नवें दशक के अन्त में जिन कतिपय महत्त्वपूर्ण लोगों ने लघुकथा के विकास मं योगदान देना आरंभ किया, उनमें एक नाम डॉ. मिथिलेशकुमारी मिश्र का है। हिन्दी-लघुकथा सृजन से पूर्व उनका एक लघुकथा-संग्रह संस्कृत में ‘लघ्वी’ नाम से आया था, जिसमें संस्कृत साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनायी किन्तु बाद में उन्होंने हिन्दी में लघुकथा सृजन आरंभ किया और ‘अँधेरे के विरुद्ध’ उनका प्रथम लघुकथा-संग्रह 1998 ई. में प्रकाश में आया, जिसमें उनकी पचहत्तर लघुकथाएँ थीं । इस लघुकथा-संग्रह से ‘पूँजी’, ‘झण्डा’, ‘अँधेरे के विरुद्ध’ जैसी अनेक लघुकथाओं ने पाठकों एवं आलोचकों के मध्य अपनी पहचान बनाई । यही कारण था कि फिर आलोचकों द्वारा इस पुस्तक पर लिखे गये बत्तीस लेखों का संकलन कर डॉ. सतीशराज पुष्करणाा ने ‘ अँधेरे के विरुद्ध’ का सौंदर्यशास्त्र नामक पुस्तक का संपादन किया जो किसी एकल संग्रह पर हुआ यह लघुकथा-जगत् में यह प्रथम कार्य था।
2002 ई. में इनकी 101 लघुकथाओं का दूसरा संग्रह ‘छँटता कोहरा’ नाम से प्रकाश में आया । इसकी लघुकथाओं में ‘स्वाभिमान की राह पर’, ‘हर शाख पे …’ इत्यादि दर्जनों लघुकथाओं ने ख्याति अर्जित की और दो वर्षों के भीतर ही इस संग्रह का दूसरा संस्करण प्रकाश में आया । यही वह संग्रह ने जिस पर मध्य प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग ने अपने राज्य में प्रायः चर्चित नगरों में इस संग्रह की लघुकथाओं पर चर्चा का सफल आयोजन किया । इस प्रकार इस पुस्तक की ख्याति में स्वाभाविक रूप से चार चाँद लग गए ।
इनका तीसरा लघुकथा-संग्रह ‘सन्नाटा बोल उठा’ 2016 ई. में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में भी उनकी पचहत्तर लघुकथाएँ थी । इस संग्रह की भी अनेक लघुकथाएँ आज चर्चा के केन्द्र हैं ।
डॉ. मिथिलेशकुमारी मिश्र की लघुकथाओं में विषय के स्तर पर यों तो पर्याप्त वैविध्य है; परंतु फिर भी उनकी लघुकथाओं में नारी सशक्तीकरण का स्वर अपेक्षाकृत अध्कि मुखर है। ऐसी लघुकथाओं में अँधेरे के विरुप्द्ध सन्नाटा बोल उठा, जीवन की राह पर, चुप नहीं रहना है इत्यादि कई दर्जन लघुकथा को देखा जा सकता है। इनकी लघुकथाओं के नारी पात्रा अपने अस्त्वि के रक्षार्थ हर संभव संघर्ष करते है। इनके पात्रा पुरुषों को अपना सहयोगी मानकर कदम से कदम मिलाकर सहयोग करने में तथा सम्मान देने लेने में विश्वास करती है। इसके अतिरिक्त इनकी लघुकथाएँ घर-परिवार, कार्यालयों में नारी की स्थिति, तत्कालीन राजनीति एवं तमाम समकालीन समस्याओं पर केन्द्रित इनकी लघुकथाएँ अपनी उपस्थिति का पूरी शक्ति का एहसास कराती है।
मिथिलेश चूँकि संस्कृत, प्राकृत और पाली की भी विदुषी रही हैं; अतः उनकी लघुकथाओं में हिन्दी लोकभाषाओं के अतिरिक्त इन भाषाओं का उपयोग भी पूरी सटीकता के साथ दिखाई देता है।
डॉ.मिथिलेश नारी की वर्त्तमान स्थिति को लेकर अपने लेखन में बहुत सक्रिय रही हैं, इसलिए उन्होंने 118 महिला लघुकथाकारों को लेकर एक लघुकथा संकलन का संपादन भी किया था । इस संकलन में उस समय तक की प्रायः सभी महिला लघुकथा लेखिकाओं का समावेश हुआ था । इतना ही नहीं हिन्दी लघुकथा के विकास में महिलाओं के योगदान शीर्षक से उनका एक शोधपरक लेख भी प्रकाशित हुआ था, बाद में यह लेख कई पत्रा-पत्रिकाओं एवं संकलनों में भी प्रकाशित किया गया। पड़ाव और पड़ताल के महिला लघुकथाकारों के खण्ड में भी इनका सदुपयोग किया गया है। इस लेखक के अतिरिक्त हिन्दी लघुकथा में शीर्षक का महत्त्व सहित दर्जनों शोध् एवं आलोचनात्मक लेख लिखे गये हैं, जिनमें कुछ का सदुपयोग पड़ाव और पड़ताल के खण्डों में भी हुआ है और शेष लेख अनेक लघुकथा गोष्ठियों, सम्मेलनों और संगोष्ठियों में पढ़े गए हैं। जिनका प्रकाशन यत्र-तत्र, पत्र-पत्रिकाओं में पूरी गरिमा के साथ हुआ है।
डॉ. मिथिलेश ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ के प्रथम सम्मेलन से ही जुड़ी रही है। अभी तक हुए सभी अट्ठाइसों सम्मेलनों में उनकी सक्रिय भूमिका रही है। वे जीवन पर्यन्त इस मंच की उपाध्यक्ष रहीं । निःसंदेह इन सम्मेलनों की सफलता में उनके सुझावों और सक्रिय भागीदारी की विशिष्ट भूमिका रही है। उनके लघुकथा संग्रह छँटता कोहरा का मलयालम और अंगिका में अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। लघुकथा के विकास में दिए गए उनके योगदान हेतु उन्हें परमेश्वर गोयल सम्मान सहित अनेक सम्मान-उपाधियाँ प्राप्त हुई थीं।
लघुकथा के अतिरिक्त उनके सात उपन्यास, दो नाटक, दो खण्ड काव्य, दो महाकाव्य, दो गीत-संग्रह, दो ताँका संग्रह, एक हाइकु-संग्रह अनेक शोध् एवं आलोचनात्मक एवं अनुवाद कार्य सहित हिन्दी, संस्कृत एवं अंग्रेजी में कुल मिलाक उनकी 42 पुस्तकें प्रकाशित हुईं ।
ऐसी विदुषी का जन्म 16 सितम्बर, 1954 में उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के एक गाँव में हुआ था, किंतु सरकारी दस्तावेजों में उनकी जन्म-तिथि 1 दिसम्बर, 1953 अंकित है।
डॉ. मिथिलेश ने बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद जैसी शोधपूर्ण पत्रिका के अतिरिक्त अभिनव प्रत्यक्ष सहित कई छोटी-बड़ी पत्रिकाओं का वर्षों तक सम्पादन कार्य भी किया है। वह सन् 1976 से बिहार सरकार के उच्च शिक्षा विभाग की बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से जुड़ीं और परिषद् के निदेशक पद से वह 30.11.2013 को सेवानिवृत्त हुईं । इन साहित्यिक और सरकारी कार्यों के अलावा वह हिन्दी साहित्य सम्मेलन-प्रयाग, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, महिला चरखा समिति-पटना, भाषा संगम-इलाहाबाद, अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच, अखिल भारतीय हिन्दी प्रसार प्रतिष्ठांग, मगध कलाकार, बिहार संस्कृत संजीवन समाज इत्यादि अनेक चर्चित संस्थाओं से जीवन पर्यन्त सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं । इसके अतिरिक्त वे अपने स्तर से अपने पति मूलचंद मिश्र स्मृति संस्थान के तत्वावधन में प्रत्येक वर्ष 20 नवम्बर को आयोजित होने वाले समारोह में वह जहाँ साहित्य सेवियों एवं मेधवी छात्रा-छात्राओं को सम्मानित एवं पुरस्कृत करती थीं, वहीं वह बिना तिलक-दहेज के अनेक लड़कियों की शादियाँ भी करवाती थीं । पटना में भी उन्होंने अनेक ऐसी शादियाँ करवाईं ।
विगत् एक वर्ष से वह ‘लिवर सिरोसिस’ जैसी भयंकर बीमारी से संघर्ष कर रहीं थी, अंततः 10 अप्रैल 2017 की प्रातः 6.15 बजे पटना के फोर्ड हॉस्पीटल में संघर्ष करते-करते हार गईं और लोकांतरति कर गईं ।
ऐसी परम विदुषी के किए गए कार्यों का स्मरण करते हुए मैं उन्हें पूरी आस्था के साथ श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूँ ।
– अध्यक्ष, अ. भा. प्रगतिशील लघुकथा मंच,‘लघुकथानगर’, महेन्द्रू,पटना-800 006 (बिहार)
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