लघुकथा और कहानी में पर्याप्त अन्तर है। यह अंग्रेजी साहित्य के आधार पर हिन्दी में विकसित हुई विधा है–केवल यही बात नहीं है। असल में, मुझे लगता है कि लघुकथा प्रतीकात्मक शैली में गम्भीर संवेदना को व्यक्त करनेवाली छोटी कहानी होती है जिसे हम प्रसंग के रूप में इधर–उधर सुनते–सुनाते रहते हैं। तमाम बोधकथाएँ ,जातककथाएँ लघुकथा के ही रूप में हमारे समाज में सदियों से चर्चित और चिति की जाती रही हैं। हिन्दी कविता में जैसे दोहा कविता की लघुतम इकाई है लेकिन उसका अर्थगाम्भीर्य और महत्त्व किसी से छिपा नहीं है; उसी प्रकार लघुकथा के अपने महत्त्वऔर सौन्दर्य को रेखांकित किया जाना चाहिए। अत: जैसे दोहा, सोरठा जैसे लघु छन्द गीत या लम्बी कविता से भिन्न काव्य विधाएँ हैं उसी प्रकार मैं लघुकथा को कहानी से भिन्न मानता हूँ । दोनों की ही पाठ्य–शैली और प्रयोजनीयता भी भिन्न कही जा सकती है। यह मेरी व्यक्तिगत मान्यता है, बड़े समर्थ आलोचक लघुकथा को साहित्य के किस खाने में रखते हैं, यह मैं नहीं जानता।
फिलहाल, यहाँ मैं वरिष्ठ कथकार चित्रा मुद्गल की ग्यारह लघुकथाओं की सौन्दर्य–चर्चा कर रहा हूँ। हिन्दी कथा लेखिकाओं में चित्राजी ने निश्चित तौर पर अपना स्थान बनाया है। इनकी कहानियाँ संवेदना की सन बुनावट के कारण मर्म पर सीधे प्रहार करती हैं और पाठक अनिर्वचनीयता को प्राप्त हो जाता है। वे स्त्री–मन की सन चित्रशिल्पी हैं किन्तु उनकी कहानियों में नारीवादी शोर या नगाड़ा बजता नहीं दिखाई देता। उनके पात्र संवेदना के बहुरंगी स्वेटर पहने हुए मिलते हैं जिन्हें लेखिका तसल्ली से सिलाई–दर–सिलाई स्वयं बुनती हैं। ‘आवाँ’ उनका बहुचर्चित उपन्यास है जिसमें स्त्री विमर्श की नैसर्गिक आँच यहाँ इन लघुकथाओं में भी महसूस की जा सकती है। यहाँ इस आलेख में जिन लघुकथाओं की चर्चा कर रहा हूँ वे क्रमश:–दूध, गरीब की माँ, बयान, बाजार, बोहनी,प्राथमिकता, मानदण्ड, व्यावहारिकता, नसीहत, मर्द और राक्षस हैं।
‘दूध’ में लेखिका ने बेटी के हिस्से के दूध पर गम्भीर सवाल उठाया है। वस्तुस्थिति तो यह है कि घर की बड़ी–बूढ़ी भी पुरुषवादी मानसिकता की एजेण्ट के तौर पर काम करती हैं तो बेटी के हिस्से का दूध उसे कैसे मिल सकता है? कमोबेश हमारे गाँव –जवार में अभी तक बेटियों का हिस्सा भाइयों (मर्दों) में ही बाँटा जा रहा है। लेखिका के शब्दों में–‘क्योंकि वे मर्द है।’ विशेष बात यह है कि चित्राजी जिस दूध का रंग–गन्ध–रूप आदि का विवरण देती हैं वह हमारे भारतीय लोकजीवन की अन्यतम झाँकी है। ‘गोबर लिपे कच्चे फर्श पर गुलाबी दूध चारों ओर फैल जाता है’’–यह दूध की हाँडी और गुलाबी दूध अब तो शायद हमारे जीवन का सुवासित अतीत ही कहा जाएगा। दूसरी ओर उस लाल मोटी मलाईवाले दूध पर पहला हक तब भी बेटी का नहीं था ,जिसकी गन्ध उसे बौरा देती है। आज भी उपभोग की किसी सुन्दर वस्तु पर शायद बेटी का पहला हक नहीं है। यदि किसी लड़की ने ऐसी कोई पहल की भी तो सब गोबर में मिला दिया गया अन्यथा डर के मारे स्वयं ही उसका हक और उसके हिस्से को नैसर्गिक चीज भी मिट्टी में मिल गई। अन्तिम सवाल, जो लड़की अपनी माँ से पूछती है, सारी स्त्री जाति को गम्मीर विमर्श के लिए आन्दोलित कर जाता है–‘‘तो मेरे हिस्से का छातियों का दूध भी क्या घर के मर्दों को पिला दिया था?’’
दूसरी लघुकथा ‘गरीब की माँ’ किसी मुम्बइया खोली की कहानी लगती है। गरीबों के पास घर नहीं होता; वो र के नाम पर किराए की खोली होती है। मलप्पा की गरीबी उसके झूठ और नाटक की चाभी है। मलप्पा गरीब होने के साथ ही सीधा भी है जो बार–बार सेठानी से उधारी लेता है। किराया न चुका पाने पर अपनी माँ के कई बार मरने का बहाना बनाता है। शायद गरीब की माँ होती ही इसलिए है कि उसे मारकर भी यदि कोई काम बनता है तो बना लिया जाए। सेठानी मलप्पा के झूठे बहाने का मर्म भी शायद जानती है इसीलिए वह बार–बार उसे मौके देती है। सेठानीको मालूम है कि कभी–न–कभी तो मलप्पा उसका कर्ज चुकाएगा ही ;क्योंकि इसके अलावा उसके सामने कोई रास्ता नहीं है। मराठी जीवन का रंग और वर्ग–चेतना का स्वर इस रचना को चमकदार बनाते हैं।
‘बयान’ में हमारे समाज में लगातार हो रहे स्त्री–देह शोषण और अत्याचार की मार्मिक पीड़ा व्यक्त हुई है। दंगाई चाहे जैसे रहे हों, वो खूबसूरत स्त्रियों का बलात्कार करके अपनी खीझ मिटाना कभी नहीं भूलते। खूबसूरत लड़की इनके लिए लूटी जानेवाली तिजोरी जैसी होती है। दंगा या साम्प्रदायिक उन्माद चाहे जिस शक्ल में उभरे, उसकी असल मर्मान्तक पीड़ा उस समाज की लड़कियाँ/बहुएँ/बेटियाँ ही जानती हैं। वर्दीवाले पहले तो समय आत नहीं, फिर आकर गघावों को कुरेदने का काम करते हैं; लेकिन जब कोई पूछ बैठता है कि वह बलात्कार की गई लड़की क्या तुम्हारे घर में नहीं है? अर्थात लड़की की जात तो एक ही है। दूसरी ओर ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर पुलिसवाले का रवैया कितना निर्मम और अमानवीय होता है यह भी काबिले गौर है। जब अपने पर आती है तो सबको साँप सूँ जाता है। लघुकथा यह भी संकेत करती है कि जब सहमी और डरी हुई औरत खुलकर बोलने पर आती है तो बड़े–बड़े वर्दीधारी भी नि:शब्द हो जाते हैं।
चौथी लघुकथा ‘बाजार’ है। नर्सिग होम का उद्घाटन होना है जिसमें सब परिवारीजन उसके नामकरण और उद्घाटनकार्त्ता का नाम तय करने में लगे हैं। सबको वाजिब दाम में इलाज देना उनका लक्ष्य नहीं है। एक सदस्य द्वारा मदर टेरेसा का नाम सुझाने पर दूसरे की प्रतिक्रिया गौरतलब है-‘‘हो चुकी भीड़ इकट्ठी ! कोढ़ी घिसटते–रिरियाते नजर आएँगे गेट के भीतर।’’ तात्पर्य यह कि वे नर्सिग होम खोल रहे हैं ,कोई चैरिटी होम नहीं। किसी ने सुझाया–‘धन्वन्तरि नर्सिग होम’ नाम होना चाहिए; तो डॉक्टर साहब की प्रतिक्रिया आई–‘‘किसी वैद्य की उखड़ी दुकान जैसा।’’ अर्थात् मेडिकल लाइन में मदर टैरेसा या धन्वन्तरि का क्या काम? फिर जब डॉक्टर की पत्नी तिरुपति बालाजी नर्सिंग होम का सुझाव देती हैं ,तो उसे सब स्वीकार कर लेते हैं। व्यापार आस्था की सौदेबाजी से भी चलता है–यह संकेत लेखिका देना चाहती हैं कि–‘‘नाम ऐसा हो, जो अपने आपमें विश्वास और आस्था का प्रतीक हो जाए।’’
लघुकथा ‘बोहनी’ में लेखिका अपने जीवन का ही संस्मरण प्रस्तुत करती–सी लगती हैं। यह कहानी भी मुम्बई के सान्ताक्रुज स्टेशन के पास, पुल के ऊपर बैठे एक भिखारी की है। तमाम गरीबी हटाओ आन्दोलनों के बाद आज तक हम गरीबों कों भरपेट भोजन और वस्त्र दे पाने में सफल नहीं हुए हैं। लेखिका को रोज चर्चगेट के लिए आठ बीस की ट्रेन पकड़नी होती थी। पुल पार करते समय वह किसी भिखारी को रोज पाँच या दस का सिक्का दे ही देती थी। एक दिन उसके पास छोटा सिक्का नहीं था और वह बिना भीख दिए ही निकल गई। दूसरे दिन जब वो पुन: भीख दिए बिना ही जाने लगी तो भिखारी ‘‘ माँ मेरी माँ!’’ कहकर चिल्लाने लगा। लेखिका ने उसे डाँटा, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो? तुम्हारी देनदार हूँ क्या?’’ वो बोला, ‘‘तुम्हारे हाथ से रोज बोहनी होती न, तो शाम तलक पेट भरने भर का को मिल जाता….तीन दिन से भुक्का है मेरी माँ!’’ तात्पर्य यह है कि भिखारियों की अपनी दुनिया होती है और उनके भी शुभ–अशुभ संकेत होते हैं। उनके धन्धे में भी अच्छी और बुरी ‘बोहनी’ का महत्त्व होता है।
‘प्राथमिकता’ में मामी के आर्थिक स्तर और वैभव के कालीन पर गिरे झाबे के फूल को उठाने (साफ करने) की प्राथमिकता तमाम रिश्तेदारी की संवेदना पर भारी पड़ती है। देश–विदेश में रह रहे तमाम नवधनाड्यों में ऐसे विकार खूब देखने को मिल जाते हैं। मामी को उमेश का उसके घर आना अच्छा नहीं लगा। वो जता देना चाहती है कि इस रिश्ते से कहीं ऊपर है फर्श पर बिछा महँगा कालीन। उमेश–जैसे किसी गँवार की औकात नहीं है कि उस पर पैर रखे। यह संकेत मामी घर के नौकर को भी देती है कि वो अपने लिए भी प्राथमिकता तय कर ले।
लघुकथा ‘मापदंड’ असल में हमारे जीवन के दोहरे मानदण्ड को रेखांकित करती है। महानगरीय मध्य वर्ग के लोगों में यह दोहरापन सर्वाधिक सशक्त रूप में देखा जाता है। मालकिन कामवाली बाई को पहले अपने ही स्वार्थवश, उसे कपड़े धोने के लिए अपने नहानर के प्रयोग की इजाजत दे देती है ,ताकि वह समय पर मालकिन का चौका–बासन निबटा सके। कामवाली रोज अपने घर के गन्दे कपड़ों की गठरी लेकर आने लगी तब उसे बुरा लगा और एक दिन उसने छूआछूत के बहाने उसे मना कर दिया। मालकिन की बेटी ने पूछा, ‘‘एक बात बताओ माँ, छूत आदमी से ज्यादा लगती है या कपड़े–लत्ते से?’’ मालकिन जानती है कि कामवालियाँ आसानी से नहीं मिलतीं। कामवाली की आधी कमर पर दाद है। मालकिन को उससे छूत का डर नहीं है। ‘मानदंड’ वही सही लगा है, जिसमें हमारा स्वार्थ सिद्ध होता है।
आम मध्य वर्ग की बस्तियों में पुराने कपड़ों के बदले प्लास्टिक या स्टील के बर्तन आदि बेचनेवाले फेरी लगाते रहते हैं। हमारे घरों की सुगृहिणियाँ अक्सर अपनी गिरस्ती के सामान इसी प्रकार जुटा लेती हैं। लेखिका ने अपने पुराने कपड़ों की गठरी गरीब समझकर अपनी कामवाली को दे दी थी। जबकि आम तौर पर महिलाएँ पुराने कपड़े जोड़कर रखती हैं और फेरीवालों से उनके बदले में बर्तन आदि सामान ले लेती है। अपनी पड़ोसन मिसेज पाण्डेय को भी वो यही दान का उपदेश दे रही थी; लेकिन अचानक फेरीवाले के पास अपने कपड़ों की गठरी देखकर उसे ‘व्यावहारिकता’ का ज्ञान हुआ। जो बिक सकता है ,उसे बेच लेने में ही फायदा है। यही व्यवहार बुद्धि है।
‘नसीहत’ में पत्रकार किस्म की एक कामगार महिला भीख माँगनेवाले खुद्दार लड़के को देखकर उसे नसीहत शुरू करती है कि –भीख माँगना अच्छी बात नहीं, कहीं काम–धन्धा कर ले, आदि। लड़का जब कहता है–‘‘अपुन को काम पर रख लो न?’’ तो महिला बहाने बनाने लगती है और अन्त में उसे पाँच रुपए देकर कुछ काम–धन्धा करने की नसीहत देने लगती है। लड़का उससे कहता है–‘‘भीख दो न मेम साब भीख। दस पैसा– पाँच पैसा….सीख क्यों देता है?’’ असल में पत्रकार भी अक्सर गरीब की मूल चेतना तक नहीं पहुँच पाते।
‘मर्द’ स्त्री विमर्श की बेहतरीन रचना है। ‘दारू पी के मरद मरद नहीं रहता।’’ सचमुच पुरुष अपने अधिकार जताने के लिए और स्त्री को अपने प्रति वफादार रखने के लिए हर प्रकार की हिंसा से काम लेता है। प्रकारान्तर से लेखिका कहना चाहती है कि प्राय: मर्द यौन सम्बन्धों को लेकर नामरद जैसा आचरण करता है और वह अपनी ही पत्नी का सिर फोड़ देता है। यह किसी एक निम्न–मध्य वर्ग की औरत की कहानी नहीं है। अपनी औरत पर ाक करने वाले लोग सभी वर्ग और जातियों में पाए जाते हैं। अपढ़ और कुपढ़ किसी भी समाज में पाए जाते हैं।
‘राक्षस’ आम जीवन में दोहरे चरित्र को रेखांकित करती लघुकथा है। जिस शराब पीने को लेकर एक पिता अपने बेटे को राक्षस कहकर अपने घर से बाहर निकाल देता है, वही अपने बॉस के स्वागत के लिए दूसरे छोटे बेटे से शराब मँगवाता है। बबलू जब बॉस को ‘राक्षस’ कहता है तो बाबूजी बबलू के चाँटा जड़ते हुए कहते हैं–‘‘अबे उल्लू के पट्ठे, राक्षस कहता है उन्हें? अरे वो हमारे बॉस हैं, बॉस! हमारे अन्नदाता हैं।’’ बॉस को शराब परोसना उनके लिए सम्मान की बात है।
असल में विसंगतियाँ ही संवेदना के मार्मिक शिल्प में ढलकर कथा का रूप लेती हैं। चित्राजी के पास अवधी–मराठी–हिन्दी भाषा और जीवन –व्यवहार का गहन अनुभव है। ये लघुकथाएँ स्वयं ही बन गई हैं, सायास नहीं लिखी गई। इनमें चुटकुलेबाजी वाली सस्ती लोकप्रियता नहीं हैं; बल्कि ये सभी ग्यारह लघुकथाएँ कहीं–न–कहीं मनुष्यता की गहरी पड़ताल और दैनन्दिन जीवन की समस्याओं से उभरी हैं। यह संयोग ही है कि मर्द, दूध, बयान, बोहनी, मानदण्ड, व्यावहारिकता, नसीहत और प्राथमिकता में अनेक प्रकार के स्त्री पात्रों की संघर्ष चेतना और व्यवहार बुद्धि का बखूबी वित्रण किया गया है। स्त्री–मन की सहज चित्रकार तो चित्राजी है ही; उनकी ये लघुकथाएँ गहरे सामाजिक सरोकारों की सूक्ष्म छवियाँ हैं।
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सामाजिक सरोकारों की छवियाँ
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