष्ट इकाई है। कथा और शिल्प का सन्तुलन ही लघुकथा की संप्रेषण-शक्ति बनता है। क्योंकि लघुकथा की अपनी एक स्वतन्त्र एवं सम्पूर्ण उपस्थिति है और लघुकथा कथ्य और शिल्प की दृष्टि से अधिक सुगठित, संश्लिष्ट  और संघटित रूप है। लघुकथा के एक कलात्मक सृष्टि होने के कारण इसका शिल्पगत तात्त्विक विवेचन कला की सामान्य अवधारणाओं के तहत ही किया जा सकता है। लघुकथा में सख्त अनुशासन, अधिक कारीगरी, अतिरिक्त कुशलता, गहन रचनात्मक दृष्टि एवं सृजनात्मक प्रतिभा की मांग की जा सकती है।

शिल्प सम्बन्धी लघुकथा की विवेचनाओं में कथानक की संक्षिप्तता, पात्रों की सजीवता एवं प्रमुखता वातावरण की सुन्दरता, संवादों की मार्मिकता एवं मुखरता वगैरह-वगैरह जैसी सतही बातें कही जाती हैं जोकि लघुकथा की बजाय ‘कहानी’ के शिल्प सम्बन्धी विश्लेषणों के लगभग नजदीक जा पहुँचती हैं और लघुकथा के औसत शिल्प को समझ पाना और लघुकथा के शिल्प विधायक तत्वों की विशेषताएँ स्पष्ट समझ पाना असम्भव नहीं तो कठिन तो हो ही जाता है। निश्चित रूप से लघुकथा जैसे लघु-कथारूप के शिल्प विधायक तत्त्व उसके अनुरूप एवं विशिष्ट होंगे जो उसे सुगठित एवं संश्लिष्ट रूप दे सकें।

लघुकथा क्योंकि न्यूनतम शब्दों में अधिकतम व्यंजनता की सामर्थ्य रखती है, इसलिए लघुकथा की सृजनात्मक अपेक्षाओं को पूरा करना अधिक चुनौतीपूर्ण है।लघुकथा का शिल्प उसकी विशिष्ट अन्तर्वस्तु की आन्तरिक माँग और विवशता का परिणाम है- जिसमें गहनवस्तु, – चयन से लेकर तीव्र तीक्ष्ण लेखकीय दृष्टि के योग से उसे सुस्पष्ट वैचारिक स्तर तक ले जाया जाता है यानी कि कथा साहित्य के अन्य रूपों की भांति लघुकथा में भी अनिवार्य रूप से तत्व योजना रहती है। लघुकथा जैसी सृजनात्मक सम्भावनाओं से युक्त साहित्यिक विधा की मूल संवेदना, संप्रेषण शक्ति और तात्त्विक विशिष्टताओं को जानना आवश्यक हो जाता है।

लघुकथा की सही जमीन उसका कथापन ही है। सही शिल्प के अभाव से कथापन सार्थक नहीं हो सकता और यदि शिल्प कथानक को नये आयाम भी दे पाये तो रचना को और अधिक सार्थक और उत्कृष्ट बना दे सकता है।लघुकथा के स्वीकार्य तत्वों के सूत्र अत्यन्त बारीकी, कारीगरी एवं कुशलता से आपस में गुंथे हुए रहते हैं।

वस्तु, पात्र, संवाद, उद्देश्य आदि तत्त्वों की दृष्टि से कहानी लघुकथा और उपन्यास तीनों में मोटे तौर पर समानता है क्योंकि तीनों गद्य रूप हैं और कथा तीनों के केन्द्र में है, लेकिन अन्य कथा-रूपों की तुलना में लघुकथा की कथावस्तु में एकतानता, सूक्ष्मता, तीव्रता, गहनता, केन्द्रीयता, एकतन्तुता और सांकेतिकता आदि होने के कारण लघुकथा का महत्त्व अधिक बढ़ जाता है और यह भी कि,क्योंकि लघुकथा का जोर सूक्ष्मता पर है, इसलिए लघुकथा के तत्वों में तीक्ष्णता तीव्रता और गहनता लाकर वह प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है। उसके लिए संगत तत्वों के चुनाव के परिणामस्वरूप लघुकथा का शिल्प अधिक सुगठित और संश्लिष्ट होता है।

कहानी और लघुकथा के कथानक में अन्तर कैसे किया जाए? निश्चित रूप से लघुकथा के शिल्प के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक तत्व के रूप में कथ्य को गिना जा सकता है। लघुकथा के कथ्य में सांकेतिकता, सूक्ष्मता, गहनता, सहजता, प्रवाहमयता, स्पष्टता, सन्तुलन, सुसम्ब(ता, सघनता, नवीनता आदि गुण होने चाहिए।लघुकथा की सार्थकता, न्यून, सूक्ष्म, तीक्ष्ण, गहन, कथ्य के प्रस्तुतीकरण में ही नहीं ; बल्कि समस्त रचना में परिव्याप्त मानवीय संवेदना से उसके शिल्प विधान में संश्लिष्ट बुनावट, कसावट कलात्मकता और प्रभावान्विति लाने तक है ।

लघुकथा के प्रमुख तत्वों के सापेक्षिक महत्त्व को देखा जाए तो कथ्य को लघुकथा का मूल तत्त्व माना जा सकता है।लघुकथा में वर्णन नहीं विश्लेषण, महज चित्रण नहीं यथार्थबोध, अवलोकन नहीं पड़ताल, विवरण नहीं संकेत आदि पर अतिरिक्त बल दिया जाता है।

जीवन-सत्यों के किसी प्रसंग, खंड, अंश, प्रश्न, स्थिति विचार, कोश, अर्थ अथवा विशिष्ट चरित्र में लघुकथा के कथानक की क्षमताएँ ढूँढी जा सकती हैं।

लघुकथा का कथ्य घटना और संवेदना का महत्त्व महज चित्रण की नहीं बल्कि लघुकथा में उन सूक्ष्म, गूढ़, गहन, तीव्र, प्रखर, स्पष्ट, मुख्य, सार्थक एवं तीक्ष्ण कथा-रूपों को लघुकथा अपना फार्म देकर हिन्दी साहित्य को न केवल समृद्धि दे रही है, बल्कि पूर्णता दे रही है जिसके छूटे रह जाने से हिन्दी साहित्य की अपनी पूर्णता पर प्रश्न लग जाने का स्वाभाविक खतरा हो सकता है।युगीन स्थितियों, जीवनवास्तव, और परिवेश की तल्ख सच्चाईयों की व्यापक पड़ताल के बाद निष्कर्ष रूप से प्राप्त सूत्रों और स्रोतों की अभिव्यक्ति देना लघुकथा का सशक्त अभिव्यक्ति प्रकार होने का प्रमाण है।

कथावस्तु जिन अतिरिक्त सूत्रों से मिलकर बनती है जैसे प्रासंगिक कथाएँ, अन्त:कथाएँ (एपीसोड्स), उपकथानक और सहायतार्थ समाचार ब्यौरे आदि लघुकथा में ये अधिकांश प्रयुक्त नहीं होते। जबकि कहानी और उपन्यास में काफी हद तक इनका प्रयोग होता है। लेकिन यह भी नहीं कि लघुकथा की कथावस्तु केवल कथासूत्र ही है। लघुकथा का आकार लघु होने के कारण उसमें उपकथाएँ या प्रासंगिक अन्तर्कथाओं की जगह अधिकारिक कथा ही रहती है। लघुकथा की यह एकतन्तुता, एकातानता, एकसूत्रता लघुकथा की अपनी विशिष्टता है। इसीलिए यह कहानी या उपन्यास न होकर लघुकथा है। वर्णनात्मकता और विवरणात्मकता की कमी के कारण सूक्ष्म कथानक अविराम गति से अपनी निश्चित दिशा में अग्रसर होता है, फलतः लघुकथा की कथावस्तु अत्यन्त प्वाइण्टड होती है।

लघुकथा का रूप-गठन और शब्द गठन संश्लिष्ट एवं सांकेतिक है। लघु कथाकार यह यों है, दरअसल यह इस तरह से समूचा कथ्य उसी पर खड़ा करता है।इस प्रकार आधारभूत विचार द्रवीभूत होकर सम्पूर्ण लघुकथा के रूप में आकार पा लेता है।समय, सत्य और जीवन सत्य के किसी खंड, अंश, कण, कोण, प्रश्न, विचार, स्थिति, प्रसंग को लेकर चलने वाली लघुकथा में कथानक की एक सुगठित सुग्रथित, सुसम्बद्ध एवं संश्लिष्ट योजना रहती है और उसी के अनुरूप पात्रों, संवादों, भाषा आदि का निर्माण अत्यन्त सावधानी से करना पड़ता है और कथ्य के अनुसार ही लघुकथा के आकार यानी शब्द सीमा का भी निर्णय होता है।

घटना के अन्तर्विरोध को लक्षित कर युग के मुख्य अन्तर्विरोध की गहनता और जटिलता की सूक्ष्म पकड़ लघुकथा की सार्थकता की परिचायक है।अधिक तीक्ष्ण, गहन दृष्टि और सूक्ष्म मानवीय संवेदना, लघुकथा के सन्दर्भ में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। कथ्य का गहन एवं सूक्ष्म चयन और उसकी उचित अभिव्यक्ति ही उसे मानवीय संवेदना से जोड़ती है और उसकी निष्पत्ति उसे अतिरिक्त महत्ता दिला जाती है।

कथ्य के दृष्टिकोण से लघुकथा में एक घटना या एक बिम्ब को उभारने की अवधारणा लघुकथा में निरर्थक है अथवा सार्थक, इस पर गौर किया जाना चाहिए।सामान्यतः लघुकथा में छोटी से छोटी घटना में कितने अर्थ और संभावनाएँ ध्वनित हो सकती हैं, उन्हें विश्लेषित कर और पूर्णता प्रदान कर लघुकथा उसे मानवीय संवेदना के साथ जोड़ देती है क्योंकि छोटी से छोटी घटना भी विराट मानवीय संवेदना, निर्माण-क्षमता, संघर्ष और अनेक गहन गूढ़ अर्थ निहित हो सकते हैं। यानी छोटी से छोटी अनुभूतियों को विराट मानवीय संवेदना के स्तर पर मूर्त करना लघुकथा के सामर्थ्य का परिचायक है।

अनुभूतियों, मनःस्थितियों, आशयों और अभिप्रायों को घटना के माध्यम से घटना से सम्ब( भाव-स्थितियों को उद्घाटित किया जाता है।छोटी-छोटी घटनाएँ, जो हर पल घटती रहती हैं उनके समान्तर ;बाह्य और आन्तरिकद्ध रूप से भी कुछ घटता है। लघुकथा में स्थूल घटना ही घटित नहीं होती बल्कि घटना के साथ सूक्ष्म भाव स्थिति को भी उद्घाटित किया जाता है।

कई लघुकथाओं के मूल घटना पृष्ठभूमि में घटित हो चुकी होती है। कई बार लघुकथा में इसका प्रभाव संवेदना ही प्रमुख हो जाता है। यानी उस प्रभाव संवेदना के परिणाम स्वरूप जो एक यातना पूर्ण मानवीय मनःस्थिति बनती है या संघर्षपूर्ण स्थिति के परिणाम स्वरूप जो कुछ घटता है, विचारणीय है कि क्या उसका उद्घाटन लघुकथा के सन्दर्भ में महत्त्व नहीं रखता? पहली घटना ही महत्त्व रखती है, जो कि केवल उस स्थिति का आरम्भ मात्र है? इससे जुड़े लघुकथा के काल अवधारणा और समस्या, स्थितियों के ट्रीटमेन्ट सम्बन्धी प्रश्न भी आ जुड़ते हैं।

हालाँकि लघुकथा के सन्दर्भ में किसी बड़े क्रिया व्यापार गढ़ी हुई कई मोड़ों वाली, काल्पनिक संयोगों से निर्मित, व्यापक काल में फैली अविश्वसनीय घटनाक्रम आदि बिल्कुल भी महत्त्व नहीं रखते।

घटना को केवल घटना के रूप में जिज्ञासा, कौतूहल गुदगुदाने या आश्चर्य के लिये सम्मोहित न कर घटना-मूल में मानवीय स्थितियों को संवेदना के स्तर पर उकेरना लघुकथा का उद्देश्य ही होना चाहिये। स्पष्ट है कि लघुकथा घटनाओं और स्थितियों के संयोजन के माध्यम से युगीन स्थितियों और मानवीय संवेदनाओं को ही व्यंजित नहीं करती बल्कि उन अन्तर्विरोधों और विसंगतियों को बेपर्दा करने की पर्याप्त क्षमता भी रखती है।

समकालीन लघुकथा में ज्यादातर दो परस्पर विरोधी घटनाओं या स्थितियों को लघुकथाकार उठाता है और उनके अन्तर को दिखाने का प्रयास करता है। कथनी-करनी के अन्तर को घटनात्मक स्थिति न भी माने तो भी अन्य उदाहरण दिये जा सकते हैं।छोटी-सी घटना के परिणामस्वरूप मानवीय सत्य व स्थिति का उद्घाटन लघुकथा करती है। एक सूत्र में से अनेक रेशे निकल सकते हैं। यदि इन सभी की एक संश्लिष्ट बुनावट कर एक सुगठित रचना की जाये तो क्या वह सार्थक नहीं होगी !

वैसे भी घटनाओं, गिनतियों और अतिरंजना में नहीं उनकी सहजता या जटिलता और उसमें निहित अर्थों के दृष्टिकोण से परखा जाना चाहिये। रचनाकार का आशय उसके आब्ज़रवेशन, उसके विचार, उसकी संवेदनाएँ, उसका अभिप्राय, उसका मंतव्य किस रूप में किन-किन घटनाओं के माध्यम से संप्रेषित हो पायेगा, अधिक महत्त्व रखता है, न कि यह कि घटना या बिम्ब एक हो अथवा एकाधिक। जहाँ तक हो सके एकाधिक घटनाओं के लघुकथा में चित्रण से बचा जाना चाहिये।

सूक्ष्म से सूक्ष्म बिम्ब, संकेत एवं प्रतीकों का चित्रण सशक्त भाषा के माध्यम से किया जा सकता है जिससे शिल्प की दृष्टि से और अधिक उत्कृष्ट लघुकथायें लिखी जा सकती हैं।बिम्बों का प्रयोग रचना की शिल्पगत कलात्मकता सुन्दरता या उसकी मूल संवेदना को नये अर्थ देने के लिये किया जाता है। एक या एकाधिक बिम्बों के प्रयोग की कोई सीमा या निर्धारण लघुकथा के सन्दर्भ मंे बेमानी है। यह रचनाकार और उसकी प्रतिभा पर निर्भर करता है। एक ही सूक्ष्म घटना या बिम्ब का चित्रण, सार्थक लघुकथा के लिये आदर्श हो सकता है, अनिवार्य नहीं।

किसी भी समर्थ विधा की तरह लघुकथा के प्रमुख पात्र एक तरह से नियामक का कार्य करते हैं।लघुकथा के पात्रों का भी अपना महत्त्व है। कथानक को वहन करने, उसे गति देने, घटनाओं तथा स्थितियों के साथ संघर्ष करने, मानवीय स्थितियों का संप्रेषण और मानवीय मूल्यों की स्थापना पात्रों के माध्यम से की जा सकती है।पात्र कैसे भी स्थिर, गतिशील, जटिल, सरल, संघर्षरत, स्वाभाविक, सजीव, स्वतन्त्र, प्राकृतिक, अलौकिक, साधारण वर्ग के साधारण आदमी से लेकर विशिष्ट वर्ग के प्रतिनिधि पात्र तक कोई भी हो सकता है।

लघुकथा के कथा विन्यास के सूक्ष्मीकरण के कारण पात्रों की लघुकथा में विशेष अहमियत है। पात्रों के जरिये उसके परिवेश, जीवन से सम्बन्धित अवसाद, उल्लास स्पन्दन, संवेदना और सहानुभूति आदि और उसमें उसकी मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया के निरीक्षण का उपयोग लघुकथा में किया जा सकता है। प्रमुख पात्र अपनी संघर्षशक्ति या विवशता में प्रमुख मूल्यों का छोड़ता-तोड़ता हुआ मानवीय मूल्यों की व्याख्या कर जाता है।

लघुकथाकार घटनाओं तथा स्थितियों के चित्रण के साथ-साथ सांकेतिक रूप से पात्रों के चरित्रों को भी स्पष्ट करते चलते हैं। संवादों के सहायता से रचनाकार की कुशलता से और भाषा की व्यंजकता से स्वयंमेव ही पात्र का चरित्र-चित्रण होता जाता है। लघुकथाकार विभिन्न परिस्थतियों का सृजन करके उनके माध्यम से चरित्र-चित्रण की सहजात, मौलिकता, स्वाभाविकता और विश्वसनीयता लाने के लिये पात्रों के सहारे उनके नैतिक, अनैतिक, शुभ-अशुभ, भले-बुरे, आचरण का औचित्य सिद्ध करते हैं।

हालाँकि लघुकथा की पात्रगत अवधारणाएँ काफी कुछ कहानी से साम्य रखती हैं। समकालीन हिन्दी कहानी में अधिकतर प्रकृतिगत पात्र जैसे पेड़-पौधे आदि उपादान नायक नहीं बनते जबकि लघुकथा में ये उपादान क्या केन्द्रीय पात्र की भूमिका निभा सकते हैं? इस प्रश्न के सन्दर्भ प्रथमतः तो यह धारणा ही गलत है कि ये प्रकृतिगत उपादान कहानी में नायक नहीं बनते। बनते हैं, लेकिन कहानी अन्य प्रकारों से प्रकृतिगत, अलौकिक मानवेतर और अमूर्त पात्रों के क्रमशः तिरोहित होते जाने और यथार्थ चरित्रों की प्रतिष्ठा के पीछे अनेक- समय, समाज, जीवन और यथार्थ सत्य आदि कारण सक्रिय रहे हैं।

यह रचनाकार के सृजनात्मक सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि वह अपने आशय या अनुभूति को प्रकट करने और उसे रचना में अन्तवर््याप्त करने के लिये कैसे पात्रों का चुनाव करता है। यथार्थ मानवीय या प्रकृतिगत और वे पात्र उसके आशय को सफलतापूर्वक संप्रेषित भी कर सकें।

विश्व लघुकथा साहित्य को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के अनेक ख्यात रचनाकारों ने इस प्रकार के प्रकृतिगत – पेड़-पौधे वगैरह को लघुकथा के मुख्य पात्र बनाकर सफल रचनायें दी हैं, बल्कि विश्व लघुकथा में मोटे तौर पर ऐसी ही लघुकथाओं का आधिक्य है। हिन्दी लघुकथा में भी ऐसी अनेक सफल लघुकथाएँ हैं।

हालाँकि लघुकथा का अपने मुख्य पात्रों के प्रति ऐसा कुछ विशेष पात्रगत आग्रह नहीं है, और न ही ऐसा कोई निर्धारण किया ही जाना चाहिए।

अपनी बात किस प्रकार से पात्रों के माध्यम से कही जाये जो कि सहज, सफल और सरलता से संप्रेषित हो पाए, यह रचनाकार पर निर्भर  है।प्रकृतिगत, अलौकिक और अमृतपात्रों के लघुकथा का मुख्य पात्र के रूप में आने से यह जबरदस्त खतरा तो अवश्य हो ही जाता है कि लघुकथा-लघुकथा न रहकर भावकथा, नीतिकथा या बोधकथा होकर रह जाए, और इससे संप्रेषण की सहजता और सरलता में भी थोड़ा व्यवधान आ सकता है। दरअसल इस तरह के पात्रों का निर्वाह एक चुनौती है और इस चुनौती को कई समर्थ रचनाकारों ने स्वीकारा है और सफल भी रहे हैं।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि लघुकथा में कैसे भी मानवीय या प्रकृतिगत पात्र हो सकते हैं।

लघुकथा में कथोपकथन का पात्रानुकूल प्रवहमान, स्वाभाविक, सजीव संगत व्यंजना-शक्ति से युक्त समयानुकूल परिस्थितियों के अनुकूल सुसम्बद्ध अर्थपूर्ण,  साभिप्रायः,  संक्षिप्त,  सरस, ध्वन्यात्मक, भावपूर्ण, मार्मिक, मुखर, प्रभावोत्पादक, जानकारी पूर्ण, सहज संप्रेषणीय, सोद्देश्य और सांकेतिक होना आवश्यक है। रचनाकार का आशय या अभिप्रायः संवादों के जरिये सहजता और सरलता से संप्रेषित हो जाता है।

कथोपकथन लघुकथा की क्षिप्रता की रक्षा करते हैं। संवादों में अभिव्यंजना व ध्वन्यात्मकता होनी चाहिये व भाषा पात्रानुरूप।जहाँ तक संवाद का प्रश्न है उसे लघुकथा का अत्यावश्यक तत्व नहीं कहा जा सकता और बिना किसी एक भी संवाद के भी लघुकथा लिखी जा सकती है।  लेकिन संवादों की उपस्थिति लघुकथा में उपरोक्त कई विशेषतायें लाकर उसके प्रभाव को बढ़ा देती हैं। संवाद, रचना का छोटा स्वाभाविक और अत्यन्त प्रभविष्णु अंश होता है और उसका एक-एक शब्द सार्थक, सोद्देश्य और महत्त्वपूर्ण होता है। संवादों के सहारे लघुकथा के अन्य तत्व मुखरित होते हैं। परिणामतः कथोपकथन लघुकथा की तात्विक विशेषताओं में से एक है।

कुछ रचनाकार कथोपकथन में अपनी रचना शुरू करते हैं और कथोपकथन में ही समाप्त करते हैं। उसे लघुकथा संवाद कहा जा सकता है या लघुकथा?केवल संवादों की सहायता से कई विश्व स्तर की कहानियों की रचना सफलतापूर्वक की गई हैं। कहानी ही नहीं कुछ उपन्यास भी केवल कथोपकथन से शुरू और कथोपकथन पर ही खत्म हुए हैं।लघुकथा के सन्दर्भ में संवादों को ध्यान में रखकर उसे पूर्ण विधा या कोई अतिरिक्त विशेषण ;लघुकथा संवादद्ध देना सही नहीं कहा जा सकता क्योंकि संवादों के अतिरिक्त भी कुछ लघुकथा के बाकी तत्व कथानक, पात्र, भाषा, उद्देश्य आदि भी मौजूद रहते हैं।

केवल संवादों के बिना पर उसे नाटक या एकांकी नहीं कहा जा सकता। नाटक या एकांकी दृश्य-श्रव्य रूप हैं, जिसमें संगीत, अभिनय, ध्वनि, मंच-स्थान, साज-सज्जा आदि तत्वों की अपेक्षा रहती है, लघुकथा में नहीं……

लघुकथा अपनी सूक्ष्म घटना को अधिक प्रभावशाली व संवेदनशील बनाने के लिये पात्रों की बात उन्हीं मुख से बिना किसी आश्यक फैलाव, टिप्पणियों व लफ्फाजी के रखती है। वर्णन और विवरण के शब्द बाहुल्य के पचड़े में पड़ना किसी भी कुशल रचनाकार का लक्ष्य नहीं हो सकता। लघुकथाकार अपनी तरफ से कुछ भी न कहकर पात्रों के सुख-दुःख उन्हीं की जुबान से कहलता देते हैं। संवादों से ही कथ्य धीरे-धीरे खुलता चला जाता है।

इस संवाद शैली का चुनाव रचनाकार की अपनी समझ, रुझान और सामर्थ्य पर निर्भर है, जिससे वह अपनी अभिव्यक्ति इसी प्रकार से करने में सहजता, सरलता और सम्पूर्णता का अनुभव करता है।

वैसे भी लघुकथा में संवादों की महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कई लघुकथाओं की मूल संवेदना इसके पात्रों द्वारा उच्चारे गये संवादों के द्वारा ही खुलती है। जैसे एक लाजा था, वह बहुत गलीब था… (कहूँ कहानी)।

ऐसा नहीं है कि कहानी कुछ दिनों (या महीनों) और उपन्यास कुछ वर्षों (या दशकों, शताब्दियों) का ऐतिहासिक कालानुक्रमिक वर्णन हो। सृजनात्मक विधाओं को काल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, तो लघुकथा को कुछ घण्टों के घटनात्मक इतिवृत्त के रूप मानना कहाँ तक उचित होगा? कुछ क्षणों या मिनटों या कुछ घण्टों में लिखी गई रचना क्या लघुकथा ही मानी जाये तो हिन्दी और विश्व साहित्य में अनेक ऐसे उदाहरण हैं कि कई कहानियाँ कुछ ही मिनटों या घण्टों की घटनाओं और कई उपन्यास कुछ घण्टों या एकाध दिन (सात घण्टे, एक रात…..) की कालावधि में सिमटे हुए हैं। क्या उन्हें भी लघुकथा मान लिया जा सकता है?

हालाँकि कई श्रेष्ठ लघुकथाएँ जीवन के हर क्षण का मूर्त चित्र प्रस्तुत करती हैं। क्षण जो अतीत और भविष्य के बीच एक कड़ी होता है। लघुकथा में यह जो क्षण का चित्रण होता है वह इकहरा, आकस्मिक और सम्पूर्ण हो सकता है। ऐसा क्षण है जो अपनी आकस्मिकता में ही जीवन के कई अर्थ और आयामों को आलोकित कर सके। एक आदर्श एवं सार्थक लघुकथा में क्षण का चित्रण होता है। काल की न्यूनता उसे सार्वकालिक बना दे सकती है।

लेकिन पृष्ठभूमि में घटित हो चुकी किसी घटना के चित्रण के बिना उचित प्रभाव संवेदना को क्या रेखांकित नहीं किया जा सकता, जिससे रचना के अपूर्ण रह जाने का खतरा स्वाभविक है। यहाँ फ्लैश बैक को एक सहज हल के रूप में लाया जा सकता है लेकिन उसी से यह प्रश्न भी उठ जाता है, क्या उससे रचना में सहजता, सरलता, ग्राह्यता और स्वाभाविकता के चूक जाने पर वांछित प्रभाव उत्पन्न हो सकता है? यदि फ्लैश बैक को स्वीकारा जा सकता है तो उस रूप में उसकी अनिवार्यता क्यों? यह रचनाकार पर निर्भर होना चाहिए। विश्व लघुकथा में काल के सन्दर्भ में कोई विशेष आग्रह नहीं दिखाई देता।

अगर लघुकथा में महीनों या वर्षों का कालानुक्रमिक बारीक अतिरंजित चित्रण सविस्तार किया जाये तो लघुकथा अपनी आकारगत विशिष्टता को खो देगी। उस रूप में महीनों या वर्षों का चित्रण अवश्य ही ‘कालदोष’, के रूप में आएगा।

आवश्यक स्थितियों में विस्तृत काल में फैले कथ्य को लघुकथा में समय परिवर्तन (अन्तराल) के संकेतों द्वारा संदर्भित व सूचित किया जा सकता है।लघुकथा का आकार लघु है। इसलिए कथ्य के अनुसार समय के थोड़ा बड़े हिस्सों या बहुत फलक को बिना अतिरिक्त वर्णन या विवरण के सांकेतिक रूप से अपनी सृजनात्मक प्रतिभा से लघुकथा को अधिक सार्थक बनाया जा सकता है।

एक सशक्त एवं आदर्श लघुकथा जीवन सन्दर्भों के क्षणांशों को सार्थक ढंग से प्रस्तुत करती है।लघुकथा में देशकाल या वातावरण की उपस्थिति कथानक और चरित्रों के अभीष्ट संवेदनात्मक लक्ष्य तक पहुँचने के लिये ही होती है न कि प्रकृति और बाह्य परिवेश के सहज वर्णन के लिये।

कोई भी जीवन्त रचना जीवन से आत्यंतिक रूप से जुड़ी होती है और जीवन देशकाल तथा परिवेश सापेक्ष होता है। किन्तु देशकाल या परिवेश का विस्तृत यथा तथ्य चित्रण लघुकथा के सन्दर्भ में वातावरण नहीं हो सकता और भी यह कि परिस्थिति देश, काल एवं परिवेशगत विवरण को ही वातावरण का पर्याय नहीं समझना चाहिये, लघुकथा के सन्दर्भ में इनकी मूल प्रकृति भिन्न है। वातावरण का निर्माण कथानक के अनुसार ही किया जाता है जो उसके मूल भाव को अभिव्यक्त करने का साधन होता है।

लघुकथा के सभी अवयवों को कलात्मक रूप से जोड़ने, पात्रों की बाह्य एवं आंतरिक मनःस्थिति का विश्वसनीय चित्रण करने और कार्य एवं परिस्थितियों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिये वातावरण की आवश्यकता रहती है। परिवेश का गहन अध्ययन एवं सूक्ष्म आकलन लघुकथाकार के लिये आवश्यक है। लघुकथाओं में नियोजित घटनाओं, कार्य-व्यापारों का देशकाल सापेक्ष होना उसकी मूल संवेदनाओं को गहराने और उसमें प्रभावान्विति लाने मंे योग देता है।

लघुकथा में वातावरण-सृष्टि के लिये सूक्ष्म सांकेतिकता को आधार बनाया जा सकता है। वैसे भी लघुकथा का जोर क्योंकि सूक्ष्मता पर है, वातावरण जैसे सूक्ष्म तत्व के लिये गहनता व तीक्ष्णता लिये होना और भी आवश्यक हो जाता है।लघुकथा में वातावरण, देश काल की सूक्ष्म उपस्थिति या न्यूनता, लघुकथा सार्वकालिक व सार्वदेशिक व महत्त्व की रचना बना देती है।

अन्य रचना प्रकार की तरह लघुकथा के शीर्षक पर प्रथमतः गौर किया जा सकता है जैसे किसी मनुष्य की वैयक्तिक सत्ता के लिये उसका नाम मह्त्त्वपूर्ण होता है उसी प्रकार उतना ही बल्कि उससे भी अधिक लघुकथा के लिये शीर्षक होता है। लेकिन लघुकथा के शीर्षक में वर्णित-विषय मात्र की सूचना ही नहीं होती बल्कि कुछ विशेषताओं का होना भी आवश्यक है जिससे लघुकथा के सृजनात्मक सरोकारों को नये अर्थ दिये जा सकें। शीर्षक विषयानुकूल, स्पष्ट, आकर्षक, अर्थपूर्ण, कलात्मक, संक्षिप्त हो ही, साथ ही साथ रचना के स्पष्ट वैचारिक स्तर को स्पष्ट कर उसे नये आयाम दे सके। क्योंकि लघुकथा में रचनाकार का अपना आशय विस्तार से वर्णन करने की अधिक छूट नहीं मिलती। इसलिए शीर्षक को एक शब्द (एकाधिक शब्दों में भी हो सकते हैं) में अपने अभिप्राय का स्पष्ट संकेत कर देने में सक्षम होना चाहिये। साथ ही नये अर्थ भी निकलने चाहिए।

लघुकथा के सन्दर्भ में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक रचना पर रचनाकार के व्यक्तित्व की छाप रहती है। इसी से भाषा-शैली में विविधता आती है। प्रत्येक रचनाकार का अपना शब्द चयन (या शब्द ज्ञान) वाक्य-विन्यास, भाषा-सन्दर्भ, सामर्थ्य, चिन्तन और विवेचन होता है। (कथन के अनुसार भी रचना के शिल्प में विविधता आती है)

संश्लिष्ट अभिव्यक्ति की सूक्ष्म व्यंजना हेतु रचनाकार को सशक्त भाषा की आवश्यकता होती है क्योंकि रचनाकार के आशय, अनुभूति या विचार को दूसरों तक सम्प्रेषित करने के लिये, भाषा एक अनिवार्य माध्यम है।

कथ्य के अनुरूप जीवन्त भाषा जो कि सहज, सरल, प्रवाहात्मक, आलंकारिक चित्रात्मक, प्रतीकात्मक, प्रभविष्णु, बिम्बात्मक, सांकेतिक हो जो कि कथ्य को प्रभावी और सहज ढंग से सम्प्रेषित कर सके।

भाषा की दृष्टि से लघुकथा का घनत्व इतना अधिक होता है और शब्दों की मितव्ययिता इतनी अधिक सही और पूर्ण होती है कि बिना किसी वर्णन-विवरण फैलाव या बिखराव के अपनी प्रभावोत्पादकता खोये बिना कुछ ही शब्दों में लघुकथा कथ्य को संप्रेषित कर जाती है।

लघुकथा में गहन आंतरिक संवेदना समकालीन जीवन-सत्यों के अनुरूप जीवंत स्थितियों को समेटने एवं चित्रण करने वाली भाषा की जरूरत होती है। लघुकथा में एक-एक शब्द का अपना महत्त्व होता है। इसके अतिरिक्त एक-एक शब्द के अर्थों, शक्ति और सौन्दर्य की परख कर, काट-छाँट और तराश की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। लघुकथा में बोलचाल की भाषा भी अपने विशेष अंदाजेबयाँ के साथ आती है जो कि अर्थपूर्ण पात्रानुकूल होनी चाहिए।

लघुकथा में घटनाओं और मानवीय स्थितियों का निरूपण और संयोजन बिना इधर-उधर की बात किये और कोई वर्णन या विस्तार दिये न्यूनतम शब्दों में ही स्थितियों के महज प्रत्यक्षीकरण व मानवीय संवेदना को व्यंजित करने के माध्यम से किया जाता है।

न्यूनतम शब्दों में लघुकथा की मूल संवेदना को वहन करने और कथ्य और शिल्प को बांधने के लिये निश्चय ही अपेक्षाकृत अधिक सशक्त एवं सृजनात्मक भाषा की जरूरत होगी, जिसका एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य अतिरिक्त कारीगरी, मंजाव और कुशलता की मांग करता है।

लघुकथा में नाटकीय लहजों, विशेषणधर्मी बड़बोले वाक्यों, आरोपित सन्दर्भों, कृत्रिम या दुरूह शब्दों से परहेज रहता है।

कम से कम शब्दों में अभिप्राय को कह डालने का लेखकीय सामर्थ्य लघुकथाकार में होना चाहिये। लघुकथा की भाषा अन्य रूपों की विकसित हदों से थोड़ा और आगे निकलती दिखाई देती है। भाषा के नये रंगों और रूपों की बुनावट और सजावट रचनाकारों की प्रतिभा पर निर्भर करता है। ऐसी अनेक उत्कृष्ट लघुकथाओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं।

निश्चित रूप से लघुकथाकार किसी घटना का वर्णन करने के लिये नहीं बल्कि जीवनगत किसी सत्य को उद्घाटित करने के लिये रचना में प्रवृत्त होता है।

लघुकथा के अन्त में उद्देश्य की घोषणा न कर दी जाये बल्कि स्थितियों का विन्यास इस प्रकार से हो कि अपने आप इसकी गति एक परिणाम, विचार या अर्थ की ओर पहुँचे।

यह रचनाकार की सृजनात्मक प्रतिभा पर भी निर्भर करता है कि वह किसी प्रकार अपनी बात शुरू करता है और कहाँ खत्म…। रचना का आरम्भ बिन्दु या चरम सीमा की स्थिति का निर्धारण लघुकथा की कथ्यात्मक अपेक्षाओं के दबाव पर निर्भर करता है।

अन्य विधाओं की तुलना में लघुकथा में लम्बी-चौड़ी भूमिकाएँ बाँधने के लिए अवकाश नहीं रहता। लघुकथाकार अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्षिप्र गति से लघुकथा का आरम्भ करता है, जिसके कुछ विशेष निर्धारित नियम नहीं हैं। अप्रत्याशित, चित्र, विधानात्मक, सूचनात्मक, घटनात्मक, आकर्षक, तथ्यपूर्ण, कलात्मक शुरूआत एक अच्छी लघुकथा के लिये आदर्श हो सकती है।

रचना का समूचा प्रभाव उसके अन्त पर ही निर्भर है। समकालीन लघुकथा के अन्त में उपसंहार नहीं दिया जाता और न किसी समस्या का समाधन ही सुझाया जाता है। अन्त के इस बिन्दु पर आकर लघुकथा के सारे संकेत स्पष्ट हो जाने चाहिए। अधिकांशतः लघुकथाओं का अन्त चरम सीमा पर ही कर दिया जाता है और उसके परिणाम को लेखक पाठक के अनुमान पर छोड़ देता है। कई आकस्मिक और अप्रत्याशित अन्त वाली लघुकथायें भी लिखी गई हैं। लघुकथा का अन्त तीव्रतम, गहनतम, तीक्ष्णतम स्थिति पर लाकर, अपना आशय या अभिप्राय स्पष्ट कर देता है।

कई लघुकथाओं में अन्तिम वाक्य रचना की मूल संवेदना को बड़े मार्मिक ढंग से कह जाने के लिये किसी पात्र के संवाद के रूप में भी आ सकता है जो कि मानवीय सत्य को उद्घाटित कर जाता है।

किसी जटिल समस्या से प्रेरित होकर लघुकथाकार सृजन में प्रवृत्त होता है। लघुकथा किसी भयावह संकट, जटिल समस्या, संश्लिष्ट जीवन, विकृत मानवीय स्थितियों, विषाक्त युगीन स्थितियों का यथार्थ प्रतीति से अवश्य ही जुड़ी होती है। इस यथार्थ प्रतीति को एक सार्थक लघुकथा का सुस्पष्ट वैचारिक स्तर तक ले जाती है। सही सुस्पष्ट वैचारिक स्तर का निर्माण ही लघुकथाकार का उद्देश्य होना चाहिये। इसी सुस्पष्ट वैचारिक स्तर में ही उक्त समस्याओं और उससे संघर्षों के चित्र आ सकते हैं। सायास प्रस्तुत किये गये समाधन लघुकथा के सन्दर्भ में बेमानी कहे जायेंगे।

गम्भीर विचार और तीखे द्वन्द्व-दंश वाली अपनी सृष्टि में संश्लिष्ट लघुकथा पाठक को अधिक दायित्वपूर्ण और समझने-सोचने और विचारने को विवश करती है। अपनी सृजनात्मकता में उत्कृष्ट एवं जीवन में गहन गम्भीर सत्य से युक्त लघुकथा पाठक को अधिक समझदार, सजग, सचेत और सतर्क करती है।

मानव की समस्याओं के स्रोतों और उसके परिवेश में सही अन्विति और सही इजहार देने वाली लघुकथा पाठक को उसकी पठन क्रिया के दौरान समझने और बाद में सोचने-विचारने के लिये उकसाती है। उसके लिये सहज दिशा निर्देशक चिहृ्नके अतिरिक्त व्यंजक संकेत के रूप में आती है।

लघुकथा में जीवन के तीव्र द्वन्द्व-दंश, गहन गम्भीर अर्थ, तीक्ष्ण सूक्ष्म अंश, युग सत्यों या तीव्र-तीक्ष्ण प्रश्नों की हैसियत को रेखांकित किया जाना चाहिए , जो कि पाठक को उसके अपने प्रश्न, समस्यायें या द्वन्द्व प्रतीत हों।

अपने परिवेश से लघुकथाकार एक अत्यन्त जटिल-सी समस्या का उठाता है और उसकी समग्र जटिलता, दुरूहता और भयावहता को मानवीय संवेदना से जोड़ता है और एक मानवीय आवेग उत्पन्न करता है।

मौजूदा समस्याओं से जूझते हुए पात्र के जरिये लघुकथाकार एक दृष्टिकोण विकसित करता है। परिणामतः विशिष्ट विचार-सृजन में रेखांकित हो पाते हैं, जो कि समस्या के समाधन में सहायक हो सकते हैं। लघुकथा में उद्देश्य की प्राप्ति प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष होती है। समस्याओं का निदान करना लघुकथा में विशेष अर्थ रखता है।

भीषण रूग्णता और उसके व्यक्ति पर पड़ने वाले प्रभाव का विभिन्न कोणों और पार्श्वों से निदानात्मक दृष्टि से रूपायन लघुकथा में किया जाता है। यानी समस्याओं को मूर्त रूप में खड़ा करने में ही लघुकथा की सोद्देश्यता हो सकती है।

रचनाकार अपनी सृष्टि का मालिक होते हुए भी न्यायाधीश या निर्णायक नहीं हो जाता। अपनी विशिष्ट समझ के बावजूद उसके सुझाये हुए समाधान वैयक्तिक, सीमित, इकहरे, तात्कालिक और बेअसर हो सकते हैं।

पात्रों के समग्र संघर्ष के सहज स्वाभाविक परिणाम की रचना में रूपायित हो सकते हैं। व्यक्ति के इकाई रूप होने से व्यक्ति की समस्या और उसके संघर्ष को मानवीय संवेदना के मूर्तरूप में लाने की प्रक्रिया ही लघुकथा की सृजन प्रक्रिया होगी।

लघुकथा में नये दृष्टिकोणों, भावभूमियों, विषयों, विचारों और प्रयोगों के संप्रेषण के लिये नये शिल्प-रूपों को बराबर खोजा जाता है और उन्हें स्वीकृति भी मिलती रही है। परिणामतः लघुकथा का परिदृश्य व्यापक और विविध होता जा रहा है।

कहा जा सकता है कि लघुकथा का कथ्य, वस्तु, घटना चरित्र या वातावरण में से किसी एक को नहीं बल्कि उसका मिला-जुला स्वरूप सम्पूर्ण संवेगों और सम्पूर्ण चेतना को एकोन्मुख बना देता है।

लघुकथा में सूक्ष्म संदर्भों की खोज से गद्य साहित्य में सूक्ष्म अभिव्यंजना और सूक्ष्म सत्यों के उद्घाटन हुए हैं। लघुकथा अपने लघु विस्तार में ही जीवन की व्यापक विराटता को प्रस्तुत करती है।

युगीन सन्दर्भों के साथ-साथ अपने कथ्य और शिल्प को तराशते, संवारते जाना लघुकथा ही नहीं किसी भी साहित्यिक विधा की जीवंतता एवं सार्थकता का परिचायक है।

प्रतिभाशील लेखक पूर्वनिर्मित मान्यताओं को तोड़कर नयी जमीन तैयार करते हैं। संप्रेषण की चुनौतियों से जूझता हुआ रचनाकार पूर्व निर्मित कथारूढ़ियों को तोड़ता रहता है।

अत्याधिक आग्रहों को लघुकथा पर आरोपित कर उसकी मूल संवेदना को खण्डित करना उचित नहीं कहा जा सकता। आरोपित आग्रहों को लघुकथा से जोड़ना उसकी सृजनात्मक सामर्थ्य, सार्थकता और सम्भावना पर अंकुश लगाने जैसा है।

कोई भी रचना किसी भी प्रकार की औपचारिकताओं और आग्रहों के अधीन नहीं होती। क्योंकि लघुकथा का सम्बन्ध मानवीय संवेदनाओं से है, और मनुष्य का ज्यों-ज्यों मानसिक विकास होता चला जायेगा उसके अभिव्यक्ति रूपों में भी परिवर्तन होता चला जायेगा।

लघुकथा की सृजनात्मक सामर्थ्य, सार्थकताओं और संभावनाओं को परखते हुए हम कह सकते हैं कि मानव मात्र की बेहतरी के लिये समय के समक्ष प्रस्तुत समस्याओं के मूल स्रोतों को ढूंढने और उसे उत्पन्न करने वाले कारणों को तलाशने में यानी परिवर्तन की सहायक शक्ति के रूप में लघुकथा का उपयोग अधिक कारगर सिद्ध हो सकता है।

-0– कमल चोपड़ा,       1600/114, त्रिनगर,  दिल्ली – 110035.

मो0: 9999945679

 

 

 


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