जीवन एक अविरल धारा है जो बहते हुए आगे बढ़ती जाती है, जिसमें बहुत कुछ पीछे छूट जाता है, तो बहुत कुछ नया जुड़ता भी जाता है। वस्तुतः यही है जीवन की विकास-यात्रा । ठीक इसी प्रकार साहित्य और उसकी तमाम विधाएँ हैं जिनमें लघुकथा भी एक महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित है, उसमें भी समय के साथ-साथ अपनी-अपनी क्षमता के साथ पुराने लघुकथाकार पीछे छूटते जाते हैं और बढ़ते समय के साथ-साथ नये-नये लघुकथाकार आते-जाते हैं और अपनी सृजनात्मकता से अपनी पहचान बनाते हुए लघुकथा की विकास-यात्रा में उसके सहयात्री बन जाते हैं ।
जब चर्चा लघुकथा के वर्तमान यानी इक्कीसवीं सदी करनी है तो इससे पूर्व हमें इसकी नींव तक जाना पड़ेगा जिस पर लघुकथा का आज यह सुन्दर भवन खड़ा है। जब हम नींव पर आते हैं तो हमें संस्कृत भाषा में रचित कथा एवं कथात्मक ग्रंथों को भी देखना पड़ता है। हिन्दी संस्कृत की बेटी है, इसने उसी की कोख से जन्म लिया है, अतः हम वेद,पुराण, उपनिषद् इत्यादि ऐसे तमाम उल्लेखनीय ग्रंथों में प्रकाशित कथाओं और पिफर प्राकृत एवं पाली भाषाओं में प्रकाशित कथा एवं कथात्मक ग्रंथों का अवलोकन करने हेतु विवश होते हैं। कारण जीवधारियों की तरह, किसी साहित्यिक विधा के जन्म की कोई निश्चित तिथि नहीं हो सकती । साहित्यिक विधाएँ तो शनैः शनैः विकास करते हुए कब अपना आकार ग्रहण कर लेती हैं, पता तक नहीं चलता और जब पता चलता है, तब हम फिर अतीत की ओर चलते हैं।यह सही है प्रत्येक विधा पर अपने समय, तत्कालीन राजनीति, सामाजिक परिवर्तन, मानव-मनोविज्ञान इत्यादि का प्रभाव पड़ता है, लघुकथा भी इसका अपवाद नहीं है।
सन् 1874 के समय में जाएँ तो उस समय दो प्रवृत्तियाँ साहित्य में प्रत्यक्ष हो रही थीं । एक थी जो उपदेश लिए होती थी । उपदेश से तात्पर्य यह है कि अपनी रचनाओं के माध्यम से आदर्श को उद्देश्य के रूप में महत्त्व दिया जाता था। इस समय की लघुकथाओं का अवलोकन करते हेतु पटना से प्रकाशित ‘बिहार बन्धु’ (साप्ताहिक) को देखना होगा, जिसमें मुंशी हसन अली की लघुकथाएँ प्रायः प्रत्येक अंक में प्रकाशित हो रही थीं । पाठकीय प्रतिक्रियाओं से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन पाठक उन्हें पसंद भी कर रहे थे ।
सन् 1875 में बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी लघुकथाएँ लिख रहे थे, उनकी प्रवृत्ति व्यंग्यात्मक थी । कारण उस समय अपना देश परतंत्र था। समाज के सभी वर्ग देश के हित में देश को स्वतंत्र कराने हेतु यथासंभव जो कर सकते थे, कर रहे थे। साहित्यकार भी अपना दायित्व निर्वाह करने में किसी तरह भी पीछे नहीं थे । भारतेन्दु उसके समय के साहित्यकारों का एक तरह से नेतृत्व कर रहे थे। अतः अपनी लघुआकारीय कथात्मक रचनाओं के माध्यम से अंग्रेजों के विरु( जन-जागरण हेतु व्यंग्यपरक लघुकथाएँ लिख रहे थे जो बाद में रिहासिनी’ नामक पुस्तक में संगृहीत की गयीं ।इनके बाद फिर जयशंकर ‘प्रसाद’ अपनी लघुकथाओं में गंभीर दर्शन लिए उपस्थित हुए तो प्रेमचंद ने आदर्श एवं व्यंग्य को मिला-जुलाकर अपनी अलग राह लघुकथा में बनायी ।
इनके बाद तो फिर छबीलेलाल गोस्वामी, माखनलाल चतुर्वेदी, माधव राव सप्रे, सुदर्शन, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, पदुमलाल पन्नालाल बक्शी, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, वनफूल, रमेश चंद्र श्रीवास्तव ‘चंद्र’, कालीचरण चटर्जी एम. ए., श्याम सुन्दर व्यास, विष्णु प्रभाकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, आनंद मोहन अवस्थी, शांति मेहरोत्रा, बैकुंठ मेहरोत्रा, उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’, रामधरी सिंह ‘दिनकर’, भृंग तुपकरी, रामेश्वर नाथ तिवारी, भवभूति मिश्र, रघुवीर सहाय, रावी, हरिशंकर परसाई, रामनारायण उपाध्याय, श्यामनंदन शास्त्री, शरद चन्द्र मिश्र, डॉ• त्रिलोकीलाल व्रजबाल इत्यादि लघुकथा लेखकों की लम्बी सूची है, जिन्होंने अपनी मूल विध के साथ-साथ लघुकथाएँ पर्याप्त मात्रा में लिखीं ।
सातवें दशक में डॉ• सतीश दुबे, डॉ• कृष्ण कमलेश इत्यादि की लघुकथाओं से लघुकथा का पुनरुत्थान काल यानी आधुनिक लघुकथा का दौर शुरू होता है जिसकी लघुकथाएँ अपनी अग्रज पीढ़ी की लघुकथाओं से भिन्नता लिए तो ज़रूर थीं किन्तु उनमें अग्रज पीढ़ी की लघुकथाओं का प्रभाव भी स्पष्ट था ।इस काल की लघुकथाएँ आकार की दृष्टि से एक-डेढ़ पंक्ति से लेकर आठ-दस पंक्तियों में सिमट जाती थीं । इनका विषय पुलिस, राजनीति, कार्यालय, समाज आदि में व्याप्त भ्रष्टाचार हुआ करता था। इसमें व्यंग्य अपने तीखे तेवर एवं अनिवार्यता के साथ उपस्थित था । लघुकथा का समापन प्रायः चौंका देने वाले वाक्य से हुआ करता था। आपातकाल में जहाँ ‘ग़ज़ल’ की लोकप्रियता बढ़ी, वहीं गद्य और विशेष रूप से कथा विधओं में ‘लघुकथा’ पाठकों की प्रिय विध बन गयी थी ।
इस विधा को लोकप्रिय बनाने में ‘सारिका’, ‘तारिका’ बाद में ‘शुभ तारिका’, ‘सुपर ब्लेज’, ‘मिनीयुग’, ‘आघात’ बाद में ‘लघु आघात’, ‘दिशा’, ‘ललकार’, ‘व्योम’, ‘साहित्यकार’, ‘पुनः’, ‘अवसर’ इत्यादि पत्रिकाओं का रेखांकन योग्य योगदान रहा है।
आठवाँ दशक समाप्त होते-होते अपने विषयों की पुनरावृत्ति, आकार में अति लघुता तथा लेखकों की बाढ़ ने लघुकथा के स्तर को गिराया और पाठकों के मन में ऊब पैदा की । इससे श्रेष्ठ लघुकथाकार चिंतित हो उठे और ‘दिशा’ पत्रिका के प्रवेशांक के सम्पादकीय ने अनेक लेखकों के विरोध् के बावजूद प्रायः लेखकों ने सम्पादकीय में दिये गये सुझावों को मानने में ही लघुकथा तथा स्वयं अपनी भलाई समझी । इस स्थिति में वैसे लेखक प्रायः इस विध से हट गये जो लघुकथा में बन रहे नये माहौल की गंभीरता को न समझ सके और न पचा सके, किन्तु लघुकथा अपने नये विषयों एवं विषयों के अनुकूल सटीक एवं सुन्दर शिल्प के कारण पुनः पाठकों का भरपूर स्नेह प्राप्त करने में क्रमशः सफलता के सोपान चढ़ने लगी ।
नवें दशक से गोष्ठियों, संगोष्ठियों एवं सम्मेलनों ने भी इसके विकास में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया। इन सब समारोहों में पठित आलेखों एवं उनपर हुए तटस्थ विचार-विमर्श ने तत्कालीन युवा पीढ़ी को इस विध के विषय में बहुत कुछ दिया। इन समारोहों में पठित लघुकथाओं एवं उन पर हुई समीक्षात्मक टिप्पणियों ने तत्कालीन युवा पीढ़ी के लेखन को सार्थक एवं सुन्दर रचनात्मक दृष्टि दी । इससे उस पीढ़ी से अनेक श्रेष्ठ लघुकथा-लेखक उभर कर सामने आये। इनके साथ कुछ वे लोग भी सक्रिय रहे जो क्रमशः आठवें, नवें एवं बीसवीं सदी के अंतिम दशक से इस विध के विकास हेतु श्रेष्ठ रचनाएँ लिखने के साथ इसके शास्त्राीय एवं ऐतिहासिक पक्ष को उजागर करते शोधपरक लेख तथा तत्कालीन रचनाओं को केन्द्र में रखकर आलोचनात्मक लेख भी लिख रहे थे ।
नींव में खड़ी पीढ़ी तथा उसके बाद आने वाले दशकों के लेखकों ने अपने दायित्व का निर्वाह बहुत ही सुन्दर ढंग से किया ।इक्कीसवीं सदी में भी जो कतिपय वरिष्ठ लेखक सक्रिय थे, उनमें डॉ• सतीश दुबे, भगीरथ, बलराम अग्रवाल, डॉ• कमल चोपड़ा, डॉ• सतीशराज पुष्करणा, सुकेश साहनी, चित्रा मुद्गल, मधुकांत, रूप देवगुण, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, कृष्णानंद कृष्ण, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’, सिद्धेश्वर, तारिक असलम ‘तस्नीम’, सतीश राठी,अंजना अनिल, अशोक भाटिया, डॉ• श्याम सुन्दर दीप्ति, जसबीर चावला, श्याम सुन्दर अग्रवाल, उर्मि कृष्ण, डॉ• शकुन्तला ‘किरण’ इत्यादि प्रमुख हैं। यहाँ मधुदीप एवं राजकुमार ‘निजात’ की अलग से चर्चा वांछित है, क्योंकि ये दोनों लघुकथाकार ऐसे हैं, जिन्होंने बीसवीं सदी के अंत में भी काम किया और अब भी सक्रिय हैं, किन्तु ये दोनों ही बीच के लगभग डेढ़ दशक तक मौन रहे हैं । मधुदीप का अभी हाल में ही एक संग्रह-‘समय का पहिया’ और निजात के तीन संग्रह ‘उमंग, उड़ान और परिंदे’, ‘बीस दिन’ और ‘अदालत चुप थी’ हाल में ही प्रकाश में आये हैं। मेरे इस लेख के लिखे जाने तक मध्ुदीप ने ‘पड़ाव और पड़ताल’ के बारह खंड अपने संपादन एवं निर्देशन में प्रकाशित कर दिये। तेरह खंड आने को हैं। मेरी दृष्टि से अभी तक लघुकथाओं में इससे बड़ा काम अभी तक नहीं हुआ है। विगत एक डेढ़ दशक से इस विधा में जो नये लेखक आये उनमें ज्ञानदेव मुकेश, जिनका लघुकथा संग्रह ‘भेड़िया जिंदा है’ बहुचर्चित रहा, मुरलीध्र वैष्णव, प्रताप सिंह सोढ़ी, डॉ• मिथिलेशकुमारी मिश्र, सरला अग्रवाल, मुकेश शर्मा, डॉ• लक्ष्मी विमल,सुनीता कुमारी सिंह, पुष्पा जमुआर, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज, रुखसाना सिद्दीकी, सुरेन्द्र प्रसाद सिंह, डॉ• ध्रुव कुमार इत्यादि । इन लेखकों ने अपनी अग्रज पीढ़ी का अनुकरण करते हुए शनैः शनैः अपनी राह बनायी । ऐसे लेखकों में सुरेन्द्र प्रसाद सिंह को लिया जा सकता है। सुरेन्द्र प्रसाद सिंह वय के ख्याल से तो वृद्ध थे और वह उपन्यास एवं कहानी-लेखन से जुड़े थे। ‘डियर रंजना’ उनका चर्चित उपन्यास है, किन्तु वे चूँकि ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ से जुड़े थे, अतः क्रमशः उनकी रुचि लघुकथा-सृजन की ओर बढ़ी और फिर उनका लघुकथा-संग्रह ‘सुरेन्द्र की अस्सी लघुकथाएँ’ प्रकाश में आया । डॉ•प लक्ष्मी विमल ने भी लघुकथा-लेखन जब शुरू किया तो पर्याप्त मात्रा में लघुकथाएँ लिखीं,किन्तु अपना संग्रह ‘सादा लिफाफा’ आने के बाद वह निष्क्रिय प्राय हो गयीं और आजकल किसी भी पत्र-पत्रिका में उनकी लघुकथाएँ देखने में नहीं आतीं । सुनीता कुमारी सिंह की भी यही स्थिति रही । इनका भी एक संग्रह आया, जिसकी भूमिका बलराम अग्रवाल ने लिखी थी । इस संग्रह में इनकी कुछ लघुकथाएँ तो अवश्य ऐसी थीं ,जो चर्चा की माँग करती थीं, किन्तु पुस्तक सही हाथों में न पहुँच पाने के कारण इसकी वांछित चर्चा नहीं हो सकी ।सरला अग्रवाल प्रायः सभी विधओं में हाथ आजमाती रहीं, किन्तु उन्हें जो थोड़ी-बहुत चर्चा मिली वह लघुकथा में ही मिली, इनका ‘दिन दहाड़े’ एक संग्रह आया, जिसकी भूमिका डॉ• कमल चोपड़ा ने लिखी थी । इनकी भी कुछ लघुकथाएँ चर्चा के योग्य हैं। डॉ• मिथिलेशकुमारी मिश्र के दो एकल संग्रह ‘अँधेरे के विरुद्ध’ और ‘छँटता कोहरा’ (दो संस्करण आ चुके हैं) प्रकाश में आये। इन्होंने महिला लघुकथाकारों को लेकर एक संकलन ‘कल के लिए’ नाम से संपादित किया जो काफी चर्चित रहा। ‘छँटता कोहरा’ का ‘मलयालम’ एवं ‘अंगिका’ में अनुवाद हो चुका है। इसकी चर्चा मध्यप्रदेश सरकार ने भी अपने अनेक जिलों में करवाई । इनकी चर्चित लघुकथाओं में ‘बाज़ारवाद’, ‘पूँजी’, ‘अँधेरे के विरुद्ध, ‘छँटता कोहरा’, ‘झंडा’, ‘स्वाभिमान की राह’, ‘हिजड़े’, ‘हर शाख पे…..’, ‘पर उपदेश…..’, ‘छद्मवेशी’, ‘जीवन का यथार्थ’ इत्यादि पर्याप्त चर्चित हैं । इनकी लघुकथाओं में जहाँ प्रेम है, वहीं कामकाजी महिलाओं की स्थिति एवं समस्याएँ भी प्रत्यक्ष हुई हैं । इन्होंने लघुकथा विषयक अनेक लेख भी लिखे हैं, जिनमें कुछ इन्होंने ‘पड़ाव और पड़ताल’ हेतु भी लिखे जो उसके अलग-अलग खंडों में प्रकाशित हुए हैं। वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज के क्रमशः तीन संग्रह ‘सरोवर में थिरकता सागर’, ‘सुहागरात’ एवं ‘तीसरी यात्रा’ प्रकाश में आ चुके हैं।
भारद्वाज पूरी तरह से परम्परावादी हैं, अतः इनका लेखन प्रेमचंद के आदर्शवाद को लेकर चलता है, इनके कथानक प्रायः गाँव-घर के आसपास के ही हुआ करते हैं। समय के साथ इनकी प्रायः रचनाएँ नहीं चलतीं । इनकी लघुकथाओं में ‘असली निबंध्’, ‘खेती’, ‘छाती’, ‘फैसला’, ‘सच्चा’, ‘दूध’ आदि चर्चित रही हैं। इनकी रचनाओं में इनके पेशे यानी शिक्षक-जीवन का अनुभव स्पष्ट परिलक्षित होता है। पुष्पा जमुआर गृहिणी हैं। इनकी रचनाओं में घर-गृहस्थी ने अधिक स्थान प्राप्त किया है। ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ इनका एक लघुकथा-संग्रह प्रकाश में आ चुका है। इनकी चर्चित लघुकथाओं में ‘अनुत्तरित प्रश्न’, ‘रजाई’, ‘अपना अधिकार’, ‘जलन’, ‘चुभन’, ‘लालसा’, ‘फरियाद’ इत्यादि लघुकथाएँ अपनी विषय-वस्तु एवं सटीक शिल्प के कारण चर्चित हैं । पुष्पा ने लघुकथा विषयक लगभग दो दर्जन से अधिक लेख लिखे हैं, जिन्हें वे विभिन्न गोष्ठियों, संगोष्ठियों एवं सम्मेलनों में पढ़ चुकी हैं।डॉ• रुखसाना सिद्दिकी मूलतः उर्दू में लिखती हैं किन्तु इसके समानांतर हिन्दी में भी वह उसी त्वरा से लघुकथाएँ लिखती हैं। इनका अभी तक कोई संग्रह तो प्रकाश में नहीं आया किन्तु पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ देखी-पढ़ी जा सकती हैं। इनकी लघुकथाएँ जोगेन्द्र पाल की तरह अपने विरले प्रतीकों के उपयोग से प्रायः दुरूह हो जाती हैं। तात्पर्य यह कि इनकी लघुकथाएँ साधारण पाठकों के लिए नहीं, अपितु मात्रा प्रबुद्ध पाठकों के लिए होती हैं। इनकी यही विशेषता भी है, और यही कमज़ोरी भी । डॉ ध्रुव कुमार जो ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ के महासचिव होने के साथ-साथ लघुकथा-विधा पर केन्द्रित वार्षिक पत्रिका ‘सर्जना’ का संपादन भी करते हैं। अभी इसके दो अंक प्रकाश में आकर ख्याति अर्जित कर चुके हैं। इनकी चर्चित लघुकथाओं में ‘मोल-भाव’, ‘यही एक रास्ता’, ‘यह नहीं चलेगा’ इत्यादि का नाम लिया जाता है।
ज्ञानदेव मुकेश एवं मुरलीधर वैष्णव ये दोनों लेखक अपने लघुकथा-सृजन के प्रति काफी गंभीर हैं और प्रायः श्रेष्ठ लघुकथाएँ ही लिखते हैं। दोनों का एक-एक संग्रह भी प्रकाश में आ चुका है और इनकी लघुकथाएँ प्रायः अच्छी पत्रा-पत्रिकाओं में देखी-पढ़ी और पसंद की जाती हैं। ये दोनों मूलतः लघुकथा-लेखक ही हैं ।इनके अतिरिक्त कमल कपूर और नरेन्द्र कुमार गौड़ भी इस विध के प्रति समर्पित भाव रखते हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में कमल कपूर नरेन्द्र कुमार गौड़ से बहुत अधिक गंभीर एवं लघुकथा में सृजन के स्तर पर अपेक्षाकृत कहीं अधिक कुशल हैं। प्रमाण स्वरूप कमल कपूर के संग्रह ‘आस्था के फूल’, ‘हरी-सुनहरी पत्तियाँ’ की लघुकथाओं में ‘लक्ष्मी-पूजा’, त्याग या प्यार’, ‘आधुनिका’, ‘शायद’, ‘चश्मा’ इत्यादि को देखा-परखा जा सकता है। इसी श्रेणी में पवित्रा अग्रवाल को भी रखा जा सकता है। इनकी लघुकथाएँ अधिकतर मानवोत्थान की बात करती हैं और ग़लत का विरोध करते हुए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सही दिशा की ओर संकेत करती हैं । इनका भी एक लघुकथा-संग्रह ‘आँगन से राजपथ’ अभी हाल में ही प्रकाश में आया है। इनकी लघुकथाओं में बकौल रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ पॉल्यूशन पैक’, ‘लोकतंत्र’, ‘समाज-सेवा’, ‘जन्नत’, ‘एक और फतवा’ इत्यादि श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं।
शोभा कुक्कल मूलतः कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने पर्याप्त लघुकथाएँ भी लिखीं । इनका एक संग्रह ‘तिनका-तिनका’ भी प्रकाश में आ चुका है। हालाँकि इसी शीर्षक से डॉ•रामकुमार घोटड़ का लघुकथा-संग्रह आज से छब्बीस वर्ष पूर्व प्रकाश में आ चुका है। इस संग्रह में इनकी 72 लघुकथाएँ हैं । कमल कपूर के अनुसार-फ्‘हरे पत्ते-पीले पत्ते’, ‘चार स्तंभ’, ‘धर्म-विधर्म”, ‘वापसी की राह’, ‘मायके की दहलीज़’, ‘भूख’ आदि इस संग्रह की श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं।डॉ• चन्द्रा सायता ने भी काफी लघुकथाएँ लिखी हैं। इनका एक संग्रह अभी हाल-फिलहाल में ‘गिरहें’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, जिसकी भूमिका डॉ• सतीश दुबे ने लिखी है।इनकी दृष्टि में – ‘कापुरुष’, ‘पोली बैग’, ‘पोल पट्टी’, ‘प्रेरणा’, ‘तमाशा’ इत्यादि लघुकथाएँ अच्छी बन पड़ी हैं। गोविंद शर्मा बाल-साहित्य-सृजन के वरिष्ठ लेखक हैं। यों इन्होंने अन्य विधओं में भी पर्याप्त लेखन-कार्य किया है, किन्तु इनका लघुकथा-संग्रह ‘रामदीन का चिराग़’ 2014 में प्रकाशित हुआ। इनकी लघुकथाओं के विषय में डॉ• रामनिवास ‘मानव’ लिखते हैं, ”गोविन्द शर्मा ‘रामदीन का चिराग़’ के प्रकाशन के साथ सधे हुए कदमों से लघुकथा-क्षेत्र में दार्पण कर रहे हैं।” डॉ• मानव की दृष्टि में इनकी दो लघुकथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं -‘दूर होती दुनिया’ एवं ‘गिद्ध’ । मेरी दृष्टि में इनकी लघुकथाएँ ‘व्यंग्य’ अधिक ,लघुकथा कम हैं। लेखक को लघुकथा का रचना-कौशल ठीक से समझकर तथा अपनी अग्रज पीढ़ी (लेखन में) के लघुकथाकारों का गहराई से अध्ययन करते हुए इस विधा पर
और आगे काम करना चाहिए ।
इक्कीसवीं सदी में कुछ ऐसे लघुकथा-लेखक भी आए, जिन्होंने भले ही नया कुछ न जोड़ा, किन्तु चली आ रही परंपरा को ही अपने ढंग से आगे बढ़ाया । ऐसे लोगों में डॉ• शैल रस्तोगी, माला वर्मा, कृष्णलता यादव, किशन लाल शर्मा, शोभा रस्तोगी, सुकीर्ति भटनागर इत्यादि का नाम सहज ही लिया जा सकता है। डॉ• शैल रस्तोगी के क्रमशः दो घुकथा-संग्रह ‘यही सच है’ एवं ‘ऐसा भी होता है’ ((सं सतीशराज पुष्करणा), माला वर्मा के दो लघुकथा-संग्रह क्रमशः ‘परिवर्तन’ और ‘थोड़ी-सी हँसी’ प्रकाश में आये । इनमें प्रकाशित ‘साक्षात्कार’ जैसी इनकी कतिपय लघुकथाएँ ऐसी जरूर हैं, जो लेखिका के उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत करती हैं। कृष्णलता यादव के तीन लघुकथा-संग्रह क्रमशः ‘पतझड़ में मधुमास’, ‘चेतना के रंग’ और ‘भोर होने तक’ प्रकाश में आये, जिनमें से श्रेष्ठ लघुकथाओं के नाम पर मेरी दृष्टि में शायद दस रचनाएँ भी मुश्किल से मिल पायें। ‘दिन अपने लिए’ लघुकथा-संग्रह का अवलोकन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि डॉ• शैल रस्तोगी की भाँति शोभा रस्तोगी भी अपेक्षाकृत अधिक सतर्क लेखिका हैं, जो इस जगत् को काफी कुछ दे सकती हैं, किन्तु इन्हें परंपरा पर चलते हुए भी अपनी अलग राह की तलाश करनी ही होगी, तभी यह अपनी स्वतंत्र पहचान बना पायेंगी । इसी प्रकार सुकीर्ति भटनागर, शोभा से थोड़ा आगे चल रही हैं । यदि इसी प्रकार यह इस विधा को गंभीरता से लेते हुए चलती रहीं तो यह लघुकथा को बहुत कुछ दे सकती हैं। यह इनके संग्रह ‘अनकही पीड़ा’ को देखकर सहज ही स्पष्ट हो जाता है।
सैली बलजीत एक अच्छे कवि एवं कहानीकार हैं। यदा-कदा लघुकथाएँ भी नौवें दशक से लिखते आ रहे हैं, किन्तु इनकी गति अपेक्षाकृत काफी धीमी रही है। इक्कीसवीं सदी में प्रकाशित इनका संग्रह ‘आज के देवता’ अवश्य आश्वस्त करता है कि यदि यह इस ओर थोड़ी त्वरा से चलें तो लघुकथा की विकास-यात्रा में अह्म भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। आगरा के किशन लाल शर्मा की लघुकथाएँ प्रायः छोटी पत्रा-पत्रिकाओं में देखने को मिलती हैं, कभी-कभी किसी बड़ी पत्रिका में भी दर्शन हो जाते हैं। किन्तु इन्हें अपनी पहचान हेतु विषय-वस्तु एवं शिल्प दोनों स्तरों पर धैर्य रखते हुए श्रम करना होगा। ‘नीम का पेड़’ इनका संग्रह एक-दो वर्ष पूर्व मेरी नज़रों से गुज़रा था । उसमें कुछ लघुकथाएँ तो ऐसी अवश्य हैं जो पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं, आलोचकों का भले ही न करें। कारण आलोचक को तो विषय-वस्तु एवं शिल्प दोनों स्तरों पर नवीनता के साथ-साथ क्षिप्रता भी चाहिए । कारण नवीनता तो किसी भी विध हेतु महत्त्वपूर्ण होती है किन्तु क्षिप्रता तो लघुकथा का एक अत्यन्त विशिष्ट गुण है, बिना क्षिप्रता के तो लघुकथा में वांछित धार आएगी ही नहीं ।
रायबरेली के जवाहर इन्दु नवें दशक के अन्त में इस विध में थोड़ा-बहुत सक्रिय दिखे । बाद में शनैः शनैः लघुकथाएँ लिखते रहे । मूलतः ये कवि थे । किन्तु लघुकथा में फिर भी इतना तो वे कर ही गये कि उनका ‘कला का मूल्य’ नामक एक संग्रह आ गया । चर्चा योग्य उसमें अत्यल्प रचनाएँ ही मिलती हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य संग्रह प्रकाश में आये वे हैं- रघुविन्द्र यादव (‘बोलता आईना’ एवं ‘अपनी-अपनी पीड़ा’), राधे श्याम भारतीय ((अभी बुरा समय नहीं आया है), बालकृष्ण शर्मा ‘गुरु’ (गुरु-ज्ञान), सुभाष चन्द्र लखेड़ा (लघुकथाएँ: वैज्ञानिक की कलम से), सुनील विकास चौधरी (फोकस), आरिफ मोहम्मद (गाँधीगिरी), प्रदीप शशांक (वह अजनबी) इत्यादि । इनमें राधे श्याम भारतीय की लघुकथाओं में तो वह दम-खम है ( जो भविष्य में अपने श्रम एवं सोच के बलबूते पर अपना लोहा मनवा सकतीं हैं। इसी श्रेणी में नागपुर की उषा अग्रवाल ‘पारस’ को भी रखा जा सकता है। इसके संपादन में एक लघुकथा-संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ आया था, जिसने अच्छा नाम अर्जित किया था। अभी तक स्वयं उषा ने बहुत लघुकथाएँ तो नहीं लिखीं, किन्तु फिर भी इतनी तो लिखी ही हैं कि ‘पड़ाव और पड़ताल’ में अपनी श्रेष्ठता के बलबूते पर स्थान पा सकें। राधेश्याम भारतीय एवं उषा अग्रवाल ‘पारस’ के अतिरिक्त ‘पड़ाव और पड़ताल’ में इस यानी पन्द्रहवें खंड में अन्य चार लघुकथाकार खेमकरण सोमन, मनोज सेवलकर, शोभा रस्तोगी और संतोष सुपेकर हैं, जिन्होंने अपना लोहा भले ही न मनवाया हो, किन्तु इन्होंने यह तो बता ही दिया है कि आने वाले कल की लघुकथा की डोर उनके हाथों में हो सकती है और ये निकट भविष्य में लघुकथा को बहुत कुछ नया दे सकते हैं जिस पर लघुकथा गर्व कर सकती है । यहीं यह बताना प्रासंगिक होगा कि जहाँ शोभा रस्तोगी, संतोष सुपेकर और मनोज सेवलकर अपने लघुकथा सृजन में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे हैं वहीं खेमकरन सोमन सृजन के साथ-साथ ये लघुकथा विषयक शोध एवं आलोचना में भी स्वयं को सिद्ध करने का प्रशंसनीय प्रयास कर रहे हैं। इन दिनों ये लघुकथा में ही पीएच. डी. की उपा्धि हेतु शोधरत हैं।
इनके अतिरिक्त सावित्री जगदीश (सच की परछाइयाँ), लक्ष्मी रूपल (आप ठीक कहते हैं), लक्ष्मी शर्मा (मुखौटे) इत्यादि लघुकथा-संग्रह भी आश्वस्त करते हैं।रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ के अनुसार, इक्कीसवीं सदी के वर्ष 2010 के पश्चात् इस विधा के सृजन-क्षेत्र में सक्रिय होते हैं, उनमें डॉ• हरदीप कौर सन्धु, प्रियंका गुप्ता, अनिता ललित, रचना श्रीवास्तव, डॉ• पूरन सिंह, सीमा स्मृति, डॉ•सुधा ओम ढींगरा, भावना सक्सेना, शेफाली पाण्डेय, राधेश्याम भारतीय, दीपक मशाल, आरती स्मित, रेखा रोहतगी, शशि पाधा, सपना मांगलिक, डॉ• मंजुश्री गुप्ता, डॉ• सुधा गुप्ता, डॉ• उर्मिला अग्रवाल, नरेन्द्र कुमार गौड़, सुमन कुमार घई, कमला निखुर्पा, कृष्णा वर्मा, मंजु मिश्रा, इला प्रसाद, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, निरुपमा कपूर, मंजीत कौर ‘मीत’, सुधा भार्गव, पीयूष द्विवेदी ‘भारत’, सुरेन्द्र कुमार पटेल इत्यादि अन्य अनेक ऐसे हैं कि जिनकी लघुकथाओं को लघुकथा डॉट कॉम, सर्जना, संरचना, शोध दिशा के नये अंकों में देखा-परखा जा सकता है।डॉ• हरदीप कौर सन्धु तो हिन्दी-पंजाबी दोनों भाषाओं में समानांतर लिख रही हैं। हिन्दी में इनकी लघुकथाओं में ‘खूबसूरत हाथ’, ‘घर और कमरे’, ‘शगुन’,‘रब की फोटो’, ‘जब जागो तब सवेरा’, ‘दीवार में कील’ इत्यादि ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है, जिससे इनके लघुकथा-सृजन के प्रति काफी आशाएँ बँधती हैं ।अनिता ललित मूलतः कवयित्री है ;किन्तु इनकी लघुकथाएँ शोध दिशा, सर्जना, लघुकथा डॉट कॉम के अतिरिक्त अन्य अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। ‘रस्म’ लघुकथा ने इन्हें लघुकथाकार के रूप में अच्छी पहचान दी है।
कोई भी लेखक जीवन में अनेक-अनेक रचनाएँ लिखता है, किन्तु उसकी पहचान बहुत कम रचनाओं से ही बनती है। पहचान बनने के अनेक-अनेक और अलग-अलग कारण हो सकते हैं, और होते हैं चन्द्रध्र शर्मा ‘गुलेरी’ ने मात्र तीन कहानियाँ लिखीं और उनमें भी मात्र ‘उसने कहा था’ कहानी ने ही उन्हें कहानी-जगत् में अमर कर दिया। आज भी इस कहानी का जवाब नहीं । विषय-वस्तु एवं शिल्प दोनों स्तरों पर यह आज भी विशिष्ट मानी जाती है। प्रेमचंद ने लगभग दो-सौ कहानियाँ लिखीं, किन्तु जिनपर इनकी श्रेष्ठता की चर्चा होती है उनकी संख्या दस से अधिक नहीं है। इसी प्रकार लघुकथा-लेखक भी इसके अपवाद नहीं हैं। इक्कीसवीं सदी के लेखक भी विपुल मात्रा में लघुकथाएँ लिख रहे हैं,किन्तु अभी तक जिन लघुकथाओं से उनकी पहचान बन रही है, उनकी चर्चा यहाँ प्रासंगिक होगी । सुधा भार्गव (मुफ्त की सेवाएँ), रघुविन्द्र यादव (शुभ-अशुभ), मंजीत कौर ‘मीत’ (सयानी), जगदीश राय कुलरियां (एहसास), प्रियंका गुप्ता (भेड़िए), सुचिता वर्मा (थकान), डॉ• पूरन सिंह (बचा लो उसे), पीयूष द्विवेदी ‘भारत’ (लिटमस टेस्ट), सुरेन्द्र कुमार पटेल (सोशल साइट्स) इत्यादि । और इन सभी कथाकारों की यात्रा पूरी सक्रियता से जारी है। आशा है कि निकट भविष्य में शीघ्र ही इनकी अन्य अनेक-अनेक ऐसी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हमें पढ़ने को मिलेंगी, जो संभव है, लघुकथा के इतिहास में अपना उल्लेखनीय स्थान बना सकें।
इन सभी लघुकथाओं की विशेषता यह है कि इनके कथानक अपने समय के सच की विश्वसनीय और सार्थक अभिव्यक्ति हैं तथा इनका शिल्प पूर्णतः विषय-वस्तु के सर्वथा अनुरूप है। इन सभी का प्रतिपादन इतना सुन्दर एवं सटीक है कि वह संवेदना के स्तर पर हृदय में कहीं गहराई तक जाकर स्पर्श करता है। कहने का तात्पर्य यह है, ये सभी लघुकथाएँ बढ़ई की तरह कुर्सी-मेज को ठोक-ठाक कर नहीं बनायी गयी हैं, अपितु ये रची गयी हैं, वह भी सहज-स्वाभाविक ढंग से । जीवन के आसपास से लिये गये कथानकों का सुशिल्पित ढंग से प्रस्तुतीकरण इन लघुकथाओं की विशेषता है। सभी लघुकथाओं की भाषा-शैली सर्वथा पात्रों के चरित्रों के अनुकूल है यानी उच्चरित भाषा के माध्यम से रचना को यथार्थ के ध्रातल पर पूरी तरह उतारने का सार्थक प्रयास किया गया है। इतना ही नहीं, इनकी श्रेष्ठता में सटीक शीर्षक भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता प्रतीत होता है। अपने इन्हीं गुणों के कारण ये सभी लघुकथाएँ श्रेष्ठ बन गयी हैं और इक्कीसवीं सदी में अब तक लिखी गयी लघुकथाओं में ये पांक्तेय हैं। यही इनकी बड़ी उपलब्धि है।फरीदाबाद की मीनाक्षी जिजीविषा भी विगत एक दशक से लघुकथा-जगत् में सक्रिय है। उसका एक संग्रह ‘इस तरह से भी’ भी प्रकाश में आ चुका है। उसकी लघुकथाओं में ‘संज्ञान’ एवं ‘स्त्री-स्वतंत्रता’ से पाठक भली-भाँति परिचित हैं। किन्तु इसे अभी काफी श्रम करना होगा । डॉ•अंजु दुआ ‘जैमिनी’ भी विगत डेढ़ दशक से सक्रिय है। इसने अपने को सिद्ध भी किया है। ‘कस्तूरी गंध’ संग्रह की लघुकथाएँ इसका प्रमाण हैं। इसकी लघुकथाओं में ‘उसका आदमी’, ‘पुनरावृत्ति’, ‘हतप्रभ’ इत्यादि चर्चित हैं ।
आशालता खत्री कोई जाना-पहचाना नाम तो नहीं है, किन्तु इसका एक संग्रह ‘बेटी है ना’ आ चुका है। जिससे भले ही पाठक परिचित न हों, किन्तु इसकी ‘दोषी कौन ?’, ‘वारिस’ आदि लघुकथाएँ अच्छी हैं, जिससे इसके उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।डॉ• इन्दु गुप्ता मूलतः कहानी विधा से जुड़ी हैं। हाइकु आदि भी लिखती हैं। इसी सदी में इनका एक लघुकथा-संग्रह ‘भविष्य से साक्षात्कार’ प्रकाश में आया । ‘खुद्दारी’, ‘देश की माटी’ आदि लघुकथाएँ इनकी पहचान हैं। इसी श्रेणी में मनजीत शर्मा ‘मीरा’, संतोष गर्ग, सरोज गुप्ता, डॉ•सुनीति रावत इत्यादि का नाम भी लिया जा सकता है । इन लेखिकाओं के क्रमशः लघुकथा-संग्रह ‘खबर है कि’, ‘अपनी-अपनी सोच’, ‘संयोग’, ‘तीर तरकश के’ प्रकाशित हो चुके हैं, किन्तु ये सभी संग्रह चर्चा के घेरे से पर्याप्त दूरी पर रहे हैं, कारण संभवतः इनकी लघुकथाओं में परिपक्वता का अभाव हो सकता है। वस्तुतः मुझे ऐसा लगता है कि नयी पीढ़ी को संग्रह प्रकाशित कराने हेतु बहुत जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए ,अपितु अपनी रचनाओं पर जी-तोड़ श्रम करके पाण्डुलिपि तैयार करनी चाहिए और तब किसी सिद्धहस्त लघुकथाकार से उसे दिखवा भी लेना चाहिए । परन्तु प्रायः लोग अपने झूठे अह से ऐसा नहीं करते जबकि विध का पांक्तेय हस्ताक्षर बनने हेतु यह प्रक्रिया अनिवार्य है।
डॉ•शील कौशिक पिछली सदी के अंत से इस विधा में सक्रिय हैं और इस सदी में तो इन्होंने अपने कार्यों द्वारा स्वयं को सिद्ध भी किया है। इनके दो लघुकथा-संग्रह क्रमशः ‘उसी पगडंडी पर पाँव’ और ‘कभी भी-कुछ भी’ प्रकाश में आ चुके हैं। इनकी लघुकथाओं में ‘सरोकार’, ‘खबर’, ‘नई बयार’, ‘हवा के विरुद्ध’, ‘अपने लिए’, ‘हिसाब-किताब’ आदि काफी चर्चित एवं श्रेष्ठ हैं ।
डॉ• मुक्ता हरियाणा साहित्य अकादमी की निदेशक रह चुकी हैं। इन्हीं के निदेशकीय कार्य-काल में ‘हरिगंधा’ का एक लघुकथा विशेषांक प्रकाशित हुआ था । वस्तुतः लघुकथा-जगत् में इनकी पहचान इसी अंक से बनी । ‘मुखरित संवेदनाएँ’, ‘आखिर कब तक’ और ‘कैसे टूटे मौन’ इनके तीन संग्रह प्रकाश में आ चुके हैं, किन्तु ये चर्चित नहीं हो सके। यों ”लोग” ‘बेटी का दुःख’, ‘अपनत्व’, ‘आखिर कब तक’ इत्यादि श्रेष्ठ लघुकथाओं के कारण इनके नाम से परिचित हैं। इंदिरा खुराना यों तो गत सदी से ही लिखती आ रही हैं, किन्तु ‘औरत होने का दर्द’ एवं ‘गँधारी की पीड़ा’ इनके संग्रह इसी सदी में आये और चर्चित होने के साथ-साथ ‘गंधारी की पीड़ा’ पुरस्कृत एवं सम्मानित भी हुआ । ‘कुंठा’, ‘उदर यज्ञ’, ‘और ‘कल्पनाएँ जल गईं’, ‘वोट का अधिकार’ इत्यादि इनकी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं। इंद्रा बंसल बहुचर्चित लेखिका न होने के बावजूद ये गत सदी से ही लघुकथाएँ लिखती आ रही हैं। इनका संग्रह ‘मुखौटे’ प्रकाशित हुआ है, जिसकी ‘धनी संबंधी’, ‘प्रतिष्ठा का सवाल’, ‘जिसकी ख़ातिर’ इत्यादि लघुकथाएँ प्रशंसनीय हैं ।
रक्षा शर्मा ‘कमल’ मूलतः कवयित्री रही हैं, किन्तु इनका एक लघुकथा-संग्रह इक्कीसवीं सदी में ‘मंथन’ नाम से आया। ‘जूठन’, ‘भागीदार’, ‘कैसी विधि-विडम्बना’ आदि इनकी लघुकथाएँ हैं, जिनसे लोग परिचित हैं। सुधा जैन एक सुप्रतिष्ठ कवयित्री का नाम है। यों इनकी लेखनी प्रायः सभी विधाओं में चली । इनके तीन लघुकथा-संग्रह ‘रोशनी की किरणें’, ‘समय का सच’ और ‘जीवन के रंग’ प्रकाश में आये। ‘जीवन के रंग’ इसी सदी की देन है। इनकी लघुकथाओं में ‘पच्चीस प्रतिशत’, ‘लोहड़ी’, ‘पुरस्कार’, ‘विकल्प’ इत्यादि जानी-पहचानी एवं श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं। इस सदी के अन्य लेखक जो प्रायः पत्र-पत्रिकाओं में अपनी लघुकथाओं से उपस्थित रहते हैं जिन्हें लोग जानते भी हैं उनमें मुख्यतः डॉ•भगवान सिंह भास्कर, कुमार शर्मा ‘अनिल’, शैल चन्द्रा, डॉ•हरेराम पाठक, उज्ज्वला केलकर,दीपक मशाल, डॉ• सुनील कुमार,हारून रशीद, डॉ• यशोधरा राठौर, नीता श्रीवास्तव, विश्वम्भर प्रसाद चन्द्रा, डॉ•रामचन्द्र यादव, राजेन्द्र राकेश, नीलम राकेश, डॉ•लक्ष्मी विमल, डॉ•चन्द्रा सायता, घमंडीलाल अग्रवाल, ओमराज ‘ओ. पी. गुप्ता’, जगत् नन्दन सहाय, रितेन्द्र अग्रवाल, डॉ•ब्रजनन्दन वर्मा, बलिराम महतो ‘हरिचेरा’, शिवपूजन लाल ‘विद्यार्थी’, डॉ•नवनीत, मीना गुप्ता, प्रभात कुमार ध्वन, श्रीकांत व्यास, डॉ•जीतेन्द्र वर्मा, सीताराम शेरपुरी, ओजेन्द्र तिवारी, स्वाती गोदर, नरेन्द्र कुमार सिंह, उमेश कुमार पाठक ‘रवि’, जीतेन कुमार वर्मा, डॉ•अनीता राकेश, रामनिवास बांयला ‘शौरिश’, अरुण कुमार भट्ट, डॉ•महाश्वेता चतुर्वेदी, जयशंकर तिवारी ‘घायल’, प्रभात दुबे, अशोक आनन, कान्तिा भारद्वाज ‘कलाश्री’, पूनम आनंद, संजू शरण, डॉ•सरोज गुप्ता, जय सिंह आसावत, अब्बास खान ‘संगदिल’, अश्विनी कुमार पाठक, शिवचरण सेन ‘शिवा’, नंदकिशोर बावनिया, राना लिधौरी, सुशीला राठौड़, रमेश मनोहारा, दिनेश कुमार छाजेड, हरिचरण अहरवाल ‘निर्दोष’, उत्पल कुमार चौधारी, सीताराम पाण्डेय, के. एल. दिवान, ओमीश पारुथी, राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’, विश्वम्भर पांडेय ‘व्यग्र’, श्याम ‘अंकुर’, डॉ•नीलम खरे, पवन बत्तरा, शिबली ‘सना’, डॉ•शरद नारायण खरे, कन्हैया लाल अग्रवाल ‘आदाब’, संजय वर्मा ‘दृष्टि’, एन. एस. धीमान, रोहित यादव, पूर्णिमा मित्रा, अंसारी एम. ज़ाकिर, डॉ•अनिल शर्मा ‘अनिल’, कीर्ति शर्मा, डॉ•अन्नपूर्णा श्रीवास्तव, गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’, जिनेन्द्र बी. जैन, श्याम लाल कौशल, अशोक जैन पोवाल, गुरुप्रीत सिंह, मोहन लोध्यिा, डॉ•जयशंकर शुक्ल, रघुराज सिंह कर्मयोगी, सरोज व्यास, शिव डोयले, देवी नागरानी, कुँवर प्रेमिल, भगवान अटलानी, डॉ•दशरथ असानिया, बी. एल. परमार, किरण राज पुरोहित ‘नितिला’, महावीर रवांल्टा, डॉ•दिवाकर दिनेश गौड़, राकेश ‘चक्र’, कुंदन सिंह ‘सजल’, हंसमुख भाई रामदेपुत्रा, देशपाल सिंह सेंगर, गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’, मदन शर्मा, नानूचंद आसेरी, श्याम मोहन दुबे, हरिश्चन्द्र गुप्त, डॉ•शैल रस्तोगी, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, दिलीप मारिया, संतोष सुपेकर, माणक तुलसीराम गौड़, सुरेश वर्मा, मोहन लाल भागी, रवि प्रताप सिंह, अमित कुमार लाडी, आकांक्षा यादव, कृष्ण कुमार यादव, गांगेय कमल भारतीय, मनोहर शर्मा ‘माया’, दिनेश नंदन तिवारी, जीवित राम सेतपाल, रामप्यारे रसिक, जयंत कुमार योरात, सुदर्शन रत्नाकर, भावना सक्सेना, हेमध्र शर्मा, रंजना फतेपुरकर, मनोज सेवलकर, राजेन्द्र नागर निरंतर, डॉ•शंकर प्रसाद, डॉ•निरुपमा राय, निर्मला सिंह, डॉ•मिथिलेश अवस्थी, योगेन्द्र प्रसाद मिश्र, राजकुमार ‘प्रेमी’, आनंद दीवान, संतोष श्रीवास्तव, डॉ•भारती, मुसर्रत इमाम, विजय कुमार, सत्यनारायण भटनागर, अनिल रश्मि, नर्मदेश्वर चौधरी, डॉ•मेहता नगेन्द्र सिंह, रामपाल सिंह, महावीर रवांल्टा, अनिल यादव, डॉ•बी. के. मिश्र, घुँघरू परमार, डॉ•मधुबाला वर्मा, रचना गौड़ भारती, राधा कृष्ण सिंह, अरुण शाद्वल, बाँके बिहारी, अनिता रश्मि, अश्विनी कुमार ‘आलोक’, आनंद दिवान, इंदिरा दांगी, ॠचा शर्मा, कुमुद शाह, कृष्णचंद महादेविया, जयमाला, देवेन्द्र गो. होलकर,नंदलाल भारती, पल्लवी त्रिवेदी, पूर्णिमा मित्रा, प्रताप सिंह सोढ़ी, फरीदा जमाल, गणेश प्रसाद महतो, मनीष कुमार सिंह, मनोज अबोध, मो साजिद खान, वाणी दवे, विद्या लाल,विनय कुमार पाठक, संगीता शर्मा, सत्यप्रकाश भारद्वाज, सुधा भार्गव, सुनील सक्सेना, सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, सुरेन्द्र कुमार भक्त, सुरेन्द्र गोयल, हरदान हर्ष, हंसमुख रामदेपुत्रा, धीरेन्द्र भारद्वाज इत्यादि हैं, जो वर्तमान में इस लघुकथा-जगत् में पूरी तरह सक्रिय हैं और अपने-अपने स्तर पर लघुकथा-सृजन में सक्रिय योगदान दे रहे हैं। इनमें से अनेक ऐसे हैं जो आनेवाले कल की लघुकथा के पांक्तेय हस्ताक्षर हो पाने की क्षमता रखते हैं। इनमें अनेक ऐसे भी हैं, जिनके लघुकथा-संग्रह भी प्रकाश में आ चुके हैं, जो इस प्रकार हैं-रचना गौड़ भारती (मन की लघुकथाएँ), भगवान सिंह भास्कर (‘हाथी के दो दाँत’ और ‘साहित्यकार का दर्द’) इनके दो संपादित संग्रह भी हैं-‘वृक्षकोटर से….’ एवं ‘हिन्दी की श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ । डॉ•लक्ष्मी विमल (सादा लिफाफा), डॉ•महाश्वेता चतुर्वेदी (सर्प दंश), रामनिवास बांयला ‘शौरिश’ (हिमायत), गणेश प्रसाद महतो (मानवता के हत्यारे), नैनूचंद ‘आसेरी’ (समय की सीपियाँ), राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ (पहचान), दिलीप भाटिया (छलकता गिलास), संतोष सुपेकर (बंद आँखों का समाज), माणक तुलसीराम गौड़ (कर्तव्य-बोध), सुरेश वर्मा (आलोक-प्रसंग), काँच के टुकड़े (सं गोपाल अग्रवाल) इत्यादि । इन संग्रहों का अवलोकन करने पर राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, दिलीप भाटिया, संतोष सुपेकर इत्यादि के संग्रह भावी लघुकथा के प्रति काफी हद तक आश्वस्त करते हैं। शेष तो गिनती गिनाने मात्र की भूमिका का ही निर्वाह करते प्रतीत होते हैं ।
वस्तुतः बात यह है कि प्रायः लोग लघुकथा को साहित्य में प्रवेश का ‘शॉर्टकट’ रास्ता समझ लेते हैं और किसी भी घटना को केन्द्र में रखकर बिना किसी गंभीर विचार-विमर्श या चिंतन-मनन के कुछ पंक्तियों की रचना लिखकर समझते हैं इन्होंने कमाल की लघुकथा लिख दी है। जबकि लघुकथा देखने में ही लघुआकारीय है, किन्तु इसकी रचना-प्रक्रिया एवं रचना-कौशल अन्य विधाओं की तरह ही कापफी जटिल एवं श्रम साध्य है। बिना अपनी अग्रज पीढ़ी की गंभीर लघुकथाओं एवं गंभीर लघुकथा विषयक आलेखों को पढ़े-समझे श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखना दिवा-स्वप्न देखने जैसा है।इक्कीसवीं सदी में कुछ ऐसे भी लघुकथाकार हैं, जो संख्या की दृष्टि से तो बहुत नहीं लिख रहे हैं, किन्तु उनकी रचनाओं में गुणवत्ता कूट-कूट कर भरी है। वस्तुतः भावी लघुकथा का भार इन्हीं लेखकों के कंधें पर भी आ सकता है यदि ये लोग अपने लेखन की थोड़ी त्वरा बढ़ा दें । इन कथाकारों की लघुकथाओं में जहाँ हमें जीवन का यथार्थ अपनी पूरी विश्वसनीयता के साथ मिलता है, वहीं कल्पना के साथ भी उसका तालमेल बहुत सटीक है और संवादों के माध्यम से आयी सटीक नाटकीयता इन लघुकथाओं को और भी अधिक जीवंत बना देती है। इनकी लघुकथाओं में प्रत्यक्ष होती यही विशिष्टताएँ इन रचनाकारों को आगे ले जाने में सहायक हो सकती हैं। ऐसे रचनाकारों में कमल लक्ष्मीचंद शर्मा, रेखा सूरी, रणजीत आज़ाद काझला, डॉ•संदीप कुलकर्णी, मुकेश जोशी, राज हीरामन, स्मृति जोशी, ज्योति जैन, वाणी दवे, खुदेजा खान, हनुमान सिंह तमनाशक, किसलय पंचोली, गुरदीप सिंह पुरी, परिपूर्ण त्रिवेदी, नियति सप्रे, सीमा पाण्डेय ‘खुशी’, गफूर ‘स्नेही’, महेन्द्र महतो, डॉ•कृष्ण भूषण श्रीवास्तव, डॉ•दिनेश नंदन तिवारी, डॉ•गीता गीत, अशोक श्रीवास्तव ‘सिफर’, सुरेन्द्र प्रसाद ‘गिरी’, डॉ•पूनम शर्मा, संगीता शर्मा, आशा भाटी, अरविन्द अवस्थी, डॉ•सुनीता मिश्रा ‘सुनीति’, राकेश प्रवीर, रवीन्द्र वर्मा इत्यादि का नाम सहज ही लिया जा सकता है।
सन् 2006 में महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ के संपादकत्व में ‘कोसी अंचल की लघुकथाएँ’ नामक पुस्तक प्रकाश में आयी थी। इसमें प्रकाशित प्रायः सभी कथाकार यथा-अरविन्द कुमार ‘राही’, मंजुला उपाध्याय, डॉ•रेणु सिंह, सुनील कुमार पाण्डेय, श्रीनिवास सिंह, जयकान्त ठाकुर, संकल्प शिखर, सत्यभामा सिंह, हरि दिवाकर, मोहन कुमार प्रशांत, रमण कुमार सिंह, तारानन्द झा ‘तरुण’, तारानंद वियोगी, केदार कानन, सुष्मिता पाठक, डॉ•विनय कुमार चौधरी, डॉ•शांति यादव, सुरेन्द्र भारती, अलका वर्मा, ध्रुव नारायण सिंह ‘राई’, महेश कुमार सर्रापफ, भगवान चन्द्र विनोद, रामचन्द्र मेहता, सुरेश कुमार भारती, रामनारायण यादव ‘रमेश’, अरुण अभिषेक, आर्या दास, डॉ•भूपेन्द्र मधेपुरी, उज्ज्वल शैलाभ और जनार्दन यादव की लघुकथाएँ प्रकाशित थीं । इस संकलन की प्रायः रचनाएँ साधारण स्तर की थीं, किन्तु कलाधर, अरविन्द कुमार ‘राही’, भोला पंडित ‘प्रणयी’, महेन्द्र नारायण ‘पंकज’, मंजुला उपाध्याय इत्यादि की रचनाएँ अवश्य चर्चा के योग्य थीं। एक क्षेत्रा विशेष के लघुकथाकारों से परिचय कराने के कारण इस पुस्तक का महत्त्व स्वीकार किया जाएगा ।
2009 में गणेश प्रसाद महतो की पुस्तक ‘मानवता के हत्यारे’ प्रकाश में आयी ,जिसमें शिक्षा देती आदर्शवादी लघुकथाएँ हैं, ये शास्त्रीय शर्तें भले ही पूरी न करती हों, किन्तु मानव-मूल्यों हेतु राह अवश्य दिखाती हैं। सुमति कुमार जैन के सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘लघुकथा-संसार’ 2011 में प्रकाशित हुआ। इस संपादित कृति में जहाँ कतिपय चर्चित कथाकारों की लघुकथाएँ प्रकाशित हैं, वहीं इक्कीसवीं सदी के नये-नये रचनाकार भी अपनी यथासंभव क्षमता के साथ प्रस्तुत हैं, जिनमें पूनम अरोड़ा, हीरा लाल मिश्र, गोविन्द भारद्वाज, अन्नपूर्णा श्रीवास्तव, रमेश गौरव, अनूप घई, श्यामा शर्मा, ओम प्रकाश मंजु, शामलाल कौशल, वीना जैन, नीलिमा टिक्कू, नमन कुमार राठी, संतोष गोयल इत्यादि की रचनाएँ ध्यान तो आकर्षित करती हैं, किन्तु अभी इनमें परिपक्वता की आशा करना व्यर्थ है। उम्र की परिपक्वता और साहित्यिक परिपक्वता में बहुत अंतर होता है। साहित्य विशुद्ध साधना की चीज़ है, जिसे साधने से ही प्राप्त किया जा सकता है। जो जितना साधेगा उतना ही पायेगा । अतः इक्कीसवीं सदी के रचनाकारों में जिन्होंने साधना एवं श्रम किया, आज वो चर्चित कथाकारों के साथ पूरे दम-खम के साथ खड़े हैं। अतः इस पीढ़ी को अभी पर्याप्त श्रम एवं साधना की आवश्यकता है। डॉ•सुधाकर आशावादी ऐसे ही परिपक्व रचनाकारों में हैं, जिन्होंने अपनी साधना एवं श्रम से स्वयं को साधा है। इनकी यह साधना एवं श्रम इनकी ‘चैन’, ‘अजीब लोग’, ‘लम्हे’, ‘रंगत’, ‘लाभ का गणित’,‘छात्रवृत्ति’, ‘अतीत’ इत्यादि लघुकथाओं में देखा जा सकता है। अभी तक इनके ‘सरोकार’, ‘धूप का टुकड़ा’, ‘अपने-अपने अर्थ’, ‘मुखौटे’ और ‘सुधाकर आशावादी की प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ नामक संग्रह प्रकाश में आ चुके हैं। इनकी लघुकथाओं की विशेषता साफ-सीधे शब्दों में अपने समय की विडंबनाओं को प्रत्यक्ष करना है।प्रदीप शशांक का लघुकथा-संग्रह 2013 में ‘वह अजनबी’ के नाम से प्रकाश में आया। इनकी लघुकथाओं से इनका वर्तमान पूरी शक्ति के साथ अपने सच को प्रत्यक्ष करता है।उदाहरण स्वरूप इनकी लघुकथा ‘आतंकवाद’ को देखा जा सकता है। इनकी प्रायः लघुकथाओं में पाखंड, प्रशासनिक तिकड़मबाजी तथा वर्तमान की अन्य समस्याओं को केन्द्र में रखकर समाधान की ओर संकेत किया गया है। यों इनकी अन्य रचनाओं में ‘ज़िन्दगी’, ‘मजबूरी’, ‘विखंडित न्याय’, ‘पुरस्कार’ आदि अपने होने का सुखद एहसास कराती हैं।अमित कुमार (गोरखपुर) की उनतालिस लघुकथाओं का संग्रह ‘विरासत’ 2014 में प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने विषय तो ठीक उठाये, किन्तु सटीक शिल्प के अभाव में इनकी लघुकथाएँ अपनी वो चमक नहीं दिखा पायीं, जिनकी अपेक्षा थी, फिर भी इनसे यह आशा तो बनती ही है कि आने वाले समय में इनकी लघुकथाएँ और बेहतर सटीक शिल्प में आएँगी ।
इसी प्रकार आज दूर-सुदूर अनेक-अनेक लेखक अपने-अपने ढंग की लघुकथाएँ लिख रहे हैं, किन्तु मेरी दृष्टि से जो लोग गुज़रे, वो भी जिनमें कुछ दम-खम था, इस लेख में मैंने उनकी चर्चा तटस्थता से करने का ईमानदार सत्प्रयास किया है। मेरा निर्णय सही है या ग़लत, यह मैं नहीं जानता, किन्तु मुझे जो ठीक लगा मैंने वह अवश्य लिखा । किसी की अवहेलना या प्रशस्ति-गान मेरा उद्देश्य नहीं रहा है, यदि किसी का नाम या चर्चा करने से छूट गया हो तो यह मेरी अज्ञानता ही हो सकती है, ऐसी स्थिति में वैसे लेखक मुझे क्षमा करेंगे।
इक्कीसवीं सदी के लघुकथाकारों एवं लघुकथाओं से गुज़रने पर मैं आश्वस्त हुआ हूँ कि भावी लघुकथा अच्छे हाथों में है, किन्तु इस सदी के लेखकों को अभी साध्ना एवं श्रम तो भरपूर करना होगा, तभी यह पीढ़ी अपनी पूर्व की पीढ़ी के कार्यों को सही अर्थों में और आगे ले जाने में समर्थ हो सकेगी ।
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इक्कीसवीं सदी के लघुकथाकार और उनकी लघुकथाएँ
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