कुछ रचनाकार समय के साथ नहीं चलते ; समय से आगे चलते हैं या पीछे । पारस दासोत समय से आगे चलने वाले रचनाकार है । यह रचनाकार अवरोध –विरोध की ओर आँख उठाकर नहीं देखता । इसे चलने से मतलब है । पाठक इसकी रचना को सराहें या आलोचना करें , यह चिन्ता
‘‘—क्या किन्नरों को समझने के लिए … बहुत बड़ा आदमी बनना पड़ता है ?’
“हाँ बेटे !”
रास्ते भर चलती दुआएँ,मैंने गलती नहीं की, एक खिलौना और-जैसी कई लघुकथाएँ हैं; जो द्रवित किए बिना नहीं रहती हैं।
‘मेरी मानवेतर लघुकथाएँ’( फ़रवरी 1982-जनवरी 2010) की अवधि में लिखी लघुकथाओं का संग्रह है । मानवेतर पात्रों का निर्वाह कठिन कार्य है । लेखक को इसमें ज़्यादा सफलता नहीं मिली , फिर भी कुछ लघुकथाएँ सहज रूप में कथ्य का निर्वाह करती हैं , जिनमें कुर्सी और कौआ, सत्ता का मन्त्र,उपवास, कठौती में गंगा प्रमुख हैं।
‘मेरी आलंकारिक लघुकथाएँ’( 2014) की भूमिका में पारस दासोत ने कहा है-‘लघुकथा लघु आकारीय होने के कारण उसमें अलंकार, रचना-प्रक्रिया के साथ, रचना में स्वत: ही उतरते हैं।’ इस कथन से किसी हद तक सहमत हुआ जा सकता है। प्रयोग करने की अपनी प्रवृत्ति को इन्होंने इसी पुस्तक की भूमिका में स्वीकार किया है –‘प्रयोग करने की अपनी आदत के कारण सीमा–रेखाओं को लाँघता रहा हूँ।’ ‘भुखमुआ’, झण्डा, ‘पेट’ , ‘क्रान्ति के बाद’,’अपराध का गणित’, ‘दो टुकड़े’ लघुकथाएँ तराशे हुए कथ्य के कारण बहुत गहराई तक वार करती हैं।सीमाओं को भले ही लाँघा हो , लेकिन पाठक के विश्वास को इन लघुकथाओं में लेखक ने कायम रखा है। फ़रवरी 1991 में लिखी लघुकथा ‘पेट’ वंचित वर्ग की दयनीय स्थिति को बहुत मार्मिकता से व्यंजित करती है । इस लघुकथा को एक लेखक ने अपने नाम से लिखकर पोस्टर भी बना लिया और एक उत्साही साहित्यकार ने सही रचनाकार का नाम जाने बिना भरपूर प्रशंसा भी कर डाली ।‘क्रान्ति के बाद’ लघुकथा राजनीति के बहुआयामी अर्थ का विस्फोट करती नज़र आती है ।
‘मेरी प्रतीकात्मक लघुकथाएँ ,घायल इंकलाब ( अक्तुबर 2014 ) पारस दासोत के देहावसान के बाद प्रकाशित होकर आई । कैंसर से जूझते इस कथाकार की जिजीविषा को नमन । इन्होंने मृत्यु की आहट को साफ़-साफ़ सुन लिया था , फिर भी रचनाकर्म से विरत नहीं हुए। ‘मेरी प्रतीकात्मक लघुकथाएँ में फ़रवरी 1982 –मार्च 2014 तक की लघुकथाएँ हैं ।इनमें कुछ ऐसी भी लघुकथाएँ भी हैं ,जो पूर्ववर्ती विषयकेन्द्रित संग्रहों में आ चुकी हैं।इस संग्रह की बहुत –सी रचनाएँ अपनी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के कारण पाठक के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ने में समर्थ हैं । गिद्धों का झुण्ड, घण्टियाँ , मदारी का खेल ,गुलदस्ते का एक फूल, डनलप का गद्दा , महासुअर, साम्प्रदायिकता और अन्धी आस्था, सामाजिक कुरूपता और न्याय की विडम्बना , समाजसेवा के प्रपंच की ओट में पनपते सुविधा भोगी समाज को बेनक़ाब करती हैं।
‘घायल इंकलाब’ प्रतीकात्मक , अलंकारिक , मानवेतर कई प्रकार की लघुकथाओं का संकलन है। अधिकतर की विषयवस्तु चूहे , बिल्ली और कुत्ते के इर्द-गिर्द घूमती है । इनमें – एक बिल्ली, महादानी, भोजन, नियति के कदम ,ध्यान आकर्षित करने वाली अच्छी लघुकथाएँ हैं।
यह केवल परिचयात्मक टिप्पणी है । पारस दासोत की लघुकथाओं पर विस्तारपूर्वक गम्भीर कार्य करने की आवश्यकता है । लघुकथाकार की जो सामाजिक या राजनैतिक चिन्ताएँ, प्रतिबद्धताएँ हैं , उनकी पहचान और पड़ताल ज़रूरी है; तभी लघुकथाओं के मर्म तक पहुँचा जा सकता है
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पारस दासोत: एक प्रयोगधर्मी लघुकथाकार
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