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Channel: अध्ययन -कक्ष –लघुकथा
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पद्मश्री रामनारायण उपाध्याय से मुकेश शर्मा की बातचीत

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जब तक समीक्षक ईमानदार नहीं होंगे,लघुकथा का समीक्षा–पक्ष पुष्ट नहीं होगा- रामनारायण उपाध्याय

प्रश्न – लघुकथा का साहित्य में क्या स्थान है?
उत्तर – साहित्य में जैसे उपन्यास और कहानी कथा विधा की अलग–अलग विधाएँ हैं वैसे ही लघुकथा भी अब एक स्थापित विधा है। इसके अपने वाह्य तथा अन्तर्साक्ष्य हैं, देश–विदेश में बड़े पैमाने पर पाठक समुदाय हैं, अपनी भाषा है तथा जीवन के यथार्थ को अंकित करने की शक्ति है। यह मानव की संवेदना, उसकी दिक्भ्रमिता, उसके टूटन–बिखराव आदि को प्रस्तुत करने की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर यथार्थवादी कला है। इसकी भाषा में कोई मुलम्मा या मक्खनबाजी नहीं, बल्कि सीधे दिलो–दिमाग पर :तीर लगे गम्भीर चरितार्थ है। कुछ समय पूर्व लोग उपन्यास खरीदते थे, कहानियों का संकलन या कहानी बोधक पत्रिकाएँ खरीदते–पढ़ते हैं –लेकिन अब आम पाठक पत्र–पत्रिकाएँ केवल लघुकथा पढ़ने के लिए खरीदते हैं और यही कारण है–आज प्राय: हर पत्र–पत्रिकाओं के सम्पादक लघुकथा छाप रहे हैं या विशेषांक निकाल रहे हैं।
प्रश्न : लघुकथा के प्रारम्भिक काल पर आपके विचार….?
उत्तर : मेरे विचार से चाहे आदिकाल हो या आधुनिक काल–समाज में सुप्रवृत्ति के लोग अवश्य ही रहे होंगे–दमन, शोषण, उत्पीड़न और अत्याचार अवश्च ही रहे होंगे और इन सबके विरुद्ध शोषितों–पीडि़तों की आवाज भी उठती रही होगी। तो यह भी निश्चित है कि सर्वप्रथम का रूप ही होगा। वेदों, उपनिषदों में भी लघुकथा का समरूप दृष्टांतों का प्रयोग हुआ है–अत: लघुकथा का प्रारम्भिक काल भी वेदों, उपनिषदों का काल होना चाहिए। वैसे काल के अनुसार कहने के ढंग में, असर के अनुरूप भी परिवर्तन होते रहते हैं– उन दिनों
(आदिकाल)उन सामाजिक परिवेशों में उसी तरह की लघुकथा (दृष्टांत) असरदार और ज्यादा बोधगम्य थी–अत: लिखे गए–आज लिखने के ढंग में परिवर्तन हुए हैं–बस।
प्रश्न : पिछले पन्द्रह–बीस वर्षों में लिखी गई काफी लघुकथा ओं में अनेक कमजोरियाँ देखी जा सकती हैं। आप मुख्यत: इन लघुकथाओं में कौन सी कमजोरियाँ पाते हैं?
उत्तर : अब तक करीब दो हजार तीन सौ लघुकथाकारों की रचनाएँ यत्रतत्र देखने को मिली हैं। लेकिन अधिकांश लघुकथाकारों का कथ्य पुलिस तन्त्र, राजनीति और सेक्स के इर्द–गिर्द घूमकर समाप्त हो जाता है–ऐसा शायद इसलिए कि लघुकथा को सबसे सरल और कुछ खिकर रातोंरात लेखक बन जाने का दिवा–स्वप्न पाल लेते हैं,जो लघुकथा विधा को सबसे ज्यादा अहत पहुँचा रहे हैं। लघुकथा जीवन जीने की प्रक्रिया प्रस्तुत करती है–लफ्फाजी नहीं। लघुकथा आम जीवन के सत्य को उजागर करती है–अपवाद को नहीं।
प्रश्न : लघुकथा का मिनी कहानी एवं व्यंग्य से क्या सम्बन्ध है?
उत्तर : लघुकथा साहित्य–सृजन की प्रक्रिया है। लेकिन कुछ प्रतिक्रियावादी सम्पादक स्वनामधन्य लेखक इसे साहित्य में एक आंदोलन समझ न्यूटन के तीसरी–गति–सिद्धान्त की तरह विरोध में कुछ करने की ठान, मिनी कहानी लघु–कहानी, अणु कथा या व्यंग्य कथाग नाम देने लगे। जहाँ तक व्यंग्य का सम्बन्ध है–लघुकथा में कथ्य के अनुरूप अगर व्यंग्य आता है ,तो यह लघुकथा की सामान्य प्रक्रिया हुई–लेकिन लघुकथा में व्यंग्य हो ही–यह गलत है।
प्रश्न : लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर विचार….?
उत्तर : लघुकथा की वर्तमान स्थिति बहुत ही सुदृढ़ है। अब तो यह स्कूल–कॉलेजों के पाठ्यक्रम में शामिल हो गई है। बहुत सारे लोग इस पर शोध कार्य कर चुके हैं तथा कर रहे हैं। कोई भी पत्र–पत्रिका बगैर लघुकथा अधूरी लगती हैं।
प्रश्न : आज इतनी अधिक लघुकथाएँ क्यों लिखी जा रही हैं?
उत्तर : अगर चिंतन युक्त लघुकथाएँ अत्याधिक लिखी जाएँ तो यह विधागत हर्ष का विषय है–लेकिन सत्य ऐसा नहीं है। या तो लघुकथा स्वान्त:सुखाय लिखी जा रही हैं या फिर जैसे–तैसे लिखकर लघुकथाकारों की श्रेणी में अपना नाम दर्ज कर लेना मात्र है। और यही ज्यादा हो रहा है। हमने अपने एक लेख में तो साफ कहा है–आज तुम ( लघुकथाकार ) लघुकथा के लिए चिंतन नहीं करोगे, तो कल लघुकथा भी तुम्हारे लिए चिन्ता नहीं करेगी फिर तो ‘आया राम और गया राम’ होकर रह जाओगे।
प्रश्न : लघुकथा का प्रारूप कैसा होना चाहिए?
उत्तर : चूंकि लघुकथा जीवन के यथार्थ को अंकित करती है अत: यथार्थ में कल्पना का लेप नहीं होना चाहिए । कल्पना से मेरा मालब है -कल्पना में भी यथार्थ की झलक मिलती है ,तो सह्य है, वरना वैसी कल्पना, जीवन के यथार्थ से कोसों दूर हो–लघुकथा के लिए असह्य है। लघुकथा में सर्वथा एक घटना या ज्यादा अनिवार्य हुआ तो दो घटनाओं का कथ्य होना चाहिए, कारण लघुकथा जीवन में घटित किसी क्षणिक घटना को ही विश्लेषित करती है। दो से अधिक घटनाएँ कहानी का रूप ले लेंगी। बिना घटना के लघुकथा नहीं हो सकती हैं। लघुकथा के लिए लघुकथा की भाषा,शैली, आकार और शीर्षक काफी महत्त्वपूर्ण है, जो लघुकथा को लघुकथा की बनाए रखती हैं और लघुकथाकारों को भी इन्हीं पर पुरकश मेहनत करने की जरूरत होती है।
एक बात मैं और कहना चाहूँगा–किसी भी विधा का प्रारूप कभी भी निश्चित नहीं रहा है। समय के अनुसार सामाजिक परिवर्तनों के अनुरूप विधागत प्रारूप में भी बदलाव आता है, आए हैं– जो कल था–वह आज नहीं है और जो आज है, जरूरी नहीं कि कल भी ऐसा ही रहे।
प्रश्न : लघुकथा का आकार क्या हो?
उत्तर : लघुकथा के आकार को लेकर काफी बहसें चली हैं–किसी–किसी ने इसकी शब्द–संख्या तक को निर्धारित कर दिया है– इस सम्बन्ध में मेरा मानना है–कोई भी कथा अपने कथ्य के अनुरूप होती है। कथ्य की माँग के अनुसार कथाकार उसे प्रस्तुत करता है। लघुकथा के लिए कथ्य का चुनाव ही महत् कार्य है–कथ्य चुनाव के बाद उसकी प्रस्तुति स्वयं उसकी माँग के अनुरूप होगी। उसे किसी सीमा में बाँधना उचित नहीं।
प्रश्न : लघुकथा लिखते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर: सर्वप्रथम कथ्य का चुनाव। कथ्य चुनाव भी सार्वजनिक स्तर का होना चाहिए ,ताकि पाठक को लघुकथा पढ़ते समय लगे कि यह हमारी लघुकथा है। भाषा में ओज और कसाव होना चाहिए। एक ही चीज़ की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। प्रस्तुति की शैली आम होनी चाहिए। लघुकथा में समाधान हो–यह जरूरी नहीं हैं। लघुकथा संप्रेषणीयता के साथ–साथ रंजक होनी चाहिए और होनी चाहिए सोद्देश्य। लघुकथा में शीर्षक का अपना एक महत्त्व होता है। अत: शीर्षक देते समय भी काफी सूझ–बूझ जरूरत है।
प्रश्न : वर्तमान में लिख रहे लघुकथा –लेखक मं क्या कमियाँ एवं खूबियाँ है?

उत्तर : बहुत सारे लघुकथा –लेखक, लघुकथा लिखना बहुत सरल और आसान समझ, बिना कथ्य पर परिश्रम किए लघुकथा लिख डालते हैं। नतीजा–वह लघुकथा न होकर चुटकुला या कूड़ेदान की चीज़ बन जाती है। मुख्य कमी कथाकार का चिंतन है। जीवन की अनुभवहीनता है, और वैसे भी बहुत सारे लघुकथाकार हैं जो सही कथ्य का चुनाव कर उसकी प्रस्तुति, उसमें होने वाले संवादों तथा चरम पर काफी परिश्रम कर, सोच–विचार कर रचनाएँ लिखते हैं–निश्चित ही वह लघुकथा हर दृष्टिकोण से उत्तम होती हैं। एक बात मैं और कहना चाहूँगा–लघुकथा के लिए कथ्य की कोई कमी नहीं है–आठवें दशक के उत्तरार्ध और नवें दशक के पूर्वाध के बीच की लघुकथा ओं में प्राय: कथ्य की पुनरावृत्ति–सी होने लगी थी–कारण नवांकुर लघुकथा कार जिसमें उसकी उम्र का कुछ प्रभाव भी शामिल है–घुमा–फिराकर वही सेक्स,पुलिस,राजनीति और वोट–तंत्र पर कथ्य का चुनाव करते थे–लेकिन इधर लघुकथाकारों के कथ्य का फलक बहुत–बहुत बढ़ा है– अब तो मनोविज्ञान,दर्शन,आधुनिकता, वैज्ञानिक प्रगति के साथ–साथ जीवन मूल्यों के संवेदनशील सम्बन्धों में रंचमात्र ह्रास की प्रवृत्ति पर लघुकथा एँ लिखी जा रही है। जो लघुकथा को ऊँचाई प्रदान करने में योगदान कर रहा है।
प्रश्न : लघुकथा के समक्ष आप इन दिनों मुख्यत: कौन–कौन सी समस्याएँ पाते हैं? इन समस्याओं के समाधान क्या हैं?
उत्तर : मैंने अपने एक लेख ‘लघुकथा की आत्म कहानी’ में लिखा है–मुझे नया परिवेश मिला, नई शैली मिली, नये आयाम मिले, नई चेतना मिली और मैं (लघुकथा ) यथार्थ के धरातल पर अनवरत गति से आगे और आगे बढ़ने लगी। लेकिन जब कोई भी बहुत–बहुत आगे बढ़े लगता है, तो कुछ जलनशील प्रतिक्रियावादी ताकतें न्यूटन की तीसरी गति की तरह उसके पीछे चिपट जाती है। मुझे (लघुकथा को) भी उन्होंने अपवाद में नहीं छोड़ा। हालांकि मेरे (लघुकथा ) स्रष्टाओं की कमी नहीं है–अब तक करीब 2310 स्रष्टाओं ने यत्र–तत्र मुझे जन्म दिया और उपयोग किया– लेकिन दुख है ज्यादातर मेरे स्रष्टाओं ने प्रसव–पीड़ा को नहीं झेला। ताबड़–तोड़ जनने की प्रक्रिया में, मेरे जनक कहलनाने की आकांक्षा में कहीं नकहीं मैं कमजोर और अपंग बन गई।…..मेरे स्रष्टाओं ने ही परस्पर विरोधी वक्तव्य देकर मुझे (लघुकथा ) विवादों के घेरे में घर से निकाल चौराहे पर घसीटा है!….काश! मेरे सब समीक्षक शुद्ध और ईमानदार होते…….।
जरूरत है–अनर्गल लघुकथा को विवादों के घेरे में न घसीटा जाए। जरूरत है लघुकथाकारों को, लघुकथा की प्रसव पीड़ा झेलने की।
प्रश्न : एक स्वस्थ लघुकथा के क्या मापदण्ड हो सकते हैं?
उत्तर : मेरी समझ से स्वस्थ लघुकथा के लिए कोई भी मानक, मापदण्ड या रचना सिद्धांत तय करना लघुकथा विधा के लिए भ्रामक और अहितकर बात होगी। कोई भी मानक,मापदण्ड या सिद्धांत उसकी रचनाओं से होता है, न कि मान तैयार कर रचनाएँ लिखी जाएँ । हाँ, किसी भी लघुकथा के लिए उसका प्रभाव, उनकी संप्रेषणीयता एवं उसका उद्देश्य साफ होना चाहिए–निश्चित वह लघुकथा अच्छी लघुकथा होगी।
प्रश्न : क्या किसी भी विधा की उन्नति के लिए आंदोलन जरूरी है? लघुकथा आंदोलन के लिए आपके विचार….।
उत्तर : समय एवं परिस्थिति के अनुरूप समाजिक परिवर्तन होते रहते हैं– परिवर्तन संसारिक प्रक्रिया के अनिवार्य अंग हैं। परिवर्तन के अनुरूप शनै–शनै हर क्षेत्र में कुछ न कुछ नयापन आता रहता है। साहित्य में परिवर्तन का असर ज्यादा साफ दीखता और पड़ता है। सृजन–प्रक्रिया भी उसी परिवर्तन के अनुरूप बदलती रहती है–लघुकथा भी एक सृजन– प्रक्रिया है– यह कोई आन्दोलन नहीं है। हां, कोई भी परिवर्तन की प्रक्रिया आन्दोलन का रूप तब लेती है, जब उसके विरोध में कोई अन्य विरोधी दल सक्रिय होता है। विधा की उन्नति के लिए आन्दोलन की बजाय उस पर ईमानदारी से काम करना, समझदारी से सृजन करना जरूरी है।
प्रश्न : क्या किसी भी विधा को पुष्ट करने के लिए उसकी समीक्षा होनी आवश्यक है?
उत्तर :समीक्षा, पाठक की रुचि का, समाज के हित का ध्यान रखकर, सर्जकों को एक सही दिशा निर्देश करती है। समीक्षा, पाठक और सर्जक के बीच का सेतु होती है। सर्जना और समीक्षा का संयोग लाजिमी है–लेकिन सर्जना के अनुरूप समीक्षा हो तब। वैसे पाठक वर्ग से बड़ा कोई समीक्षक नहीं होता है। किसी भी विधा को पुष्ट करने के लिए उसकी समीक्षा होना पहली शर्त नहीं हैं। कई आवश्यक अंगों में एक अंग यह भी है।
प्रश्न : लघुकथा की ओर समीक्षकों के आकृष्ट न होने के कारण….?
उत्तर : किसी भी नई विधा का जीवन–वृत्त,उसके सृदृढ़ भविष्य निर्धारण का वर्तमान में साफ अवलोकनार्थ चित्र जब तक नहीं बन जाता– कोई भी उच्च कोटि के समीक्षक के लिए उस विधा पर कुछ कहना–स्वयं समीक्षक को एक खतरे के घेरे में रखना है। चूंकि वर्तमान में लिखी जा रही लघुकथा का भविष्य अब उज्ज्ववल दीख रहा है–इसका जीवन दीर्घायु लग रहा है–अत: अच्छे–अच्छे समीक्षक भी अब लघुकथा की ओर आने लगे हैं।
प्रश्न : लघुकथा –समीक्षा के क्या निकष हो सकते हैं?
उत्तर : हमारे हिन्दी साहित्य में करीब 60–70 वर्षों से कहानी लिखी जा रही है–लेकिन अभी तक उसका समीक्षा–सिद्धांत नहीं बना है–क्या कारण है? मात्र यही कि समीक्षा समीक्षकों की अपनी पैठ, परख, अनुभव, गहराई से अध्ययन आदि पर निर्भर करती है। उसक ही कहानी या लघुकथा पर दो समीक्षकों की समीक्षा सर्वथा भिन्न हो सकती हैं। किसी भी विधा का समीक्षा–निबन्ध या सिद्धान्त तय कर देना–एक तरह से विधा की मौत करना है।
प्रश्न : लघुकथा का समीक्षा–पक्ष पुष्ट नहीं हो पा रहा है, कारण…..?
उत्तर : अब तक लघुकथा के जीवन समीक्षक हुए हैं–करीब–करीब सभी लघुकथा लेखन से जुड़े रहे हैं। हर लघुकथा –लेखक (समीक्षक भी) का रचना लिखने का ढंग, शैली या मानसिकता की कसौटी पर कसना शुरू करता है–नतीजा उसकी अपनी कसौटी पर मनोनुकूल हुई तो ठीक अन्यथा खारिज कर दी गई। दूसरी बात जो अब देखी जा रही है–कुछ मठाधीश अपनी एक लॉबी के साथ उभरकर सामने आने लगे हैं। वे केवल अपनी लॉबी के लेखकों को ही सर्वश्रेष्ठ रचनाकार या सर्वश्रेष्ठ रचना की घोषणा करते हैं–अन्य लॉबी के रचनाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं को भी घटिया करार कर देते हैं।
जब तक समीक्षक ईमानदार नहीं होंगे–अप- टु- डेट रचना विधा की जानकारी नहीं होगी–लघुकथा का समीक्षा–पक्ष पुष्ट नहीं होगा।
प्रश्न : इसके समीक्षा–पक्ष को पुष्ट करने में लघुकथा लेखकों की क्या भूमिका हो सकती है?
उत्तर : आज के लघुकथा समीक्षक भी कल के बड़े समीक्षक हो सकते हैं और निश्चित ही होंगे भी। मेरे विचार से जिन लघुकथा की रचनाओं से इस विधा में काफी योगदान हो चुका है–वे लघुकथा लिखना छोड़, समीक्षा की दिशा में अग्रसर हों। दल,खेमा, गुट और लॉबी से ऊपर उठकर ईमानदारीसे एक शुद्ध–प्रबुद्ध समीक्षक,बन, समीक्षा करें–साहित्य उनका जयगान करेगा– ताकि रचना स्वयं कालजयी बन कर समीक्षक के माथे चढ़ बोल सके– देखो मैं बगैर तुम्हारे भी अमरत्व पर गई हूँ।
प्रश्न : लघुकथा के बेहतर भविष्य के लिए कोई योजना?
उत्तर : आपका पहला प्रयास ‘लघुकथा –समीक्षा’ के बाद इस ढंग की अन्य
योजना जिसे अपन कार्यरूप देने जा रहे हैं–काफी प्रभावी एवं लघुकथा के बेहतर भविष्य के लिए काफी सुखद दीख रहा है। जरूरत है–इसी तरह की और योजनाओं को कार्यरूप देने की। अच्छी–अच्छी रचनाओं से युक्त संग्रह–संकलन निकालने की। देश के हर भाग में विचार गोष्ठी, सम्मेलन तथा लघुकथा –उत्सवों जैसे आयोजनों की।
प्रश्न : क्या लघुकथा का भविष्य उज्ज्ववल है?
उत्तर : लघुकथा द्वारा तय की गई अब तक की सफल यात्रा को देखकर देश भर से निकलने वाली पत्र–पत्रिकाओं में लघुकथा का स्थान पाकर, स्कूल–कॉलेजों के पाठ्यक्रम में शामिल होकर, शोधार्थियों द्वारा शोध कर डिग्रियाँ हासिल कर चुकने के बाद अब लघुकथा के उज्वल भविष्य के बारे में सोचना ‘कस्तूरी का मिरग ज्यों फिर–फिर सूघे घास’ चरितार्थ होगी।
प्रश्न : वर्तमान में लिख रहे लघुकथा लेखकों के लिए कोई सुझाव या संदेश..?
उत्तर : लेखन के लिए अध्ययन जरूरी है, जन–जीवन से जुड़ना जरूरी है और सबसे ज्यादा जरूरी है–लिखने से पूर्व उसके बारे में लघुकथा के हर दृष्टिकोण से सोचना, उसके उदे्श्य की सार्थकता की दृष्टि से परिश्रम एवं एक विहंगम चिन्तन की।
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