पिछले कुछ वर्षों में साहित्यिक विधाओं में लघुकथा का प्रचलन बड़े जोर–शोर से हुआ है। प्रमुख कहानी–पत्रिका ‘सारिका’ द्वारा लघुकथाओं के दो विशेषांक प्रकाशित करने के बाद लेखक का ध्यान इस विधा की ओर भी आकर्षित हुआ। ‘सारिका’ जैसी संम्भ्रान्त पत्रिका द्वारा लघुकथा विशेषांक निकालना मानो लघुकथा की विधा पर मान्यता की मोहर लगाने जैसा हो गया।
लघुकथा हिन्दी अथवा विश्व–साहित्य के लिए नई विधा नहीं है। बल्कि यह कल्पना की जा सकती है कि संस्कृति तथा साहित्य के आदिकाल में जिस प्रकार कविता बहुत छोटे गीत के रूप में होती थी उसी प्रकार उस समय कहानी भी लघुकथा के रूप में रही होगी। समुन्नत साहित्य वाली सभी प्राचान भाषाओं में भावकथाएं तथा बोधकथाएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इन कथाओं का स्वरूप लघुकथा जैसा ही है। शेखसादी की बोस्तान में प्राचीन बौद्ध धर्म–ग्रन्थों में, बाइबल में तथा लगभग सभी धमोंर् के पुराण ग्रन्था में इस प्रकार की कथाएं मिलती हैं। अर्वाचीन विश्व साहित्य में खलील जिब्रान ने अपनी लघुकथाएँ लिखी हैं। अमेरिकी लेखक जेम्स थर्बर भी अपनी लघुकथाओं के लिए विश्वविख्यात हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस अपने उपदेश के समय ऐसी ही छोटी–छोटी कथाएँ सुनाया करते थे जो उनके शिष्यों ने संकलित की हैं।
वस्तुत: लघुकथा मूलत: शिक्षा तथा उपदेश से जुड़ी हुई थी। इसीलिए इसका सबसे अधिक प्रयोग बोधकथाओं आदि में हुआ है। लघुकथा मौखिक परम्परा द्वारा तथा लोककथा के रूप में खूब प्रचलित रही है।
पिछले दशक में हिंदी साहित्य में लघुकथा का व्यापक स्तर पर पुनरुद्धार हुआ है। यों किसी सीमा तक लघुकथाएँ रिक्त स्थान के पूरक के रूप में भी पत्रिकाओं में स्थान पाती ही थी। किन्तु इतने बड़े पैमाने पर नहीं। लघुकथा के इस नवोन्मेष का मुख्य कारण तलाश करने पर मैं पाता हूँ कि यह लघु अथवा मिनी पत्रिकाओं की विवशता का स्वाभाविकपरिणाम था। लघु पत्रिकाओं में स्थान का अभाव होता ही है। दूसरी ओर संपादक पत्रिका में अधिक लेखकों को स्थान देना तथा विविधता की दृष्टि से अधिक रचनाएँ छापना आवश्यक समझता है। इस स्थिति में सामान्य आकार की कहानी छापना कठिन हो गया था। कुछ लघु पत्रिकाएँ तो अंतर्देशीय पत्र अथवा पोस्टकार्ड तक पर निकाली गई।। प्रकट है कि इनमें सामान्य आकार की कहानी समा ही नहीं सकती। अत: लेखक रचनाओं का आकार छोकटा करते–करते लघुकथा तथा मिनी कथा तक आ पहुँचे । निश्चय ही संपादकों की प्रेरणा का इसमें बहुत बड़ा हाथ है।
किंतु अपने छोटे आकार के कारण लघुकथा लिखने में जितनी सरल प्रतीत होती है उतनी वस्तुत: है नहीं। लघुकथा की कुछ तो अपनी स्वाभविक सीमाएँ हैं तथा कुछ अनुभवहीन लेखक के हाथों में पड़ जाने का अधिक खतरा। लघुकथा एक छोर पर चुटकुले के बहुत निकट आ जाती है। किन्तु प्रकृति में यह चुटकुले से सर्वथा भिन्न है। चुटककुला केवल क्षणिक हास्य उत्पन्न करके रह जाता है। उसमें कभी–कभी व्यंग्य भी होसकता है। पर प्राय: केवल हास्य रहता है। किन्तु लकथा अधिक गंभीर और अर्थवान विधा है। केवल हास्य से तो लघुकथा बन ही नहीं सकती। व्यंग्य हो, तो उसका आकार चुटकुलों से कुछ बड़ा होता है। किंतु कई बार व्यंग्यपूर्ण चुटकुले तथा लघुकथा के बीच की सीमा अवश्य धुंधली पड़ सकती है।
अत: लघुकथा लिखते समय यह खतरा सदा रहता है कि वह चुटकुला बनकर न रह जाए। कलेवर की सीमा के कारण चरित्र, वातावरण का निर्माण अथवा किसी स्थिति के माध्यम से पात्रों की संवेदनाओं को व्यक्त करना–ऐसे लक्ष्यों की पूर्ति लघुकथा द्वारा नहीं हो सकती। इस विधा की यही सबसे बड़ी कमी है। यह केवल भावकथा,बोधकथा आदि के रूप में अथवा एक रूपक रचकर केवल शिक्षा तथा उपदेश का माध्यम अधिक बन सकती है। इसीलिए अधिकांश कथाकारों ने इस विधा को प्राय: नहीं अपनाया है। बल्कि कुछ लेखकों का मत हैं कि वे लम्बी कहानी में ही अपनी बात को सही ढंग से कह पाना संभव पाते हैं। सामान्य आकार से भी लम्बी कहानी को वे कहानी को वे कहानी की संवेदना के लिए अधिक उपयुक्त माध्यम समझते हैं। हिंदी के प्रमुख कथाकारों में लघुकथाएँ प्राय: किसी ने नहीं लिखी।शायद केवल परसाई इसका अपवाद हैं। किंतु वे व्यंग्यकार हैं ही, और लघुकथा व्यंग्य के लिए उपयुक्त माध्यम बनने के योग्य है। या फिर कुछ लेखकों ने विदेशी लघुकथाओं के अनुवाद किए हैं अथवा सामान्य कलेवर वाली कहानियों का संक्षेप प्रस्तुत किया है।
हिंदी की व्यावसायिक पत्रिकाएँ लघुकथा बहुत छापती रही हैं। सारिका में अवश्य एक या आधे कालम तक की लघुकथाएँ छपती हैं। इसके पीछे संपादक के अनेक लक्ष्य हो सकते हैं। एकशायद यह भी कि कहानी पत्रिका में सतही पाठक के लिए कुछ रोचक सामग्री दी जाए जो और पत्रिकाओं में चुटकुलों अथवा कॉर्टूनों के रूप में रहती है। नवनीत में बोध कथाओं के रूप में लघुकथाएँ अधिक छपती रही हैं। पर इधर मिनी पत्रिकाओं में तो इनकी भरमार है।
हिंदी के लघुकथा लेखकों में कोई भी अपना विशिष्ट स्थान नहीं बना सका है। वैसे लघुकथा लेखकों की संख्या शायद 100 से कम न होगी। पर क्योंकि उनकी रचनाएँ कोई गहरा प्रभाव नहीं छोड़ती,अत: सबके नाम याद नहीं रह पाते। जिनसे सम्पर्क और परिचय है उन्हीं के नाम ध्यान आ रहे हैं। यहाँ केवल उन्हीं का उल्लेख न्यायपूर्ण न होगा।
मेरा मत है कि अच्छी लघुकथा लिखना अच्छी सामान्य कथा लिखने से भी अधिक कठिन है। सामान्य कथा को उस पर श्रम करके बहुत सीमा तक सुधारा–संवारा जा सकता है। किन्तु लघुकथा के साथ यह संभव नहीं है। उसके लिए एक विशेष प्रभावोत्पादक प्रसंग का होना आवश्यक है। यदि ऐसा प्रसंग आपको नहीं मिल रहा, या वह एक अच्छी लघुकथा बनने योग्य पर्याप्त प्रभाव नहीं रखता, तो फिर आप श्रम करके भी उसे संवार नहीं सकते। लघुकथा लिखने के लिए एक अलग ही प्रकार की प्रतिभा अपेक्षित है। जैसे संत–सूफी और सयाने लोग अपनी बात कहने के लिए तुरन्तज कोई कथा गढ़ लेने की क्षमता रखते थे वैसी ही क्षमता यहाँ लघुकथा के लेखक को चाहिए। इसीलिए वर्तमान हिंदी लघुकथा एक विधा के रूप में विशेष प्रभाव नहीं रखती।
लघुकथा के साथ एक समस्या और भी है। सामान्य कहानी बहुत सशक्त या साधारण स्तर की या कमजोर कहानी हो सकती है। पर लघुकथा यदि अच्छी लघुकथा नहीं है तो फिर वह लघुकथा रह ही नहीं सकती।
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