आधुनिक लघुकथाकारों की सबसे सक्रिय पाँत के लघुकथाकार हैं बलराम। उनकी सक्रिय लघुकथा–लेखन तक ही सीमित नहीं है, उसके वृहत् सम्पादन और सौन्दर्यशास्त्र के निर्माण की दिशा में भी वह सक्रिय रहे हैं। यही कारण है कि उनकी लघुकथाओं में उनके समय तक उपलब्ध रचनाकर्म के प्रभाव तो हैं ही, उनसे बाहर निकलने की सर्जनात्मक बेचैनी भी नजर आती है। यहाँ पुरातन लघुकथा के रूप में नया कथ्य अपने ही अन्दाज में प्रवेश करता है।
उदाहरण के लिए ‘आदमी’ शीर्षक लघुकथा जैन,लोक और नीतिकथा के रूप में शरीर लिए अवश्य है, लेकिन यहाँ श्वेताम्बर महात्मा और पृथ्वी के आदमी का अध्ययन करने आए अन्तरिक्ष मानव के संवाद उसे नई संवेदना प्रदान करते हैं। ‘सिर्फ़ आदमी’ की तलाश में निकले अन्तरिक्ष मानव को जब वह कहीं नजर नहीं आता, तो अन्त में तथाकथित सभ्य समाज की कलई खुलने लगती है। यहाँ आदमी होने का दावा करनेवाले को निष्कासित कर दिया जाता है। अन्तर्समुदाय में विवाह कर लेना भ्रष्ट,पापी और नीच हो जाना है। यह सवर्ण समाज की अपनी बनाई तानाशाही व्यवस्था है। अन्तरिक्ष मानव की विस्मयता के साथ लघुकथा सम्पन्न।
पुरातन फार्मेट को उसी भाषा में लेकर चलने का एक खतरा यह भी होता है कि ‘पाप और प्रायश्चित’ जैसी लघुकथा खड़ी हो जाती है। अपवित्र हुई कुमारियों का महाश्रवण से हुआ संवाद का दो–तिहाई भाग एक उम्मीद–सी जगाता है यहाँ । किन्तु तमाम समाधानों के मध्य जब ‘प्यार के प्रमाण’ का सन्दर्भ आता है, तो परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देना प्रमुख हो जाता है। यह अपेक्षित आधुनिक अन्त नहीं है। जो लहराते मातृत्व के भाव को नहीं देख पाता। पुरुष के विवश हो जाने की सजा स्त्री गर्भपात के रूप में क्यों झेले? आज के सिंगल पेरेण्ट के युग में यह नई पीढ़ी के गले नहीं उतरेगा। लेकिन संवाद तकनीक का यहाँ सफल प्रयोग हुआ है जो रचना को र्दी हो जाने के खतरे से बचा लेती है। भाषा में पुरातन कथा का टच और विषयवस्तु में नयापन होने के कारण ये दोनों लघुकथाएँ अपने स्तर पर एक रचना–संघर्ष में फँस जाती हैं। दरअसल, ये उस दौर की रचनाएँ हैं, जब लघुकथा फिर से अपना रूप–स्वरूप बनाने के प्रयासों में लगी थी, लेकिन रह–रहकर खलील जिब्रान, विष्णु प्रभाकर या रामनारायण उपाध्याय के लघुकथा लोक से प्रभावित भी हुए जा रही थी।
इससे बाहर निकलने का रास्ता भी इन्हीं रचनाकारों ने निकाला। बलराम की कतिपय लघुकथाएँ ऐसी हैं, जहाँ विचार से कथा का ढाँचा खड़ा है। ‘मशाल और मशाल’ ऐसी रचनाओं में एक है। यहाँ एक वैज्ञानिक और धार्मिक,वादी व सम्प्रदायी के बीच का संवाद–संर्ष है जिसमें विचार क्रमश: इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ‘रोशनी’ को न पढ़ पाने के कारण ही आपसी संर्ष आकार लेता हैं भिन्न विचारों के बीच ‘रोष’ आ जाता है। यही है दंगों, खून और आपसी वैमनस्य का कारण। मनुष्य इसे समझ नहीं पा रहा, यही वैज्ञानिक समझाना चाहता है कि आखिर ये संर्ष किसलिए किया जा रहा है? रची और गढ़ी हुई लघुकथा का अन्तर यहाँ स्वत: स्पष्ट हो जाता है। यह अकेले बलराम की नहीं, उनकी पीढ़ी के प्राय: अनेक प्रमुख कथाकारों की लघुकथाओं में नजर आता है। विचार का रचनात्मक आकार लेने की प्रक्रिया और नई विधा में उसे गढ़ने के संर्ष का परिणाम है यह। यह निष्कर्ष तो थमा देता है, लेकिन सामाजिक विकास की प्रक्रिया पर खामोश रहता है।
ग्रामीण जीवन के अनुभव और ाहर के जीवन के साथ उनके सीधे संर्ष और टकरावों को बलराम अपनी लघुकथाओं में सर्वाधिक प्रभावशाली ढंग से सामने रखते हैं। यहाँ ‘मृगजल’ के जरिए बी ए कर रहे किशन के शहरी ठाठ–बाट व गाँव में खट रहे उसके अधेड़ पिता की स्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन भर नहीं है। लेखक उस सपने के प्रति संवेदनशील है जो गाँव में किशन की पढ़ाई को लेकर पाला जा रहा है। एक न एक दिन उसके बड़े आदमी बनने की आकांक्षा गाँव में रह रहे परिवार में तो है, लेकिन खुद किशन का हाल क्या है, यह लघुकथा स्वयं बयान कर जाती है। पाठक सोचे कि आखिर क्यों हो रहा है!
यह ‘क्यों’ ही बलराम की लघुकथाओं का बीज–विचार है। ‘बहू का सवाल’ में यही सामाजिक परिप्रेक्ष्य में साँसत की तरह उठ खड़ा होता है। रम्मू काका को भ्रम है कि बहू के माँ न बन पाने में दोष या कमी भी उसी की है। लेकिन जब बेटे की कमी स्वंय बहू ससुर को बताती है तो यह ‘क्यों’ फिर उठ खड़ा होता है। बेटे को तो दूसरे विवाह की इजाजत या सुविधा है, पर बहू को शारीरिक रूप से योग्य होते हुए भी नहीं। लघुकथा की प्रश्नवाचकता ही उसे बड़ा बना गई है।
‘रफा–दफा’ में यही दूसरे रूप में सामने है। यहाँ समाज की सामन्ती ताकतें किस तरह निम्न तबके को साा के सहयोग से दबाती रहती हैं, यह राज खुलता है। हरिजन के साथ ज्यादती सच है, लेकिन उसे विरूपित करने में समर्थ लोगों को महारत हासिल है। वे कलुवा को ही फँसा देते हैं और कथा का अन्त बताता है कि कैसे पुलिस को ले–देकर मामला रफा–दफा कर दिया गया। सत्ता,षड्यन्त्र और शोषण का यह अनवरत सिलसिला ग्रामीण जीवन के सर्वहारा के लिए कैसे दीमक बन गया है, यह लघुकथा में बड़ी खूबसूरती से खुलता है।
‘माध्यम’ इसी का दूसरा रूप है। यहाँ यह सत्य खुलता है कि गाँव के चौधरी के सामने दिनुवा की मर्जी, विवशता या व्यस्तता का कोई अर्थ नहीं है। उसे हर हाल में चौधरी को खुश रखना जरूरी है। नहीं तो चौधरी क्या सचान बाबू तक उसकी तरफ से नजरें फेर लेंगे। साधनहीन के जीवन की डोर सामर्थ्यवान के हाथों में ही रहती है। अपने नातिदीर्घ स्वरूप में यह लघुकथा अपनी बात रख जाती है। शहरी जीवन, सम्बन्धों में संघर्ष और रचना व रचनावस्तु के साथ रचनाकार के सम्बन्ध को भी बलराम ने अपनी लघुकथाओं में बखूबी उकेरा है।
‘फन्दे और फन्दे’ में स्त्री और पुरुष के बीच के तनाव को अलग ही तरह से सामने रखा गया है। स्त्री का पक्ष यहाँ सहानुभूति पाते हुए पुरुष पक्ष को सचेत करते हुए लघुकथा नई जटिलता सामने रखती है। सीधे,सधे स्वर में नायिका के शब्द कथा का संजाल खड़ा करते हैं और मनुष्य जीवन के फन्दे सामने हो जाते हैं। यह स्थिति आधारित रचना है जहाँ पुरुष की विनम्र आलोचना का सटीक भाव है।
समय के साथ बेटी कैसे पिता की बेटी जगह पति की पत्नी बन जाती है, यह ‘बेटी की समझ’ में प्रस्तुत है। यह भारतीय स्त्री का पारम्परिक रूप है, जो उसे दिया तो पुरुष सत्ता में खोट नजर आने लगता है। बदलते सम्बन्धों की परख खूब है बलराम को। दूसरे रूप में, यही महानगरीय जीवन में ‘अपने लोग’ की परख है। घटना कथ्य का रूप जरूर लग सकती है। लेकिन ऐसा है नहीं। यहाँ अपने मित्रों से कहीं करीब वह पड़ोसी किराएदार काम आता दिखता है जो महीनेभर की तनखाह मदद के लिए लाकर सामने रख देता है, सहज भाव से। ऐसे चरित्र महानगरीय जीवन में अजूबे की तरह लग सकते हैं, लेकिन होते जरूर हैं।
लेखकों के जीवन में ढोंग का पर्दाफाश करती लघुकथा है– ‘खाली पेट’। यहाँ आम आदमी को रचना में वस्तु बनानेवालों की सच्चाई एक तरफ है और आम आदमी के साथ उनका एटीट्यूड दूसरी तरफ। अच्छी बात यह है कि रचना यह संकेत दे जाती है कि आम आदमी इस सच को समझ रहा है। अपने प्रभाव में यह एक बड़ी रचना है। यहाँ आत्मालोचना भी है और वस्तुस्थिति को सामने रखने का साहस भी।
यदि गौर से देखें तो ये उस लघुकथाकार की रचनाएँ हैं,जो लघुकथा का इतिहास भी लिखता रहा और उसे सम्पादित और संरक्षित भी करता रहा। रचना के स्तर पर बहुविध आधुनिक ऐसे प्रयोग स्वयं न कर सका जहाँ वह नए विकास के चरण पर पहुँचती। जहाँ कविता के तव लघुकथा में प्रवेश करते नजर आते और बात कहने की नई कहन भी। लेकिन इन लघुकथाओं का अपने समय के लिहाज से एक ऐतिहासिक महत्त्व अवश्य है।
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बलराम की लघुकथाएँ
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