लघुकथा समकालीन साहित्य की एक अनिवार्य और स्वाया विधा के रूप में स्थापित हो गई है। नई सदी में यह सामाजिक बदलाव को गति देने में महवपूर्ण भूमिका निभा रही है। विशेष तौर पर मूल्यों के क्षरण के दौर में अनेक लघुकथाकार तीखा शर–सन्धान कर रहे हैं। इस क्षेत्र में सक्रिय कई रचनाकारों ने अपनी सजग क्रियाशीलता और प्रतिबद्धता से लघुकथा की अन्य विधाओं से विलक्षणता को न सिर्फ़ सिद्ध कर दिखाया है, वरन् उससे आगे जाकर वे निरन्तर नए अनुभवों के साथ नई सौन्दर्यदृष्टि और नई पाठकीयता को गढ़ रहे हैं। लघुकथा विशद् जीवनानुभवों की सुगठित,सन, किन्तु तीव्र अभिव्यक्ति है। यह कहानी का सार या संक्षिप्त रूप न होकर बुनावट में स्वायत्त है। यह ब्योरों में जाने के बजाय संश्लेषण से ही अपनी सार्थकता पाती है। एक श्रेष्ठ लघुकथाकार इसके आणविक कलेवर में ‘‘यद्पिण्डे तद्ब्रह्याण्डे’’ के सूत्र को साकार कर सकता है। वह वामन–चरणों से विराट को मापने का दुरूह कार्य अनायास कर जाता है।
वैसे तो नीति या बोधकथा और दृष्टान्त के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से जारी है, किन्तु इसे साहित्य की विशिष्ट विधा के रूप में प्रतिष्ठा हाल के दौर में ही मिली। नए आयामों को छूते हुए इस विधा ने सदियों की यात्रा दशकों में कर ली है। प्रारम्भिक तौर पर माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बखी, माधवराव सप्रे, प्रेमचन्द, प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय जैसे कई प्रतिष्ठित रचनाकारों ने इस विधा के गठन में अपनी समर्थ भूमिका निभाई। फिर तो कई लोग जुड़ने लगे और यह एक स्वतन्त्र विधा का गौरव प्राप्त करने में कामयाब हुई। शुरुआती दौर में इसकी कोई मुकम्मल संज्ञा तो नहीं थी, कालान्तर में इस संज्ञा को व्यापक स्वीकार्यता मिल गई। किन्तु वे स्थिर न रह सकीं।
बिहार के सृजन उर्वरा भूमि के रत्न, वरिष्ठ कथकार युगलजी (1925) ने लघुकथा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम देर से ही बनाया, किन्तु आज वे लघुकथा के विधागत गठन में योगदान देनेवाले प्रमुख सर्जकों में शुमार किए जाते हैं। उन्होंने अपने रचनाकाल के चार दशक उपन्यास ,पूरी तरह कहानी,नाटक,कविता जैसी विविध विधाओं के सृजन को दिए। फिर 1985–86 के आसपास लघुकथा पर विशेष फोकस किया। तब तक विधा के नाम और आकार से जुड़ी बहस थम चुकी थी। तब से वे अन्य माध्यमों के साथ–साथ लघुकथाओं के सृजन को भी बेहद संजीदगी और निष्ठा से लेते आ रहे हैं। उन्होंने तीन उपन्यास, तीन कहानी–संग्रह, तीन नाटक, दो कविता–संग्रह और दो निबन्ध–संग्रहों के साथ पाँच लघुकथा –संग्रह दिए हैं। वे महज बन्द कमरों में बैठकर रचना करनेवाले लेखक नहीं हैं। उन्होंने जीवन के ऊबड़–खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए जो भी देखा–भोगा है, उसे लघुकथाओं के जरिए साकार कर दिखाया है। लघुकथा के क्षेत्र में उनके द्वारा प्रणीत संचयन–उच्छ्वास,फूलोंवाली दूब,गरम रेत, जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई और पड़ाव के आगे –पर्याप्त चर्चित और प्रशंसित रहे हैं।
लघुकथा के क्षेत्र में फामूर्लाबद्ध लेखन बड़ी सीमा के रूप में दिखाई दे रहा है, वहीं युगलजी उसे निरन्तर नया रूपाकार देते आ रहे हैं। उनकी लघुकथाओं में इस विधा को हाशिए में कैद होने से बचाने की बेचैनी साफ तौर पर देखी जा सकती है। उनकी लघुकथा में प्रतीयमान अर्थ की महत्ता निरन्तर बनी हुई है। भरतीय साहित्यशास्त्र में ध्वनि को काव्यात्मा के रूप में प्रतिष्ठित करने के पीछे ध्वनिवादियों की गहरी दृष्टि रही है। वे जानते थे कि शब्द का वही अर्थ नहीं होता है ,जो सामान्य तौर पर हम देखते–समझते हैं। साहित्य में निहित ध्वनि तत्त्व तो घण्टा अनुरणन रूप है, जिसका बाद तक प्रभाव बना रहता है। अर्थ की इस ध्वन्यात्मकता को युगलजी ने अनायास ही साध लिया है। उनकी अनेक लघुकथाएँ इस बात का साक्ष्य देती हैं।
युगलजी की निगाहें कथित आधुनिक सभ्यता में मानव–मूल्यों के क्षरण पर निरन्तर बनी रही हैं। इसी परिवेश में कथित सभ्य समाज के अन्दर बैठे आदिम मनोभावों को उनकी लघुकथा ‘जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई’ पैनेपन के साथ प्रत्यक्ष करती है। मेले में खबर उड़ती है कि द्रौपदी चीरहरण खेल में द्रौपदी की भूमिका में युवा पंचमबाई उतरेंगी और दुशासन द्वारा उसका चीरहरण यथार्थ रूप में मंचित होगा। किन्तु वहाँ जुटे दर्शक जरूर नग्न हो जाते हैं। कभी मेलों–ठेलों में दिखाई देनेवाली यह आदिम मनोवृत्तिा आज के दौर में भी निरन्तर बनी हुई है।
पारिवारिक सम्बन्धों का छीजना युगलजी को अन्दर तक झकझोर देता है। उनकी लघुकथा ‘विस्थापन’ रेलू वातावरण में दिवंगतों की तसवीरों के विस्थापन के बरअक्स इन्सानी रिश्तों के विस्थपन की त्रासदी को जीवन्त कर देती है। एक और लघुकथा ‘तीर्थयात्रा’ में माँ की यह यात्रा अन्तिम यात्रा में बदल जाती है, किन्तु बेटा संवेदनशून्य बना रहता है।
युगलजी ने जनतन्त्र में बदल जाने की विडम्बना को अपनी कई लघुकथाओं का विषय बनाया है। ‘जनतन्त्र’, शीर्षक रचना पब्लिक स्कूल में समाज अध्ययन की कक्षा में पढ़ते बच्चों के साथ शिक्षक के संवादों के जरिए हमारे सामने गहरा प्रश्न छोड़ जाती है कि क्या हम आजादी के दशकों बाद भी राजतन्त्र से इंचभर दूर आ पाए हैं? चेहरे बदल गए हैं, किन्तु सत्ता का चरित्र जस का तस बना हुआ है।
बागड़ ही जब खेत को खाने लगे तो आस किससे की जाए? इस बात को वे पैनेपन के साथ उभारते हैं। ‘आश्रय’ शीर्षक लघुकथा में बलात्कृत को सुरक्षित आश्रम में रख दिया जाता है, किन्तु वह वहाँ भी महफूज नहीं रह पाती है। अन्तत: आश्रय–स्थल ही उसका मृत्यु–स्थल सिद्ध होता है। उनकी एक और लघुकथा ‘पुलिस’ रक्षकों के ही भक्षक बन जाने की भयावह स्थिति का बयान है।
उनकी ‘पेट की कछुआ’ एक अलग अन्दाज की चर्चित लघुकथा है, जहाँ लेखक की आँखों देखी घटना, रचना का कलेवर लेकर आती है। बन्ने के बेटे के पेट में कछुआ है। उसके इलाज के लिए पहले तो उसके पिता चन्दा जुटाने के लिए तत्पर हो जाते हैं, फिर यही कार्य व्यवसाय बन जाता है। बेटे के पेट के कछुए से पिता के पेट की भूख का कछुआ जीत जाता है।
उनकी लघुकथाएँ सर्वव्यापी साम्प्रदायिकता पर तीखा प्रहार करती हैं। ‘मुर्दे’ शीर्षक लघुकथा में मुर्दार में रखे मुर्दे भी कौम की बात करते दिखाए गए हैं। वहीं पर आया एक समाजसेवी भी अपनी कौम को ध्यान में रखे हुए है, फिर किसकी बात की जाए? एक गहरा प्रश्न युगलजी छोड़ जाते हैं। ‘नामान्तरण’ लघुकथा में लेखक ने मानवीय सम्बन्धों के बीच धर्म के बढ़ते हस्तक्षेप को बड़ी शिद्दत से उभारा है। अन्ध धार्मिकता के प्रसार के बावजूद युगलजी समाज के उन हिस्सों की ओर भी संकेत करते हैं, जहाँ अब भी सम्भावनाएँ शेष हैं। ‘कर्फ़्यू की वह रात’ इसी प्रकार की लघुकथा है, जहाँ एक माँ धर्म या जाति के नाम पर जारी भेदों को निस्तेज कर देती है।
युगलजी लघुकथाओं में निरन्तर नए प्रयोग करते आ रहे हैं। उन्होंने प्रारम्भिक दौर में प्रतीक,मिथक आदि को लेकर महवपूर्ण कार्य किया, जो धीरे–धीरे ट्रेण्ड बन गया। उनके यहाँ पूर्वांचल की स्थानीयता का चटक रंग यहाँ–वहाँ उभरता हुआ दिखाई देता है, वहीं वे सहज, किन्तुं बेहद गहरे प्रतीकों की योजना से बरबस ही हमारा ध्यान खींच लेते हैं। युगलजी मानते हैं कि लघुकथा विचार,दृष्टि और प्रेरणा के सम्प्रेषण में एक तराशी हुई विधा है। यही तराश उनकी लघुकथाओं की शक्ति है और उन्हें इस सृजनधारा में विलक्षण बनाती है।
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फामूर्लाबद्ध लेखन से परे युगल की समर्थ लघुकथाएँ
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