आज वर्ष 2014 के पड़ाव पर बैठकर जब हम 1970 से अभी तक के लेखन की पड़ताल करते हैं तो एक लम्बी फिल्म की तरह सारा इतिहास निगाहों के सामने से गुजरता है। लघुकथा के शैशव काल में लघुकथा के सामने बहुत सारी बाधाएँ और चुनौतियाँ थीं। लघुकथा ने अपनी असीम सृजन क्षमताओं से इनसे पार पाया है और प्रौढ़ता की इस उम्र में लोकप्रियता का एक विशाल झण्डा हाथ में थामकर खड़ी है।
ढेर सारी लघुकथाओं का एवं कई सारे लघुकथाकारों का एक एक विशाल संसार हमारे सामने खड़ा है और इस अवसर पर यदि कोई कार्य लघुकथाकारों की लेखकीय चिन्ताओं और उनके सृजन पक्ष के विविध आयामों पर खोजपूर्ण तरीके से सूक्ष्म चर्चा के रूप में,समालोचना के रूप में किया जाता है तो वह इस कालखण्ड के महवपूर्ण कार्य के रूप में ही रेखांकित होगा।
सुरेश शर्मा तीन दशकों से अधिक समय से लघुकथा के सृजन कार्य से जुड़े हुए हैं। लघुकथा की जमीन जिन लोगों ने तैयार की है उनमें उनका भी योगदान है। अत: जब ऐसा कोई शोधकार्य किया जा रहा है तो उसमें उनका शामिल होना भी नितान्त जरूरी लगता है।
सुरेश शर्मा की जो लघुकथाएँ मेरे सामने टिप्पणी के लिए आई हैं उनमें उनका कथाकार का अनुभव घटनाओं को लघुकथा का स्वरूप देकर सामने लाने में किसी सिद्धहस्त के रूप में उन्हें प्रस्तुत करता है। लघुकथा के लघुस्वरूप में किसी जीवन–अनुभव को कलात्मक विन्यास के साथ प्रस्तुत करना एक अनुभव के बाद ही विकसित हो पाता है। सुरेश शर्मा ने अपनी लघुकथाओं को इस कौशल के साथ रचा है। ‘राजा नंगा है’ शीशर्षक लघुकथा में उन्होंने राजा की बेचारगी एवं संवेदना को एक अनूठे शिल्प के साथ प्रस्तुत किया है। आज जब राजनीति में से त्याग,समर्पण,सवर्जन हित जैसे भाव समाप्त हो चुके हैं ऐसे वक्त में ऐसी रचना राजनीति को आईना दिखाती है। और चिन्तन के लिए विवश करती है। जब बुढ़िया बोलती है कि, ‘‘हम बूढ़े–बच्चे तो बिना कपड़ों के रह लेंगे। आदत–सी पड़ गई है। मगर गाँव की जवान बहू–बेटियों को कपड़े पहने रहने देना मालिक! इतनी ही विनती है सरकार, उन्हें नंगा मत करना।’’ तो द्रवित राजा दु:खी स्वर में बोलता है–‘‘मैं किसी को क्या नंगा करूँगा माँ , मैं खुद ही नंगा हो गया हूँ।’’ यहाँ यह लघुकथा आज के भ्रष्ट नौकर–तन्त्र और उनकी राजनीतिक साँठ–गाँठ पर बड़ा तीखा प्रहार करती है।
गरीबी का अपना दु:ख होता है और ऐसे दु:ख में ही सब अपने–अपने सुख भी खोज लेते हैं। ‘उसका दुख’ के सलीम भाई भी एक ऐसे ही पात्र हैं। इस लघुकथा का वस्तु-विन्यास अलग तरह का है। ‘‘जिन चीजों के नाम लेने से ही मजा आ जाता हो उन्हें खाना जरूरी है क्या!’’ इसके ठहाके में एक गरीब का पूरा दर्द पाठक के सामने आ जाता है। लघुकथा की ताकत भी यही है। सुरेश जी की ऐसी लघुकथाओं में समाज की असमानता पर एक तीखा व्यंग्य है। वे व्यंग्यकार नहीं हैं फिर भी उनके लेखन में व्यंग्य की अन्तर्धारा मौजूद है।
‘महँगाई’ लघुकथा में आदमी का दोहरा चरित्र हैं एक ओर घर में कटौती दूसरी ओर बीयर–बार में रुपये उड़ाना। यह समाज का सच भी है। शराब ने कई घरों को ऐसे ही बर्बाद किया है।
भारत से क्या समूचे विश्व से भ्रष्टाचार के कोढ़ का समाप्त होना बड़ा कठिन है। जब तक व्यक्ति अपने स्तर पर इसके लिए प्रयासरत नहीं होता तब तक समाज में परिवर्तन और फिर देश में बदलाव मुमकिन नहीं। ईमानदार को ‘झक्की आदमी’ ही माना जाता है। कानून के रखवाले कानून को खा रहे हैं, न्याय न्याय को और राजनीति देश को। लघुकथाकार फिर भी आशावान है।
दोहरे चरित्र की एक और लघुकथा ‘अनचाहे लोग’ है जिसमें डाकुओं के डर से गहने उतार देना और भिखारी को पड़ा देखकर सबके तेवर ही बदल जाना–चरित्रों के ऐसे बदलाव को यिद कोई लघुकथाकार अपनी लघुकथा में दर्शाता है तो वह समाज से बदलाव की अपेक्षा रखता है।
सरकारी योजनाओं के खोखलेपन पर चोट करनेवाली ‘स्वाभिमान’ है। आज की राजनीति ने सरकारी ऋण योजनाओं के माध्यम से ऋण देना और फिर माफ करने का जो विकृत रूप अपना रखा है उससे समाज में निठल्लों की फौज बढ़ रही है। काम करने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। तकरीबन 80:/ एन.जी.ओ. भी भ्रष्टाचार के अखाड़े हैं। ऐसे वातावरण में एक फौजी के स्वाभिमान का जिक्र करना सुरेशजी के सकारात्मक लेखन की ओर इंगित करता है।
लघुकथा में यह जरूरी नहीं होता है कि सभी तरह के विषयों का निर्वाह लेखक पूरी सहजता के साथ कर ले। ‘काँटा’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें विषय का निर्वहन मुझे उतना स्वीकार्य नहीं लगा। जो भाई छोटे भाई के लिए पिता का फर्ज निभाए और वह छोटा भाई जहाँ एक ओर यह कहता है कि, ‘‘मेरे शरीर की चमड़ी भी आपके काम आ जाए, तो अपने आपको धन्य समझूँगा।’’ वही भाई एक गोदरेज अलमारी की माँग कैसे कर लेता है। यह विरोधाभास स्वीकार्य नहीं लगता। फिर भी पारिवारिक कलहों के ऐसे रूप सर्वज्ञात और सर्वमान्य हैं और उन्हें उतने तक ही उठाना ठीक है।
गरीब की कोई जमा–पूँजी नहीं होती। उसकी चादर ऐसी होती है कि सिर ढकता है तो पैर उघड़ जाते हैं और पैर पर चादर लेता है तो सिर नंगा हो जाता है। छोटी चादर और फटे कपड़ोंवाला गरीब जब अपनी गरीबी के साथ जीता है तो परिवार के बच्चे बचपन में ही बड़े हो जाते हैं। परिवार की परेशानी अपने सिर पर लेने का सपनाउनका बन जाता है। आज चाहे कितने ही सरकारी कानून बाल मजदूरी को अपराध बनानेवाले बन जाएँ पर यह एक अभिशाप है। कई परिवारों में पूरा परिवार मजदूरी करता है, बच्चों सहित। तब जाकर उनका दो वक्त का चूल्हा जल पाता है। ऐसे सामाजिक प्रश्नों को अपनी लघुकथा के माध्यम से उठाने का कार्य सुरेश शर्माजी ने किया है। ‘टपकती छत’ इसकी बानगी है।
‘मायाजाल’ अमूर्त शिल्प में रची गई लघुकथा है। कपड़े,रुपये कम्बल और शराब कब मतदाता का एक हाथ काट कर ले जाते हैं इसका पता भी नहीं चल पाता। इतने सारे चुनाव सुधार कानूनों के लागू होने के बावजूद और सुरक्षा की कड़ी व्यवस्थाओं के बावजूद बोगस वोट अब भी डालते हैं। बाहुबली नेता अब भी वोटरों को खरीद लेते हैं। कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ मतदाता अभी भी भय से या पैसे से बिकता है। इस चुभते हुए विषय पर लेखक की यह लघुकथा प्रभावित करती है।
बुढ़ापा बहुत दर्द भरा होता है। सेवानिवृत्ति के बाद आदमी परिवार में ‘लकवाग्रस्त’–सा हो जाता है। हमारे समाज में संयुक्त परिवार विघटित होते जा रहे हैं। आज की नई पीढ़ी स्व–केन्द्रित होती जा रही है। समाज में जितनी स्वतन्त्रता आई है और देश में जो वैश्वीकरण आया है ,उसकी एक भयावह तस्वीर यह भी है कि परिवार के वृद्धजन उपेक्षित होते जा रहे हैं। परिवार में उनका सम्मान समाप्त होता जा रहा है। यह सामाजिक अवमूल्यन सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। सुरेशजी ने अपनी इस लघुकथा में यह विषय सू़क्ष्म विवेचना के साथ उठाया है। लेकिन इसका पहलू यह भी है कि परिवार में जो पिता होता है, जो ‘दादा’ या ‘नाना’ बन जाता है वह अपनी सृष्टि, अपने पोते या दोहते के मुँह से निकले इन दो शब्दों से ही बदल लेता है। ‘दादा’ सम्बोधन के लिए वह सारा दु:ख उठा लेता है। नेह के इसी भाव को शर्माजी ने ‘उसके बिना’ लघुकथा में रचा है।
सुरेश शर्माजी की ये लघुकथाएँ उनके लेखन का एक छोटा–सा हिस्सा हैं। उनकी लघुकथाओं का संग्रह ‘अन्धे–बहरे लोग’ प्रकाशित हो चुका है और लघुकथा के कई पुरस्कारों से वे सम्मानित भी हैं। वे कहानियाँ भी लिखते हैं एवं उनका सृजन–संसार बड़ा व्यापक है। उन्हें अपने आसपास की घटनाएँ प्रभावित करती हैं और उन्हीं पर वे लिखते भी हैं। लिखने के लिए उनके पास एक संवेदनशील हृदय है। छोटी–छोटी टनाएँ उन्हें विचलित करती हैं और लिखने के लिए प्रेरित करती हैं। वे अपने आसपास से कोई घटना, कोई विचार को उठाते हैं और उसे सजगता के साथ तराशते हैं। शिल्प का उपयोग करते हैं, एक आकार देते हैं। किसी कुम्हार की तरह वे अपनी लघुकथा को गढ़ते हैं। उसकी मिट्टी को महीन करते हैं। सारे कंकड़ निकाल फेंकते हैं। वे लघुकथा को चिन्तन के अलाव में पकने का पूरा मौका देते हैं। उनके सरोकार पूर्ण हैं ।
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लघुकथाओं के सजग शिल्पकार : सुरेश शर्मा
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